पात्र:
* *आनंद* : ज्ञाता (The Knower)
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष (The Seeker)
*दृश्यांकन* : एक शांत, ध्यानपूर्ण स्थान। मंच पर बीच में एक ज्योतिर्मय बिंदु (एक छोटी लाइट या प्रतीक) स्थापित है, जिसके चारों ओर एक त्रिभुज बना हुआ है।
(पर्दा उठता है। आनंद और किरण मंच पर प्रवेश करते हैं। आनंद शांत और स्थिर हैं, जबकि किरण में जिज्ञासा स्पष्ट दिख रही है।)
*किरण* : दादाजी, मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि यह सृष्टि कैसे बनी? कहाँ से आई? मेरा मन अशांत है।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) किरण, तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें सत्य के निकट ले जाएगी। आओ, आज मैं तुम्हें सृष्टि चक्र का रहस्य बताता हूँ।
(आनंद उस ज्योतिर्मय बिंदु की ओर इशारा करते हैं।)
*आनंद* : देखो, यह परम तत्व है, एक सूक्ष्म बिंदु। यह ही सब कुछ है, और इसमें ही सब कुछ समाहित है।
*किरण* : एक बिंदु? इतना विशाल ब्रह्मांड एक बिंदु से?
*आनंद* : धैर्य रखो, प्रिय। इसी बिंदु के चारों ओर तीन गुण विद्यमान हैं, जिन्हें हम त्रिभुज के परिणामस्वरूप में देखते हैं।
(त्रिभुज के तीन कोनों की ओर संकेत करते हैं।)
*आनंद* : इस त्रिभुज का प्रथम बिंदु है सत्वगुण। इसी सत्वगुण से महत्तत्व का निर्माण होता है – यह सृष्टि का सबसे पहला, मूल विचार या बुद्धि है। मैं हूँ का बोध है।
*किरण* : महत्तत्व...
*आनंद* : हाँ। फिर आता है दूसरा बिंदु – रजोगुण। रजोगुण से अहमतत्व बनता है – यह वह शक्ति है जो 'मैं' कर्ता हूँ का अनुभव कराती है।
*किरण* : 'मैं' कर्ता का भाव... समझ रहा हूँ।
*आनंद* : और तीसरा बिंदु है तमोगुण। तमोगुण के प्रभाव से चित्त तत्व का निर्माण होता है – यह वह शक्ति है जो अनुभवों को ग्रहण करती है और संचित करती है।
*आनंद* : इन तीनों तत्वों – महत्तत्व, अहमतत्व और चित्त तत्व – को ही हम भूमा मन कहते हैं। यह वह विराट मन है जिससे सारा ब्रह्मांड संचालित होता है।
(मंच पर हल्की धुंध या धुआँ उठता है, और ध्वनि प्रभाव के साथ धीरे-धीरे पांच तत्व प्रतीक रूप में उभरने लगते हैं – आकाश के लिए नीला कपड़ा, वायु के लिए पंखा, अग्नि के लिए लाल प्रकाश, जल के लिए पानी का पात्र, पृथ्वी के लिए रेत का ढेर।)
*आनंद* : अब ध्यान दो, जब यह भूमा चित्त पर तमोगुण का प्रभाव और बढ़ता है, तब पंचमहाभूतों का निर्माण होता है। क्रमशः आकाश, फिर वायु, उसके बाद अग्नि, फिर जल, और अंत में पृथ्वी तत्व।
*किरण* : (विस्मय से देखता है) तो ये सब उस एक बिंदु से ही निकले हैं!
*आनंद* : बिलकुल। और फिर, इस पृथ्वी तत्व पर एक महान घटना घटित होती है – एक जड़ विस्फोट। यह वह क्षण है जब जीवन की पहली चिंगारी फूटती है।
(धमाके की हल्की ध्वनि, प्रकाश चमकता है।)
*किरण* : यह क्या?
*आनंद* : इस विस्फोट के कारण जीव देह, जीव प्राण और जीव मन का निर्माण होता है। यहीं से व्यक्तिगत जीव की यात्रा शुरू होती है।
(मंच पर प्रकाश बदलता है, और जीवन के विकास के चरण प्रतीक रूप में दिखाए जाते हैं। पहले एककोशिकीय जीव का सूक्ष्म प्रतीक, फिर पौधों के अंकुर, उसके बाद जलचर, उभयचर, नभचर, जरायुज और अंत में मानव आकृति।)
*किरण* : अद्भुत!
*आनंद* : इस प्रकार, पृथ्वी पर जीवन का विकास होता है। सबसे पहले एककोशिकीय जीव बनते हैं, फिर पादप (पौधे)। इसके बाद बहुकोशिकीय जीव पादप आते हैं, जो विकसित होते हैं।
*किरण* : यह तो क्रमिक गति है।
*आनंद* : हाँ, फिर जीवन जल में पनपता है – जलचर। जो जल और भूमि दोनों पर रह सकते हैं, वे उभयचर। आकाश में उड़ने वाले नभचर अण्डज जीव (अंडों से जन्म लेने वाले)।
*किरण* : आगे
*आनन्द* : इसके बाद जरायुज जीव आते हैं (जो सीधे जन्म लेते हैं), और उनमें धीरे-धीरे बुद्धि का विकास होता है। यहीं से वानर प्रजाति का उदय होता है, जिनमें प्रज्ञा की झलक दिखती है।
*किरण* : (उत्सुकता से) और मनुष्य?
*आनंद* : अंत में, इन्हीं से मनुष्य का निर्माण होता है। मनुष्य अपनी उन्नत प्रज्ञा (उच्च बुद्धि) के कारण सभी जीवों में श्रेष्ठ है। वह न केवल अस्तित्व को समझता है, बल्कि उसे रूपांतरित भी कर सकता है।
*किरण* : वाह!
*आनंद* : और जब मनुष्य अपनी इस प्रज्ञा का सदुपयोग करता है, तो वह प्रज्ञाशील मनुष्य बनता है – वह जो केवल जानता नहीं, बल्कि उस ज्ञान को अपने जीवन में उतारता है।
(मंच पर प्रकाश शांत और गहरा होता है, ध्यान का वातावरण बनता है। आनंद अपनी आँखें बंद कर लेते हैं, मानो गहरे ध्यान में हों।)
*किरण* : फिर
*आनंद* : और यहाँ से शुरू होती है वापसी की यात्रा, मोक्ष की ओर। यह प्रज्ञाशील मनुष्य साधना के मार्ग पर चलता है। वह अपने मन को एकाग्र करता है, इंद्रियों को शांत करता है।
*किरण* : साधना!
*आनंद* : इस साधना के द्वारा, उसका अणु मन धीरे-धीरे उसी भूमा मन में विलीन होते जाते हैं, जहाँ से वे आए थे।
*किरण* : (हैरानी से) भूमा मन में विलय?
*आनंद* : हाँ। और अंततः, यह मन उस परम भूमा चैतन्य में विलीन हो जाता है, जो हमारा आदि और अंत है – वह निराकार, सर्वव्यापी परम तत्व, जो उस बिंदु का सार है।
(आनंद उस ज्योतिर्मय बिंदु की ओर देखते हैं।)
*किरण* : इसको एक शब्द में क्या कहा जाता है?
आनंद: यही संपूर्ण सृष्टि चक्र है, किरण। बिंदु से सृष्टि का उद्भव, विकास, और अंततः बिंदु में ही विलय। यह न आदि है न अंत, बस एक सतत प्रवाह है।
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) दादाजी, आपने मेरी आँखों से एक पर्दा हटा दिया। अब मुझे समझ आया कि हम सब एक ही ऊर्जा के अंश हैं, उसी परम तत्व से निकले हुए।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) हाँ, जी। अब इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारो। जानो कि तुम भी उस परम तत्व का ही एक अंश हो, और तुम्हारा लक्ष्य भी उसी में विलीन होना है। यह केवल एक कहानी नहीं, यह तुम्हारी स्वयं की यात्रा है।
*किरण* : यह ज्ञान कहा से आया है?
*आनन्द* : यह ज्ञान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का बताया ज्ञान है। तुम जग को बता दो
(किरण आनंद के चरणों में झुकता है। पर्दा धीरे-धीरे गिरता है।)
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
*कर्मचक्र*
(एक आध्यात्मिक तार्किक चर्चा)
पात्र:
* *आनंद* (ज्ञाता मन): एक अनुभवी, शांत और ज्ञानी व्यक्ति।
* *किरण* (जिज्ञासु मन): एक उत्साही, प्रश्नशील और सत्य की खोज करने वाला।
*दृश्य* : एक शांत उपवन का कोना, जहाँ आनंद और किरण एक बेंच पर बैठे हैं।
*(जन्म, कर्म, कर्मफल, मृत्यु व पुनः जन्म)*
*किरण* : (उत्सुकता से) दादा जी, यह "कर्मचक्र" क्या है? मैं बहुत समय से इस विषय पर विचार कर रहा हूँ, पर उलझनें बढ़ती ही जा रही हैं। लोग कहते हैं कि आत्मा कर्म करती है, फल भोगती है, लेकिन मुझे यह सब समझ नहीं आता।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) किरण, तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें सत्य के निकट लाएगी। आओ, आज हम इस कर्मचक्र को थोड़ा गहराई से समझते हैं। सबसे पहले, यह जान लो कि आत्मा कोई कर्म नहीं करती है। अणु चैतन्य तो परम साक्षी है।
*किरण* : तो मै हूँ का बोध कराने वाला महत्तत्व काम करता होगा?
आनन्द : नहीं, किरण। वह विषय के साथ संयुक्त रहने पर भी अकर्ता ही है।
*किरण* : तो फिर कर्म कौन करता है? यदि आत्मा कर्म नहीं करती, महत्तत्व कर्म नहीं करता, तो कौन है जो क्रियाशील है?
*आनंद* : यहीं पर अधिकांश लोग भ्रमित हो जाते हैं। कर्म का वास्तविक कर्ता अहमतत्व है। यह हमारा अहम् है, जो स्वयं को कर्ता मानता है। अहमतत्व ही कर्म करता है और वही कर्मफल भी भोगता है। जब तुम कहते हो 'मैंने यह किया' या 'मुझे इसका फल मिला', तो यह अहमतत्व की ही बात है।
*किरण* : (सोचते हुए) अहमतत्व... यह तो बिल्कुल नया दृष्टिकोण है। लेकिन, चित्त की क्या भूमिका है इसमें?
*आनंद* : बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न! चित्ततत्व कर्म व कर्मफल का रूप ग्रहण करता है। इसे ऐसे समझो कि चित्त एक दर्पण की तरह है। जब अहमतत्व कोई कर्म करता है, तो उसकी छाप चित्त पर पड़ती है। यही छाप चित्त में एक प्रकार की विकृति लाती है।
*किरण* : विकृति? मतलब, चित्त में अशुद्धि आ जाती है?
*आनंद* : हाँ, मूल अवस्था से एक ओर खिचक जाना, एक तरह से। और इस विकृति को दूर करने के लिए ही कर्मफल आता है। कर्मफल के माध्यम से, वह विकृत चित्त पुनः अपनी मूल अवस्था में आता है। यह एक संतुलन की प्रक्रिया है। जैसे पत्थर मारने से पानी में लहरें उठती हैं और फिर शांत हो जाती हैं, वैसे ही कर्म से चित्त में हलचल होती है और कर्मफल से वह शांत होता है।
*किरण* : यह विकृति कैसी है?
*आनन्द* : - सुकर्म से सु तथा कुकर्म से कु विकृति आती है।
*किरण* : यह विकृति कैसे दूर होती है ?
*आनन्द* : सुकर्म का फल सुफल तथा कुकर्म का फल कुफल होता है।
*किरण* : क्या अच्छे एवं बुरे कर्म बराबर होने पर कर्म की शून्य अवस्था आती है?
*आनन्द* : यह गलत सिद्धांत है। कर्म की शून्य अवस्था कर्म के प्रतिफल पर निर्भर करती है। यह सही सिद्धांत है।
*किरण* : यह तो बहुत तार्किक लगता है! तो फिर मृत्यु और पुनर्जन्म का क्या संबंध है इससे? लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद भी आत्मा भटकती है, भूत-प्रेत होते हैं।
*आनंद* : (गंभीर होते हुए) यहीं पर सबसे बड़ी भ्रांतियाँ हैं, किरण। मनुष्य मृत्यु के पूर्व क्षण तक कर्म करता रहता है, किंतु अक्सर उसे कर्मफल नहीं मिलता है। यह अभुक्त कर्मफल ही पुनः जन्म लेने का कारण बनता है।
*किरण* : तो क्या भूत-प्रेत जैसी कोई चीज़ नहीं होती? यह सिर्फ मन का वहम है?
*आनंद* : बिल्कुल! मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि भूत-प्रेत नहीं होते हैं। इसलिए, विदेही मन का भटकना इत्यादि भ्रांत धारणाएं हैं। एक विदेही मन, अर्थात शरीर-रहित मन, कर्म नहीं कर सकता है, अतः कर्मफल भी ग्रहण नहीं करता है। कर्म करने के लिए, उसे एक शरीर की आवश्यकता होती है।
*किरण* : (आश्चर्य से) यह तो मेरी सारी पुरानी धारणाओं को तोड़ रहा है! और आत्मा की तृप्ति या तृपण का क्या?
*आनंद* : आत्मा की तृप्ति व तृपण एक मिथ्या धारणा है। आत्मा तो परम सत्ता का अंश है, वह स्वयं में पूर्ण है, उसे किसी तृप्ति की आवश्यकता नहीं है।
*किरण* : तो फिर मृत्यु क्या है? यदि आत्मा को कुछ नहीं होता, तो मृत्यु को कैसे परिभाषित करेंगे?
*आनंद* : कारण मन की दीर्घ निद्रा को मृत्यु कहते हैं। यह एक अस्थायी विराम है, एक अवस्था परिवर्तन। जब हम जाग्रत अवस्था में होते हैं, तो हमारे स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीनों मन क्रियाशील होते हैं। स्थूल मन इंद्रियों से जुड़ा है, सूक्ष्म मन विचारों और भावनाओं से, और कारण मन संस्कारों से।
*किरण* : और स्वप्न और निद्रा में?
*आनंद* : स्वप्न अवस्था में, सूक्ष्म व कारण मन क्रियाशील होते हैं। स्थूल मन निष्क्रिय होता है। और गहरी निद्रावस्था में, केवल कारण मन ही क्रियाशील है। स्थूल और सूक्ष्म मन दोनों शांत होते हैं। मृत्यु भी इसी कारण मन की दीर्घ निद्रा है,
*किरण* : तो क्या मन ही नया शरीर ढूंढता है? यह कैसे होता है?
*आनंद* : हाँ, यह एक जटिल प्रक्रिया है। अणु प्रकृति नया शरीर ढूँढने में मन की मदद करती है। यह मन के संस्कारों के अनुसार एक उपयुक्त शरीर खोजने में सहायता करती है। नया शरीर उसके संस्कार के अनुसार चयन होता है। यही कारण है कि कोई अमीर घर में जन्म लेता है, तो कोई गरीब में, कोई स्वस्थ तो कोई बीमार।
*किरण* : और समय सीमा? मतलब, नया शरीर मिलने में कितना समय लगता है?
*आनंद* : नया शरीर मिलने की समय सीमा उसके संस्कार पर निर्भर करती है। कुछ विदेही मन तुरंत नया शरीर पा लेती हैं, जबकि कुछ को प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। इसी प्रकार, किस जगह, किस ग्रह पर नया जन्म होगा, यह भी उसके संस्कार पर निर्भर करता है। यह सब कुछ हमारे ही कर्मों और संचित संस्कारों का परिणाम है।
*किरण* : (गहरे चिंतन में) दादाजी, आपने तो मेरे सामने एक बिल्कुल नया मार्ग खोल दिया है। यह सब कितना तार्किक और समझने योग्य है! अब मैं समझ रहा हूँ कि हमें अपने मन को नियंत्रित करना कितना आवश्यक है, क्योंकि वही कर्मों का कर्ता है।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) बिल्कुल किरण! जब तुम यह समझ जाते हो कि कर्म अहमतत्व द्वारा होते हैं, तो तुम अपने कर्मों के प्रति अधिक सचेत हो जाते हो। यही आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है। अब तुम इस ज्ञान को अपने जीवन में कैसे उतारते हो, यह तुम पर निर्भर करता है।
*किरण* : इस जन्म मरण के चक्र से कैसे छूट कारा मिलता है?
*आनन्द* : पहले यह समझ लो जन्म मरण एवं पुनर्जन्म को कर्मचक्र या कर्म का विज्ञान द्वारा समझा गया है। इस आवागमन के चक्र से मुक्ति के लिए मनुष्य को आध्यात्म पथ पर चलना होता है।
*किरण* : यह कैसे?
*आनन्द* : प्रत्येक कर्म में ब्रह्म भाव लेते हुए निष्काम कर्म करना तथा ब्रह्मभाव में लीन होकर मुक्ति की अवस्था प्राप्त करते हैं।
किरण : आपने मेरी आँखें खोल दी।
(आनंद और किरण एक दूसरे को देखते हैं, किरण के चेहरे पर एक नई समझ और शांति का भाव है।)
(पर्दा गिर जाता है)
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
" *समाज चक्र* "
(एक तार्किक सामाजिक आर्थिक चर्चा)
पात्र:
* *आनन्द* : प्रउत का ज्ञाता
* *किरण* : एक जिज्ञासु पुरुष
*प्रथम दृश्य*
`(वर्ण प्रधान - समाज चक्र)`
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ आनन्द और किरण बैठे हुए हैं।
(किरण कुछ सोच रहा है, फिर आनन्द की ओर देखता है।)
*किरण* : दादाजी, मैं इस समाज की व्यवस्था को समझना चाहता हूँ। यह कैसे चलता है, कैसे बदलता है? क्या कोई व्यवस्था है?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) अवश्य, किरण। यह समाज एक चक्र के समान है, जिसे हम 'समाज चक्र' कहते हैं। इसका आधार है वर्ण प्रधानता, लेकिन इसे जाति व्यवस्था से भ्रमित मत करना। यह आर्थिक क्षमता का द्योतक है।
*किरण* : आर्थिक क्षमता? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि समाज में प्रधानता एक निश्चित क्रम में प्राप्त होती है, जो सामाजिक आर्थिक शक्ति के साथ बदलती रहती है। यह क्रम है - शूद्र, क्षत्रिय, विप्र और वैश्य।
*किरण* : शूद्र, क्षत्रिय, विप्र, वैश्य? लेकिन ये तो जाति के नाम हैं!
*आनन्द* : नहीं, यह धारणा गलत है। ये वर्ण हैं, और इनका संबंध मन के रंग से है, प्रवृत्ति से है, कार्य करने की क्षमता से है। समय के साथ, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार, इन वर्णों की प्रधानता बदलती रहती है।
*द्वितीय दृश्य*
`(वर्ण एवं समाज चक्र में इनका स्थान)`
*स्थान* : वही उपवन।
(किरण कुछ भ्रमित दिख रहा है।)
*किरण* : मन का रंग? प्रवृत्ति? मैं समझा नहीं।
*आनन्द* : देखो, वर्ण का अर्थ है मन का रंग। यह मन का रंग व्यक्ति की प्रवृत्ति से बनता है, उसकी कार्य करने की क्षमता या योग्यता से। हम इसे मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं: शारीरिक क्रिया की प्रधानता और वैचारिक क्रिया की प्रधानता।
*किरण* : ठीक है, विस्तार से बताएं।
*आनन्द* : शारीरिक क्रिया की प्रधानता में पहला स्थान शूद्र वर्ण का है। ये वे लोग हैं जो अपने शरीर का उपयोग मात्र सेवा कार्यों में करते हैं, उनके पास कोई अन्य विशेष कौशल नहीं होता।
*किरण* : तो ये शारीरिक श्रम करने वाले लोग हैं?
*आनन्द* : बिल्कुल। द्वितीय स्थान पर क्षत्रिय आते हैं। इनमें साहस, शौर्य और बहादुरी जैसे भावनात्मक संवेग होते हैं, जो उन्हें युद्ध कौशल प्रदान करते हैं। वे अपनी शारीरिक शक्ति और बल पर समाज में प्रधानता हासिल करते हैं।
*किरण* : (सिर हिलाते हुए) समझ गया। और वैचारिक प्रधानता वाले?
*आनन्द* : वैचारिक प्रधानता वाले वर्ग में प्रथम स्थान विप्र का है। ये वे लोग हैं जो अपनी बुद्धि का उपयोग ज्ञान-विज्ञान में करते हैं। उनकी बुद्धि के समक्ष क्षत्रिय भी नतमस्तक हो जाते हैं। ज्ञान ही उनकी शक्ति है।
*किरण* : तो क्या विप्र सबसे ऊपर हैं?
*आनन्द* : नहीं, अंत में वैश्य वर्ण की प्रधानता आती है। ये अपनी बुद्धि कौशल का उपयोग व्यवसाय कौशल में करते हैं। वे व्यापार और वाणिज्य के माध्यम से धन अर्जित करते हैं, और धीरे-धीरे सभी पर अपना प्रभाव स्थापित कर लेते हैं। अर्थ ही उनका बल है। इस प्रकार समाज में प्रधानता का क्रम लगातार बदलता रहता है।
*तृतीय दृश्य*
`(समाज चक्र में सद्विप्र की भूमिका)`
स्थान: वही उपवन।
(किरण कुछ सोचकर बैठता है।)
*किरण* : तो ये चार वर्ण समाज चक्र को चलाते हैं? क्या इनके अलावा भी कोई है?
*आनन्द* : (गंभीरता से) हाँ, किरण। इन चारों वर्णों से अलग, जो किसी भी प्रकार की प्रधानता की चाहत से परे हैं, वे समाज चक्र के प्राण केंद्र में अवस्थित होकर संपूर्ण समाज चक्र का नियंत्रण करते हैं। इन्हें सद्विप्र कहते हैं।
*किरण* : सद्विप्र? ये कौन होते हैं?
*आनन्द* : सद्विप्र में चारों वर्णों के गुण विद्यमान होते हैं। वे यम-नियम में प्रतिष्ठित होते हैं, भूमाभाव के साधक होते हैं, और पाप के दमन के लिए सदैव आतुर रहते हैं। वे स्वार्थ से परे होकर समाज के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। वे न तो सत्ता के भूखे होते हैं, न धन के, न ही केवल ज्ञान के प्रदर्शन के। उनका लक्ष्य होता है समाज में संतुलन और न्याय स्थापित करना।
*किरण* : तो ये एक तरह के मार्गदर्शक हैं?
*आनन्द* : बिल्कुल। वे समाज के विवेक हैं, जो सही दिशा दिखाते हैं और जब भी समाज गलत दिशा में जाता है, उसे सही राह पर लाने का प्रयास करते हैं। वे एक बिंदु हैं जिसके चारों ओर समाज चक्र घूमता है।
*चतुर्थ दृश्य*
`(समाज चक्र की गति के पाँच सिद्धांत)`
*स्थान* : वही उपवन।
(किरण उत्साहित दिख रहा है।)
*किरण* : यह चक्र की गतिशीलता कैसे काम करती है? क्या इसकी कोई गति भी है?
*आनन्द* : हाँ, समाज चक्र की गतिशीलता को समझने के लिए पाँच सिद्धांत हैं। *पहला है स्वभाविक गति,* जिसमें प्रकृति के नियमानुसार परिवर्तन होता है। यह एक धीमी और निरंतर प्रक्रिया है।
*किरण* : जैसे मौसम का बदलना?
*आनन्द* : कुछ-कुछ वैसा ही। *दूसरा सिद्धांत है क्रांति* , जिसमें शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति में वृद्धि होती है। यह एक बदलाव की शुरुआत होती है।
*किरण* : तो यह अचानक होता है?
*आनन्द* : हाँ, एक प्रकार से। *तीसरा है विप्लव* , जिसमें तीव्र शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति अत्यधिक तीव्र हो जाती है। यह एक बड़ा और तीव्र परिवर्तन होता है, जो अक्सर उथल-पुथल भरा होता है।
*किरण* : तो यह क्रांति से भी बड़ा बदलाव है?
*आनन्द* : बिल्कुल। *चौथा सिद्धांत है विक्रांति,* जिसमें शक्ति प्रयोग द्वारा चक्र की गतिधारा के विपरीत दिशा में गमन करती है। यह समाज को पीछे धकेलने का प्रयास होता है, एक तरह का प्रतिगमन। इसलिए यह क्षणिक भी होता है।
*किरण* : और पाँचवा?
*आनन्द* : उसी प्रकार *पाँचवा सिद्धांत प्रति विप्लव का है,* जिसमें शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति तीव्र वेग से विपरीत दिशा में गमन करती है। यह विक्रांति का ही एक और तीव्र रूप है, जहाँ समाज को जानबूझकर पीछे की ओर धकेला जाता है, अक्सर बड़ी शक्ति के साथ। यह सब चक्र की गतिशीलता को बनाए रखता है। यह अत्यधिक क्षणिक होता है।
*पंचम दृश्य*
`(समाज चक्र एवं परिक्रांति)`
*स्थान* : वही उपवन।
(आनन्द और किरण कुछ देर चुप रहते हैं।)
*किरण* : यह सब सुनकर मुझे लगा कि यह एक अंतहीन चक्र है। क्या यह कभी रुकता नहीं?
*आनन्द* : नहीं, यह एक परिक्रांति है। समाज चक्र शूद्र, क्षत्रिय, विप्र और वैश्य क्रम में घूमकर पुनः शूद्र युग में आता है। यह एक पूरी परिक्रमा होती है, इसी का नाम परिक्रांति है।
*किरण* : तो फिर शूद्र युग वापस आता है? क्या यह वही शूद्र युग होगा जो पहले था?
*आनन्द* : नहीं, इस परिक्रांति में विक्षुब्ध शूद्र विप्लव की भूमिका निभाते हैं। यह विक्षुब्ध शूद्र वह नहीं है जो प्राकृतिक गुणधर्म पर आधारित शूद्र था। बल्कि, यह वह वर्ग है जो वैश्य युग में वैश्यों के शोषण के कारण मजबूरी में शूद्रोचित कार्य करने को विवश है।
*किरण* : तो वे केवल आर्थिक कारण से रूप से शूद्र हैं, अपनी क्षमता से नहीं?
*आनन्द* : ठीक समझे। उनके अंदर की क्षत्रिय एवं वैश्य क्षमता उन्हें इस शोषण से मुक्ति पाने और वैश्य युग को मिटाने के लिए प्रोत्साहित करती है। वे अपने अंदर की छिपी हुई शक्ति को पहचानते हैं और समाज में बदलाव लाने के लिए उठ खड़े होते हैं। यह चक्र चलता रहता है, हर परिक्रांति एक नई शुरुआत होती है, एक नए समाज चक्र के निर्माण की ओर एक कदम।
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) यह बहुत गहरा विषय है, दादाजी। आपने मुझे एक नई दृष्टि दी है। यह समाज वास्तव में एक जीवंत चक्र है।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) हाँ, किरण। *यह श्री प्रभात रंजन सरकार के प्रगतिशील उपयोग तत्व का प्रवेशद्वार है* और इसे समझना ही समाज को बेहतर बनाने का पहला कदम है।
(पर्दा गिरता है।)
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
(एक आदर्श एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था पर तार्किक चर्चा)
पात्र:
* *आनन्द* : प्रगतिशील उपयोग तत्व के ज्ञाता
* *किरण* : एक जिज्ञासु पुरुष
*प्रथम दृश्य: अर्थचक्र या अर्थतंत्र का परिचय*
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ आनन्द और किरण बैठे हुए हैं।
(पर्दा उठता है)
*किरण* : (उत्सुकता से) दादाजी, मैं इन दिनों "अर्थचक्र" के बारे में बहुत सोच रहा हूँ। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि एक आदर्श और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था वास्तव में क्या होती है?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) बिलकुल, किरण। देखो, किसी भी अर्थव्यवस्था का मूल तत्व है उपयोग। हम जो कुछ भी उत्पादित करते हैं, उसका अंतिम उद्देश्य उपयोग ही होता है। लेकिन केवल उपयोग पर्याप्त नहीं है। महत्वपूर्ण है कि यह उपयोग प्रगतिशील हो।
*किरण* : प्रगतिशील उपयोग? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि हमारा उपयोग इस प्रकार हो कि वह न केवल हमारी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करे, बल्कि भविष्य के लिए भी समृद्धि और विकास के अवसर पैदा करे। यह केवल वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग तक सीमित नहीं है, बल्कि संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग, नवाचार को बढ़ावा देने और हर व्यक्ति के कल्याण को सुनिश्चित करने से भी जुड़ा है। अर्थचक्र का ध्येय इसी उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाना है। हम एक ऐसे चक्र की कल्पना करते हैं जहाँ उत्पादन, वितरण और उपभोग एक-दूसरे को पोषित करते हुए निरंतर बेहतर होते जाएं।
*किरण* : यह तो बहुत गहरा विचार है। मैं इस पर और अधिक जानना चाहूँगा।
*आनन्द* : अवश्य। चलो, आगे बढ़ते हैं।
*द्वितीय दृश्य: व्यष्टि-व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान*
स्थान: वही उपवन, कुछ क्षण बाद।
*आनन्द* : अब हम बात करेंगे एक आदर्श अर्थव्यवस्था के पहले और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु की: व्यष्टि-व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान। प्रकृति का गुणधर्म ही विचित्रता है, किरण। क्या तुमने कभी दो बिल्कुल एक जैसे पत्ते देखे हैं?
*किरण* : नहीं, मैंने नहीं देखे। हर पत्ता थोड़ा अलग होता है।
*आनन्द* : बिल्कुल! यह विचित्रता ही प्रकृति का सौंदर्य है। समानता की अवस्था तो या तो सृष्टि के निर्माण से पहले की है, या फिर उसके प्रलय की। हमारी मानव समाज भी इसी विविधता से भरा है। हर व्यक्ति अद्वितीय है, उसकी अपनी क्षमताएं हैं, उसकी अपनी आवश्यकताएं हैं।
*किरण* : तो आप कहना चाहते हैं कि हमें हर व्यक्ति को अलग-अलग देखना चाहिए, न कि एक ही समूह के रूप में?
*आनन्द* : हाँ, यही बात है। एक आदर्श और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का संगठन इस मौलिक सत्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। हमें एक ऐसा अर्थतंत्र बनाना होगा जो प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता का सम्मान करे, उसे अपनी क्षमता के अनुसार योगदान करने और विकसित होने का अवसर दे। यह एक ऐसा तंत्र नहीं हो सकता जो सबको एक ही लाठी से हांकने की कोशिश करे। जब हम हर व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान करते हैं, तभी समाज में सही अर्थों में प्रगति आ पाती है।
*किरण* : यह तो मुझे बहुत तार्किक लग रहा है।
*तृतीय दृश्य: सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकता*
*स्थान* : एक सामुदायिक केंद्र का दृश्य।
*किरण* : (सोचते हुए) यदि हर व्यक्ति विशिष्ट है, तो उसकी आवश्यकताएं भी विशिष्ट होंगी। लेकिन क्या कुछ मूलभूत आवश्यकताएं ऐसी नहीं हैं जो सभी के लिए समान हों?
*आनन्द* : (दृढ़ता से) बिल्कुल, किरण। यही हमारे अर्थचक्र का दूसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है: सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करना समाज का परम धर्म है। ये न्यूनतम आवश्यकताएं हैं अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा। कोई भी समाज तब तक प्रगतिशील नहीं हो सकता, जब तक वह अपने हर सदस्य की इन मूलभूत जरूरतों को पूरा न कर दे।
*किरण* : लेकिन यह कैसे संभव होगा? क्रयशक्ति का क्या होगा?
*आनन्द* : समाज को प्रत्येक व्यक्ति की क्रयशक्ति को इतना मजबूत करना होगा कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो सकें। यह केवल सहायता देने की बात नहीं है, बल्कि रोजगार के अवसर पैदा करने, कौशल विकास को बढ़ावा देने और एक ऐसा वातावरण बनाने की बात है जहाँ हर कोई सम्मानपूर्वक अपनी आजीविका कमा सके।
*किरण* : इतने से हो जाएगा
*आनन्द* : आवास के लिए, एक आदर्श नीति होनी चाहिए - प्रत्येक को एक घर। यह सिर्फ आश्रय नहीं, बल्कि स्थिरता और गरिमा का प्रतीक है। और सबसे महत्वपूर्ण, शिक्षा और चिकित्सा व्यवसायीकरण से मुक्त होनी चाहिए। ये दोनों हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार हैं, और इन्हें सभी को निःशुल्क और समान रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में लाभ का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि सेवा का भाव होना चाहिए। जब ये मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होती हैं, तभी व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं पर ध्यान केंद्रित कर पाता है और समाज के लिए अधिक योगदान दे पाता है।
*किरण* : यह तो एक बहुत ही मानवीय और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण है।
*चतुर्थ दृश्य: गुणीजन का सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान*
*स्थान* : एक आधुनिक नवाचार केंद्र।
*आनन्द* : अब हम एक ऐसे विषय पर बात करेंगे जो अक्सर विवादास्पद लगता है, लेकिन एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक है: गुणीजन का सामाजिक एवं आर्थिक उचित सम्मान।
*किरण* : गुणीजन? आप किनकी बात कर रहे हैं?
*आनन्द* : गुणीजन से मेरा तात्पर्य प्रतिभाशाली अथवा योग्यजन से है। वे लोग जो अपने ज्ञान, अपनी विशेषज्ञता, अपने नवाचार से समाज के लिए असाधारण मूल्य का सृजन करते हैं। चिकित्सक, वैज्ञानिक, कलाकार, उद्यमी, कुशल कारीगर, शिक्षक – ये सभी गुणीजन हैं।
*किरण* : तो क्या उन्हें अतिरिक्त लाभ मिलना चाहिए?
*आनन्द* : हाँ, किरण। तर्क को समझो। समाज में सबसे पहले सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए। यह संपदा पर पहला अधिकार है। लेकिन एक बार जब यह सुनिश्चित हो जाए, तो गुणीजन का अतिरिक्त संपदा पर प्रथम अधिकार होना चाहिए।
*किरण* : इसका क्या मतलब है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि उनके गुण के अनुपात में उन्हें अतिरिक्त संपदा का वितरण किया जाना चाहिए। यह उन्हें प्रोत्साहित करता है, उन्हें नवाचार करने के लिए प्रेरित करता है, और समाज को उनकी प्रतिभा का अधिक से अधिक लाभ मिलता है। कल्पना करो कि यदि एक वैज्ञानिक जिसने कोई असाधारण खोज की है, या एक कलाकार जिसने महान कलाकृति बनाई है, उसे उसके श्रम और प्रतिभा का उचित प्रतिफल न मिले, तो क्या वह अगली बार उतना ही उत्साह दिखाएगा? यह सम्मान केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी होना चाहिए। उनके योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए, ताकि अन्य लोग भी उत्कृष्टता की ओर प्रेरित हों। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो सभी की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के बाद, उन लोगों को पुरस्कृत करती है जो समाज के विकास में असाधारण योगदान देते हैं।
*किरण* : मैं समझ गया। यह प्रतिभा को प्रोत्साहित करने और समाज को आगे बढ़ाने का एक तरीका है।
*पंचम दृश्य: समाज के न्यूनतम मानक का वृद्धिमान होना*
*स्थान* : एक समयरेखा पर आधारित ग्राफिक्स का प्रदर्शन।
*आनन्द* : अब हम अपने अर्थचक्र के एक और महत्वपूर्ण पहलू पर आते हैं: समाज के न्यूनतम मानक सदैव वृद्धिमान रहना आवश्यक है। यह समाज का जीवंत लक्षण है, किरण। इसके बिना, समाज एक मृत संस्था बन जाता है।
*किरण* : न्यूनतम मानक का बढ़ना? आप किस तरह के मानकों की बात कर रहे हैं?
*आनन्द* : याद है, हमने अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा की बात की थी? ये मूलभूत न्यूनतम मानक हैं। लेकिन समय के साथ, युग के अनुसार, ये मानक उत्तरोत्तर वृद्धिशील होने चाहिए।
*किरण* : जैसे कि पहले केवल मूलभूत शिक्षा पर्याप्त थी, लेकिन अब डिजिटल शिक्षा भी आवश्यक है?
*आनन्द* : बिल्कुल सही! पहले शायद केवल एक साधारण आवास ही न्यूनतम आवश्यकता थी, लेकिन आज शायद स्वच्छता, बिजली और इंटरनेट जैसी सुविधाएं भी इसमें शामिल होनी चाहिए। यह केवल भौतिक आवश्यकताओं की बात नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं की भी है। एक प्रगतिशील समाज वह है जो लगातार अपने नागरिकों के लिए जीवन की गुणवत्ता के मानकों को ऊपर उठाता रहता है। यदि हम अपने न्यूनतम मानकों को स्थिर कर देंगे, तो हम ठहराव की स्थिति में आ जाएंगे। यह एक गतिशील प्रक्रिया है, जो समाज के विकास और नवाचार के साथ चलती रहनी चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि समाज हमेशा आगे बढ़ रहा है, और कोई भी पीछे नहीं छूट रहा है।
*किरण* : यह तो वाकई एक जीवित समाज की निशानी है।
*षष्ठी दृश्य: अर्थचक्र या अर्थतंत्र का सारांश*
*स्थान* : वही उपवन, शाम का समय।
*किरण* : (संतोष के साथ) दादाजी, आज आपने मुझे अर्थचक्र के बारे में बहुत कुछ सिखाया। यह एक बहुत ही सुंदर और तार्किक व्यवस्था लगती है।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) मुझे खुशी है कि तुम इसे समझ पाए, किरण। _यह श्री प्रभात रंजन सरकार की आधुनिक दुनिया को दी अनूठा उपहार है।_ चलो, एक बार फिर से इस पूरे चक्र को संक्षेप में समझते हैं।
*आनन्द* : इस प्रकार, हमारा अर्थचक्र पहले व्यष्टि-व्यष्टि को समझता है और उनकी अद्वितीयता का सम्मान करता है। फिर, यह समाज को एक जिम्मेदार संस्था बनाता है, जो सभी की न्यूनतम आवश्यकताओं - अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा - की पूर्ति का धर्म निभाता है। तत्पश्चात, यह विशिष्ट अर्थात योग्यजन का महत्व प्रकाशित करता है, उन्हें उनके असाधारण योगदान के लिए उचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान देता है, बशर्ते सभी की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो चुकी हों। और अंत में, फिर से समाज अपनी प्रधानता बनाये रखने के लिए अपने न्यूनतम मान को बढ़ाता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि जीवन की गुणवत्ता के मानक हमेशा उत्तरोत्तर वृद्धिशील रहें।
*किरण* : यह एक ऐसा चक्र है जहाँ हर तत्व एक दूसरे को सहारा देता है और आगे बढ़ाता है। यह केवल धन कमाने के बारे में नहीं है, बल्कि एक न्यायपूर्ण, मानवीय और प्रगतिशील समाज बनाने के बारे में है।
*आनन्द* : तुमने बिल्कुल सही समझा, किरण। यही "अर्थचक्र या अर्थतंत्र - एक आदर्श एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था" का सार है। यह केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है, एक मानवीय दर्शन है। क्या तुम इसमें अपनी भूमिका देखते हो?
*किरण* : (आशा के साथ) हाँ, दादाजी। अब मैं समझ गया हूँ कि हम सभी इस अर्थचक्र का हिस्सा हैं, और हम सभी इसे प्रगतिशील बनाने में योगदान दे सकते हैं।
*आनन्द* : हाँ, इसको प्रउत की मूल नीति भी कहते हैं।
(आनन्द और किरण एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। सूर्यास्त का प्रकाश उन पर पड़ता है।)
(पर्दा गिरता है)
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
पात्र:
* *आनन्द* : प्रउत (प्रगतिशील उपयोग तत्व) के ज्ञाता
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष
*दृश्य 1: संचय सिद्धांत*
( समाज के आदेश के बिना धन का संचय करना अकर्तव्य है।)
*स्थान* : एक शांत बगीचा। आनन्द और किरण बेंच पर बैठे हैं।
*किरण* : दादाजी, मैं उपयोग चक्र के बारे में जानना चाहता हूँ। इसकी शुरुआत कहाँ से होती है?
*आनन्द* : किरण, उपयोग चक्र का पहला चरण संचय सिद्धांत है। इसका मूल मंत्र है कि समाज के आदेश के बिना धन का संचय करना अकर्तव्य है।
*किरण* : समाज का आदेश? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि व्यक्ति को केवल उतना ही संचय करना चाहिए जितनी उसकी वर्तमान और भविष्य की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए आवश्यक हो। शेष धन समाज की भलाई के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। यह सिर्फ भौतिक धन की बात नहीं है, बल्कि ज्ञान और क्षमताओं का संचय भी इसी दायरे में आता है। बिना उपयोग के केवल इकट्ठा करते रहने से समाज में विषमता आती है।
*किरण* : तो क्या यह सीधे तौर पर लोभ के खिलाफ है?
*आनन्द* : बिल्कुल। यह बताता है कि हमारा अस्तित्व समाज से जुड़ा है। हम समाज से प्राप्त करते हैं, तो समाज को वापस देना भी हमारा कर्तव्य है। संचय यदि आवश्यकता से अधिक हो और उसका उपयोग न हो, तो वह स्थिर और अनुपयोगी हो जाता है।
*दृश्य 2: उत्पादन एवं वितरण सिद्धांत*
(स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण संपदा का चरम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण)
*स्थान* : एक अध्ययन कक्ष, जहाँ कुछ किताबें और चार्ट रखे हैं।
*आनन्द* : संचय के बाद आता है उत्पादन एवं वितरण सिद्धांत। इसमें हम स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत की संपदा का चरम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण की बात करते हैं। इसे ही विचारपूर्ण अथवा न्यायपूर्ण वितरण कहते हैं।
*किरण* : यह "समान वितरण" से कैसे अलग है, जिसकी बात कुछ लोग करते हैं?
*आनन्द* : यह कभी भी समान वितरण की अवधारणा नहीं है। इसमें दो मुख्य सूत्र हैं। पहला, न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति। हर व्यक्ति को जीवित रहने और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक चीजें मिलनी चाहिए। चाहे वह भोजन हो, वस्त्र हो, आवास हो, शिक्षा हो या चिकित्सा।
*किरण* : और दूसरा सूत्र?
*आनन्द* : दूसरा है, गुणीजन को गुण के अनुपात में वितरित करना। इसका अर्थ है कि जिसकी जितनी योग्यता और गुण है, उसे उसी अनुपात में पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इससे लोग अपनी क्षमताओं का विकास करने और समाज के लिए अधिक योगदान देने के लिए प्रेरित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक कुशल डॉक्टर को एक सामान्य श्रमिक से अधिक मिलना चाहिए, क्योंकि उसका ज्ञान और कौशल समाज के लिए अधिक मूल्यवान है। यह प्रेरणा और न्याय का संतुलन है।
*दृश्य 3: संसाधनों (मानवीय एवं भौतिक) का उपयोग का सिद्धांत*
(व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना अथवा क्षमता का अधिकतम उपयोग करना)
*स्थान* : एक कार्यशाला जहाँ लोग विभिन्न गतिविधियों में लगे हैं।
*आनन्द* : अब हम आते हैं संसाधनों (मानवीय एवं भौतिक) के उपयोग के सिद्धांत पर। यहाँ मुख्य बात है व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना अथवा क्षमता का अधिकतम उपयोग करना।
*किरण* : यानी हर व्यक्ति और पूरे समाज की क्षमता का पूरा उपयोग हो?
*आनन्द* : ठीक समझे। इसमें केवल भौतिक संसाधनों का उपयोग ही नहीं, बल्कि मनुष्य की अंतर्निहित क्षमताओं को विकसित करना और उनका उपयोग करना भी शामिल है। शारीरिक शक्ति का उपयोग हो, मानसिक क्षमताओं का विकास हो, और आध्यात्मिक संभावनाओं को भी साकार किया जाए। यदि किसी व्यक्ति में कोई विशेष प्रतिभा है, तो समाज को उसे निखारने और उसका उपयोग करने का अवसर देना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक अच्छा गायक अपनी गायन क्षमता का उपयोग करे, एक वैज्ञानिक अपनी बुद्धि का, और एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि का।
*किरण* : तो यह सिर्फ काम करने तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण विकास की बात है।
*आनन्द* : बिल्कुल। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी क्षमता व्यर्थ न जाए, चाहे वह व्यक्ति की हो या समाज की।
*दृश्य 4: उपयोग में सुसंतुलन का सिद्धांत*
(व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथा समष्टि की स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण क्षमताओं के उपयोग में एक सुसंतुलन)
*स्थान* : एक ध्यान केंद्र, जहाँ शांति का अनुभव होता है।
*आनन्द* : यह सिद्धांत उपयोग में सुसंतुलन की बात करता है। इसमें व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथा समष्टि की स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण क्षमताओं के उपयोग में एक सुसंतुलन बताया गया है।
*किरण* : यह कुछ जटिल लग रहा है। क्या आप इसे सरल कर सकते हैं?
*आनन्द:* अवश्य। इसमें तीन मुख्य सिद्धांत हैं। पहला सिद्धांत यह है कि शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता में से जिसका विकास होगा, समाज उसका अधिकतम उपयोग करेगा। यानी, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से बहुत सशक्त है, तो समाज उसकी शारीरिक शक्ति का उपयोग करेगा। यदि कोई मानसिक रूप से तीव्र है, तो उसकी मानसिक क्षमता का।
*किरण* : और दूसरा?
*आनन्द* : दूसरे सिद्धांत में, शारीरिक एवं मानसिक संभावना रहने पर मानसिक क्षमता का अधिक तथा शारीरिक क्षमता का कम उपयोग लेना है। इसका अर्थ है कि बौद्धिक कार्य को शारीरिक श्रम पर वरीयता दी जानी चाहिए, क्योंकि मानसिक क्षमताएँ अधिक जटिल, सूक्ष्म और शक्तिशाली होती हैं।
*किरण* : और तीसरा सिद्धांत?
*आनन्द* : तृतीय सिद्धांत के तहत, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों संभावना रहने पर उपयोग का क्रम अधिक से कम में आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक रहेगा। यह सबसे महत्वपूर्ण है। जब व्यक्ति में तीनों क्षमताएं विकसित हों, तो उसकी आध्यात्मिक क्षमता का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए, फिर मानसिक का, और अंत में शारीरिक का। यह हमें बताता है कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आध्यात्मिक विकास है, और समाज को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
*दृश्य 5: उपयोगिता में परिवर्तनशीलता का सिद्धांत* (देश, काल व पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तन)
*स्थान* : एक ऐतिहासिक संग्रहालय, जहाँ पुरानी और नई वस्तुएँ प्रदर्शित हैं।
*आनन्द* : हमारा अंतिम सिद्धांत है उपयोगिता में परिवर्तनशीलता का सिद्धांत। इसमें देश, काल व पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तन रखा गया है।
*किरण* : इसका क्या मतलब है? क्या उपयोग की अवधारणा स्थिर नहीं है?
*आनन्द* : बिल्कुल नहीं। उपयोगिता हमेशा स्थिर नहीं रहती। जो चीज़ आज उपयोगी है, हो सकता है कल उसकी उपयोगिता बदल जाए। जैसे, प्राचीन काल में जल संग्रहण की तकनीकें बहुत महत्वपूर्ण थीं, आज भी हैं, लेकिन आधुनिक समय में उनकी विधि और पैमाने में अंतर आ गया है। एक ही वस्तु की उपयोगिता अलग-अलग देशों में, अलग-अलग समय में और अलग-अलग व्यक्तियों के लिए भिन्न हो सकती है।
*किरण* : तो यह हमें बदलते समय के साथ अनुकूल होने में मदद करता है?
*आनन्द* : ठीक समझे। इससे उपयोगिता प्रगतिशील रहती है। यह हमें जड़ता से बचाता है और निरंतर नवाचार तथा विकास के लिए प्रेरित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि हम हमेशा सबसे प्रभावी और प्रासंगिक तरीके से संसाधनों का उपयोग करें।
*दृश्य 6: प्रगतिशील उपयोग तत्व का प्रचारण*
(सर्वजन हित तथा सर्वजन सुख में प्रचारित किये गए हैं।)
*स्थान* : एक मंच पर जहाँ एक पुराना बैनर लगा है: "आषाढ़ पूर्णिमा 1969, बंगाब्द"
*किरण* : दादाजी, यह सब बहुत गहन है। मुझे उम्मीद है कि ये सिद्धांत व्यापक रूप से प्रचारित किए गए हैं।
*आनन्द* : हाँ, किरण। प्रउत प्रणेता श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने इन सिद्धांतों केवल कुछ लोगों के लिए नहीं हैं। यह सर्वजन हित तथा सर्वजन सुख में प्रचारित किये गए हैं। इनकी परिकल्पना और प्रचारण का उद्देश्य सभी का भला करना है।
*किरण* : और इसकी शुरुआत कब और कहाँ हुई?
*आनन्द* : आनन्द सूत्रम के अनुसार प्रगतिशील उपयोग तत्व के प्रचारण की तिथि आषाढ़ पूर्णिमा 1969 है। स्थान बंगाल से। वहीं से ये विचार पूरी दुनिया में फैले और लोगों को एक न्यायपूर्ण, प्रगतिशील समाज की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया।
*किरण* : (गहरी सांस लेते हुए) यह तो एक नया दृष्टिकोण है जीवन और समाज को देखने का। मैं अब उपयोग चक्र अथवा उपयोग तत्व को बहुत बेहतर ढंग से समझ गया हूँ। इस प्रकार उपयोग तत्व अब उपयोग तत्व न रहकर प्रगतिशील उपयोग तत्व बन जाता है।
*आनन्द* : यही तो इसकी सार्थकता है, किरण। समझना और फिर उसे अपने जीवन में और समाज में उतारने का प्रयास करना।
(पर्दा गिर जाता है)
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