महाकुम्भ एवं धर्म ( Mahakumbh and Dharm )

       
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कहा जाता है कि चर्य एवं अचर्य के मंथन से धर्म निखरता है। धर्म ही मनुष्य के लिए अमृत कलश है, जिसका पानकर मनुष्य अमरत्व को प्राप्त करता है।  सही अर्थ में मनुष्य का महाकुम्भ धर्म है। धर्म सदैव मनुष्य के साथ ही रहता है तथा निरंतर व सतत् चलता रहता है। धर्म सर्वत्र व सभी सत्ता में है। मात्र अन्तर इतना है कि मनुष्य इसकी पहचान कर लेता है तथा अन्य इसकी पहचान नहीं कर पाते है। इसलिए धर्म मनुष्य के लिए अनमोल है। अतः धर्म को थोड़ा सा समझ लेते हैं। 

धर्म के संदर्भ में बताया गया है कि किसी भी सत्ता का वह गुणधर्म अथवा मूल विशेषता अथवा लक्षण, जिसके कारण उसका अस्तित्व निर्धारित होता है, वह उस सत्ता का धर्म कहलाता है। चूंकि आज हमारा विषय धर्म का मर्म समझना नहीं है। इसलिए ओर अधिक गहराई में नहीं जाएंगे। हम मात्र यह समझने की कोशिश करेंगे कि धर्म चर्य एवं अचर्य से  कैसे निखरता है? 

मनुष्य के चलन की दिशा तय करने के लिए के लिए दो मत है - एक चर्य एवं दूसरा अचर्य। चर्य में वे तथ्य आते हैं, जिन्हें मनुष्य द्वारा आचरण व व्यवहार में लाया जा सकता है तथा अचर्य में वे तथ्य आते है, जिसे मनुष्य द्वारा आचरण व व्यवहार में नहीं लाया जा सकता है।  करणीय व अकरणीय का विचार कर निर्णय लेने से ही धर्म निखरता है। इसके लिए आदिकाल से प्रयास चल रहा है कि मनुष्य की एक गोष्ठी बैठकर समय के साथ धर्म के समक्ष उभरने वाले प्रश्नों का उचित समाधान खोजते थे। मनुष्य के  इस प्रयास को अलग नाम से जाना जाता था। आरंभ में इसको यज्ञ कहा जाता था। क्योंकि मनुष्य वृताकार में बैठकर विभिन्न विषयों पर चर्चा कर सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय हल खोजते थे। अधिकतर यह चर्चाएँ रात्रि के प्रथम पहर में होती थी। इसलिए प्रकाश के लिए अग्नि कुंड बनाकर निर्धूम अग्नि प्रज्वलित कर देते थे। यज्ञ का मर्म हमारा विषय नहीं है इसलिए यज्ञशाला में नहीं जाएंगे। बुद्ध ने इस व्यवस्था का नाम धर्मचक्र दिया। इस प्रकार चर्य एवं अचर्य पर चर्चाएँ होती थी तथा इससे से निचोड़ निकलता था। कितनी सुन्दर लोकतांत्रिक परंपरा थी। बुद्ध एवं बौद्धों के प्रभाव में विस्तार ने बौद्ध संगतियाँ एवं महा संगतियाँ स्थापित होने लगी, जो एक प्रकार का बड़ा धर्मचक्र था। यज्ञ के युग बड़े यज्ञ को प्रजापत्य यज्ञ कहा जाता था। कालांतर में बौद्ध विरोधी आंदोलन ने सनातन मत के नाम पर भारतीय समाज की विभिन्न धाराओं को एक साथ लाने के लिए कुम्भ मेले का आयोजन होने लगा। चूंकि कुम्भ मेला हमारा विषय नहीं है। इसलिए इसकी गहराई में नहीं जाएंगे। अतः हम महाकुम्भ एवं धर्म विषय पर लौट आते हैं। 

धर्म के विषय पर चर्चा करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर जो सम्मेलन अथवा कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। उसे महाकुम्भ, सतसंग, मेला अथवा सम्मेलन कहा जाता है। धर्म के संदर्भ में सबसे बड़े महा मिलन को धर्म महाचक्र कहा जाता है। जिसमें एक विराट सत्ता अथवा सर्वमान्य सत्ता की उपस्थिति होती है।  जब ऐसा नहीं होता है तब धर्म महाचक्र, धर्म महा सम्मेलन में बदल जाता है। इसको लोक बोलचाल अथवा मान्यता हिसाब से अलग अलग नाम दिये जाते आए हैं। जहाँ धार्मिक विषय पर आलोचना, समालोचना नहीं होती है। वह धर्म महाचक्र नहीं कहलाता है। उसे कोई न कोई अपने हिसाब से नाम दे दिए जाते हैं। 

जिसको भी अमृत कलश की तलाश है, उसे धर्म पथ का वरण करना ही होगा। यह धर्म पथ ही सत पथ है। सत पथ को रस से भर देने से यह मनुष्य का आनन्द मार्ग बन जाता है। अतः जो मनुष्य आनन्द मार्ग पर चलता है, वही तत्व सभा, धर्मचक्र, धर्म महाचक्र, धर्म महा सम्मेलन कर सकता है। उसके अभाव में विभिन्नता की एक मेल होती है। जिसे मेला नाम दिया जाता है। जिसमें चर्य एवं अचर्य का विचार होना आवश्यक नहीं है। 


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               आनन्द किरण
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