तंत्र, तंत्रपीठ एवं साधक (Tantra, Tantrapith and Sadhaka)


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[श्री] आनन्द किरण "देव"  के सत्यय दृष्टि
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आध्यात्मिक जगत में जीवभाव से शिवभाव में प्रतिष्ठित करने की विधा का नाम तंत्र दिया गया है। तंत्र का संबंध चक्र एवं मंत्र से होता है। मानव शरीर में भाव नियंत्रण करने वाली सूक्ष्म नाड़ियों के संगम बिन्दु पर विशेष ज्यामितीय आकृति का निर्माण होता है। इन्हें चक्र कहा जाता है। यह चक्र स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण रुप में मनुष्य के शरीर में विभिन्न स्थानों पर स्थिति रहकर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। शास्त्र आध्यात्मिक जगत की ज्यामितीय आकृतियों विधा को यंत्र नाम दिया गया है। अतः यंत्र एवं मंत्र से जिस क्रिया का नियमन एवं नियंत्रण होता है, वह विधा तंत्र है। आध्यात्मिक क्रियाओं की धनात्मक गति विद्या तथा ऋणात्मक गति अविद्या तंत्र कहलाता है। साधक तंत्र साधना के बल पर जीव भाव मुक्त होकर शिव भाव में प्रतिष्ठित होता है। तंत्र पूर्णतया व्यवहारिक पद्धति है, इसलिए तंत्र का अध्ययन कर्म योग में करते हैं। चूंकि तंत्र एक जानकारी भी देता है, इसलिए ज्ञान योग से भी तंत्र को पृथक नहीं किया जा सकता है। तंत्र की ज्ञानज एवं कर्मज शक्ति में रस भरने वाली शक्ति का नाम भक्ति है। अतः तंत्र भक्ति योग में देखा जाता है। मनुष्य के शरीर में तैतीस कोटि तंत्र पीठ उल्लेख मिलता है। लेकिन मुख्यतः सात प्रधान तंत्र पीठ है। प्रत्येक तंत्र पीठ के प्राण बिन्दु देव कहा जाता है। इसलिए इन्हें सिद्ध पीठ भी कहते हैं। पीठ शब्द का अर्थ बैठने का स्थान। मनुष्य के शरीर में पहली तंत्र पीठ मूलाधार चक्र के नाम से जानी जाती है। यहाँ सभी प्रकार की ठोस क्रियाओं का नियंत्रण होता है। मनुष्य हड्डी, मांस, नाड़ियाँ, अंग, कोशिका, उत्तक इत्यादि। जिनका स्थूल अस्तित्व है। वे ठोस मूलाधार चक्र से सीधे नियंत्रण होते हैं। यह गंध तंत्र के बल पर सम्पूर्ण शरीर को नियंत्रित कर आरोग्य की ओर ले चलता है।  

मनुष्य के शरीर में दूसरे तंत्र पीठ स्वाधिष्ठान चक्र है। जहाँ तरल पदार्थों का नियंत्रण होता है। इसमें जल, रक्त, हार्मोन्स एवं पराभौतिक ग्रंथि रस है।

 तृतीय तंत्र पीठ मणिपुर चक्र है, जो ऊर्जा का नियंत्रण करता है। वायु व गैस को नियंत्रण करने वाली तंत्र पीठ अनाहत चक्र के नाम से जानी जाती है। तथा अति सूक्ष्म भौतिक तंरगों को नियंत्रण करने वाली तंत्र पीठ विशुद्ध चक्र के नाम से जानी जाती है। 

मानसिक एवं भावनात्मक तंरग के नियंत्रण के लिए आज्ञा चक्र नामक तंत्र पीठ है। यहाँ मनो भौतिक तंरगों का भी नियंत्रण होता है। इसलिए यह पंचवटी भी कहलाती है। इसकी गहराई में एक उपतंत्र पीठ है। जिस ललना चक्र कहते हैं। जो प्राणक्रिया नियंत्रण करता है। इसलिए इसे उपतंत्र पीठ कहा गया है कि प्राण क्रिया सीधे आज्ञा चक्र से ही नियंत्रित होती है। आज्ञा चक्र इसकी मदद लेता है। जब प्राण क्रिया बहुत अधिक स्थूल होती है, तब अनाहत चक्र के माध्यम से नियंत्रित करता है। इसमें स्थूलता की कमी तथा सूक्ष्मता आधिक्य होने पर विशुद्ध द्वारा, सूक्ष्मता का प्रतिशत बढ़ने पर ललना तथा पूर्णतया सूक्ष्म होने पर सीधा आज्ञा चक्र ही नियंत्रित करता है। प्राण क्रिया का संबंध कारण जगत है, होने पर सहस्त्रार चक्र से नियंत्रण होता है। एक विशेष कोटि की तंत्र पीठ सहस्त्रराचक्र है। जो मानव शरीर से बाहर होती है लेकिन सबकुछ का नियंत्रण करती है। इसके मानव शरीर के अंदर वाले भाग को गुरु चक्र कहते हैं। यहाँ भावातित तंरगों का नियंत्रण होता है। विद्या तंत्र के साधक को आचार्य उपयुक्त स्थान पर मन केन्द्रित करना सिखाते हैं। यह तो था शरीर के अंदर तंत्र एवं तंत्र पीठ का विज्ञान। अब भौतिक जगत में तंत्र पीठ की ओर चलते हैं।

भौतिक जगत में आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रवाह यद्यपि सभी जगह समान है। इसलिए साधना करने के लिए इधर उधर भटकने की आवश्यकता नहीं है तथापि कुछ विशेष स्थान पर किसी विशेष साधक द्वारा विशेष ऊर्जा का संचार किया जाता है। जो दीर्घ समय तक विशेष ऊर्जा स्रोत होता है। साधक इन स्थानों पर साधना कर अपनी आध्यात्मिक शक्ति को पहचानने में सरलता महसूस करता है। याद रहे भौतिक जगत की तंत्र पीठ पर साधना में प्रगाढ़ प्राप्त साधकों को विशेष अनुभूति का अनुभव कराती है। साधना का साधारण अभ्यासी की भी साधना में सहायक हो सकती है। लेकिन भौतिक जगत की तंत्र पीठ को लेकर किसी प्रकार की भाव जड़ता को प्रश्रय नहीं देना है। भौतिक जगत के आनन्द नगर में मरने वाले को ही मोक्ष नहीं मिलेगा। मोक्ष देश, काल पात्र के बाहर की क्रिया है। इसलिए किसी प्रकार की भाव जड़ता को प्रश्रय देना उचित नहीं है। जब तक आंतरिक साधना शक्ति प्रबल नहीं है, बाहरी तंत्र पीठ के तलाश में इधर उधर घूमना समय को व्यर्थ करना है। जो व्यक्ति अपने साधना कक्ष अथवा घर की जागृति में साधना नहीं कर सकता है, उसके लिए तंत्र पीठ में साधना नहीं करा सकती है। जिसकी घर में अपनी तंत्र पीठ मजबूत है, उसके बाहरी तंत्र पीठ सहायक है।

अंत में बाहरी तंत्र पीठ साधना में सहायक है, साधना का लक्ष्य नहीं। साधना की सिद्धि आचार्य द्वारा बताये गए इष्ट चक्र एवं गुरु चक्र में है। तगड़े साधक एवं पक्के भक्त तंत्र पीठ की चाहत में नहीं रहते हैं। तंत्र पीठ खुद उनको अपने पास बुलाती है। यही नंदन विज्ञान का व्यवहारिक अनुभव बताता है। 

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