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भृगुपति युग- षष्टम् संभूति
भारतीय साहित्य
में विष्णु की षष्टम् संभूति भृगुपति को बताया गया है। क्षत्रिय युग का विनाशक के रुप
में दिखाया गया है। परशा नामक हथियार धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए। यह ऋषि युग
के नाम भी जाना जाता है। वामन युग धार्मिक चेतना ने जिन व्यष्टि में आत्मिक आनन्द की
क्षुधा जगाई थी। वे भृगुपति युग में प्रभावशाली हुए। उन्होंने शारीरिक शक्ति स्थान पर बौद्धिक शक्ति से कार्य करना आरंभ किया।
अपने बौद्धिक संपदा से कई नहीं पद्धति का आविष्कार किया। युद्ध नये व्यूह रचना तरीके
से लड़वाकर समस्त व्यवस्था पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। मल युद्ध के स्थान लाठी
प्रहार, लाठी जबाव परशा आदि एक से एक मारक हथियार के कौशल व पहिए तथा आग के आविष्कार
सहित नूतन शोध ने समाज में ऋषियों की श्रेष्ठता स्थापित की।
यह युग मानव जाति के इतिहास
में पाषाण युग से ग्राम राज्यों की स्थापना से पूर्व का युग था। आधुनिक मनुष्य ने असभ्यता
एवं बर्बरता का दामन छोड़ एक नये पायदान पर पांव रखने की गाथा को लिखने का साक्ष्य
भृगुपति युग है। इस युग में मानव पर्वतवासी था। मैदानी अंचल में रहना आरंभ नहीं किया
था। मनुष्य ने ऋषियों के पर्वत से अपनी गोत्र का परिचय देना आरंभ किया। वामन युगीन
मनुष्य से इस युग के मनुष्य के आचार विचार, रहन सहन, उठने बैठने आदि तौर तरीकों में
क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
इस युग आते आते मनुष्य ने सदाशिव के रुप
में महासंभूति का सानिध्य प्राप्त किया। उन्होंने पशु स्वभाव से मनुष्य को मानवीय सभ्यता
के सांचे में ढाला। यह महादेव के रुप ख्याति प्राप्त की। इस युग को सभ्यता का प्रथम
युग कह सकते है।
भृगुपति युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन ➡ सभ्यता के प्रथम अध्याय ने मनुष्य ने जो कुछ प्राप्त किया। वह अपने आप
पहली वैचारिक क्रांति थी। इस युग के मनुष्य का अध्ययन जड़ जीव विज्ञान की प्रयोगशाला
में करना वैज्ञानिकों एवं इतिहास के शोधकर्ताओं की भूल है। मनुष्य का जीवन विज्ञान
मनोजीव विज्ञान होना चाहिए। इस मनुष्य की क्रिया का मुख्य नियंता मन रहा है। अब मनुष्य
जीव एवं जन्तु नहीं रहा एक विचारशील मनुष्य बन गया था। उसी परिप्रेक्ष्य को मध्य नजर
रखते हुए इतिहास लेखन की यह नूतन विधा तत्कालीन मानव सभ्यता का मूल्यांकन करता है।
(१) राजनैतिक जीवन ➡ इस युग में मनुष्य ने
पर्वतों को अपना स्वदेश बना दिया था। इनका मुख्या ऋषि के नाम से जाना जाता था तथा लोग
उन्हें के नाम से अपना परिचय देते थे। अपने अपने पर्वत की संपदा पर अपना एकाधिकार समझते
थे। इसको लेकर विभिन्न गोष्ठियों मारक युद्ध भी होते थे। संधि- समझौता, मित्र एवं शत्रु
पर्वत प्रदेश स्थापित करने की परंपरा का विकास हो गया था। इस युग के उत्तरार्ध में
युग पुरुष सदाशिव द्वारा गण एवं गणाधिपति के राजनैतिक सूत्र आरंभ किया। इस प्रणाली
के माध्यम से विभिन्न पर्वतीय प्रदेश आपस में सम्पर्क में आए।
(२) सामाजिक जीवन ➡ यह युग सामाजिक इतिहास
लिखने का रोचक अध्याय हैं। इस युग के आरंभ में नारी जाति पर संतति के पालन पोषण की
पीड़ा को मनुष्य ने पहचान। पुरुष वर्ग कुछ सामूहिक जिम्मेदारी का परिचय देना प्रारंभ
किया। इस युग के महानायक भगवान सदाशिव ने प्रथम विवाह कर मनुष्यों के पारिवारिक जीवन
का शुभारंभ किया। इससे पूर्व किसी भी ऋषि ने एक स्त्री को अपने अर्द्धांगिनी बनाने
का साहस नहीं किया। यह सााहस युग पुरुष सदाशिव ने प्रथमतः किया। इसके लिए सदाशिव को
तत्कालीन गोष्ठी परंपरावादियों संघर्ष भी करना पड़ा था। अर्थात इस युग के उत्तरार्ध
में पारिवारिक परम्परा का सूत्रपात हो गया था।
(३) धार्मिक जीवन ➡ इस युग का धार्मिक जीवन
विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। इस युग में वैदिक जीवन शैली एवं तांत्रिक जीवन
शैली का श्री गणेश हुआ था। वैदिक सभ्यता जड़ प्रकृति एवं उसकी महत्ता को लेकर अनुसंधान
प्रस्तुत करता था जबकि तंत्र ने मनुष्य के जीवन के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक
विकास का अनुसंधान किया तथा वस्तु जगत से सुसामंजस्य स्थापित करने की कलाओं में दक्षता
प्राप्त की। कालांतर में आर्य एवं अनार्य परंपरा का मिलन हुआ भी हुआ। सूक्ष्म आध्यात्मिक
साधना की सुव्यवस्थित पद्धति से मनुष्य को दीक्षित करने का कार्य महागुरु सदाशिव ने
किया। यहाँ दो विरोधी विचारधारा भी दिखाई दी। आर्य परंपरा यज्ञ समर्थक तथा अनार्य यज्ञ
विरोधी। इसको लेकर रक्तरंजित संघर्ष भी हुए थे।
(४) आर्थिक जीवन ➡ इस युग में फलों एवं
अनाज की प्रचुरता ने अधिक आर्थिक चिंता में मग्न नहीं किया। आपसी सहयोग से एक दूसरे
की वस्तुओं का आदान प्रदान करना आरम्भ हो गया था लेकिन वस्तु विनिमय की प्रणाली का
प्रारंभ नहीं हुआ था। आपात कालीन परिस्थितियों में मैदानी अंचल में आकर कतिपय साहसी
लोग कुछ दाने उगाते थे। कार्य संपादन के बाद पुनः पर्वतीय प्रदेश लौट जाते थे। अर्थात
खेती की व्यवस्थित प्रणाली अभी तक विकास नहीं हुआ था। व्यापार की आवश्यकता अधिक नहीं
थी लेकिन आभूषण इत्यादि को ढ़ालने इत्यादि की हस्तकला में कुछ लोगों को सिद्धहस्त हासिल
थी। प्रारंभ में इनके आभूषण तथा दैनिक उपयोग की वस्तु पत्थर, हड्डियों एवं हाथी दांत
की होती थी। बाद मनुष्य धातु से परिचित होने पर इनका उपयोग करने लगा।
(५) मनोरंजनात्मक दशा ➡ इस युग नृत्यकला, संगीत कला, व्यायाम, योग, नाट्यकला
उत्तरोत्तर विकास हुआ। सदाशिव नटराज की उपाधि से विभूषित किए गए।
(६) विश्व को देन ➡ इस युग कला एवं विज्ञान
के विकास का प्रथम अध्याय लिखा गया। इस युग आयुर्वेद, वैदक शास्त्र रुप चिकित्सा पद्धति
का आविष्कार हुआ। इस युग मानव सभ्यता को आग, पहिया एवं बीज उगाने की पद्धति प्रदान
की। राजनैतिक क्षेत्र गणतंत्र प्रणाली, सामाजिक क्षेत्र में पारिवारिक प्रणाली, धार्मिक
क्षेत्र में यज्ञ एवं ध्यान साधना, साहित्य के क्षेत्र वैदिक साहित्य व तंत्र शास्त्र
प्रदान किए।
सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत
के अनुसार यह युग द्वितीय विप्र युग था तथा मानव सभ्यता का प्रथम विप्र युग था। भारतीय
चिन्तन के अनुसार त्रेतायुग की मध्यमावस्था थी।
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लेखक - श्री आनन्द किरण