गुरु और गोविन्द {Guru and Govind (God) }

 
      
                    - कबीर
संत कबीर कहते हैं कि मेरे समक्ष गुरु और गोविन्द दोनों खड़े है तथा मेरे समक्ष धर्मसंकट है कि प्रथम किसके पांव लगूँ? इस घड़ी में मेरा प्रथम दायित्व है कि मैं इसके लिए प्रथमतः गुरु को चुनूँ। यह उक्ति तो यही खत्म हो जाती है लेकिन एक सवाल हमारे सामने छोड़ कर। क्या हम ऐसा करते अथवा कर पाते हैं? संभवतः कोई बिरला ही होगा जो इस अनुशासन का पालन करता है। इसलिए आज हमने इस उक्ति को चर्चा में लिया है। 

इस उक्ति की ओर जाने से पूर्व एक और उक्ति पर विचार कर लेते हैं -


कबीर कहते हैं कि वे नर अंधे है, जो गुरु को और यानी दूसरा कहते हैं। उन मुर्खों को समझना चाहिए कि हरि रूठे गुरु के घर जगह है लेकिन गुरु के रूठ जाने पर कही भी तुम्हारा स्थान नहीं है। 

अब थोड़ा सा गुरु गीता की ओर दृष्टिपात करे तो गुरु को ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश बताया गया है। यही तक नहीं ठहरती है, वह गुरु को परमब्रह्म कहती है। यदि गुरु परमब्रह्म है तो गुरु एवं गोविन्द की उक्ति का कोई क्या औचित्य है? क्योंकि गुरु एवं गोविन्द तो एक ही इसलिए उसके समक्ष प्रथम चरणस्पर्श करने की कोई समस्या ही नहीं है। इसलिए कबीर की इस उक्ति का मर्म समझना ही होगा क्योंकि बाबा ने इस उक्ति को नकारा नहीं है। अपितु किसी प्रवचन में गुरु रूठे उक्ति को महत्व भी दिया है। इसलिए इस उक्ति को चर्चा में लेना आवश्यक है। 

मनुष्य के जीवन में दो सत्ता का बहुत महत्व चित्रित किया गया है - प्रथम गुरु तथा अन्तिम ईश्वर। जब मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ना शुरू करता है, तब उसको दिशा निर्देशन करने के लिए एक व्यक्तित्व जरूरत होती है; उस व्यक्तित्व को गुरु कहते हैं। इसलिए प्रथम प्रणाम के अधिकारी गुरु को बताया गया है। गुरु ही जीवन लक्ष्य से परिचित करवाते हैं, वे जीवन लक्ष्य तक पहुँचने के लिए रसद उपलब्ध कराते हैं। इसलिए भी वे प्रथम प्रणाम के अधिकारी है। ईश्वर मात्र जीवन लक्ष्य है। अतः गुरु से प्रथम प्रणाम का अधिकार नहीं दिया गया है। लेकिन गुरु एवं ईश्वर एक ही सत्ता होने पर उस उक्ति का क्या सार है? 

जब गुरु एवं ईश्वर एक ही सत्ता में निहित होने पर भी उस सत्ता का गुरु रुप ही प्रथम रखने की आवश्यकता है। क्योंकि मनुष्य उन्हें गुरु के रुप में पहचान पाता है। ईश्वर के रूप में पहचान लेने के बाद वह जगत में नहीं ब्रह्म में निवास करता है। अतः नीति शास्त्र कहता है कितारक ब्रह्म को गुरु रुप में प्रथम स्थान पर रखने वाला दुनिया में बहुत कुछ कर पाता है, लेकिन तारक ब्रह्म को ईश्वर रुप में रखने वाला दुनिया में कुछ नहीं कर पाता है। जो दुनिया को तारक ब्रह्म का ईश्वर रुप में दिखाना चाहता है, उन्हें बहुत सारे यत्न करने पड़ते हैं लेकिन गुरु रुप में दिखाने पर कुछ भी यत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है। तारक ब्रह्म को गुरु के रुप में दिखाना सुगम है जबकि ईश्वर के रूप में दिखाना जटिल है। इसलिए नीतिवान मनुष्य जटिल पथ का नहीं सुगम पथ का वरण करेगा। इसलिए भी गुरु को प्रथम प्रणाम करने की शिक्षा दी गई है जो एकदम सार्थक है। 

जो तारक ब्रह्म के गुरु रुप को प्रथम देखता है, वह पुरुषार्थी एवं कर्मनिष्ठ होता है जबकि ईश्वर रुप को प्रथम देखने वाला अव्यवहारिक बनकर रह जाता है। तारक ब्रह्म का गुरु रुप सबको दिखाने के लिए है जबकि ईश्वरीय रुप स्वयं के दिखने के लिए है। अतः इसको उलटा करना बहुत बड़ी भूल है।

विषय के अन्त में चर्याचर्य में पथनिर्देशना मिली है कि आनन्दमूर्ति को जगत गुरु के रूप में रखकर सभी को उनका महात्म्य समझना ही होगा। अन्य जगह यह भी कहा है कि मेरा नहीं मेरे आदर्श का प्रचार करो। आदर्श में उन्हें गुरु के रूप में आगे रखकर जगत सेवा में चलते हैं। मेरा नहीं का अर्थ मेरे ईश्वरीय रूप का गुणगान नहीं गाना है। इसलिए उक्ति गुरु को प्रथम स्थान पर रखती है। ब्रह्म ही गुरु तथा गुरु ही ब्रह्म है। इसलिए बारबार यह ढ़िढोरा पिटने की आवश्यकता नहीं है कि मेरे गुरु ही ईश्वर है। शेष के गुरु इंसान है। मेरे गुरु श्री श्री आनन्दमूर्ति जी है, उनका आदर्श इतना विराट है कि उसमें सबकुछ समा जाता है। उनमें सम्पूर्ण सृष्टि एवं सृष्टि के रचयिता, पालनहार एवं संहारक समा जाते हैं, इसलिए मैं उन्हें जगत गुरु कहता हूँ। मेरा काम हो गया। उनका स्वरूप ईश्वरीय है। यह साधक अपने आप समझ जाएगा। उसका बखान करने की आवश्यकता नहीं है। यह व्यक्तिगत अनुभव की बातें हैं। इसलिए गोविन्द से पहले वे मेरे गुरु हैं। 
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            आनन्द किरण
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नोट - यह आलेख मात्र मेरे लिए मेरे बाबा को समझने के लिए है। यह किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना के लिए नहीं है।
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