ध्येय के साथ एकाकार होने की प्रक्रिया को ध्यान कहा जाता है। धर्मसूत्र में ध्यान को, आध्यात्मिक अभ्यास में, मध्यम स्थान पर रखा है। ध्यान की पवित्रता एवं महानता इस बात पर निर्भर करती है कि ध्येय कितना पवित्र एवं महान है। इसलिए दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि ध्यान सदैव पवित्र अथवा महान ही होगा। ध्यान में ध्यानी अपने आप को ध्येय में स्थापित कर देता है फिर ध्येय ध्यानी का संचालन करता है। यही तो ध्यान की सफलता है।
ध्यान करने के लिए ध्यानी को प्रथमतः ध्येय का निर्धारण करना होता है। जब ध्यानी ध्येय का सही निर्धारण कर लेता है तो ध्यानी का भविष्य उज्जवल है। लेकिन यदि ध्येय का निर्धारण त्रुटि पूर्ण है तो ध्यानी का भविष्य अंधकार में है। इसलिए तो ध्यान को धर्म सूत्र में मध्यम साधना बताई गई है। अब हम ध्येय के संदर्भ में विचार करते हैं।
जब तक साधक का ध्येय एवं लक्ष्य एक है तब तक ध्यान में सेंधमारी नहीं होती है। जब साधक के ध्येय एवं लक्ष्य में असमानता अथवा विभिन्नता दिखाई देने लगती है तब अवश्य ध्यान रास्ता भटक जाता है। अतः ध्यानी के लिए ध्येय एवं लक्ष्य को समझना आवश्यक है।
आध्यात्मिक जगत में प्रायः सभी को लक्ष्य परमपिता ही बताया अथवा दिया जाता है लेकिन ध्येय अपने हिसाब से दिया जाता है। इसलिए तो संसार में विभिन्न पंथ विद्यमान है। कोई लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ध्येय मूर्तिपूजा को मानता है, कोई माला को तो कोई यज्ञ अथवा हवन को। किसी को ध्येय जप स्तुति मिली है तो किसी को कोई खंड सत्ता।
आध्यात्मिकता के विराट सागर में से एक लोटा भरकर उसको ही सागर नहीं दिखाया जा सकता है। सागर दिखाने के लिए बिन्दु में सिंधु देखना होता है। लोटा से भरा पानी तब सागर हो सकता है जब उसमें महासागर देखा जाए। लोटा ही सागर बाकी सब गागर है कि धारणा के साथ ध्येय भटक जाता है। आओ ध्येय के मूल को समझते हैं।
मनुष्य का लक्ष्य परमपद प्राप्त करना है। शास्त्र में इसे परमशिव कहा गया है। इसलिए शिवत्व की प्राप्ति ही मनुष्य का लक्ष्य है। शिव ब्रह्म का का प्राण केन्द्र हैं। ब्रह्म शिव व शक्ति का मिलित नाम है। इसलिए प्राण केन्द्र के अलावा ब्रह्म का जो शेष प्रान्त है, उसे शक्ति कहा जाता है। मूलतः ब्रह्म शिव को ही कहा जाता है, क्योंकि शक्ति कोई पृथक सत्ता न होकर शिव का क्रियात्मक स्वरूप है। लक्ष्य की दार्शनिक अवधारणा के बाद ध्येय की ओर चलते हैं।
जब मनुष्य का लक्ष्य शिव हैं तथा ध्येय भी शिव हैं तब ध्येय को उसका मूल मिल गया, अन्यथा ध्येय अपने मूल से दूर है। संस्कृत शब्द ब्रह्म का अरबी फारसी प्रतिशब्द अल्लाह (الله) तथा लैटिन अंग्रेजी प्रतिशब्द God है। इसलिए ध्यान को कभी भी किसी भाषा विशेष के आधार पर साम्प्रदायिक न समझा जाए। पुनः शिव की ओर लौटते हैं। शिव मनुष्य का लक्ष्य एवं ध्येय है। इसलिए लक्ष्य के रूप में शिव को नित्यम्, शुद्धम्, निराभासम् , निराकारम् एवं निरंजनम् समझा तथा बताया जाता है। लेकिन ध्येय रुप उसे लिंगाकार, बिन्दुकार, मूर्तिकार इत्यादि रुप में दिखा दिया जाता है। यह ध्येय के साथ न्याय नहीं है। इसलिए ध्यान सूत्र कहता है कि मेरा लक्ष्य शिव हैं जो वस्तु जगत में नित्यम्, शुद्धम्, निराभासम् , निराकारम् एवं निरंजनम् के रूप में महसूस होता है। तब भी ध्येय के रूप में नित्य मुझे यह बोध होता है कि मेरे चित्त को आनन्द देने वाले गुरु ही ब्रह्म है, मैं उन्हें नमन करता हूँ। नित्य बोधम् चिदानंदम् गुरुर्ब्रह्म नमाम्यहम्। चूंकि नित्य यह बोध हो रहा है कि मैं जिस को लक्ष्य बनाकर चल रहा हूँ, वह परमशिव मेरे चित्त को आनन्द देने के लिए आनन्दमूर्ति गुरु ही मेरा ध्येय हैं। अतः ध्येय को थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए तो पाएंगे कि मनुष्य का लक्ष्य ब्रह्म हैं, तो तारक ब्रह्म मनुष्य का ध्येय हैं। वे जब भी गुरु बनकर आते हैं तो आनन्दमूर्ति के रूप में दिखाई देते हैं। अब ध्येय को थोड़ा कर्मधारा में समझते हैं।
मनुष्य की कर्मधारा अथवा चलन की दिशा उसे अनन्त सुख की ओर ले जा रही है। अनन्त सुख ही तो आनन्द है। इसलिए आनन्द व ब्रह्म इत्याहु बताया गया है। दोनों एक ही हैं तब मनुष्य का ध्येय आनन्द का प्राण बिन्दु आनन्दमूर्ति है। यहाँ ध्येय अपने मूल को प्राप्त हो गया है। इसलिए तो गुरु गीता में ध्यान के शोधकर्ताओं की परिषद प्रमाणित करके लिखती है कि ध्यान मूलम् गुरुमूर्ति। मनुष्य मात्र के गुरु आनन्दमूर्ति हैं। जागतिक दृष्टि से हम उन्हें किसी भी रुप में देखते हों लेकिन आत्मिक दृष्टि से गुरुमूर्ति आनन्दमूर्ति हैं। सभी जीवों के एक ही गुरु हैं और वह आनन्दमूर्ति हैं। कोई इनका प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा है कोई अप्रत्यक्ष। किसी का भी गुरु दुख अथवा अन्य नहीं है। आनन्दमूर्ति का ध्यान ही वास्तविक ध्यान है। यह ध्यान साधक के लिए कल्याणकारी है। इसलिए इस ध्यान को उत्तम ध्यान कहा जाता है।
0 Comments: