आज किसी मित्र ने फोन करके पूछा कि साधु का समाज के प्रति दायित्व होता है अथवा समाज का साधु के प्रति अथवा दोनों की दिशाएँ अलग-अलग है। हम दोनों की वार्ता को हम दोनों ने रिकॉर्ड नहीं किया। लेकिन उसके सार को शब्दों में पिरोने की चेष्टा करता हूँ।
साधु को समाज से विरक्त पुरुष बताया एवं माना जाता है। फिर भी किसी न किसी रूप से साधु समाज पर निर्भर रहता है। समाज ने साधु को अपने से भी अधिक सम्मान दिया है। साधु समाज को किस दृष्टि से देखता है इसमें व्यक्तिगत, मतगत एवं व्यवहारगत भिन्नता देखी गई है। फिर भी साधु का स्वरूप सामान्यतः एक जैसा ही होता है। इसलिए साधु को समाज से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। अतः हमें समाज एवं साधु विषय पर चर्चा करनी चाहिए।
(Why does society need a saint?)
साधु की अधिकांश अवधारणा बताती है कि आध्यात्मिक आकांक्षा की पूर्ति के लिए साधु सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्ति चाहता हैं। लेकिन साधु शब्द की वास्तविक अवधारणा यह है कि समाज सेवा के निमित्त, सार्वजनिक जिम्मेदारी लेने के क्रम में, निजी जीवन को सार्वजनिक जीवन में विलिन करना है। साधु की द्वितीय अवधारणा शायद ही कुछ लोग जानते हैं। इसलिए हमें प्राचीन भारत की समाज व्यवस्था की ओर चलना चाहिए। प्राचीन काल में भारतीय समाज में ऋषि परंपरा थी। जिसमें ऋषि मुनि सार्वजनिक कल्याण में अपना जीवन लगाते थे लेकिन बदले में समाज से कुछ भी नहीं लेते थे। अर्थात ऋषि, मुनि एवं देवगण एक आदर्श व्यक्ति के रूप में समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते थे। यह अपने घर का परित्याग नहीं करते थे। वे अपने घर को ही आश्रम में परिवर्तित कर देते थे, जो सर्वजन के लिए खुला रहता था। अतः ऋषि के लिए शादी नहीं करना बाध्यता नहीं थी। ऋषि, मुनि गृहस्थ होने पर भी साधु, संत एवं सन्यासी होते थे। कालांतर में आध्यात्मिक विचारों की नूतन अवधारणाओं का विकास हुआ। उनके लिए प्रचारकों की आवश्यकता हुई। इस क्रम में साधु की एक ऐसी परंपरा का विकास हुआ, जो घर छोड़कर सन्यासी बन जाते थे। इनके लिए अविवाहित रहना अनिवार्य शर्त थी। यह लोग समाज की अपेक्षा अपनी संस्था के प्रति अधिक वफादार थे। यद्यपि अधिकांश संस्थाओं का उद्देश्य सार्वभौमिक कल्याण होता था लेकिन इसके लिए सभी का अपना अलग नजरिया होता था और उसी नजरिये से सार्वभौमिक कल्याण को देखते थे। साधु की एक अवधारणा यह भी देखी गई कि आध्यात्मिक विकास के लिए समाज से पलायन हो जाते थे। इसने समाज को साधु से अलग दिखाया गया।
साधु की विभिन्न अवधारणा का अध्ययन करने के बाद मूल विषय की ओर चलते हैं। साधु की समाज को तब आवश्यकता होती है, जब समाज अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर पाता है तथा एक सार्वजनिक व्यक्ति की आवश्यकता होती है। इसमें उस व्यक्ति के त्याग को नमन करने की व्यवस्था रखी गई है। इसलिए साधु शब्द का समाज में चित्रण हुआ एवं इस अर्थ में साधु की समाज में आवश्यकता है। इसलिए साधु को सार्वजनिक हितार्थ अपने जीवन को अर्पित करना होता है। यदि साधु सार्वजनिक हितार्थ जीवन को अर्पित कर भी निजी सुख सुविधा की ओर आकृष्ट रहता है तो साधु पद वाच्य नहीं है तथा वह साधु धर्म की अवहेलना करता है। ऐसे साधुओं के कारण ही प्रश्न उठता है कि साधु का समाज के प्रति दायित्व है अथवा समाज का साधु के प्रति अथवा दोनों की दिशाएँ अलग-अलग है?
समाज एवं साधु विषय को आगे बढ़ाते हुए हम देखते हैं कि समाज रुपी गाड़ी का ठीक से संचालन तब होता है, जब साधु समाज के प्रति पुत्रवत कर्तव्य का निवहन करता है तथा समाज साधु को अभिभावक सा संरक्षण देता है। इसके विपरीत जब भी साधु समाज का स्वामी बनकर पेश होना तथा समाज साधु का दासत्व ग्रहण कर लेना, समाज और साधु नामक समीकरण को असंतुलित कर देता है। यही समस्या की जड़ है। इसलिए साधु को समाज का स्वामी नहीं पुत्र तथा समाज को साधु का दास नहीं अभिभावक बनकर रहना चाहिए।
(When does a saint forget his duty towards the society?)
यह प्रश्न विषय की मूल की ओर जा रहा हैं। इसमें हम समझ पायेंगे कि 'समाज एवं साधु' क्या है। 'साधु समाज के लिए है, समाज साधु के लिए नहीं है', यही विषय का मूल है। यद्यपि साधु के त्याग को समाज नमन करता है तथापि समाज का गठन साधु के लिए नहीं हुआ है। इसके विपरीत यह बात सत्य है कि साधु का संगठन समाज के लिए ही हुआ है। यद्यपि आध्यात्मिक सत्य की खोज के लिए किया गया पलायन साधु की परिभाषा का अंग नहीं है, तथापि भूलवश इससे साधु की परिभाषा मान लिया गया है। यही अवधारणा साधु को प्रश्नों के घेरे में खड़ा करती है। आध्यात्मिक सत्य कि जानकारी के लिए निकले मनुष्य का जीवन तब तक साधु की परिभाषा में नहीं आता है, जब तक उसका ज्ञान समाज तथा व्यक्ति को सुखी, समृद्ध एवं सफल बनाने में नहीं लगता है। अतः हर पलायनवादी साधु नहीं है। उसे साधु बनने के लिए अपने ज्ञान एवं कर्म को समाज हित में समर्पित करना ही होगा।
(What is the duty of a saint?)
विषय के मूल को समझने के बाद पूर्णत्व की ओर चलना होता है। इसी क्रम में साधु का दायित्व आता है। यहाँ एक प्रश्न अवश्य ही उठेगा कि समाज का दायित्व क्यों नहीं आता है? इसका कारण है कि समाज अपने दायित्व में तब ही चूक करता है, जब साधु अपना दायित्व बिलकुल भूल जाता है। इसलिए साधु का दायित्व ही मूल प्रश्न है। साधु का जीवन समष्टि हित एवं सुख के लिए है। इसलिए साधु के जीवन में कर्तव्य ही कर्तव्य है, अधिकार नाम की कोई वस्तु नहीं है। अतः साधु को समाज सेवक होना होता है तथा समाज की ओर आने वाले खतरों से समाज को सुरक्षित रखना होता है। साधु को एक सामाजिक सिपाही भी होना होता है। उसे अव्यवस्था, कुरीति एवं बुराई के विरूद्ध लड़ना ही होता है। जब साधु समाज की अव्यवस्था तथा व्यक्ति की बुराई के प्रति उदासीन हो जाता है तब साधु शब्द के अर्थ को खो लेता है। अतः साधु को कभी भी किसी भी कारण से अपने दायित्व से विमुख नहीं होना चाहिए। साधु का दायित्व स्वादू बनना कदापि नहीं है। इसलिए समाज को इस ओर कड़ी नजर रखनी होगी कि साधु स्वादू नहीं बने। साधु को अपने दायित्व (समाज की सेवा रक्षा) का ज्ञान होने के साथ ही समाज एवं साधु नामक विषय समाप्त हो जाता है।
(Saint and Meditation)
विषय पूर्ण हो चुका है। अब हम परिशिष्ट की ओर बढ़ रहे हैं ताकि कोई भी प्रश्न शेष नहीं रहे। परिशिष्ट का पहला पन्ना साधना का साधु से संबंध है। साधना मनुष्य मात्र का धर्म है इसलिए इसे साधु की ही संपदा नहीं बताया जा सकता है। साधना अवश्य ही साधक को साधु बनाती है लेकिन तपस्या, त्याग तथा साधना के नाम पर साधु समाज में अपनी धाक नहीं जमा सकता है। साधना, तपस्या एवं त्याग यदि साधु को समाज के प्रति जिम्मेदार नहीं बना सकती है तो मानना चाहिए कि उसकी साधना, तपस्या एवं त्याग व्यर्थ है। अतः साधु इस कारण भी समाज से मान पाने की चाहत रख सकता है।
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©️ आनन्द किरण ®️
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नोट - मेरे मित्र के मन में यह जिज्ञासा कुंभ मेले के दृश्य लेकर उठी थी। वह नागा एवं अघोरियों की चित्रित की गई महानता को समझ नहीं पा रहा था। इसलिए वह समझना चाहता था कि साधु एवं समाज क्या है। यद्यपि उसका प्रश्न क्षणिक दृश्य से था तथापि हमारी चर्चा समग्र साधु परम्परा की ओर चली गई। चूंकि मैं श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के विचार को आत्मसात कर चुका हूँ इसलिए हमारी चर्चा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के विचारों से हटकर नहीं की जा सकती है। यह चर्चा आनन्द मार्ग परिवार के लिए भी कारगर है।
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