नैतिकता या नैतिक दर्शन, दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें सही और गलत व्यवहार की अवधारणाओं का निर्माण करना, पालन करना एवं संरक्षण देना है। नैतिकता का क्षेत्राधिकार मानवीय के वे सभी क्रियाकलाप है, जिससे मानव समाज प्रभावित होता है। अतः नैतिकता का निर्धारण करना सभी विषय एवं विभाग में अनिवार्य है। नैतिकता के दो स्वरूप है। प्रथम सहज नैतिकता एवं द्वितीय आध्यात्मिक नैतिकता। सहज नैतिकता में मानव के समक्ष कोई लक्ष्य अथवा आदर्श नहीं होता है। समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। जहाँ तक यह मनुष्य के मन यह भाव रहता नैतिकता उसके आचरण में दिखती है। लेकिन जैसे ही यह भाव हट जाता है नैतिकता भी ओझल हो जाती है। आध्यात्मिक नैतिकता के समक्ष परमपुरुष लक्ष्य एवं आदर्श होते हैं। उनके खातिर एवं समाज के जिम्मेदार एवं प्रतिष्ठित नागरिक होने के नाते नैतिकता का पालन करना होता है। आध्यात्मिक नैतिकता में परमपुरुष लक्ष्य होने कारण नैतिकवान फिसल नहीं सकता है। यह कैमरा उनके हर क्रियाकलाप का रिकार्ड रखता है। अतः शास्त्र सहज नैतिकता से आध्यात्मिक नैतिकता को श्रेष्ठ मानता है।
आध्यात्मिक नैतिकता दर्शनशास्त्र की वह शाखा है, जिसपर चलन मनुष्य वृहद बनता है। शास्त्र कहता है कि वृहद को पाना ही धर्म है। अतः हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता ही धर्म है। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता मनुष्य को ब्रह्म कोटि तक ले तो जा सकती है लेकिन ब्रह्म का सम्मान नहीं दिला सकती है। अतः केवल आध्यात्मिकता ही धर्म नहीं तथा केवल नैतिकता ही धर्म नहीं है। धर्म बनने के लिए आध्यात्मिकता व नैतिकता को मिलकर रहना होता है। दोनों को एकाकार होकर चलना भी कह सकते हैं। शास्त्र कहता है कि धर्म विहीन मनुष्य पशु समान है। अतः वैधानिक भाषा में हम कह सकते हैं कि आध्यात्मिक नैतिकता विहिन मनुष्य भी पशु समान है।
अध्यात्म मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करता है तथा नैतिकता मनुष्य को महानत्व अथवा परमत्व। परमत्व एवं पूर्णत्व वस्तुतः एक ही है। इसलिए नैतिकता को आध्यात्मिकता से पृथक करके देखना अथवा आध्यात्मिकता को नैतिकता से पृथक करके देखना एक नादानी है। ऐसा दर्शन देने वाले जानबूझकर समाज एवं मनुष्य को अधर्म के पथ पर ले जाते हैं। शास्त्र अधर्म को मनुष्य का पथ नहीं बताते हैं। अतः किसी को भी इस पथ समर्थन एवं स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। नैतिकता विहिन आध्यात्मिकता साधुवेष में शैतान का सर्जन करते हैं। यह लोग संत समाज को बदनाम करते हैं। आध्यात्मिकता विहिन नैतिकता मनुष्य को प्रगति के पथ से वंचित करती है। ऐसे लोग समाज की क्षति तो नहीं करते हैं लेकिन खुद पांव कुल्हाड़ी जरूर मारते हैं। कितना भी आध्यात्मिक पुरुष हो लेकिन नैतिकता नहीं है तो त्याग देना चाहिए। इसी प्रकार नैतिकता के उच्च पैमाने पर बैठे उस पुरुष का भी संग न करें जिसके पास आध्यात्मिकता नहीं है। यह व्यक्ति स्वयं का एवं तुम्हारा कल्याण नहीं कर सकता है।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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दिव्य आशीर्वचन
मन के जो भागवत आदर्श, उसे भूमा भाव तक पहुंचाने की प्रेरणा देता है उसे नीतिवाद कहते हैं। नीतिवाद का प्रत्येक अंग मनुष्य को क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम का गान सुनाता चलता है। सरल भाषा में कहा जा सकता है कि जो सदवृतियां बृहत भाव में प्रतिष्ठित होने में सहायक हैं वही सदनीति व नीति है। बृहद भाव में प्रतिष्ठित होना ही अध्यात्म है और इस अध्यात्म का आधार नीति है और इस नीति पर जो नैतिकता आधारित है वही नैतिकता बृहद भाव में प्रतिष्ठित कर सकती है क्योंकि उसके अंदर क्षुद्रत्व के भीतर से भी असीम की गान सुनाने की क्षमता है।
अत: सदवृतियों के जागरण में सहायक नैतिकता को जो भूमा भाव में प्रतिष्ठित करने की क्षमता रखती है, को आध्यात्मिक नैतिकता कहते हैं। चुंकि सदवृतियों का जागरण यम-नियम के पालन से ही होता है क्योंकि यम नियम के पालन से मन के सभी कोष मजबूत होते हैं और कोष के मजबूत होने से हार्मोनल सेक्रेशन बैलेंसड होता है। अत: मूल दृष्टि से यम नियम का पालन ही आध्यात्मिक नैतिकता है। जो लोग यम नियम का पालन नहीं करते हैं उन्हें नैतिक नहीं कहा जा सकता है और ऐसे लोगों के द्वारा समाज का नियंत्रित होना धीरे-धीरे अंधेरे में पूरे समाज को समाविष्ट करना है।
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