ध्यान-मंत्र ( DHYAN MANTRA)

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भाव से भावातीत बनने के विज्ञान को ध्यान-मंत्र कहा जाता है। यहाँ सैद्धान्तिक कुछ नहीं है, जो है वह प्रैक्टिकल है। है। इसलिए ध्यान-मंत्र के बारे में लिखने वाली लेखनी अब तक बनी नहीं। वास्तव में ध्यान का कोई मंत्र नहीं है। यह पूर्णतः क्रियात्मक पक्ष है। अतः केवल बोलचाल की भाषा में ध्यान-मंत्र कह दिया जाता है। इसलिए आज हम भाव से भावतीत बनने के विज्ञान ध्यान-मंत्र के बारे में समझते हैं। 

ध्येय में प्रतिष्ठित होने के विज्ञान को ध्यान कहते हैं। मनुष्य का ध्येय ब्रह्म है। ब्रह्म की दो अवस्था भाव व भावातीत है। भाव को सगुण ब्रह्म एवं भावातीत को निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है। इन भाव व भावातीत का सेतु बिन्दु को  तारक ब्रह्म कहते हैं। अतः भाव से भावातीत बनने का शुरुआती बिन्दु तारक ब्रह्म है। साधक अपने ध्येय के रूप में तारक ब्रह्म को चुनता है। ध्यान के प्रथम पड़ाव में तारक ब्रह्म से स्नेह की धारा को बढ़ाता है। इतनी बढ़ानी होती है कि उसके अतिरिक्त ओर कुछ नहीं दिखना चाहिए। यह ध्यान-मंत्र का प्रथम अक्षर कहलाता है। उसके बाद द्वितीय पड़ाव की ओर बढ़ते हैं। द्वितीय पड़ाव में परमपुरुष में स्वयं को विलीन किया जाता है। विलय की यह धारा तब तक चलती रहती जब तक मैं कहने वाली कोई वस्तु शेष नहीं रहती है। इस समग्र विलय की धारा को ध्यान-मंत्र का मध्य अक्षर कहा जाता है। इसके बाद ध्यान-मंत्र अपने अन्तिम पड़ाव की ओर चलता है।  अन्तिम पड़ाव में मैं, विराट मैं बनकर प्रकट होता है। इसका यह प्रकटीकरण स्वयं उससे अनजान रहता है। इसी में ध्यान-मंत्र सिद्ध होता है। 

ध्यान-मंत्र में तीन अशाब्दिक अक्षर हैं। जिन्हें शब्द या वर्ण में नहीं लिखा जा सकता है। जिसका कोई वर्ण नहीं उसको लिखना संभव नहीं है। लेकिन क्षर  होने वाले वर्ण के उपर भी अक्षर अवर्ण हैं। उस अक्षर अवर्ण को समझना ही ध्यान-मंत्र है। सरल भाषा में कहा जाए तो ध्यान से मन को मुक्त करने वाले मंत्र को ध्यान-मंत्र कहते हैं। इस अवस्था में ध्येय एवं ध्यानी में कोई पार्थक्य नहीं होने के कारण ध्यानी एवं ध्येय में अन्तर करना मुश्किल होता है। शिव एवं जीव के इस अविच्छिन्न संबंध को ही ध्यान-मंत्र में देखा गया है। इसको यदि वस्तु जगत में प्रकट करना है तो प्रतीक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। 

प्रतीक के संदर्भ में लिखना कुछ ज्यादा ही हो जाएगा, इसलिए लेखनी को विराम देकर ध्यान-मंत्र की ओर ही चलते हैं। कहा गया है कि पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोई ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।। इसलिए कहा गया है कि ध्यान-मंत्र आज दिन तक किसी किताब में नहीं लिखा गया, किसी के द्वारा नहीं गाया गया तथा किसी द्वारा न ही सुनाया गया है। जितने भी ध्यान-मंत्र बनाये गए हैं। वे सभी अपूर्ण है। उसमें पूर्णता केवल ध्यान की व्यवहारिक प्रक्रिया ही लाती है। जो मनुष्य वराभय अथवा जानु स्पर्श द्वारा प्राप्त करता है। 

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            आनन्द किरण
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