भक्ति का समीकरण कहता है कि हमारे कर्म में से हमारा ज्ञान को घटा देने से जो शेष रहता है, वही भक्ति है। कर्म का संबंध कर्मेन्द्रियों से है तथा ज्ञान का संबंध ज्ञानेन्द्रियों से है, जबकि भक्ति का संबंध भावलोक से है। तीन अलग-अलग तल में स्थित बिन्दुओं के साथ मिलना मुश्किल कार्य है, लेकिन नामुमकिन नहीं है। इसलिए तो यह समीकरण बना है। कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ एवं भाव लोक तीनों में मन नामक बिन्दु उभयनिष्ठ है। यहीं से सर्वसमिका का समाधान खोजते है। मन में उत्तरदायित्व, बुद्धि एवं संवेग तीन बिन्दुओं का निवास है। उत्तरदायित्व नामक बिन्दु मनुष्य से हर पल कर्म कराता है। यह कभी कर्तव्य तो, कभी स्वभाव बनकर मनुष्य को किसी भी पल कर्म से दूर नहीं रहने देते हैं। अतः कर्म के बिना वस्तु व भाव जगत में किसी की कल्पना नहीं कर सकते हैं। दूसरी ओर बुद्धि मनुष्य को अन्य से अलग करने के ज्ञान-विज्ञान की ओर ले चलती है तथा कहती है कि ज्ञान-विज्ञान के बल पर मनुष्य, मनुष्य के रूप में पेश हुआ है। गाय नहीं जानती कि मेरा नाम गाय है, पेड़ भी नहीं जानता कि वह पेड़ है। वस्तु जगत में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो यह सब जानता है। इसलिए साधारण बुद्धि कहती है कि ज्ञान ही सबसे बड़ा है। तीसरी ओर हमारे संवेग (emotion) कहते हैं कि यदि हम नहीं हो तो जीवन नीरस है। इसलिए मैने ही प्रेम, करुणा एवं भक्ति का सर्जन किया है। जिसके बल पर ही मानव - मनुष्य, प्राणी जगत एवं वस्तु जगत से जुड़ा हुआ है। अन्यथा तो सबकुछ तितर बितर हो जाता। इसलिए भक्ति की जरूरत है। तीनों ही बिन्दुओं के दावें देखने के बाद ही प्रतिभूति का निर्णय कर सकते हैं।
प्रथम दावा कर्म का है जो कहता है कि ज्ञान तथा भक्ति को मिलाकर मनुष्य का जो सम्पूर्ण हिस्सा है, मै वही कर्म हूँ। अतः जगत में सबसे अधिक द्रव्यमान, क्षेत्रफल एवं आयतन मेरा है। इसके इस दावें को रोकते हुए ज्ञान व भक्ति कहते हैं कि हमारे अभाव में तुम एक कदम भी नहीं चल सकते हो। इसलिए ज्यादा उछलकूद मत करो। यर्थाथ में कर्म की ताकत शरीर के अंदर के संवेग तथा बुद्धि के अंश विवेक पर निर्भर करता है। अब कर्म के समक्ष ज्ञान एवं भक्ति अपने अपने दावें को मजबूत सिद्ध करने के लिए लग जाते हैं।
ज्ञान का दावा है कि कर्म में से भक्ति को निकाल देने से जो शेष रहता है, वह मैं हूँ। मेरे कारण ही तो सबकुछ हो रहा है। मेरे अभाव में शायद प्राणी जगत एवं वस्तु जगत तो रह सकता है लेकिन मनुष्य कभी भी नहीं रह सकता है। उसने कहा कि भक्ति, शक्ति एवं भावनाएं मेरे बिना अंधी है। मैं ही इनको सु एवं कु पात्र बनाता हूँ। अतः मेरा दावा सबसे भारी है। इसके समक्ष कर्म आता है तथा कहता है कि बिना क्रिया ज्ञान भार तुल्य है। अतः तुम किसी भी स्थिति में मेरे से भारी नहीं हो। कर्म के तर्क को काटते हुए भक्ति कहती है कि मैं अगर जीव से निकल जाऊँ तो जीव एवं अजीव में अन्तर कुछ भी नहीं रहता है। अतः मेरे बल पर ही ज्ञान एवं कर्म निष्पन्न होते हैं।
ज्ञान एवं कर्म के दावें के बाद भक्ति अपने दावें पर आती है। कर्म का जन्म सृष्टि के सृष्ट होने के साथ हुआ है, ज्ञान का जन्म भूमामन के सर्जन के साथ हुआ है, जबकि भक्ति तो शिव की शक्ति के साथ अजन्मा रुप में पेश हुई है। जब भूमामन एवं पंचभूत नहीं थे तब भी शक्ति शिव को रिझा रही थी। यही तो भक्ति है। भक्ति ने अपना सबसे सशक्त दावा पेश किया जिसका तोड़ न तो ज्ञान के पास था न ही कर्म के पास। अतः भक्ति की सर्वोच्चता स्वीकार करने के सिवाय ज्ञान एवं कर्म के समक्ष कुछ भी नहीं था। यद्यपि ज्ञान विहिन कर्म का अंश भक्ति कहा गया है। लेकिन कर्म को जो प्राण देती है, वह शक्ति ही भक्ति है। इसलिए भक्ति कर्म से कभी भी छोटी नहीं है। दूसरी ओर बिना ज्ञान के भक्ति अंधी है। फिर भी ज्ञान की प्राणिन तत्व कर्म है तथा कर्म का प्राणिन तत्व भक्ति है। भक्ति के प्राण भगवन है। इसलिए भक्ति के बिना सबकुछ असिद्ध है। अतः भक्ति = भक्ति - भक्ति समीकरण ही भक्ति= कर्म-ज्ञान बनकर सिद्ध होता है। भक्ति का क्रियात्मक अंश कर्म तथा ज्ञानात्मक अंश ज्ञान है। अतः भक्ति को समझने के लिए क्रियात्मक को ज्ञानात्मक अंश से प्रबल रखना होता है। यह मात्र भक्ति को जानने एवं समझने के लिए है। वस्तुतः भक्ति एक स्वतंत्र सत्ता है। जो भक्त होने का दावा करते हैं, उन्हें अपने ज्ञानात्मक अंश से क्रियात्मक अंश को ज्यादा महत्व देना होगा। सैद्धांतिक पक्ष से व्यवहारिक पक्ष में भक्ति अधिक दिखती है। इसलिए नीति शास्त्र कहता है कि श्रेष्ठता ज्ञान से नहीं कर्म से सिद्ध होती है। इसलिए आनन्द मार्ग का आदर्श कहता है कि इरोज कितना भारी है यह मधु का व्रत लेकर बैठने में नहीं; शिक्षा, राहत एवं त्राण केन्द्रों की सक्रियता में दिखता है। VSS कितना बलशाली है; यह नभ के अतीत में विचरण करने में नहीं, वस्तु जगत में आध्यात्मिक साहसी एवं स्पोर्ट्स क्लब तथा वाहिनी की ताकत पर पर निर्भर करता है। ठीक इसी प्रकार, प्रउत का कार्य सत्य के आश्रय कोे ढ़ाल बनाने में ही नहीं; सत्य को व्रत मानकर प्रतिफलित करने पर निर्भर करता है। सेवा धर्म मिशन की सफलता भी नंद के आंगन में छिपाने से नहीं आनन्द की भावधारा के बहाव में दिखाई देता है।
आओ भक्ति की धारा बहाने के वाहक बनते हैं तथा कर्म को प्रधानता देते हैं। भक्ति में कर्म प्रधान तत्व तथा ज्ञान गौण तत्व है। यही आलोच्य समीकरण का मूल भावार्थ है। कबीर दास जी की दो पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करता हूं;
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✒️ आनन्द किरण 📖
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