यद्यपि धर्मसूत्र जप को अधम श्रेणी में रखा गया है तथापि आध्यात्मिक जगत में 'जप' का मूल्य रेखांकित किया गया है। इसलिए आज का विषय 'जप बनाम अजपाजप' रखा गया है।
किसी शब्द, नाम अथवा मंत्र की एक विशेष विधि से बार-बार आवृत्ति करना जप कहलाता है। जप से मन एक विशेष भावधारा में बह जाता है। इसलिए मंत्र में वर्ण एवं भाव का समावेश होता है। वर्ण ध्वनि विज्ञान से लिया जाता है जबकि भाव आध्यात्मिक विज्ञान से लिया जाता है। वर्ण एवं भाव के मिश्रण से जिस विशेष अक्षर का सृजन होता है, उसे मंत्र कहते हैं। मंत्र साधक को क्षर से अक्षर जगत में ले जाता है। इसलिए मंत्र की शक्ति को सहजता से अनुभव किया जा सकता है। शास्त्र में लिखा है कि मंत्राधीन देवता: अर्थात मंत्र के अधीन प्राकृत शक्ति यानि देव शक्ति हैं। यहाँ याद रखना आवश्यक है कि देवता अर्थात प्रकृति मंत्र के अधीन हो सकती है लेकिन पुरुष अर्थात शिव कभी भी मंत्र के अधीन नहीं हैं बल्कि मंत्र शिव के अधीन है। आज हमारा विषय 'मंत्र विज्ञान' नहीं है इसलिए इसकी गहराई में नहीं जाएंगे। अतः हम पुनः जप विज्ञान की ओर लौटते हैं।
जैसा कि कहा गया कि किसी मंत्र की बार-बार आवृत्ति करना जप कहलाता है जिससे उस मंत्र में निहित सुप्त भावशक्ति सजीव हो जाती है। जो मन इस शक्ति को जागृत करता है वही इस शक्ति को धारण भी करता है। जिससे मंत्र की शक्ति उस कर्ता मन के अधीन हो जाती है। इसे बोलचाल की भाषा में अलौकिक शक्ति कहते हैं। इस प्रकार प्रथमतः साधक प्रकृति जयी हो जाता है लेकिन प्रकृति बंधन से मुक्त नहीं होता है। आज प्रकृति बंधन हमारा विषय नहीं है इसलिए हम इस ओर भी नहीं जाएंगे। जप के मूल में ज से अभिप्राय जागरण करना अथवा जागृत करना अथवा जीवित (सजीव) करना है तथा प से पूंज अथवा पूंजी अर्थात एक विशेष शक्ति। जब इसका जागरण होता है, तब इसका प्रभाव साधक पर दिखाई देता है। यद्यपि शक्ति का प्रभाव दिखाना, जप के मूल में नहीं है तथापि यह सब होता है।
नाम जप भी एक प्रकार का जप है। मंत्र में आध्यात्मिक शक्ति होती है जबकि नाम में मानसिक शक्ति होती है। नाम के मूल में पहचान देना होता है जबकि मंत्र के मूल में मन का त्राण करना है। अतः नाम जप के द्वारा जिस शक्ति का जागरण होता है, वह मनुष्य साधु, संत, त्यागी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, महात्मा, देवता एवं परमात्मा आदि के रूप में पहचान देता है। चूंकि मनुष्य की सबसे बड़ी पहचान (🆔) परमात्मा है इसलिए परमात्मा के नाम का जप करने की सलाह दी जाती है। यह भी हमारा विषय नहीं होने के कारण हम इस दिशा में भी नहीं जाएंगे।
अब हम जप बनाम अजपाजप की ओर चलते हैं। जप, जिसमें काल की गणना होती है, अतः गिनकर की जाने वाली आवृति जप है। जप सुविधानुसार तीन, पांच, अस्सी इत्यादि बार जप किया जाता है। आध्यात्मिक विज्ञान बताता है कि जप के गिनती की अधिकतम सीमा 80 है। उसके बाद जप को गिनती के चक्र से बाहर निकाल देना चाहिए। जब जप गिनती अथवा काल के चक्र से बाहर निकल जाता है तब वह अनन्त में प्रवेश करता है जिसे अजपाजप कहते हैं। यहाँ जप की संख्या याद नहीं रखी जाती है अथवा जप करना भी याद नहीं रखा जाता है। जप की भाव धारा में मन बह जाता है, उसे ही अजपाजप कहा जाता है।
जप के तीन प्रकार में से मानसिक जप श्रेष्ठ बताई गई है। जप क्रिया में मानस को मंत्र धारा में ले जाया जाता है जबकि अजपाजप क्रिया में मानस धारा मंत्र की ओर स्वत: ही चली जाती है। यह अवस्था कार्य कारण तत्व के बाहर है। बताते हैं कि एक सीमा के बाद अजपाजप में होने वाला मंत्र जप भी छूट जाता है तथा मन अनन्त प्रवाह में मिल जाता है। यहीं पर जप एवं अजपाजप के विज्ञान की परिसमाप्ति हो जाती है। इसलिए इसे निम्न अथवा प्रथम सीढ़ी बताया गया है। इससे ऊपर मध्यम अथवा द्वितीय सीढ़ी ध्यान को बताया गया है। इसकी चर्चा बाद में करेंगे। सबसे उत्तम अथवा ऊपरी सीढ़ी ब्रह्म सद्भाव को बताया गया है। इस पर भी बाद में चर्चा करेंगे। लेकिन मूर्तिपूजा को अधम से भी नीचे रखा गया है, इसलिए इसकी थोड़ी चर्चा आवश्यक है।
मूर्ति की पूजा करना, मूर्ति पूजा का शाब्दिक विन्यास है। इसमें एक क्रिया होती है जो संम्पूर्णत: भौतिक प्रक्रिया होती है। जबकि साधक को भौतिकता से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम भूत सिद्धि करनी होती है। इसलिए सद्गुरु साधक को मूर्तिपूजा की दिशा में जाने से मना करते हैं। चूंकि मूर्तिपूजा हमारा विषय नहीं है, इसलिए इसकी गहराई में नहीं जाएंगे। यह जप बनाम अजपाजप विषय को समझने के लिए आवश्यक था इसलिए चर्चा में लिया गया। जप करते समय किसी भी भौतिक वस्तु को ध्येय के रूप में नहीं चुना जाता है। इसलिए किसी भी भौतिक वस्तु को ध्यान में रखकर जप वर्जित है। इसमें सम्पूर्ण मानस आध्यात्मिक विषय वस्तु की आवश्यकता होती है। अतः मूर्ति पूजा, प्रकृति पूजा, प्रतिकृति पूजा तथा भौतिक त्राटक आदि को अनावश्यक बताया गया है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या उपरोक्त प्रतीक चिह्न को नहीं रखना चाहिए? इसका निषेध नहीं है लेकिन इसकी पूजा अवश्य निषेध बताई गई है। अतः मूर्ति, प्रकृति, प्रतिकृति अथवा अन्य से अत्यंत प्रेम रखने वाले यह रख सकते हैं लेकिन इसको ध्येय मानकर जप की व्यवस्था नहीं है। यदि कोई इन वस्तुओं को अपने पास रखता है तो क्या साफ सफाई व साज सज्जा नहीं करनी चाहिए? कोई भी भौतिक वस्तु को अपने पास रखते हो तो उसकी साफ सफाई तथा साज सज्जा अवश्य करनी चाहिए, यह तो सर्वात्मक सोच का अंग है। जब तक हम हमारी भौतिक वस्तु अथवा परिवेश सफाई नहीं करते हैं तब तक आध्यात्मिक यात्रा सुगम नहीं रहती है। इसलिए सर्वात्मक शौच व्यवस्था दी जाती है।
आओ जप बनाम अजपाजप विज्ञान के प्रति अपनी समझ को अधिक से अधिक दुरस्त करते हैं। जप करते समय जाने अनजाने में कोई बिन्दु ध्येय बन जाता है इसलिए साधना विज्ञान अनन्त को प्रारंभ में बिन्दु के रूप में ध्येय देता है। इससे साधक का नुकसान नहीं फायदा ही होता है। जप विज्ञान को गहराई से समझना नितांत आवश्यक है।
------------------------------
आनन्द किरण
------------------------------
0 Comments: