12
पात्र:
* *आनंद* : ज्ञाता (The Knower)
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष (The Seeker)
*दृश्यांकन* : एक शांत, ध्यानपूर्ण स्थान। मंच पर बीच में एक ज्योतिर्मय बिंदु (एक छोटी लाइट या प्रतीक) स्थापित है, जिसके चारों ओर एक त्रिभुज बना हुआ है।
(पर्दा उठता है। आनंद और किरण मंच पर प्रवेश करते हैं। आनंद शांत और स्थिर हैं, जबकि किरण में जिज्ञासा स्पष्ट दिख रही है।)
*किरण* : दादाजी, मैं बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि यह सृष्टि कैसे बनी? कहाँ से आई? मेरा मन अशांत है।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) किरण, तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें सत्य के निकट ले जाएगी। आओ, आज मैं तुम्हें सृष्टि चक्र का रहस्य बताता हूँ।
(आनंद उस ज्योतिर्मय बिंदु की ओर इशारा करते हैं।)
*आनंद* : देखो, यह परम तत्व है, एक सूक्ष्म बिंदु। यह ही सब कुछ है, और इसमें ही सब कुछ समाहित है।
*किरण* : एक बिंदु? इतना विशाल ब्रह्मांड एक बिंदु से?
*आनंद* : धैर्य रखो, प्रिय। इसी बिंदु के चारों ओर तीन गुण विद्यमान हैं, जिन्हें हम त्रिभुज के परिणामस्वरूप में देखते हैं।
(त्रिभुज के तीन कोनों की ओर संकेत करते हैं।)
*आनंद* : इस त्रिभुज का प्रथम बिंदु है सत्वगुण। इसी सत्वगुण से महत्तत्व का निर्माण होता है – यह सृष्टि का सबसे पहला, मूल विचार या बुद्धि है। मैं हूँ का बोध है।
*किरण* : महत्तत्व...
*आनंद* : हाँ। फिर आता है दूसरा बिंदु – रजोगुण। रजोगुण से अहमतत्व बनता है – यह वह शक्ति है जो 'मैं' कर्ता हूँ का अनुभव कराती है।
*किरण* : 'मैं' कर्ता का भाव... समझ रहा हूँ।
*आनंद* : और तीसरा बिंदु है तमोगुण। तमोगुण के प्रभाव से चित्त तत्व का निर्माण होता है – यह वह शक्ति है जो अनुभवों को ग्रहण करती है और संचित करती है।
*आनंद* : इन तीनों तत्वों – महत्तत्व, अहमतत्व और चित्त तत्व – को ही हम भूमा मन कहते हैं। यह वह विराट मन है जिससे सारा ब्रह्मांड संचालित होता है।
(मंच पर हल्की धुंध या धुआँ उठता है, और ध्वनि प्रभाव के साथ धीरे-धीरे पांच तत्व प्रतीक रूप में उभरने लगते हैं – आकाश के लिए नीला कपड़ा, वायु के लिए पंखा, अग्नि के लिए लाल प्रकाश, जल के लिए पानी का पात्र, पृथ्वी के लिए रेत का ढेर।)
*आनंद* : अब ध्यान दो, जब यह भूमा चित्त पर तमोगुण का प्रभाव और बढ़ता है, तब पंचमहाभूतों का निर्माण होता है। क्रमशः आकाश, फिर वायु, उसके बाद अग्नि, फिर जल, और अंत में पृथ्वी तत्व।
*किरण* : (विस्मय से देखता है) तो ये सब उस एक बिंदु से ही निकले हैं!
*आनंद* : बिलकुल। और फिर, इस पृथ्वी तत्व पर एक महान घटना घटित होती है – एक जड़ विस्फोट। यह वह क्षण है जब जीवन की पहली चिंगारी फूटती है।
(धमाके की हल्की ध्वनि, प्रकाश चमकता है।)
*किरण* : यह क्या?
*आनंद* : इस विस्फोट के कारण जीव देह, जीव प्राण और जीव मन का निर्माण होता है। यहीं से व्यक्तिगत जीव की यात्रा शुरू होती है।
(मंच पर प्रकाश बदलता है, और जीवन के विकास के चरण प्रतीक रूप में दिखाए जाते हैं। पहले एककोशिकीय जीव का सूक्ष्म प्रतीक, फिर पौधों के अंकुर, उसके बाद जलचर, उभयचर, नभचर, जरायुज और अंत में मानव आकृति।)
*किरण* : अद्भुत!
*आनंद* : इस प्रकार, पृथ्वी पर जीवन का विकास होता है। सबसे पहले एककोशिकीय जीव बनते हैं, फिर पादप (पौधे)। इसके बाद बहुकोशिकीय जीव पादप आते हैं, जो विकसित होते हैं।
*किरण* : यह तो क्रमिक गति है।
*आनंद* : हाँ, फिर जीवन जल में पनपता है – जलचर। जो जल और भूमि दोनों पर रह सकते हैं, वे उभयचर। आकाश में उड़ने वाले नभचर अण्डज जीव (अंडों से जन्म लेने वाले)।
*किरण* : आगे
*आनन्द* : इसके बाद जरायुज जीव आते हैं (जो सीधे जन्म लेते हैं), और उनमें धीरे-धीरे बुद्धि का विकास होता है। यहीं से वानर प्रजाति का उदय होता है, जिनमें प्रज्ञा की झलक दिखती है।
*किरण* : (उत्सुकता से) और मनुष्य?
*आनंद* : अंत में, इन्हीं से मनुष्य का निर्माण होता है। मनुष्य अपनी उन्नत प्रज्ञा (उच्च बुद्धि) के कारण सभी जीवों में श्रेष्ठ है। वह न केवल अस्तित्व को समझता है, बल्कि उसे रूपांतरित भी कर सकता है।
*किरण* : वाह!
*आनंद* : और जब मनुष्य अपनी इस प्रज्ञा का सदुपयोग करता है, तो वह प्रज्ञाशील मनुष्य बनता है – वह जो केवल जानता नहीं, बल्कि उस ज्ञान को अपने जीवन में उतारता है।
(मंच पर प्रकाश शांत और गहरा होता है, ध्यान का वातावरण बनता है। आनंद अपनी आँखें बंद कर लेते हैं, मानो गहरे ध्यान में हों।)
*किरण* : फिर
*आनंद* : और यहाँ से शुरू होती है वापसी की यात्रा, मोक्ष की ओर। यह प्रज्ञाशील मनुष्य साधना के मार्ग पर चलता है। वह अपने मन को एकाग्र करता है, इंद्रियों को शांत करता है।
*किरण* : साधना!
*आनंद* : इस साधना के द्वारा, उसका अणु मन धीरे-धीरे उसी भूमा मन में विलीन होते जाते हैं, जहाँ से वे आए थे।
*किरण* : (हैरानी से) भूमा मन में विलय?
*आनंद* : हाँ। और अंततः, यह मन उस परम भूमा चैतन्य में विलीन हो जाता है, जो हमारा आदि और अंत है – वह निराकार, सर्वव्यापी परम तत्व, जो उस बिंदु का सार है।
(आनंद उस ज्योतिर्मय बिंदु की ओर देखते हैं।)
*किरण* : इसको एक शब्द में क्या कहा जाता है?
आनंद: यही संपूर्ण सृष्टि चक्र है, किरण। बिंदु से सृष्टि का उद्भव, विकास, और अंततः बिंदु में ही विलय। यह न आदि है न अंत, बस एक सतत प्रवाह है।
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) दादाजी, आपने मेरी आँखों से एक पर्दा हटा दिया। अब मुझे समझ आया कि हम सब एक ही ऊर्जा के अंश हैं, उसी परम तत्व से निकले हुए।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) हाँ, जी। अब इस ज्ञान को अपने जीवन में उतारो। जानो कि तुम भी उस परम तत्व का ही एक अंश हो, और तुम्हारा लक्ष्य भी उसी में विलीन होना है। यह केवल एक कहानी नहीं, यह तुम्हारी स्वयं की यात्रा है।
*किरण* : यह ज्ञान कहा से आया है?
*आनन्द* : यह ज्ञान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का बताया ज्ञान है। तुम जग को बता दो
(किरण आनंद के चरणों में झुकता है। पर्दा धीरे-धीरे गिरता है।)
13
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
*कर्मचक्र*
(एक आध्यात्मिक तार्किक चर्चा)
पात्र:
* *आनंद* (ज्ञाता मन): एक अनुभवी, शांत और ज्ञानी व्यक्ति।
* *किरण* (जिज्ञासु मन): एक उत्साही, प्रश्नशील और सत्य की खोज करने वाला।
*दृश्य* : एक शांत उपवन का कोना, जहाँ आनंद और किरण एक बेंच पर बैठे हैं।
*(जन्म, कर्म, कर्मफल, मृत्यु व पुनः जन्म)*
*किरण* : (उत्सुकता से) दादा जी, यह "कर्मचक्र" क्या है? मैं बहुत समय से इस विषय पर विचार कर रहा हूँ, पर उलझनें बढ़ती ही जा रही हैं। लोग कहते हैं कि आत्मा कर्म करती है, फल भोगती है, लेकिन मुझे यह सब समझ नहीं आता।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) किरण, तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें सत्य के निकट लाएगी। आओ, आज हम इस कर्मचक्र को थोड़ा गहराई से समझते हैं। सबसे पहले, यह जान लो कि आत्मा कोई कर्म नहीं करती है। अणु चैतन्य तो परम साक्षी है।
*किरण* : तो मै हूँ का बोध कराने वाला महत्तत्व काम करता होगा?
आनन्द : नहीं, किरण। वह विषय के साथ संयुक्त रहने पर भी अकर्ता ही है।
*किरण* : तो फिर कर्म कौन करता है? यदि आत्मा कर्म नहीं करती, महत्तत्व कर्म नहीं करता, तो कौन है जो क्रियाशील है?
*आनंद* : यहीं पर अधिकांश लोग भ्रमित हो जाते हैं। कर्म का वास्तविक कर्ता अहमतत्व है। यह हमारा अहम् है, जो स्वयं को कर्ता मानता है। अहमतत्व ही कर्म करता है और वही कर्मफल भी भोगता है। जब तुम कहते हो 'मैंने यह किया' या 'मुझे इसका फल मिला', तो यह अहमतत्व की ही बात है।
*किरण* : (सोचते हुए) अहमतत्व... यह तो बिल्कुल नया दृष्टिकोण है। लेकिन, चित्त की क्या भूमिका है इसमें?
*आनंद* : बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न! चित्ततत्व कर्म व कर्मफल का रूप ग्रहण करता है। इसे ऐसे समझो कि चित्त एक दर्पण की तरह है। जब अहमतत्व कोई कर्म करता है, तो उसकी छाप चित्त पर पड़ती है। यही छाप चित्त में एक प्रकार की विकृति लाती है।
*किरण* : विकृति? मतलब, चित्त में अशुद्धि आ जाती है?
*आनंद* : हाँ, मूल अवस्था से एक ओर खिचक जाना, एक तरह से। और इस विकृति को दूर करने के लिए ही कर्मफल आता है। कर्मफल के माध्यम से, वह विकृत चित्त पुनः अपनी मूल अवस्था में आता है। यह एक संतुलन की प्रक्रिया है। जैसे पत्थर मारने से पानी में लहरें उठती हैं और फिर शांत हो जाती हैं, वैसे ही कर्म से चित्त में हलचल होती है और कर्मफल से वह शांत होता है।
*किरण* : यह विकृति कैसी है?
*आनन्द* : - सुकर्म से सु तथा कुकर्म से कु विकृति आती है।
*किरण* : यह विकृति कैसे दूर होती है ?
*आनन्द* : सुकर्म का फल सुफल तथा कुकर्म का फल कुफल होता है।
*किरण* : क्या अच्छे एवं बुरे कर्म बराबर होने पर कर्म की शून्य अवस्था आती है?
*आनन्द* : यह गलत सिद्धांत है। कर्म की शून्य अवस्था कर्म के प्रतिफल पर निर्भर करती है। यह सही सिद्धांत है।
*किरण* : यह तो बहुत तार्किक लगता है! तो फिर मृत्यु और पुनर्जन्म का क्या संबंध है इससे? लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद भी आत्मा भटकती है, भूत-प्रेत होते हैं।
*आनंद* : (गंभीर होते हुए) यहीं पर सबसे बड़ी भ्रांतियाँ हैं, किरण। मनुष्य मृत्यु के पूर्व क्षण तक कर्म करता रहता है, किंतु अक्सर उसे कर्मफल नहीं मिलता है। यह अभुक्त कर्मफल ही पुनः जन्म लेने का कारण बनता है।
*किरण* : तो क्या भूत-प्रेत जैसी कोई चीज़ नहीं होती? यह सिर्फ मन का वहम है?
*आनंद* : बिल्कुल! मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि भूत-प्रेत नहीं होते हैं। इसलिए, विदेही मन का भटकना इत्यादि भ्रांत धारणाएं हैं। एक विदेही मन, अर्थात शरीर-रहित मन, कर्म नहीं कर सकता है, अतः कर्मफल भी ग्रहण नहीं करता है। कर्म करने के लिए, उसे एक शरीर की आवश्यकता होती है।
*किरण* : (आश्चर्य से) यह तो मेरी सारी पुरानी धारणाओं को तोड़ रहा है! और आत्मा की तृप्ति या तृपण का क्या?
*आनंद* : आत्मा की तृप्ति व तृपण एक मिथ्या धारणा है। आत्मा तो परम सत्ता का अंश है, वह स्वयं में पूर्ण है, उसे किसी तृप्ति की आवश्यकता नहीं है।
*किरण* : तो फिर मृत्यु क्या है? यदि आत्मा को कुछ नहीं होता, तो मृत्यु को कैसे परिभाषित करेंगे?
*आनंद* : कारण मन की दीर्घ निद्रा को मृत्यु कहते हैं। यह एक अस्थायी विराम है, एक अवस्था परिवर्तन। जब हम जाग्रत अवस्था में होते हैं, तो हमारे स्थूल, सूक्ष्म व कारण तीनों मन क्रियाशील होते हैं। स्थूल मन इंद्रियों से जुड़ा है, सूक्ष्म मन विचारों और भावनाओं से, और कारण मन संस्कारों से।
*किरण* : और स्वप्न और निद्रा में?
*आनंद* : स्वप्न अवस्था में, सूक्ष्म व कारण मन क्रियाशील होते हैं। स्थूल मन निष्क्रिय होता है। और गहरी निद्रावस्था में, केवल कारण मन ही क्रियाशील है। स्थूल और सूक्ष्म मन दोनों शांत होते हैं। मृत्यु भी इसी कारण मन की दीर्घ निद्रा है,
*किरण* : तो क्या मन ही नया शरीर ढूंढता है? यह कैसे होता है?
*आनंद* : हाँ, यह एक जटिल प्रक्रिया है। अणु प्रकृति नया शरीर ढूँढने में मन की मदद करती है। यह मन के संस्कारों के अनुसार एक उपयुक्त शरीर खोजने में सहायता करती है। नया शरीर उसके संस्कार के अनुसार चयन होता है। यही कारण है कि कोई अमीर घर में जन्म लेता है, तो कोई गरीब में, कोई स्वस्थ तो कोई बीमार।
*किरण* : और समय सीमा? मतलब, नया शरीर मिलने में कितना समय लगता है?
*आनंद* : नया शरीर मिलने की समय सीमा उसके संस्कार पर निर्भर करती है। कुछ विदेही मन तुरंत नया शरीर पा लेती हैं, जबकि कुछ को प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। इसी प्रकार, किस जगह, किस ग्रह पर नया जन्म होगा, यह भी उसके संस्कार पर निर्भर करता है। यह सब कुछ हमारे ही कर्मों और संचित संस्कारों का परिणाम है।
*किरण* : (गहरे चिंतन में) दादाजी, आपने तो मेरे सामने एक बिल्कुल नया मार्ग खोल दिया है। यह सब कितना तार्किक और समझने योग्य है! अब मैं समझ रहा हूँ कि हमें अपने मन को नियंत्रित करना कितना आवश्यक है, क्योंकि वही कर्मों का कर्ता है।
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) बिल्कुल किरण! जब तुम यह समझ जाते हो कि कर्म अहमतत्व द्वारा होते हैं, तो तुम अपने कर्मों के प्रति अधिक सचेत हो जाते हो। यही आत्मज्ञान की ओर पहला कदम है। अब तुम इस ज्ञान को अपने जीवन में कैसे उतारते हो, यह तुम पर निर्भर करता है।
*किरण* : इस जन्म मरण के चक्र से कैसे छूट कारा मिलता है?
*आनन्द* : पहले यह समझ लो जन्म मरण एवं पुनर्जन्म को कर्मचक्र या कर्म का विज्ञान द्वारा समझा गया है। इस आवागमन के चक्र से मुक्ति के लिए मनुष्य को आध्यात्म पथ पर चलना होता है।
*किरण* : यह कैसे?
*आनन्द* : प्रत्येक कर्म में ब्रह्म भाव लेते हुए निष्काम कर्म करना तथा ब्रह्मभाव में लीन होकर मुक्ति की अवस्था प्राप्त करते हैं।
किरण : आपने मेरी आँखें खोल दी।
(आनंद और किरण एक दूसरे को देखते हैं, किरण के चेहरे पर एक नई समझ और शांति का भाव है।)
(पर्दा गिर जाता है)
14
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
" *समाज चक्र* "
(एक तार्किक सामाजिक आर्थिक चर्चा)
पात्र:
* *आनन्द* : प्रउत का ज्ञाता
* *किरण* : एक जिज्ञासु पुरुष
*प्रथम दृश्य*
`(वर्ण प्रधान - समाज चक्र)`
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ आनन्द और किरण बैठे हुए हैं।
(किरण कुछ सोच रहा है, फिर आनन्द की ओर देखता है।)
*किरण* : दादाजी, मैं इस समाज की व्यवस्था को समझना चाहता हूँ। यह कैसे चलता है, कैसे बदलता है? क्या कोई व्यवस्था है?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) अवश्य, किरण। यह समाज एक चक्र के समान है, जिसे हम 'समाज चक्र' कहते हैं। इसका आधार है वर्ण प्रधानता, लेकिन इसे जाति व्यवस्था से भ्रमित मत करना। यह आर्थिक क्षमता का द्योतक है।
*किरण* : आर्थिक क्षमता? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि समाज में प्रधानता एक निश्चित क्रम में प्राप्त होती है, जो सामाजिक आर्थिक शक्ति के साथ बदलती रहती है। यह क्रम है - शूद्र, क्षत्रिय, विप्र और वैश्य।
*किरण* : शूद्र, क्षत्रिय, विप्र, वैश्य? लेकिन ये तो जाति के नाम हैं!
*आनन्द* : नहीं, यह धारणा गलत है। ये वर्ण हैं, और इनका संबंध मन के रंग से है, प्रवृत्ति से है, कार्य करने की क्षमता से है। समय के साथ, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार, इन वर्णों की प्रधानता बदलती रहती है।
*द्वितीय दृश्य*
`(वर्ण एवं समाज चक्र में इनका स्थान)`
*स्थान* : वही उपवन।
(किरण कुछ भ्रमित दिख रहा है।)
*किरण* : मन का रंग? प्रवृत्ति? मैं समझा नहीं।
*आनन्द* : देखो, वर्ण का अर्थ है मन का रंग। यह मन का रंग व्यक्ति की प्रवृत्ति से बनता है, उसकी कार्य करने की क्षमता या योग्यता से। हम इसे मोटे तौर पर दो भागों में बांट सकते हैं: शारीरिक क्रिया की प्रधानता और वैचारिक क्रिया की प्रधानता।
*किरण* : ठीक है, विस्तार से बताएं।
*आनन्द* : शारीरिक क्रिया की प्रधानता में पहला स्थान शूद्र वर्ण का है। ये वे लोग हैं जो अपने शरीर का उपयोग मात्र सेवा कार्यों में करते हैं, उनके पास कोई अन्य विशेष कौशल नहीं होता।
*किरण* : तो ये शारीरिक श्रम करने वाले लोग हैं?
*आनन्द* : बिल्कुल। द्वितीय स्थान पर क्षत्रिय आते हैं। इनमें साहस, शौर्य और बहादुरी जैसे भावनात्मक संवेग होते हैं, जो उन्हें युद्ध कौशल प्रदान करते हैं। वे अपनी शारीरिक शक्ति और बल पर समाज में प्रधानता हासिल करते हैं।
*किरण* : (सिर हिलाते हुए) समझ गया। और वैचारिक प्रधानता वाले?
*आनन्द* : वैचारिक प्रधानता वाले वर्ग में प्रथम स्थान विप्र का है। ये वे लोग हैं जो अपनी बुद्धि का उपयोग ज्ञान-विज्ञान में करते हैं। उनकी बुद्धि के समक्ष क्षत्रिय भी नतमस्तक हो जाते हैं। ज्ञान ही उनकी शक्ति है।
*किरण* : तो क्या विप्र सबसे ऊपर हैं?
*आनन्द* : नहीं, अंत में वैश्य वर्ण की प्रधानता आती है। ये अपनी बुद्धि कौशल का उपयोग व्यवसाय कौशल में करते हैं। वे व्यापार और वाणिज्य के माध्यम से धन अर्जित करते हैं, और धीरे-धीरे सभी पर अपना प्रभाव स्थापित कर लेते हैं। अर्थ ही उनका बल है। इस प्रकार समाज में प्रधानता का क्रम लगातार बदलता रहता है।
*तृतीय दृश्य*
`(समाज चक्र में सद्विप्र की भूमिका)`
स्थान: वही उपवन।
(किरण कुछ सोचकर बैठता है।)
*किरण* : तो ये चार वर्ण समाज चक्र को चलाते हैं? क्या इनके अलावा भी कोई है?
*आनन्द* : (गंभीरता से) हाँ, किरण। इन चारों वर्णों से अलग, जो किसी भी प्रकार की प्रधानता की चाहत से परे हैं, वे समाज चक्र के प्राण केंद्र में अवस्थित होकर संपूर्ण समाज चक्र का नियंत्रण करते हैं। इन्हें सद्विप्र कहते हैं।
*किरण* : सद्विप्र? ये कौन होते हैं?
*आनन्द* : सद्विप्र में चारों वर्णों के गुण विद्यमान होते हैं। वे यम-नियम में प्रतिष्ठित होते हैं, भूमाभाव के साधक होते हैं, और पाप के दमन के लिए सदैव आतुर रहते हैं। वे स्वार्थ से परे होकर समाज के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। वे न तो सत्ता के भूखे होते हैं, न धन के, न ही केवल ज्ञान के प्रदर्शन के। उनका लक्ष्य होता है समाज में संतुलन और न्याय स्थापित करना।
*किरण* : तो ये एक तरह के मार्गदर्शक हैं?
*आनन्द* : बिल्कुल। वे समाज के विवेक हैं, जो सही दिशा दिखाते हैं और जब भी समाज गलत दिशा में जाता है, उसे सही राह पर लाने का प्रयास करते हैं। वे एक बिंदु हैं जिसके चारों ओर समाज चक्र घूमता है।
*चतुर्थ दृश्य*
`(समाज चक्र की गति के पाँच सिद्धांत)`
*स्थान* : वही उपवन।
(किरण उत्साहित दिख रहा है।)
*किरण* : यह चक्र की गतिशीलता कैसे काम करती है? क्या इसकी कोई गति भी है?
*आनन्द* : हाँ, समाज चक्र की गतिशीलता को समझने के लिए पाँच सिद्धांत हैं। *पहला है स्वभाविक गति,* जिसमें प्रकृति के नियमानुसार परिवर्तन होता है। यह एक धीमी और निरंतर प्रक्रिया है।
*किरण* : जैसे मौसम का बदलना?
*आनन्द* : कुछ-कुछ वैसा ही। *दूसरा सिद्धांत है क्रांति* , जिसमें शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति में वृद्धि होती है। यह एक बदलाव की शुरुआत होती है।
*किरण* : तो यह अचानक होता है?
*आनन्द* : हाँ, एक प्रकार से। *तीसरा है विप्लव* , जिसमें तीव्र शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति अत्यधिक तीव्र हो जाती है। यह एक बड़ा और तीव्र परिवर्तन होता है, जो अक्सर उथल-पुथल भरा होता है।
*किरण* : तो यह क्रांति से भी बड़ा बदलाव है?
*आनन्द* : बिल्कुल। *चौथा सिद्धांत है विक्रांति,* जिसमें शक्ति प्रयोग द्वारा चक्र की गतिधारा के विपरीत दिशा में गमन करती है। यह समाज को पीछे धकेलने का प्रयास होता है, एक तरह का प्रतिगमन। इसलिए यह क्षणिक भी होता है।
*किरण* : और पाँचवा?
*आनन्द* : उसी प्रकार *पाँचवा सिद्धांत प्रति विप्लव का है,* जिसमें शक्ति संपात के द्वारा चक्र की गति तीव्र वेग से विपरीत दिशा में गमन करती है। यह विक्रांति का ही एक और तीव्र रूप है, जहाँ समाज को जानबूझकर पीछे की ओर धकेला जाता है, अक्सर बड़ी शक्ति के साथ। यह सब चक्र की गतिशीलता को बनाए रखता है। यह अत्यधिक क्षणिक होता है।
*पंचम दृश्य*
`(समाज चक्र एवं परिक्रांति)`
*स्थान* : वही उपवन।
(आनन्द और किरण कुछ देर चुप रहते हैं।)
*किरण* : यह सब सुनकर मुझे लगा कि यह एक अंतहीन चक्र है। क्या यह कभी रुकता नहीं?
*आनन्द* : नहीं, यह एक परिक्रांति है। समाज चक्र शूद्र, क्षत्रिय, विप्र और वैश्य क्रम में घूमकर पुनः शूद्र युग में आता है। यह एक पूरी परिक्रमा होती है, इसी का नाम परिक्रांति है।
*किरण* : तो फिर शूद्र युग वापस आता है? क्या यह वही शूद्र युग होगा जो पहले था?
*आनन्द* : नहीं, इस परिक्रांति में विक्षुब्ध शूद्र विप्लव की भूमिका निभाते हैं। यह विक्षुब्ध शूद्र वह नहीं है जो प्राकृतिक गुणधर्म पर आधारित शूद्र था। बल्कि, यह वह वर्ग है जो वैश्य युग में वैश्यों के शोषण के कारण मजबूरी में शूद्रोचित कार्य करने को विवश है।
*किरण* : तो वे केवल आर्थिक कारण से रूप से शूद्र हैं, अपनी क्षमता से नहीं?
*आनन्द* : ठीक समझे। उनके अंदर की क्षत्रिय एवं वैश्य क्षमता उन्हें इस शोषण से मुक्ति पाने और वैश्य युग को मिटाने के लिए प्रोत्साहित करती है। वे अपने अंदर की छिपी हुई शक्ति को पहचानते हैं और समाज में बदलाव लाने के लिए उठ खड़े होते हैं। यह चक्र चलता रहता है, हर परिक्रांति एक नई शुरुआत होती है, एक नए समाज चक्र के निर्माण की ओर एक कदम।
*किरण* : (गहरी साँस लेते हुए) यह बहुत गहरा विषय है, दादाजी। आपने मुझे एक नई दृष्टि दी है। यह समाज वास्तव में एक जीवंत चक्र है।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) हाँ, किरण। *यह श्री प्रभात रंजन सरकार के प्रगतिशील उपयोग तत्व का प्रवेशद्वार है* और इसे समझना ही समाज को बेहतर बनाने का पहला कदम है।
(पर्दा गिरता है।)
15
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
(एक आदर्श एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था पर तार्किक चर्चा)
पात्र:
* *आनन्द* : प्रगतिशील उपयोग तत्व के ज्ञाता
* *किरण* : एक जिज्ञासु पुरुष
*प्रथम दृश्य: अर्थचक्र या अर्थतंत्र का परिचय*
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ आनन्द और किरण बैठे हुए हैं।
(पर्दा उठता है)
*किरण* : (उत्सुकता से) दादाजी, मैं इन दिनों "अर्थचक्र" के बारे में बहुत सोच रहा हूँ। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि एक आदर्श और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था वास्तव में क्या होती है?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) बिलकुल, किरण। देखो, किसी भी अर्थव्यवस्था का मूल तत्व है उपयोग। हम जो कुछ भी उत्पादित करते हैं, उसका अंतिम उद्देश्य उपयोग ही होता है। लेकिन केवल उपयोग पर्याप्त नहीं है। महत्वपूर्ण है कि यह उपयोग प्रगतिशील हो।
*किरण* : प्रगतिशील उपयोग? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि हमारा उपयोग इस प्रकार हो कि वह न केवल हमारी वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति करे, बल्कि भविष्य के लिए भी समृद्धि और विकास के अवसर पैदा करे। यह केवल वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग तक सीमित नहीं है, बल्कि संसाधनों के बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग, नवाचार को बढ़ावा देने और हर व्यक्ति के कल्याण को सुनिश्चित करने से भी जुड़ा है। अर्थचक्र का ध्येय इसी उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाना है। हम एक ऐसे चक्र की कल्पना करते हैं जहाँ उत्पादन, वितरण और उपभोग एक-दूसरे को पोषित करते हुए निरंतर बेहतर होते जाएं।
*किरण* : यह तो बहुत गहरा विचार है। मैं इस पर और अधिक जानना चाहूँगा।
*आनन्द* : अवश्य। चलो, आगे बढ़ते हैं।
*द्वितीय दृश्य: व्यष्टि-व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान*
स्थान: वही उपवन, कुछ क्षण बाद।
*आनन्द* : अब हम बात करेंगे एक आदर्श अर्थव्यवस्था के पहले और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु की: व्यष्टि-व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान। प्रकृति का गुणधर्म ही विचित्रता है, किरण। क्या तुमने कभी दो बिल्कुल एक जैसे पत्ते देखे हैं?
*किरण* : नहीं, मैंने नहीं देखे। हर पत्ता थोड़ा अलग होता है।
*आनन्द* : बिल्कुल! यह विचित्रता ही प्रकृति का सौंदर्य है। समानता की अवस्था तो या तो सृष्टि के निर्माण से पहले की है, या फिर उसके प्रलय की। हमारी मानव समाज भी इसी विविधता से भरा है। हर व्यक्ति अद्वितीय है, उसकी अपनी क्षमताएं हैं, उसकी अपनी आवश्यकताएं हैं।
*किरण* : तो आप कहना चाहते हैं कि हमें हर व्यक्ति को अलग-अलग देखना चाहिए, न कि एक ही समूह के रूप में?
*आनन्द* : हाँ, यही बात है। एक आदर्श और प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का संगठन इस मौलिक सत्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। हमें एक ऐसा अर्थतंत्र बनाना होगा जो प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता का सम्मान करे, उसे अपनी क्षमता के अनुसार योगदान करने और विकसित होने का अवसर दे। यह एक ऐसा तंत्र नहीं हो सकता जो सबको एक ही लाठी से हांकने की कोशिश करे। जब हम हर व्यष्टि की विशिष्टता का सम्मान करते हैं, तभी समाज में सही अर्थों में प्रगति आ पाती है।
*किरण* : यह तो मुझे बहुत तार्किक लग रहा है।
*तृतीय दृश्य: सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकता*
*स्थान* : एक सामुदायिक केंद्र का दृश्य।
*किरण* : (सोचते हुए) यदि हर व्यक्ति विशिष्ट है, तो उसकी आवश्यकताएं भी विशिष्ट होंगी। लेकिन क्या कुछ मूलभूत आवश्यकताएं ऐसी नहीं हैं जो सभी के लिए समान हों?
*आनन्द* : (दृढ़ता से) बिल्कुल, किरण। यही हमारे अर्थचक्र का दूसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण चरण है: सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करना समाज का परम धर्म है। ये न्यूनतम आवश्यकताएं हैं अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा। कोई भी समाज तब तक प्रगतिशील नहीं हो सकता, जब तक वह अपने हर सदस्य की इन मूलभूत जरूरतों को पूरा न कर दे।
*किरण* : लेकिन यह कैसे संभव होगा? क्रयशक्ति का क्या होगा?
*आनन्द* : समाज को प्रत्येक व्यक्ति की क्रयशक्ति को इतना मजबूत करना होगा कि उसकी न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो सकें। यह केवल सहायता देने की बात नहीं है, बल्कि रोजगार के अवसर पैदा करने, कौशल विकास को बढ़ावा देने और एक ऐसा वातावरण बनाने की बात है जहाँ हर कोई सम्मानपूर्वक अपनी आजीविका कमा सके।
*किरण* : इतने से हो जाएगा
*आनन्द* : आवास के लिए, एक आदर्श नीति होनी चाहिए - प्रत्येक को एक घर। यह सिर्फ आश्रय नहीं, बल्कि स्थिरता और गरिमा का प्रतीक है। और सबसे महत्वपूर्ण, शिक्षा और चिकित्सा व्यवसायीकरण से मुक्त होनी चाहिए। ये दोनों हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार हैं, और इन्हें सभी को निःशुल्क और समान रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इन क्षेत्रों में लाभ का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बल्कि सेवा का भाव होना चाहिए। जब ये मूलभूत आवश्यकताएं पूरी होती हैं, तभी व्यक्ति अपनी विशिष्टताओं पर ध्यान केंद्रित कर पाता है और समाज के लिए अधिक योगदान दे पाता है।
*किरण* : यह तो एक बहुत ही मानवीय और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण है।
*चतुर्थ दृश्य: गुणीजन का सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान*
*स्थान* : एक आधुनिक नवाचार केंद्र।
*आनन्द* : अब हम एक ऐसे विषय पर बात करेंगे जो अक्सर विवादास्पद लगता है, लेकिन एक प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत आवश्यक है: गुणीजन का सामाजिक एवं आर्थिक उचित सम्मान।
*किरण* : गुणीजन? आप किनकी बात कर रहे हैं?
*आनन्द* : गुणीजन से मेरा तात्पर्य प्रतिभाशाली अथवा योग्यजन से है। वे लोग जो अपने ज्ञान, अपनी विशेषज्ञता, अपने नवाचार से समाज के लिए असाधारण मूल्य का सृजन करते हैं। चिकित्सक, वैज्ञानिक, कलाकार, उद्यमी, कुशल कारीगर, शिक्षक – ये सभी गुणीजन हैं।
*किरण* : तो क्या उन्हें अतिरिक्त लाभ मिलना चाहिए?
*आनन्द* : हाँ, किरण। तर्क को समझो। समाज में सबसे पहले सभी व्यष्टियों की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए। यह संपदा पर पहला अधिकार है। लेकिन एक बार जब यह सुनिश्चित हो जाए, तो गुणीजन का अतिरिक्त संपदा पर प्रथम अधिकार होना चाहिए।
*किरण* : इसका क्या मतलब है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि उनके गुण के अनुपात में उन्हें अतिरिक्त संपदा का वितरण किया जाना चाहिए। यह उन्हें प्रोत्साहित करता है, उन्हें नवाचार करने के लिए प्रेरित करता है, और समाज को उनकी प्रतिभा का अधिक से अधिक लाभ मिलता है। कल्पना करो कि यदि एक वैज्ञानिक जिसने कोई असाधारण खोज की है, या एक कलाकार जिसने महान कलाकृति बनाई है, उसे उसके श्रम और प्रतिभा का उचित प्रतिफल न मिले, तो क्या वह अगली बार उतना ही उत्साह दिखाएगा? यह सम्मान केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी होना चाहिए। उनके योगदान को मान्यता मिलनी चाहिए, ताकि अन्य लोग भी उत्कृष्टता की ओर प्रेरित हों। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो सभी की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के बाद, उन लोगों को पुरस्कृत करती है जो समाज के विकास में असाधारण योगदान देते हैं।
*किरण* : मैं समझ गया। यह प्रतिभा को प्रोत्साहित करने और समाज को आगे बढ़ाने का एक तरीका है।
*पंचम दृश्य: समाज के न्यूनतम मानक का वृद्धिमान होना*
*स्थान* : एक समयरेखा पर आधारित ग्राफिक्स का प्रदर्शन।
*आनन्द* : अब हम अपने अर्थचक्र के एक और महत्वपूर्ण पहलू पर आते हैं: समाज के न्यूनतम मानक सदैव वृद्धिमान रहना आवश्यक है। यह समाज का जीवंत लक्षण है, किरण। इसके बिना, समाज एक मृत संस्था बन जाता है।
*किरण* : न्यूनतम मानक का बढ़ना? आप किस तरह के मानकों की बात कर रहे हैं?
*आनन्द* : याद है, हमने अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा की बात की थी? ये मूलभूत न्यूनतम मानक हैं। लेकिन समय के साथ, युग के अनुसार, ये मानक उत्तरोत्तर वृद्धिशील होने चाहिए।
*किरण* : जैसे कि पहले केवल मूलभूत शिक्षा पर्याप्त थी, लेकिन अब डिजिटल शिक्षा भी आवश्यक है?
*आनन्द* : बिल्कुल सही! पहले शायद केवल एक साधारण आवास ही न्यूनतम आवश्यकता थी, लेकिन आज शायद स्वच्छता, बिजली और इंटरनेट जैसी सुविधाएं भी इसमें शामिल होनी चाहिए। यह केवल भौतिक आवश्यकताओं की बात नहीं है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं की भी है। एक प्रगतिशील समाज वह है जो लगातार अपने नागरिकों के लिए जीवन की गुणवत्ता के मानकों को ऊपर उठाता रहता है। यदि हम अपने न्यूनतम मानकों को स्थिर कर देंगे, तो हम ठहराव की स्थिति में आ जाएंगे। यह एक गतिशील प्रक्रिया है, जो समाज के विकास और नवाचार के साथ चलती रहनी चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि समाज हमेशा आगे बढ़ रहा है, और कोई भी पीछे नहीं छूट रहा है।
*किरण* : यह तो वाकई एक जीवित समाज की निशानी है।
*षष्ठी दृश्य: अर्थचक्र या अर्थतंत्र का सारांश*
*स्थान* : वही उपवन, शाम का समय।
*किरण* : (संतोष के साथ) दादाजी, आज आपने मुझे अर्थचक्र के बारे में बहुत कुछ सिखाया। यह एक बहुत ही सुंदर और तार्किक व्यवस्था लगती है।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) मुझे खुशी है कि तुम इसे समझ पाए, किरण। _यह श्री प्रभात रंजन सरकार की आधुनिक दुनिया को दी अनूठा उपहार है।_ चलो, एक बार फिर से इस पूरे चक्र को संक्षेप में समझते हैं।
*आनन्द* : इस प्रकार, हमारा अर्थचक्र पहले व्यष्टि-व्यष्टि को समझता है और उनकी अद्वितीयता का सम्मान करता है। फिर, यह समाज को एक जिम्मेदार संस्था बनाता है, जो सभी की न्यूनतम आवश्यकताओं - अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा - की पूर्ति का धर्म निभाता है। तत्पश्चात, यह विशिष्ट अर्थात योग्यजन का महत्व प्रकाशित करता है, उन्हें उनके असाधारण योगदान के लिए उचित सामाजिक और आर्थिक सम्मान देता है, बशर्ते सभी की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी हो चुकी हों। और अंत में, फिर से समाज अपनी प्रधानता बनाये रखने के लिए अपने न्यूनतम मान को बढ़ाता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि जीवन की गुणवत्ता के मानक हमेशा उत्तरोत्तर वृद्धिशील रहें।
*किरण* : यह एक ऐसा चक्र है जहाँ हर तत्व एक दूसरे को सहारा देता है और आगे बढ़ाता है। यह केवल धन कमाने के बारे में नहीं है, बल्कि एक न्यायपूर्ण, मानवीय और प्रगतिशील समाज बनाने के बारे में है।
*आनन्द* : तुमने बिल्कुल सही समझा, किरण। यही "अर्थचक्र या अर्थतंत्र - एक आदर्श एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था" का सार है। यह केवल एक आर्थिक मॉडल नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है, एक मानवीय दर्शन है। क्या तुम इसमें अपनी भूमिका देखते हो?
*किरण* : (आशा के साथ) हाँ, दादाजी। अब मैं समझ गया हूँ कि हम सभी इस अर्थचक्र का हिस्सा हैं, और हम सभी इसे प्रगतिशील बनाने में योगदान दे सकते हैं।
*आनन्द* : हाँ, इसको प्रउत की मूल नीति भी कहते हैं।
(आनन्द और किरण एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं। सूर्यास्त का प्रकाश उन पर पड़ता है।)
(पर्दा गिरता है)
16
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
पात्र:
* *आनन्द* : प्रउत (प्रगतिशील उपयोग तत्व) के ज्ञाता
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष
*दृश्य 1: संचय सिद्धांत*
( समाज के आदेश के बिना धन का संचय करना अकर्तव्य है।)
*स्थान* : एक शांत बगीचा। आनन्द और किरण बेंच पर बैठे हैं।
*किरण* : दादाजी, मैं उपयोग चक्र के बारे में जानना चाहता हूँ। इसकी शुरुआत कहाँ से होती है?
*आनन्द* : किरण, उपयोग चक्र का पहला चरण संचय सिद्धांत है। इसका मूल मंत्र है कि समाज के आदेश के बिना धन का संचय करना अकर्तव्य है।
*किरण* : समाज का आदेश? इसका क्या अर्थ है?
*आनन्द* : इसका अर्थ है कि व्यक्ति को केवल उतना ही संचय करना चाहिए जितनी उसकी वर्तमान और भविष्य की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए आवश्यक हो। शेष धन समाज की भलाई के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। यह सिर्फ भौतिक धन की बात नहीं है, बल्कि ज्ञान और क्षमताओं का संचय भी इसी दायरे में आता है। बिना उपयोग के केवल इकट्ठा करते रहने से समाज में विषमता आती है।
*किरण* : तो क्या यह सीधे तौर पर लोभ के खिलाफ है?
*आनन्द* : बिल्कुल। यह बताता है कि हमारा अस्तित्व समाज से जुड़ा है। हम समाज से प्राप्त करते हैं, तो समाज को वापस देना भी हमारा कर्तव्य है। संचय यदि आवश्यकता से अधिक हो और उसका उपयोग न हो, तो वह स्थिर और अनुपयोगी हो जाता है।
*दृश्य 2: उत्पादन एवं वितरण सिद्धांत*
(स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण संपदा का चरम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण)
*स्थान* : एक अध्ययन कक्ष, जहाँ कुछ किताबें और चार्ट रखे हैं।
*आनन्द* : संचय के बाद आता है उत्पादन एवं वितरण सिद्धांत। इसमें हम स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत की संपदा का चरम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण की बात करते हैं। इसे ही विचारपूर्ण अथवा न्यायपूर्ण वितरण कहते हैं।
*किरण* : यह "समान वितरण" से कैसे अलग है, जिसकी बात कुछ लोग करते हैं?
*आनन्द* : यह कभी भी समान वितरण की अवधारणा नहीं है। इसमें दो मुख्य सूत्र हैं। पहला, न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति। हर व्यक्ति को जीवित रहने और गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक चीजें मिलनी चाहिए। चाहे वह भोजन हो, वस्त्र हो, आवास हो, शिक्षा हो या चिकित्सा।
*किरण* : और दूसरा सूत्र?
*आनन्द* : दूसरा है, गुणीजन को गुण के अनुपात में वितरित करना। इसका अर्थ है कि जिसकी जितनी योग्यता और गुण है, उसे उसी अनुपात में पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इससे लोग अपनी क्षमताओं का विकास करने और समाज के लिए अधिक योगदान देने के लिए प्रेरित होते हैं। उदाहरण के लिए, एक कुशल डॉक्टर को एक सामान्य श्रमिक से अधिक मिलना चाहिए, क्योंकि उसका ज्ञान और कौशल समाज के लिए अधिक मूल्यवान है। यह प्रेरणा और न्याय का संतुलन है।
*दृश्य 3: संसाधनों (मानवीय एवं भौतिक) का उपयोग का सिद्धांत*
(व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना अथवा क्षमता का अधिकतम उपयोग करना)
*स्थान* : एक कार्यशाला जहाँ लोग विभिन्न गतिविधियों में लगे हैं।
*आनन्द* : अब हम आते हैं संसाधनों (मानवीय एवं भौतिक) के उपयोग के सिद्धांत पर। यहाँ मुख्य बात है व्यष्टि एवं समष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना अथवा क्षमता का अधिकतम उपयोग करना।
*किरण* : यानी हर व्यक्ति और पूरे समाज की क्षमता का पूरा उपयोग हो?
*आनन्द* : ठीक समझे। इसमें केवल भौतिक संसाधनों का उपयोग ही नहीं, बल्कि मनुष्य की अंतर्निहित क्षमताओं को विकसित करना और उनका उपयोग करना भी शामिल है। शारीरिक शक्ति का उपयोग हो, मानसिक क्षमताओं का विकास हो, और आध्यात्मिक संभावनाओं को भी साकार किया जाए। यदि किसी व्यक्ति में कोई विशेष प्रतिभा है, तो समाज को उसे निखारने और उसका उपयोग करने का अवसर देना चाहिए। उदाहरण के लिए, एक अच्छा गायक अपनी गायन क्षमता का उपयोग करे, एक वैज्ञानिक अपनी बुद्धि का, और एक आध्यात्मिक व्यक्ति अपनी अंतर्दृष्टि का।
*किरण* : तो यह सिर्फ काम करने तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण विकास की बात है।
*आनन्द* : बिल्कुल। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी क्षमता व्यर्थ न जाए, चाहे वह व्यक्ति की हो या समाज की।
*दृश्य 4: उपयोग में सुसंतुलन का सिद्धांत*
(व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथा समष्टि की स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण क्षमताओं के उपयोग में एक सुसंतुलन)
*स्थान* : एक ध्यान केंद्र, जहाँ शांति का अनुभव होता है।
*आनन्द* : यह सिद्धांत उपयोग में सुसंतुलन की बात करता है। इसमें व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथा समष्टि की स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण क्षमताओं के उपयोग में एक सुसंतुलन बताया गया है।
*किरण* : यह कुछ जटिल लग रहा है। क्या आप इसे सरल कर सकते हैं?
*आनन्द:* अवश्य। इसमें तीन मुख्य सिद्धांत हैं। पहला सिद्धांत यह है कि शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता में से जिसका विकास होगा, समाज उसका अधिकतम उपयोग करेगा। यानी, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से बहुत सशक्त है, तो समाज उसकी शारीरिक शक्ति का उपयोग करेगा। यदि कोई मानसिक रूप से तीव्र है, तो उसकी मानसिक क्षमता का।
*किरण* : और दूसरा?
*आनन्द* : दूसरे सिद्धांत में, शारीरिक एवं मानसिक संभावना रहने पर मानसिक क्षमता का अधिक तथा शारीरिक क्षमता का कम उपयोग लेना है। इसका अर्थ है कि बौद्धिक कार्य को शारीरिक श्रम पर वरीयता दी जानी चाहिए, क्योंकि मानसिक क्षमताएँ अधिक जटिल, सूक्ष्म और शक्तिशाली होती हैं।
*किरण* : और तीसरा सिद्धांत?
*आनन्द* : तृतीय सिद्धांत के तहत, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों संभावना रहने पर उपयोग का क्रम अधिक से कम में आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक रहेगा। यह सबसे महत्वपूर्ण है। जब व्यक्ति में तीनों क्षमताएं विकसित हों, तो उसकी आध्यात्मिक क्षमता का अधिकतम उपयोग किया जाना चाहिए, फिर मानसिक का, और अंत में शारीरिक का। यह हमें बताता है कि जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आध्यात्मिक विकास है, और समाज को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए।
*दृश्य 5: उपयोगिता में परिवर्तनशीलता का सिद्धांत* (देश, काल व पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तन)
*स्थान* : एक ऐतिहासिक संग्रहालय, जहाँ पुरानी और नई वस्तुएँ प्रदर्शित हैं।
*आनन्द* : हमारा अंतिम सिद्धांत है उपयोगिता में परिवर्तनशीलता का सिद्धांत। इसमें देश, काल व पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तन रखा गया है।
*किरण* : इसका क्या मतलब है? क्या उपयोग की अवधारणा स्थिर नहीं है?
*आनन्द* : बिल्कुल नहीं। उपयोगिता हमेशा स्थिर नहीं रहती। जो चीज़ आज उपयोगी है, हो सकता है कल उसकी उपयोगिता बदल जाए। जैसे, प्राचीन काल में जल संग्रहण की तकनीकें बहुत महत्वपूर्ण थीं, आज भी हैं, लेकिन आधुनिक समय में उनकी विधि और पैमाने में अंतर आ गया है। एक ही वस्तु की उपयोगिता अलग-अलग देशों में, अलग-अलग समय में और अलग-अलग व्यक्तियों के लिए भिन्न हो सकती है।
*किरण* : तो यह हमें बदलते समय के साथ अनुकूल होने में मदद करता है?
*आनन्द* : ठीक समझे। इससे उपयोगिता प्रगतिशील रहती है। यह हमें जड़ता से बचाता है और निरंतर नवाचार तथा विकास के लिए प्रेरित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि हम हमेशा सबसे प्रभावी और प्रासंगिक तरीके से संसाधनों का उपयोग करें।
*दृश्य 6: प्रगतिशील उपयोग तत्व का प्रचारण*
(सर्वजन हित तथा सर्वजन सुख में प्रचारित किये गए हैं।)
*स्थान* : एक मंच पर जहाँ एक पुराना बैनर लगा है: "आषाढ़ पूर्णिमा 1969, बंगाब्द"
*किरण* : दादाजी, यह सब बहुत गहन है। मुझे उम्मीद है कि ये सिद्धांत व्यापक रूप से प्रचारित किए गए हैं।
*आनन्द* : हाँ, किरण। प्रउत प्रणेता श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने इन सिद्धांतों केवल कुछ लोगों के लिए नहीं हैं। यह सर्वजन हित तथा सर्वजन सुख में प्रचारित किये गए हैं। इनकी परिकल्पना और प्रचारण का उद्देश्य सभी का भला करना है।
*किरण* : और इसकी शुरुआत कब और कहाँ हुई?
*आनन्द* : आनन्द सूत्रम के अनुसार प्रगतिशील उपयोग तत्व के प्रचारण की तिथि आषाढ़ पूर्णिमा 1969 है। स्थान बंगाल से। वहीं से ये विचार पूरी दुनिया में फैले और लोगों को एक न्यायपूर्ण, प्रगतिशील समाज की दिशा में सोचने के लिए प्रेरित किया।
*किरण* : (गहरी सांस लेते हुए) यह तो एक नया दृष्टिकोण है जीवन और समाज को देखने का। मैं अब उपयोग चक्र अथवा उपयोग तत्व को बहुत बेहतर ढंग से समझ गया हूँ। इस प्रकार उपयोग तत्व अब उपयोग तत्व न रहकर प्रगतिशील उपयोग तत्व बन जाता है।
*आनन्द* : यही तो इसकी सार्थकता है, किरण। समझना और फिर उसे अपने जीवन में और समाज में उतारने का प्रयास करना।
(पर्दा गिर जाता है)
17
`एकांकीकार :- [श्री] आनन्द किरण "देव"`
*धर्मचक्र*
(एक आध्यात्मिक तार्किक चर्चा)
*धर्म चक्र - अनंत से निकलकर अनंत की ओ रधर्म के साथ एक यात्रा है*
*पात्र* :
* *आनंद* : एक शांत और अनुभवी ज्ञाता।
* *किरण* : एक उत्साही और जिज्ञासु।
*दृश्य* : एक शांत उपवन, जहाँ एक वृक्ष के नीचे आनंद ध्यानस्थ बैठे हैं। किरण उनके पास आता है।
(पर्दा उठता है)
*किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादाजी।
*आनंद* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कुराते हुए) नमस्कार किरण। कहो, आज किस जिज्ञासा ने तुम्हें यहाँ खींचा है?
*किरण* : दादाजी, आज मैं "धर्मचक्र" के बारे में जानने आया हूँ।
*आनंद* : (मंद-मंद मुस्कुराते हुए) अवश्य, किरण। धर्मचक्र एक ऐसा विषय है जो गहन चिंतन और अनुभव से समझा जाता है। आओ, यहीं बैठो।
(किरण आनंद के पास बैठ जाता है)
*धर्मचक्र क्या है?*
*आनंद* : देखो किरण, "धर्मचक्र" का शाब्दिक अर्थ है "धर्म का पहिया"। यह जीवन के उन शाश्वत नियमों, मूल्यों और कर्तव्यों का प्रतीक है जिन पर संपूर्ण सृष्टि टिकी हुई है। धर्मचक्र - सार्वभौमिक सिद्धांतों का नाम है।
*किरण* : सार्वभौमिक सिद्धांत? मतलब यह सभी के लिए मान्य है?
*आनंद* : बिल्कुल। जैसे सूर्य सभी को प्रकाश देता है, वैसे ही धर्मचक्र के सिद्धांत सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से लागू होते हैं। यह हमें बताता है कि हमें कैसे जीना चाहिए, क्या सही है और क्या गलत। यह न्याय, नैतिकता, कर्तव्य और आत्म-विकास का प्रतीक है।
*धर्मचक्र क्यों?*
*किरण* : पर दादाजी, इसकी आवश्यकता क्या है? हम तो अपने निजी जीवन में व्यस्त रहते हैं।
*आनंद* : इसकी आवश्यकता इसलिए है, किरण, मनुष्य का जीवन निजी नहीं होता है। उसके निजी कर्म भी इस धरातल पर सार्वजनिक प्रभाव छोड़ते हैं तथा सार्वजनिक व्यवस्था का भी प्रभाव निजी जीवन पर पड़ता है। बिना इन सिद्धांतों के जीवन अराजक और दिशाहीन हो जाएगा। धर्मचक्र हमें जीवन में संतुलन और गतिशीलता प्रदान करता है। यह हमें सही मार्ग पर चलने, सद्गुणों को अपनाने और एक सुखी व सार्थक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। जब व्यक्ति धर्म के मार्ग से भटकता है, तो समाज में अशांति और कष्ट बढ़ता है। धर्मचक्र समाज और व्यक्ति का निर्माण करता है।
*किरण* : यानी यह मनुष्य तथा समाज निर्माण की कार्यशाला है।
*आनंद* : हाँ। मनुष्य निर्माण अभियान (Man making Mission) तथा एक अखंड व अविभाज्य मानव समाज के उद्देश्य के लिए आवश्यक है।
*धर्मचक्र कैसे?*
किरण: तो धर्मचक्र को अपने जीवन तथा समाज में कैसे उतारें? यह कैसे काम करता है?
*आनंद* : यह हमारे आचरण और विचारों से काम करता है। धर्मचक्र को व्यष्टि व समष्टि जीवन में उतारने के लिए कुछ मूलभूत बातों का ध्यान रखना होगा:
*सत्य को स्वीकारना* : धर्म सत्य पर टिका है, अतः धर्मचक्र प्रथमतः मनुष्य को सत्य को अंगीकार करने के लिए कहता है। उदाहरण - यह मानव समाज जाति एवं सम्प्रदाय का समूह नहीं अपितु मनुष्य-मनुष्य की सर्वांगीण व्यवस्था का अंग है। अतः मनुष्य को इस सत्य को स्वीकारना होगा। इसी प्रकार आध्यात्मिक नैतिकता तथा संगच्छध्वम् के बिना व्यष्टि व समष्टि की रचना संभव नहीं है। अतः यह भी स्वीकारना ही होगा।
*विखंडन को अस्वीकारना*: सब कुछ चर्य ही नहीं होता है, कुछ अचर्य भी होता है। अतः अस्वीकार्य भी जरूरी है। जो अव्यवस्था तथा विखंडन को जन्म देता है, उसे धर्मचक्र में प्रवेश नहीं मिलता है। जैसे सभी को धर्मषचक्र में समान आसन पर बैठना तथा नारी-पुरुषों के बैठने की व्यवस्था की पंक्ति पृथक होना। विखंडन व अव्यवस्था के बीज को ही नष्ट करती है। अतः धर्मचक्र की दृष्टि से कोई VIP नहीं है। धर्म के मर्मज्ञ व जिज्ञासु के पृथक आसन नहीं।
**संगच्छध्वम् पर चलना:* मनुष्य यूथबद्ध प्राणी है। अतः अकेला चलने की नीति की बजाय संगच्छध्वम् की नीति को बल देना होगा। अकेला चलते हुए महात्मा बन भी गए तो क्या होगा, जब तक समाज के सभी सदस्य महानता को नहीं अपनाते, तब तक धर्मचक्र का कोई महत्व नहीं है।
*अपनी समझ को बढ़ावा तथा असमझ को दुरुस्त करना* : मनुष्य का सफल जीवन इस बात का द्योतक है कि अपनी समझ को बढ़ाना तथा असमझ को दुरुस्त करना है। शास्त्र तथा अनुभवियों का मार्गदर्शन मनुष्य के लिए जरूरी है। अतः धर्मचक्र धर्मशास्त्र का अध्ययन, व्याख्या एवं विश्लेषण करता है।
*संतुलन व सामंजस्य* : प्रमा मनुष्य एवं समाज के लिए आवश्यक है। अतः जीवन के हर पहलू में संतुलन व सामंजस्य बनाए रखो – जैसे काम, आराम, भौतिकता और आध्यात्मिकता।
*कर्तव्यनिष्ठा* : अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करो, चाहे वे पारिवारिक हों, सामाजिक हों या व्यक्तिगत। यही धर्म का मूल है।
*आत्म-चिंतन* : नियमित रूप से अपने विचारों और कर्मों का अवलोकन करो, ताकि तुम खुद में सुधार कर सको।
*किरण* : यह तो बहुत विस्तृत है!
*आनंद* : यह अभ्यास से ही आता है, किरण। यह एक सतत प्रक्रिया है, जिसमें तुम धीरे-धीरे निखरते जाते हो। जैसे एक पहिया लगातार घूमता रहता है और अपने मार्ग पर चलता रहता है, वैसे ही हमें भी इन सिद्धांतों का निरंतर पालन करते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ना है।
*धर्मचक्र कब?*
*किरण* : और यह कब से है? क्या यह किसी खास समय में शुरू हुआ?
*आनंद* : धर्मचक्र का कोई "कब" नहीं है, किरण। यह शाश्वत है। जब से यह सृष्टि बनी है, तब से ये सिद्धांत मौजूद हैं। यह अनादि काल से चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। यह सृष्टि के नियम हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम।
*किरण* : अति उत्तम!
*आनंद* : इसको समझने के लिए एक दृष्टांत सुनो - बुद्ध ने जब अपने ज्ञान का पहला उपदेश दिया, उसे 'धर्म चक्र प्रवर्तन' कहा गया, जिसका अर्थ था 'धर्म के पहिये को गति देना'। इसका मतलब यह नहीं था कि उन्होंने इसे बनाया, बल्कि उन्होंने इन शाश्वत सत्यों को पुनः प्रकाशित किया और उन्हें लोगों तक पहुँचाया।
*किरण* : बहुत सुंदर दृष्टांत है लेकिन आज धर्मचक्र कहाँ है?
*आनंद* : धर्मचक्र मत, पंथ, संप्रदाय अथवा मजहब व रिलीजन में नहीं रहता है। धर्मचक्र धर्म की धरोहर, नव्य मानवतावाद की थाती है। अतः जहाँ धर्म व नव्य मानवतावाद है, वहाँ धर्मचक्र है। जो मनुष्य को आनंद मार्ग में मिलता है। जो मार्ग आनंद की ओर नहीं जाता वहाँ धर्मचक्र नहीं रहता है, वहाँ जीवन के सिद्धांत स्थिर होकर जम जाते हैं। अतः धर्मचक्र के लिए आनंद मार्ग का होना आवश्यक है।
*किरण* : (विचारमग्न होकर) यह तो बहुत गहरा अर्थ है। मैं अब समझ रहा हूँ कि यह केवल एक अवधारणा नहीं, बल्कि जीने का एक तरीका है।
*आनंद* : बिल्कुल, किरण। धर्मचक्र हमें सिखाता है कि हम अपने जीवन को किस प्रकार एक अर्थपूर्ण और नैतिक दिशा दें। जब तुम इन सिद्धांतों का पालन करोगे, तो तुम्हारा जीवन स्वयं एक धर्मचक्र बन जाएगा, जो तुम्हें और तुम्हारे आस-पास के लोगों को भी सकारात्मकता प्रदान करेगा।
*किरण* : दादाजी, आपने मेरी आँखों पर पड़ा पर्दा हटा दिया। अब मैं इसे अपने जीवन में उतारने का प्रयास करूँगा। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
*आनंद* : (मुस्कुराते हुए) तुम्हारा कल्याण हो, किरण। याद रखना, ज्ञान प्राप्त करना पहला कदम है, उसे जीवन में उतारना ही असली यात्रा है।
(आनंद और किरण दोनों शांतिपूर्वक बैठे रहते हैं, किरण के चेहरे पर संतोष का भाव है)
(पर्दा गिरता है)
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`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
(एक तार्किक आध्यात्मिक चर्चा)
पात्र:
* *आनन्द* : तंत्र, मंत्र, यंत्र, योग एवं भक्ति का ज्ञाता।
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष।
*दृश्य 1: मातृका शक्ति*
*मंच* : अँधेरा। धीरे-धीरे एक मंद प्रकाश आता है, जो आकारहीन, परिवर्तनशील आकृतियों को प्रकट करता है।
(आनन्द और किरण मंच पर आते हैं। आनन्द एक किनारे ध्यानपूर्वक बैठा है, किरण उत्सुकता से चारों ओर देख रहा है।)
किरण: (चारों ओर घूमते हुए) यह क्या है, दादाजी? ये आकृतियाँ लगातार बदल रही हैं। कभी त्रिकोण, कभी बहुभुज... जैसे कोई अदृश्य शक्ति इन्हें गढ़ रही हो।
*आनन्द* : (आँखें बंद किए हुए) यही तो है, किरण, सृष्टि "मातृका शक्ति"। ये जो तुम्हें आकार दिख रहे हैं, ये सत्व, रज और तम - प्रकृति के तीन गुणों के सीमाहीन परिवर्तन का परिणाम हैं। देखो, कैसे एक बहुभुज धीरे-धीरे त्रिकोण में बदल रहा है। यह "स्वरूपपरिणाम" है, जो सत्व के रज में, रज के तम में, तम के रज में और रज के सत्व में अनवरत रूपांतरण से उत्पन्न होता है। यह प्रकृति का मूल स्वरूप है, जहाँ से सब कुछ आकार लेता है।
*किरण* : तो ये त्रिभुज ही मूल हैं?
*आनन्द* : हाँ, इन त्रिभुजों को ही "त्रिकोणधारा युक्त त्रिभुज" कहते हैं। यह वह शक्ति है जो हर निर्माण के पीछे है।
*किरण* : इसका कोई साक्षी है।
*आनन्द* : हाँ "परमशिव पुरूषोत्तम" इसके साक्षी पुरुष है।
(प्रकाश और आकृतियाँ धीरे-धीरे स्थिर होती हैं, एक विशाल, संतुलित त्रिभुज का रूप लेती हैं।)
*दृश्य 2: पाक सृष्टि अवस्था शक्ति*
*मंच* : अब एक शांत, स्थिर, विशाल त्रिभुज मंच पर छाया हुआ है। प्रकाश शांत और स्थिर है।
*किरण* : (आश्चर्य से) यह त्रिभुज कितना शांत और संतुलित दिख रहा है! जैसे यह अपनी पूरी शक्ति को अंदर समेटे हुए हो।
*आनन्द* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कराकर) बिल्कुल सही, किरण। जब तक यह प्रकृत त्रिभुज अपना संतुलन नहीं खोता, यह अवस्था पाक सृष्टि कहलाती है। यह प्रकृति की अव्यक्त अवस्था है, जहाँ सब कुछ संभावित है, पर अभी प्रकट नहीं हुआ है।
*किरण* : और इसके साक्षी?
*आनन्द* : इस अवस्था के साक्षी पुरुष को हम "शिव" कहते हैं, और प्रकृति स्वयं "शिवानी या कौषिकी' कहलाती है। यह प्रथम सकल है, जहाँ सृष्टि अपने उच्चतम, अव्यक्त सामंजस्य में है।
किरण: तो यह शांति ही सृष्टि का आधार है?
*आनन्द* : हाँ, इस अवस्था में ही सभी संभावनाएँ निहित हैं।
*दृश्य 3: अवस्था सृष्ट शक्ति*
*मंच* : स्थिर त्रिभुज के एक कोने से एक छोटी सी किरण निकलती है, जो सीधी रेखा में आगे बढ़ती है।
*किरण* : (किरण को देखते हुए) अब कुछ हलचल हो रही है! त्रिभुज के एक बिंदु से कुछ निकल रहा है।
*आनन्द* : (गंभीरता से) यही है अवस्था सृष्ट शक्ति। इस स्थिति में, त्रिभुज के एक बिंदु से सृष्टि का अंकुरण होता है। प्रकृति की गति अब एक सरल रेखा में है। यह प्रथम उद्भव है, सृष्टि का पहला कदम।
*किरण* : तो यह गतिशीलता का प्रारंभ है?
*आनन्द* : हाँ। इसे प्रथम उद्भव और द्वितीय सकल भी कहते हैं। इस अवस्था में, साक्षी पुरुष "भैरव" और प्रकृति 'भैरवी" के नाम से जानी जाती है। वे सृष्टि के पहले स्पष्ट चरण को देखते हैं।
*दृश्य 4: सदृश परिणाम शक्ति (कलानुवर्तनत्व)*
*मंच* : सीधी रेखा वाली किरण अब धीरे-धीरे घुमावदार हो जाती है, एक के बाद एक समान, लेकिन पूरी तरह एक जैसी नहीं, आकृतियाँ बनती हैं।
*किरण* : (आकृतियों को ध्यान से देखते हुए) देखिए, दादाजी! अब यह रेखा मुड़ गई है, और एक के बाद एक वैसी ही आकृतियाँ बनती जा रही हैं, लेकिन हर नई आकृति पिछली से थोड़ी अलग है।
*आनन्द* : (हल्का-सा सिर हिलाते हुए) यही है सदृश परिणाम शक्ति, जिसे कलानुवर्तनत्व भी कहते हैं। इस अवस्था में प्रकृति की गति में वक्रता आती है। एक कला के बाद दूसरी, और दूसरी के बाद तीसरी कला चलती रहती है। इसी के कारण मनुष्य की संतान मनुष्य और पशु से पशु उत्पन्न होते हैं।
*किरण* : लेकिन वे हूबहू एक जैसे क्यों नहीं होते?
*आनन्द* : क्योंकि 'सदृश' का अर्थ हूबहू एक जैसा नहीं है। देखो, पुरातन मनुष्य, आज के मनुष्य और भविष्य के मनुष्य में अंतर है। यहाँ तक कि दो भाई भी सदृश होते हुए भी हूबहू एक जैसे नहीं होते। यह विविधता प्रकृति का नियम है। इस अवस्था के साक्षी पुरुष को "भव" और प्रकृति को "भवानी" कहते हैं।
*दृश्य 5: कुलकुंडलिनी शक्ति*
*मंच* : वक्र गति की आकृतियाँ दो अलग-अलग बिंदुओं पर केंद्रित होती हैं - एक उज्ज्वल, धनात्मक बिंदु और दूसरा गहरा, ऋणात्मक बिंदु।
*किरण* : (दोनों बिंदुओं को देखते हुए) यह क्या है? दो बिंदु, एक बहुत चमकदार और दूसरा गहरा...
*आनन्द* : ये सृष्टि के दो ध्रुव हैं, किरण। भैरवी का प्रथम बिंदु, जहाँ सृष्टि सैद्धांतिक से व्यावहारिक रूप धारण करती है, उसे 'शंभूलिंग' कहते हैं। यह सकल धनात्मक बिंदु है। शायद इसके ऊपर धनात्मकता की सीमा समाप्त हो जाती है। यह परमशिव की अवस्था हो सकती है।
*किरण* : और दूसरा बिंदु?
*आनन्द* : ठीक इसी प्रकार, भवानी का अंतिम बिंदु या शेष प्रांत 'स्वयंभूलिंग' कहलाता है। यह सकल ऋणात्मक बिंदु है।
*किरण* : तो यह ऋणात्मक बिंदु क्या है?
*आनन्द* : जो शक्ति इस स्वयंभूलिंग की आश्रिता है, उसे "कुलकुंडलिनी" शक्ति कहते हैं। यह मूलीभूत रूप से ऋणात्मक है। यह वह शक्ति है जो हर जीव के भीतर सुप्त अवस्था में रहती है।
*दृश्य 6: कुलकुंडलिनी की गति*
*मंच* : ऋणात्मक स्वयंभूलिंग से एक ऊर्जा का प्रवाह निकलता है, जो कठिनाई से, लेकिन दृढ़ता से, धनात्मक शंभूलिंग की ओर बढ़ता है।
*किरण* : (प्रवाह को देखते हुए) यह ऋणात्मक शक्ति धनात्मक की ओर क्यों जा रही है?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) यही तो सृष्टि का रहस्य है, किरण! कुलकुंडलिनी ऋणात्मक होने पर भी, वह सकल धनात्मक की ओर चलना चाहती है। यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, आत्म-ज्ञान की ओर, पूर्णता की ओर।
*किरण* : और वह कैसे आगे बढ़ती है?
*आनन्द* : कुलकुंडलिनी की इस चाहत को साधना बल की आवश्यकता होती है। योग, ध्यान, भक्ति – यही वह बल है, जिसके सहारे कुलकुंडलिनी सकल धनात्मक शंभूलिंग की ओर यात्रा करती है। यह मार्ग कठिन है, पर दृढ़ता से तय किया जाता है।
(ऊर्जा का प्रवाह धीरे-धीरे शंभूलिंग में विलीन हो जाता है। मंच पर एक तीव्र प्रकाश फैलता है, जो धीरे-धीरे पूरे मंच को समाहित कर लेता है।)
*किरण* : (आँखों में चमक के साथ) तो क्या होता है जब वह वहाँ पहुँच जाती है?
*आनन्द* : (शांति से) अंत में, वह परमशिव में मिलकर शिव के साथ एकीकार हो जाती है। वह अपने मूल भाव में विलीन हो जाती है। यह पूर्णता है, जहाँ प्रकृति और पुरुष एक हो जाते हैं, जहाँ सब कुछ अपने आरंभ में लौट आता है।
*किरण* : (गहरी सोच में) यह तो प्रकृति का अद्भुत चक्र है।
*आनन्द* : यही तो जीवन है, किरण। यही प्रकृति के चक्र का विधान है। इसे समझो, और तुम स्वयं को समझ जाओगे।
(आनन्द और किरण एक-दूसरे की ओर देखते हैं, मंच पर प्रकाश धीरे-धीरे फीका पड़ता है, लेकिन एक शांत चमक बनी रहती है।)
19
`एकांकीकार -[श्री] आनन्द किरण "देव"`
पात्र:
* *आनन्द* : ज्ञाता, शांत, सौम्य और गहन ज्ञानी।
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष, उत्सुक, प्रश्न पूछने वाला।
*दृश्य 1: आनन्द मार्ग की जागृति में संवाद*
*स्थान* : एक शांत, हरा-भरा बगीचा, जिसके बीच में एक पुरानी आनन्द मार्ग की जागृति जिसका नाम आनन्द कुटीर है। शाम का समय है और हल्की धूप पेड़ों से छनकर आ रही है।
(आनन्द अपनी कुटिया के बाहर एक पत्थर पर बैठे हैं, आंखें बंद किए हुए। एक गीत गुनगुना रहे हैं। किरण उनके पास आता है, कुछ झिझकता है, फिर आगे बढ़कर सम्मानपूर्वक प्रमाण करता है।)
*आनन्द* : गुनगुना हुआ एक गीत गाता है।
*मन की यात्रा*
(*अस्तित्व से मोक्ष तक*)
मैं हूँ, ये बोध, ये महत्त का प्रकाश,
सत्ता का दर्पण, मेरा आत्म-आकाश।
विषयों से जुड़ा, पर निष्कर्म रहे,
बुद्धि का तत्व, जो मौन कहे।।
फिर अहं जागे, 'मैं कर्ता हूँ' ध्वनि,
कर्मों का लेखा, फल का धनी।
ये मेरी क्रिया, ये मेरा संबल,
अनुभवों का सागर, जीवन का पल।।
चित्त की माया, विषय से जुड़ती,
रूप धर कर ज्ञान की ज्योति बढ़ती।
कर्मफल से लिपटा, ये चित्त महान,
कारण से स्थूल तक, हर रूप में विराजमान।।
काममय जाग्रत में, स्थूलता का वास,
जीवन की हलचल, इंद्रियों का आभास।
मनोमय स्वप्न में, सूक्ष्म लोक की सैर,
भावों की दुनिया, विचारों की लहर।।
अतिमानस, विज्ञान, हिरण्य की ज्योति,
ये कारण मन, जो निद्रा में सोती।
गहरी ये नींद, जब मृत्यु कहाए,
फिर तुरीयावस्था में ये कैसे समाए?
अहम् की परिधि जब चित्त से बढ़े,
बुद्धि का प्रकाश तब जग में जगे।
ज्ञान की किरणें, राह दिखाती,
जीवन के पथ पर, आगे बढ़ाती।।
अहम् से महत् की जब परिधि सजे,
बोधि का दीपक तब हृदय में बजे।
बंधन टूटें, नवजीवन मिले,
सत्य की राह पर, मन खिले।।
समाधि की यात्रा, चित्त-अहम् का लोप,
महत्त जब भूमामन से, मिटाता संताप।
संविकल्प होता, समानांतर का खेल,
भूमामन में मिलना, मुक्ति का मेल।।
निर्विकल्प की राह, महत्त जब भूमा चैतन्य समान,
भूमा चैतन्य में विलीन, मोक्ष का ज्ञान।
अस्तित्व से उठकर, कारण की गहनता,
यही है यात्रा, यही है अनंतता।।
गुनगुना.......
*किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादाजी। बड़ा अच्छा गीत है।
*आनन्द* : (आंखें खोलकर, मंद मुस्कान के साथ) आओ, किरण। जानता था तुम आओगे। किस जिज्ञासा ने तुम्हें आज यहाँ खींच लाया?
*किरण* : दादाजी, आपने मन को जो आज गाया है, मैं मन के बारे में और अधिक जानना चाहता हूँ। आपने जो कुछ बताया है, वह इतना गहरा है कि मुझे उसे समझने में थोड़ी कठिनाई हो रही है। मन का यह महत्ततत्व, अहंतत्व और चित्ततत्व का संगठन क्या है?
*आनन्द* : (एक गहरी सांस लेते हुए) बहुत अच्छा प्रश्न है, किरण। मन, वास्तव में, इन तीन मूलभूत तत्वों का एक मिलित रूप है। समझो कि ये मन की तीन प्रमुख अंग हैं, या यूं कहो कि उसके तीन मुख्य कार्यक्षेत्र हैं।
(आनन्द पास पड़ी एक लकड़ी की पतली टहनी उठा लेते हैं और जमीन पर एक काल्पनिक चित्र बनाने लगते हैं।)
*आनन्द* : पहले बात करते हैं महत्ततत्व की। यह हमारे अस्तित्व का मूल बोध है, "मैं हूँ" का एहसास। जैसे, अभी तुम यहाँ बैठे हो, तुम्हें पता है कि तुम एक व्यक्ति के रूप में मौजूद हो। यही महत्ततत्व है। यह केवल उपस्थिति का बोध कराता है, यह किसी क्रिया का कर्ता नहीं होता। इसे तुम अपनी बुद्धितत्व भी कह सकते हो। यह विषयों से जुड़ता तो है, पर उनसे प्रभावित होकर कुछ करता नहीं। यह केवल साक्षी है।
*किरण* : तो, यह सिर्फ "होने" का एहसास है, काम करने का नहीं?
*आनन्द* : बिल्कुल! अब आता है अहंतत्व। यह महत्ततत्व से एक कदम आगे है। यह कहता है, "मैं कर्ता हूँ।" जब तुम कोई काम करते हो, जैसे मुझसे प्रश्न पूछ रहे हो, तो यह अहंतत्व ही है जो तुम्हें यह बोध कराता है कि तुम इस क्रिया के कर्ता हो। यही कर्म करता है और यही उसके फल का भोक्ता भी होता है। यही तुम्हारी पहचान को क्रियाशील बनाता है।
*किरण* : (सोचते हुए) तो "मैं हूँ" महत्ततत्व है और "मैं कर रहा हूँ" अहंतत्व है?
*आनन्द* : सही पकड़ा! और अंत में, चित्ततत्व। यह सबसे सक्रिय हिस्सा है। यह विषयों से सीधे जुड़ता है और उन्हें ग्रहण करता है। जब चित्त किसी विषय का रूप ले लेता है, तभी हमें उस विषय का ज्ञान होता है। जैसे, जब तुम फूल देखते हो, तो चित्त ही उस फूल के रूप को ग्रहण करता है और तुम्हें "फूल" का ज्ञान होता है। इसे कर्मफलम् चित्त भी कहा गया है, क्योंकि यही हमारे कर्मों के संस्कारों को भी धारण करता है।
*किरण* : तो ये तीनों मिलकर मन बनाते हैं?
*आनन्द* : हाँ, ये तीनों मिलकर ही हमारे चेतन और अचेतन मन की कार्यप्रणाली को परिभाषित करते हैं। ये एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और मिलकर ही हमारे अनुभवों का निर्माण करते हैं।
*दृश्य 2: मन के कोष और अवस्थाएँ*
*स्थान* : आनन्द कुटीर के अंदर, जहाँ आनन्द और किरण आमने-सामने बैठे हैं। एक दीपक जल रहा है, जिससे हल्की रोशनी फैल रही है।
*किरण* : दादाजी, आपने चित्ततत्व के कई कोषों का जिक्र किया था - काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय कोष। ये क्या हैं?
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) ये चित्ततत्व की विभिन्न परतें या गहराईयां हैं, किरण, जो हमारी विभिन्न जाग्रत अवस्थाओं और अनुभव स्तरों से जुड़ी हैं।
(आनन्द अपनी हथेली पर उंगलियों से समझाते हैं।)
*आनन्द* : सबसे पहले, काममय कोष। यह हमारा स्थूल मन है, जो हमारी जागृत अवस्था में क्रियाशील रहता है। जब तुम अपनी इंद्रियों से दुनिया को देखते हो, सुनते हो, छूते हो, तो यही काममय कोष काम करता है। यह तुम्हारी इच्छाओं और वासनाओं से भी जुड़ा है।
*किरण* : यह तो हमारा रोजमर्रा का मन हुआ।
*आनन्द* : ठीक कहा। फिर आता है मनोमय कोष। यह हमारा सूक्ष्म मन है। जब तुम स्वप्न देखते हो, तो यही कोष अधिक सक्रिय होता है। स्वप्न में तुम कई चीजें अनुभव करते हो, जो जाग्रत अवस्था में नहीं होतीं, वह मनोमय कोष की ही देन है। यह हमारी भावनाओं, विचारों और कल्पनाओं का क्षेत्र है।
*किरण* : तो काममय जागृत में, मनोमय स्वप्न में।
*आनन्द* : बिल्कुल। और अब आते हैं सबसे गहरे कोषों पर: अतिमानस कोष, विज्ञानमय कोष और हिरण्यमय कोष। इन तीनों को मिलाकर कारण मन कहते हैं। यह वह मन है जो तुम्हारी निद्रावस्था में भी क्रियाशील होता है, जब तुम्हें कोई स्वप्न नहीं आता। यह तुम्हारी गहराइयों में काम करता है, जहाँ तुम्हारे सबसे गहरे संस्कार और कर्म फल संचित होते हैं।
*किरण* : निद्रावस्था में भी मन काम करता है? यह तो अद्भुत है!
*आनन्द* : हाँ, कारण मन ही हमारे अचेतन अनुभवों का स्रोत है। और कारण मन की दीर्घ निद्रा को मृत्यु कहते हैं। जब यह कारण मन अपनी चेतना को पूरी तरह से त्याग देता है, तो उसे मृत्यु कहा जाता है।
*किरण* : (स्तब्ध होकर) तो मृत्यु मन की एक अवस्था है?
*आनन्द* : एक प्रकार से, हाँ। यह चेतना का एक विशेष स्तर से विदा लेना है। और यहीं से तुम्हारी विशेष अवस्था तुरीयावस्था का महत्व आता है। जब कारण मन इस दीर्घ निद्रा से परे एक कारण अवस्था में होता है, तो वह तुरीयावस्था है - चेतना का चौथा आयाम, जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे है।
*दृश्य 3: अस्तित्व से मोक्ष की ओर*
*स्थान* : आनन्द कुटीर के बाहर, रात हो चुकी है और तारे टिमटिमा रहे हैं। एक शांत वातावरण है।
*किरण* : क्या बुद्धि और बोधि एक ही?
*आनन्द* : - चित्त से अहम् परिधि के बढ़ने से बुद्धि की अवधारणा निकलती है तथा महत् की परिधि अहम् से अधिक होने पर बोधि प्रकाश होता है।
*किरण* : थोड़ा विस्तार से समझाइए दादाजी।
*आनन्द* : चित्त से अहम् परिधि से चित्त वर्जित अहम का परिशिष्टांश है, वह बुद्धि है तथा महत् से अहम् की परिधि के बढ़ने से जो वृर्द्धितांश वह बोधि है। इससे ऊपर बढ़ो है!
*किरण* : दादाजी, आपने समाधि और मुक्ति के बारे में भी गाया था। यह थोड़ा जटिल लग रहा है। समाधि में चित्त और अहम् का प्राणाश क्या है? और यह मोक्ष क्या है?
*आनन्द* : (आकाश की ओर देखते हुए) देखो, किरण, समाधि चेतना की एक ऐसी अवस्था है जहाँ मन अपनी सामान्य सीमाओं से परे चला जाता है। जब तुम गहरी समाधि में जाते हो, तो तुम्हारा चित्त (जो विषयों को ग्रहण करता है) और तुम्हारा अहम् (जो कर्ता का बोध कराता है) अपनी सक्रियता खो देते हैं, वे शांत हो जाते हैं। इसे ही प्राणाश कहते हैं - वे अपना विशिष्ट कार्य करना बंद कर देते हैं।
*किरण* : तो, मैं कर्ता हूँ, और मैं क्या कर रहा हूँ, ये दोनों भाव समाप्त हो जाते हैं?
*आनन्द* : हाँ, वे व्यक्तिगत स्तर पर निष्क्रिय हो जाते हैं। उस अवस्था में, तुम्हारा महत्ततत्व (जो केवल "मैं हूँ" का बोध है) भूमामहत्त के समान्तर हो जाता है। भूमामहत्त विराट चेतना है, ब्रह्मांडीय चेतना। जब तुम्हारा व्यक्तिगत "मैं हूँ" इस विराट चेतना के साथ एक सामंजस्य में आता है, तो वह सविकल्प समाधि है। तुम्हें अभी भी अपनी व्यक्तिगत सत्ता का कुछ बोध होता है, पर तुम विराट से जुड़े होते हो।
*किरण* : और फिर मुक्ति?
*आनन्द* : जब तुम्हारा महत्ततत्व उस भूमामहत्त में पूरी तरह से समाविष्ट हो जाता है, जब तुम अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को विराट में विलीन कर देते हो, तो उसे मुक्ति कहते हैं। तुम अपनी छोटी पहचान से मुक्त होकर विराट का हिस्सा बन जाते हो।
*किरण* : (एक गहरी सांस लेते हुए) यह तो एक बहुत ही गहरा अनुभव है।
*आनन्द* : बिल्कुल। और इससे भी गहरा है आभाव की अवस्था निर्विकल्प समाधि। जब तुम्हारा महत्ततत्व भूमाचैतन्य के समान्तर हो जाता है - भूमाचैतन्य शुद्ध, निराकार, सर्वोच्च चेतना है। जब तुम्हारा "मैं हूँ" उस परम चैतन्य के साथ सीधा संपर्क स्थापित करता है, तो वह निर्विकल्प समाधि है। यहाँ कोई विकल्प नहीं, कोई द्वैत नहीं, केवल एकत्व है।
*किरण* : और मोक्ष?
*आनन्द* : और जब तुम्हारा महत्ततत्व उस भूमाचैतन्य में पूरी तरह से समाविष्ट हो जाता है, जब तुम उस परम चेतना में पूर्णतः विलीन हो जाते हो, वही मोक्ष है। यह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति है, परम शांति और आनंद की अवस्था है। यह सिर्फ व्यक्तिगत मुक्ति नहीं, बल्कि चेतना का अंतिम विस्तार है।
(आनन्द किरण की आँखों में देखते हैं।)
*आनन्द* : तो, किरण, मन सिर्फ सोचने का यंत्र नहीं, यह अपने आप में एक ब्रह्मांड है। इसकी गहराइयों को समझना ही स्वयं को और इस अस्तित्व को समझना है। यह एक यात्रा है, और तुम इस यात्रा पर चल पड़े हो।
किरण: (हाथ जोड़कर) दादाजी, आपने आज मेरे लिए ज्ञान के नए द्वार खोल दिए। मैं आपका आभारी हूँ। अब मुझे मन की यह संरचना और उसकी विभिन्न अवस्थाएं बहुत स्पष्ट हो गई हैं।
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) ज्ञान को केवल सुनना नहीं, उसे अनुभव करना भी आवश्यक है। जाओ, अब इन विचारों पर मनन करो। जब तुम्हारी अगली जिज्ञासा तुम्हें पुकारे, तो फिर आना।
(किरण दादाजी को प्रणाम कर धीरे-धीरे चला जाता है। आनन्द फिर से आंखें मूंदकर बैठ जाते हैं, तारों भरे आकाश को निहारते हुए, एक गहरी शांति में लीन।)
(पर्दा गिरता है।)
20
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
*(अणुचैतन्य - भूमाचैतन्य)*
*पात्र:*
* *आनंद* : ज्ञाता, शांत और गहन व्यक्तित्व।
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष, उत्सुक और प्रश्नों से भरा।
*दृश्य 1: जिज्ञासा का उदय*
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ सूर्य की सुनहरी किरणें पेड़ों की पत्तियों से छनकर आ रही हैं। आनंद एक आसन पर बैठे हुए हैं, आँखें मूंदे हुए। किरण उनके पास आकर बैठता है।
(किरण कुछ देर आनंद को निहारता है, फिर धीरे से बोलता है।)
किरण: नमस्कार दादाजी, मैं कुछ दिनों से बहुत उलझन में हूँ। यह जीवन, यह संसार... क्या है यह सब?
*आनंद* : (आँखें खोलते हुए, हल्की मुस्कान के साथ) नमस्कार किरण, तुम्हारी जिज्ञासा ही तुम्हें सत्य के मार्ग पर ले जाएगी। पूछो, क्या जानना चाहते हो?
*किरण* : आपने कभी अणुचैतन्य और भूमाचैतन्य की बात की थी। यह क्या है? क्या ये एक ही हैं या अलग-अलग?
*आनंद* : (सोचते हुए) अणुचैतन्य यानी जीवात्मा, और भूमाचैतन्य यानी परमात्मा। सरल शब्दों में, अणु का अर्थ है इकाई, और भूमा का अर्थ है समग्र। चैतन्य का अर्थ है चित्तिशक्ति।
*किरण* : तो क्या हम सब अणुचैतन्य हैं? और परमात्मा भूमाचैतन्य? लेकिन आत्मा तो एक ही है, आपने ही कहा था।
*आनंद* : बिल्कुल सही। आत्मा एक है, जैसे महासागर एक है। लेकिन उसमें असंख्य बूंदें हैं। प्रत्येक बूंद अणुचैतन्य है, और महासागर भूमाचैतन्य। बूंद का अस्तित्व महासागर से अलग नहीं, वह उसी का अंश है।
*किरण* : तो क्या यह सब एक भ्रम है कि हम अलग हैं?
*आनंद* : यह भ्रम नहीं, लीला है। आत्मा के दो मूल तत्व हैं – शिव और शक्ति। शिव है साक्षीत्व, चरम आधार, नित्य, शुद्ध, निराभास, निराकार और निरंजन इसलिए वह निर्गुण। जब वह दिखता सगुण है तब शक्ति है गुणान्वित करने की क्षमता, जो संसार का सृजन करती है।
*किरण* : शिव और शक्ति... मुझे कुछ-कुछ समझ आ रहा है।
*आनंद* : बहुत अच्छा। आओ, तुम्हें गुणों के बारे में बताता हूँ। वे ही शक्ति के माध्यम से इस सृष्टि को रंग देते हैं।
*दृश्य 2: गुणों का खेल*
*स्थान* : एक बड़ा हॉल, जिसमें तीन अलग-अलग रंग के प्रकाश बिंदु हैं - सफेद, लाल और गहरा नीला। जब आनंद गुणों की बात करते हैं, तो प्रकाश तदनुसार बदलता है।
(किरण और आनंद हॉल में प्रवेश करते हैं।)
*आनंद* : शक्ति के तीन गुण होते हैं – सत्व, रज और तम। ये ही संसार की हर चीज़ को आकार देते हैं।
(आनंद सफेद प्रकाश बिंदु की ओर इशारा करते हैं।)
*आनन्द* : देखो यह सत्व। यह पवित्रता, सत्यता, सहनशीलता, अच्छाई और सच्चाई का प्रतीक है। सतोगुण यानी देवत्व का रूप। जब तुम किसी में करुणा, ज्ञान, शांति देखते हो, तो समझो वहां सतोगुण प्रधान है।
(किरण ध्यान से सुनता है। आनंद अब लाल प्रकाश बिंदु की ओर इशारा करते हैं।)
*आनंद* : यह है रज। यह सत्व और तम का मध्यस्थ, संचालक शक्ति है। रजोगुण यानी मनुष्यत्व का रूप। कर्म, इच्छा, महत्त्वाकांक्षा – ये सब रजोगुण के कारण हैं। यह वह ऊर्जा है जो हमें कार्य करने पर विवश करती है।
(अब आनंद गहरे नीले प्रकाश बिंदु की ओर इशारा करते हैं।)
*आनंद* : और यह है तम। यह उग्रता, बुराई और जड़ता का प्रतीक है। तमोगुण यानी दैत्य गुणी। आलस्य, अज्ञान, क्रोध, विनाश – ये सब तमोगुण के प्रभाव हैं।
*किरण* : तो क्या हर व्यक्ति में ये तीनों गुण होते हैं?
*आनंद* : बिल्कुल। हर जीव में ये तीनों गुण अलग-अलग मात्रा में मौजूद होते हैं। जिस गुण की प्रधानता होती है, वैसा ही उस जीव का स्वभाव होता है। अणुचैतन्य इन गुणों के खेल में लिपट जाता है, और यही उसकी संसार यात्रा है।
*दृश्य 3: माया से मुक्ति की ओर*
*स्थान* : एक शांत पहाड़ी की चोटी, जहाँ से क्षितिज का अद्भुत दृश्य दिखाई दे रहा है। सुबह का समय है और सूर्य उदय हो रहा है।
(आनंद और किरण चोटी पर बैठे हैं, सूर्योदय देख रहे हैं।)
*किरण* : तो क्या अणुचैतन्य इन गुणों के जाल से कभी निकल सकता है? क्या वह भूमाचैतन्य से मिल सकता है?
*आनन्द* : हाँ, किरण। जब अणुचैतन्य यह जान लेता है कि वह केवल गुणों का दर्शक है, उनसे प्रभावित नहीं, तब वह मूल स्वभाव में आता है। वह साक्षी भाव में आता है। जब तुम स्वयं को शरीर और मन से अलग सिर्फ 'देखने वाला' समझते हो, तब तुम शिवत्व की ओर बढ़ते हो।
*किरण* : क्या इसका मतलब है कि मैं ही परमात्मा हूँ?
*आनंद* : तुम परमात्मा से अलग नहीं हो। बूंद महासागर से अलग नहीं होती। जब बूंद जान लेती है कि वह महासागर है, तब उसका पृथक अस्तित्व मिट जाता है और वह समग्र में विलीन हो जाती है। यह बोध ही भूमाचैतन्य से मिलन है। तुम स्वयं को जानते हो, तो परमात्मा को जानते हो।
*किरण* : यह बहुत गहरा है, दादाजी। मुझे लगता है कि मैंने कुछ समझा है।
*आनंद* : समझने से ज़्यादा, अनुभव करना आवश्यक है। यह ज्ञान सिर्फ शब्दों में नहीं, बल्कि जीवन में उतरना चाहिए। अपनी आत्मा के साक्षी स्वरूप को पहचानो, गुणों के खेल को देखो, लेकिन उनसे बंधो मत।
*आनन्द* : आओ इसको काव्य में पिरोकर परम रस का रसास्वादन करते हैं।
(पृष्ठभूमि में धीमी, शांत संगीत बजता है। आनंद और किरण खड़े होकर क्षितिज की ओर देखते हैं।)
अणुचैतन्य, भूमाचैतन्य, एक ही धारा,
एक बूंद, एक सागर, भेद नहीं सारा।
आत्मा अजर अमर, है शिव और शक्ति का सार,
एक साक्षी, दूजा खेले जग संसार।।
सत्व, रज, तम, गुण तीन, यह शक्ति की माया,
कोई देवे निर्मलता, कोई कर्म रचाये काया।
कोई अंधकार लाये, कोई क्रोध में डोले,
पर आत्मा तो निर्गुण, ये भेद वो न तोले।।
जब अणु को हो भान, वो भूमा का है अंश,
टूटें बंधन, मिटे अज्ञान, न रहे कोई संश।
ज्ञान की ज्योति जागे, हर तम को मिटाये,
अणुचैतन्य तब भूमा में ही समाये।।
यह जीवन एक लीला, जहाँ हर कण है चैतन्य,
हम ही वो आत्मा, जो थी कभी अगम्य।
अब जाना भेद सारा, न कोई भय, न चिंता,
बस साक्षी बन देखना, यही है परमता।।
हाँ किरण, यही सत्य है, यही जीवन का आधार,
जागो, पहचानो खुद को, पा लो मुक्ति का द्वार।।
( शांत भाव से सूर्योदय को देखते रहते हैं, एक नई समझ और शांति के साथ।)
(पर्दा गिर जाता है)
21
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
पात्र:
* *आनन्द* : ज्ञाता, सत्य और सुख के अन्वेषक।
* *किरण* : जिज्ञासा से भरा, प्रश्नों से परिपूर्ण।
*दृश्य* : एक शांत, प्राकृतिक उपवन। सुबह का समय है।
(किरण, कुछ उलझा हुआ और चिंतित, उपवन में आता है। आनन्द एक वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे हैं।)
*किरण* : (स्वगत)
हे जीवन! यह कैसी उलझन, कैसा संशय?
सुख की खोज में भटकता, मन मेरा विह्वल।
मिलता है पल भर को, फिर क्यों ओझल हो जाए?
क्या यही नियति है, या कोई राह मिल पाए?
(किरण की आहट सुनकर आनन्द आँखें खोलते हैं।)
*आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) आओ, किरण, क्या मन में कोई प्रश्न है?
यह शांत सुबह, क्या तुम्हारी जिज्ञासा का कारण है?
*किरण* : (आनन्द को देख कर, थोड़ा संकोच से) नमस्कार, दादाजी। मेरा मन अशांत है। सुख की खोज में भटक रहा हूँ, पर वह क्षणभंगुर प्रतीत होता है। क्या ऐसा कोई सुख है जो शाश्वत हो?
*आनन्द* : (प्रेम से) तुम्हारी बात में सार है, किरण। क्षणिक सुख तो इंद्रियों का दास है, परंतु अनुकूल वेदना - सुख कहलाता। यह सुख क्षणिक है, जैसे स्वादिष्ट भोजन या मधुर संगीत मन के अनुकूल है।
*किरण* : तो फिर वह क्या है जिसकी बात ग्रंथ करते हैं, वह परम सुख?
*आनन्द* : उसे ही हम आनन्द कहते हैं, किरण।
सुख की अनुरक्त जैव परम वृत्ति, यह जीव सुखानुगामी बनाती है। जब मनुष्य अनन्त सुख की ओर चलता तब आनन्द मार्ग शुरूआत होती है। यह किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं करता, यह तो तुम्हारी चेतना की गहन अवस्था है,
जहाँ कोई इच्छा नहीं, कोई तृष्णा नहीं, केवल परम संतोष का प्रवाह है।
*किरण:* पर यह कैसे संभव है? क्या आनन्द कोई भावना है या कुछ और?
*आनन्द* :यह भावना से परे है, किरण। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझो: हमारा मस्तिष्क डोपामाइन, सेरोटोनिन जैसे न्यूरोट्रांसमीटर छोड़ता है जब हमें सुख मिलता है।
यह रासायनिक प्रतिक्रिया क्षणिक होती है। परंतु आनन्द, यह एक स्थायी अवस्था है,
जब तुम्हारा तंत्रिका तंत्र पूर्ण सामंजस्य में होता है, तुम्हारी चेतना का विस्तार होता है, अहम का विगलन होता है,
और तुम ब्रह्म के विराटत्व से जुड़ जाते हो। यह अनन्त सुख - आनन्द है। यह असीमित है, अविनाशी है।
*किरण* :तो क्या यह वही है जिसे ब्रह्म कहते हैं?
*आनन्द* : हाँ, किरण ! तुमने ठीक पहचाना। आनन्द व ब्रह्म एक सत्ता अथवा अवस्था है।
यह परम सत्य है, शिव है, और शक्ति से पूर्ण है। यह वह अवस्था है जहाँ द्वैत समाप्त होता है, जहाँ तुम स्वयं को ब्रह्म का अंश पाते हो। इसकी प्राप्ति से ही चरम व परम तृष्णा की निवृत्ति कहलाती है। तुम्हारी सारी कामनाएं शांत हो जाती हैं,
तुम्हें कुछ भी पाने की इच्छा नहीं रहती।
*किरण* : और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है? क्या कोई मार्ग है?
आनन्द: अवश्य है, किरण। वही तो जीवन का परम लक्ष्य है।
वृहद की एषणा तथा उसका प्रणिधान करना धर्म है। "वृहद" यानी वह विराट, वह परम तत्व, वह आनंद। उसकी खोज करना, उसे समझने का प्रयास करना,
और उसके प्रति स्वयं को समर्पित करना ही धर्म है। इस प्रक्रिया को नाम धर्म साधना है।
*किरण:* धर्म साधना? क्या यह पूजा-पाठ या कर्मकांड है?
आनन्द: नहीं, किरण। यह केवल कर्मकांड नहीं है। धर्म साधना तो आत्म-अनुशासन है, विवेक है, करुणा है, सत्य की खोज है, स्वयं को जानने का प्रयास है। यह तुम्हारे भीतर की शुद्धि है, तुम्हारे मन की एकाग्रता है। जब तुम अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर,
सबके कल्याण का सोचते हो,
ज्ञान की ओर बढ़ते हो, ध्यान करते हो, तभी तुम इस मार्ग पर चलते हो। इस पाना या यह स्थिति प्राप्त एक सद् कार्य है।
*किरण:* तो क्या यह सबके लिए आवश्यक है?
*आनन्द* : निश्चित रूप से, किरण। अतः धर्म साधना सबके लिए करणीय है। जो इस मार्ग पर नहीं चलता, जो केवल क्षणिक सुखों के पीछे भागता है, वह अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान पाता। जो मनुष्य धर्म साधना नहीं करता वह मनु पद वाच्य नहीं है। क्योंकि "मनु" का अर्थ है विचार करने वाला, विवेकशील प्राणी।
और बिना धर्म साधना के, विवेक की प्राप्ति नहीं होती।
*किरण* :(समझते हुए, आँखों में चमक के साथ) तो अंततः धर्म साधना से ही आनन्द की प्राप्ति होती है। अर्थात आनन्दघन अवस्था की प्राप्ति होती है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है।
*आनन्द* : (संतोष से सिर हिलाते हुए) हाँ, मेरे प्यारे किरण। तुम आनन्द मार्ग को समझ गए।
(किरण मुस्कुराता है, उसका चेहरा शांत और प्रसन्न दिखता है। वह आनंद की ओर देखता है, और दोनों कुछ पल के लिए शांत मुद्रा में बैठ जाते हैं, उपवन में शांति और आनंद का एक अदृश्य प्रवाह महसूस होता है।)
(पर्दा गिर जाते हैं)
22
`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`
(स्मृति शास्त्र पर तार्किक चर्चा)
*पात्र* :
* *आनन्द* : चर्याचर्य का विशेषज्ञ, शांत और ज्ञानी।
* *किरण* : जिज्ञासु पुरुष, उत्सुक और सीखने को तत्पर।
*दृश्य 1: परिचय*
*स्थान* : एक शांत पुस्तकालय का कोना। मेज पर आनन्द मार्ग चर्याचर्य की एक पुस्तक रखी है।
*समय* : शाम।
(किरण कुर्सी पर बैठा पुस्तक को उलट-पलट रहा है। आनन्द आता है और उसके पास बैठ जाता है।)
*आनन्द* : नमस्कार किरण! क्या पढ़ रहे हो?
*किरण* : नमस्कार दादाजी! मैं चर्याचर्य पढ़ रहा हूँ। यह आनंद मार्ग प्रचारक संघ के विधान, समाज की जीवन शैली, व्यक्तिगत आचरण और शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के नियंत्रण पर आधारित है। लेकिन मैं इसे और गहराई से समझना चाहता हूँ।
*आनन्द* : बिल्कुल! चर्याचर्य वास्तव में आनंद मार्ग का स्मृति शास्त्र है, जिसे श्री श्री आनंदमूर्ति जी की स्वीकृति के बाद आप्त साहित्य के रूप में स्थान मिला है। यह तीन खंडों में विभाजित है और कुल 60 अध्याय इसमें समाहित हैं। यह सिर्फ नियम नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है। आज हम इसी पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
*किरण* : वाह! मैं उत्साहित हूँ। तो हम कहाँ से शुरू करें?
*आनन्द* : सबसे पहले, हम चर्याचर्य के प्रथम खंड पर बात करेंगे, जिसके 10 अध्याय हमारे विधि-विधानों से संबंधित है।
`आनन्द मार्ग चर्याचर्य द्वितीय खंड`
*दृश्य 2: हमारे विधि विधान*
*स्थान* : एक खुली जगह, प्रतीकात्मक रूप से विभिन्न अनुष्ठानों के दृश्य।
*समय* : दिन का समय।
(आनन्द और किरण घूमते हुए बात कर रहे हैं।)
*आनन्द* : देखो किरण, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारे जीवन में अनेक अवसर आते हैं जब हमें सामाजिक परंपराओं, पर्वों और उत्सवों का आयोजन करना होता है। चर्याचर्य का प्रथम खंड हमें इन सभी के लिए एक निश्चित सरल, सुगम व सस्ता विधान प्रदान करता है, जिससे सामाजिक स्थिरता और एकता बनी रहती है।
*किरण* : क्या आप कुछ उदाहरण दे सकते हैं?
*आनन्द* : ज़रूर! इसमें शिशु का जातकर्म, जन्म तिथि कृत्य, विवाह विधि, शव सत्कार, श्रद्धानुष्ठान, शिलान्यास, गृह प्रवेश, वृक्षारोपण, यात्रा प्रकरण और सामाजिक उत्सवों के अनुष्ठान जैसे दस अध्याय शामिल हैं। इन सभी विधानों को सरल और मितव्ययी बनाया गया है ताकि हर कोई इन्हें आसानी से अपना सके।
*किरण* : यह तो बहुत ही व्यावहारिक लगता है। इससे क्या लाभ होता है?
*आनन्द* : सबसे बड़ा लाभ यह है कि एक नागरिक पंडित, मौलवी या पादरियों जैसे धर्म व्यवसायियों की प्रभुसत्ता से मुक्ति प्राप्त करता है। वह अपने अनुष्ठान स्वयं कर सकता है, आत्मनिर्भरता, कम खर्च और सरलता के साथ।
*किरण* : यह तो बहुत ही क्रांतिकारी विचार है!
*दृश्य 3: हमारी सामाजिक व्यवस्थाएँ*
*स्थान* : एक सभा कक्ष, जहाँ कुछ लोग सामाजिक विषयों पर चर्चा करते दिख रहे हैं।
*समय* : दोपहर।
(आनन्द और किरण एक तरफ खड़े होकर देख रहे हैं।)
*आनन्द* : अब बात करते हैं हमारी सामाजिक व्यवस्थाओं की। समाज के सफल संचालन के लिए चर्याचर्य के प्रथम खंड में दस और अध्याय प्रदान किए गए हैं।
*किरण* : वे क्या हैं?
*आनन्द* : इनमें आदर्श दायाधिकार व्यवस्था, सामाजिक शास्ति, अर्थ नीति, जीविका निर्वाह, नारी जीविका, विधवाओं के लिए व्यवस्था, पोशाक परिच्छेद, स्त्री-पुरुष संपर्क, निमंत्रण विधि और समाज एवं विज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषय शामिल हैं।
*किरण* : ये विषय तो समाज की नींव हैं।
*आनन्द* : बिल्कुल! इन विधानों का पालन करने से सामाजिक शांति, विकास और स्वतंत्र मनीषा का निर्माण होता है। यह एक आदर्श समाज की कल्पना को साकार करने में मदद करता है। हर व्यक्ति को अपनी भूमिका और कर्तव्य समझ में आता है।
*दृश्य 4: हमारी आध्यात्मिक परंपरा*
*स्थान* : एक शांत ध्यान कक्ष, कुछ लोग ध्यान मुद्रा में बैठे हैं।
*समय* : सुबह।
(आनन्द और किरण धीरे-धीरे चलते हुए यहाँ आते हैं।)
*आनन्द* : किरण, चर्याचर्य केवल सामाजिक नियमों तक ही सीमित नहीं है। यह मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी जागरूक है। प्रथम खंड के दस अध्याय हमारी आध्यात्मिक परंपरा पर प्रकाश डालते हैं।
*किरण* : आध्यात्मिक विकास के लिए इसमें क्या बताया गया है?
*आनन्द* : इसमें आदर्श गृहस्थ जीवन, प्रणाम विधि, आचार्य के साथ संपर्क, गुरु वंदना, साधना, धर्म चक्र, तत्व सभा, जागृति, मार्गीय संपद और आत्म-विश्लेषण जैसे विषय शामिल हैं। ये सभी एक आध्यात्मिक और नैतिकवान मनुष्य के निर्माण के लिए सामाजिक स्तर पर एक मर्यादित व्यवस्था प्रदान करते हैं।
*किरण* : तो यह सिर्फ बाहरी नियमों के बारे में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धि के बारे में भी है।
*आनन्द* : बिल्कुल! यह एक पूर्ण जीवन शैली है।
*दृश्य 5: हमारा प्रशासन एवं पदवी*
*स्थान* : एक कार्यालय जैसा माहौल, कुछ लोग बातचीत कर रहे हैं।
*समय* : दिन का समय।
(आनन्द और किरण एक दीवार पर लगे संगठनात्मक चार्ट को देख रहे हैं।)
*आनन्द* : आनंद मार्ग समाज के संचालन के लिए एक संस्थागत संगठन का निर्माण किया गया है। चर्याचर्य का प्रथम खंड प्रशासनिक व्यवस्था और सामाजिक-आध्यात्मिक पदवियों को भी विस्तृत रूप से चित्रित करता है।
*किरण* : इसमें कौन-कौन सी पदवियाँ और व्यवस्थाएँ हैं?
*आनन्द* : इसमें आचार्य, तात्विक, पुरोधा, आचार्य पर्षद, तात्विक पर्षद, अवधूत और अवधूत पर्षद, विभिन्न संस्थाओं का गठन, भुक्ति प्रधान, समाज मित्रम्, स्मार्त, जीवन मित्रम्, धर्म मित्रम्, उपभुक्ति प्रमुख, सांधिविग्राहक, जनमित्रम् और लोकमित्रम् जैसी कुल ग्यारह अध्याय हैं। यह एक सुव्यवस्थित प्रशासनिक ढाँचा प्रदान करता है।
*किरण* : तो आनंद मार्ग का एक मजबूत संगठनात्मक ढाँचा है।
*आनन्द* : हाँ, यह समाज को सुचारू रूप से चलाने और आध्यात्मिक विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।
`आनन्द मार्ग चर्याचर्य द्वितीय खंड`
*दृश्य 6: आत्मिक कर्म के लिए निर्देशना*
*स्थान* : एक पहाड़ी रास्ता, जहाँ कुछ लोग एकांत में चल रहे हैं।
*समय* : सुबह।
(आनन्द और किरण भी साथ-साथ चल रहे हैं।)
*आनन्द* : अब हम चर्याचर्य के द्वितीय खंड में प्रवेश करते हैं, जिसे चार अध्याय 'आत्मिक कर्म की निर्देशना' देते है। यह मनुष्य की आत्मिक यात्रा के पथ का ज्ञान है।
*किरण* : 'आत्मिक' का अर्थ क्या है?
*आनन्द* : 'आत्मिक' का अर्थ है जो आत्म कल्याणकारी हो, भले ही वह तत्काल सुखद न लगे। आत्मिक कर्म निर्देशना में साधना, साधकों के लिए पालनीय आचरण विधि, पंचदश शील (पंद्रह सिद्धांत) और षोडश विधि (सोलह विधि) जैसे विषय शामिल हैं। यह आध्यात्मिक अनुशासन का एक महत्वपूर्ण भाग है।
*किरण* : यह तो साधना मार्ग के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
*आनन्द* : हाँ, यह साधकों को सही दिशा और अनुशासन प्रदान करता है ताकि वे अपनी आध्यात्मिक यात्रा में सफल हो सकें।
*दृश्य 7: जागतिक कर्म की निर्देशना*
*स्थान* : एक व्यस्त बाजार या शहर का दृश्य, लोग अपने दैनिक जीवन में संलग्न हैं।
*समय* : दिन का समय।
(आनन्द और किरण लोगों को देखते हुए बात कर रहे हैं।)
आनन्द: आत्मिक कर्म निर्देशना जहाँ आत्मिक यात्रा पर केंद्रित है, वहीं 'जागतिक कर्म निर्देशना' भौतिक और मानसिक जीवन के निर्माण के पथ का ज्ञान है। यह भी चर्याचर्य के द्वितीय खंड का हिस्सा है।
किरण: 'जागतिक' का अर्थ क्या है?
आनन्द: 'जागतिक' का अर्थ है जो हमारे लौकिक सुखद या प्रिय लगे। इसमें शरीर, समाज, सामाजिक आचार और विविध विषयों पर चर्चा की गई है। इसका अनुसरण कर साधक आनंदमय परिवेश में जी सकता है। यह बताता है कि कैसे अपने दैनिक जीवन को भी आध्यात्मिक मूल्यों के साथ जीना है।
*किरण* : तो यह भौतिक जीवन को भी सही दिशा देने में मदद करता है।
*आनन्द* : बिल्कुल। यह आध्यात्मिक और भौतिक जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने में मदद करता है।
*आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड तृतीय*
*दृश्य 8: शरीर विज्ञान के विधान*
*स्थान* : एक व्यायामशाला या पार्क, जहाँ लोग योग या व्यायाम कर रहे हैं।
*समय* : सुबह।
(आनन्द और किरण उन्हें देखते हुए बात कर रहे हैं।
*आनन्द* : अब हम चर्याचर्य के तृतीय खंड पर आते हैं, जो मुख्यतः शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित है। इसके प्रथम पाँच अध्याय शरीर की पुष्टता पर लिखे गए हैं।
*किरण* : शरीर की पुष्टता के लिए क्या विधान हैं?
*आनन्द* : इसमें स्नान विधि और पितृ यज्ञ (शरीर की स्वच्छता और शुद्धता), आहार विधि (भोजन संबंधित निर्देशना), उपवास विधि (शरीर को शुद्ध करने के लिए), वायु सेवन (खुली हवा का महत्व) और शारीरिक संयम (शरीर पर नियंत्रण) जैसे विषय शामिल हैं। इन विधानों के माध्यम से एक सुदृढ़ शरीर वाले साधक का निर्माण किया जाता है।
*किरण* : यह तो बहुत ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।
*आनन्द* : हाँ, क्योंकि एक स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन और आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।
*दृश्य 9: स्वास्थ्य विज्ञान का विधान*
*स्थान* : एक प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र, जहाँ लोग स्वस्थ होने के तरीके सीख रहे हैं।
*समय* : दोपहर।
(आनन्द और किरण यहाँ भी लोगों को देख रहे हैं।)
आनन्द: चर्याचर्य के तृतीय खंड के छठे से दसवें अध्याय स्वस्थ साधक के लिए रचित हैं। यह मानता है कि कार्य करते-करते शरीर में असामान्य परिस्थितियाँ आ सकती हैं, इसलिए एक स्वास्थ्यप्रद और तंदुरुस्ती की व्यवस्था दी गई है।
*किरण* : इसमें क्या-क्या शामिल है?
*आनन्द* : इसमें साधारण स्वास्थ्य विधि, विभिन्न यौगिक प्रक्रियाएँ, आसन, मुद्रा तथा बंध और प्राणायाम की व्यवस्था दी गई है। ये सभी एक स्वस्थ जीवन शैली को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं।
*किरण* : तो यह बीमारियों से बचाव और शरीर को तंदुरुस्त रखने के लिए मार्गदर्शन देता है।
*आनन्द* : हाँ, यह हमें अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने और उसे बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है।
*दृश्य 10: दीर्घजीवन का विधान*
*स्थान* : एक शांत उपवन, जहाँ आनन्द और किरण एक बेंच पर बैठे हैं।
*समय* : शाम।
(सूर्य अस्त हो रहा है।)
*आनन्द* : और अंत में, चर्याचर्य के तृतीय खंड का ग्यारहवाँ अध्याय, परिशिष्ट, दीर्घजीवन के नौ गोपनीय संकेतों पर चर्चा करता है।
*किरण* : नौ गोपनीय संकेत? यह तो बहुत ही दिलचस्प है!
*आनन्द* : हाँ, यह बताता है कि कैसे एक व्यक्ति स्वस्थ और आनंदमय जीवन जीकर दीर्घायु प्राप्त कर सकता है। यह शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्य से संबंधित है।
*किरण* : यह सब सुनकर मुझे चर्याचर्य की गहराई और व्यापकता का अनुभव हो रहा है। यह सिर्फ नियमों का संग्रह नहीं, बल्कि एक पूर्ण जीवन दर्शन है।
*आनन्द* : बिल्कुल सही कहा तुमने, किरण। यह एक ऐसा स्मृति शास्त्र है जो मनुष्य को भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों ही स्तरों पर सशक्त बनाता है। यह आनंद मार्गियों के लिए एक मार्गदर्शक है।
*किरण* : आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दादाजी। आपने इस को सरल के रूप में समझाकर मेरे लिए इसे बहुत आसान बना दिया।
*आनन्द* : खुशी हुई कि मैं तुम्हारी मदद कर सका।
(दोनों शांत भाव से सूर्यास्त को देखते हैं।)
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