विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 08


👑 श्रीराम युग- सप्तम् संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
              ग्राम स्वराज युग संभूति के श्री राम युग अथवा रामराज्य के नाम से जाना जाता है। भृगुपति अर्थात ऋषि युग के बाद ग्राम राज्य अस्तित्व में आये। यह ग्राम राज्य सामाजिक आर्थिक इकाई के रुप में कार्य करते है। ऋषि युग के उत्तर काल विभिन्न गुरुकुल के आचार्यों द्वारा आदर्श समाज के चित्रण को लेकर नाटकों का मंथन किए जाते थे। वशिष्ठ गुरुकुल का रामराज्य नाटक सबसे अधिक ख्याति पाई। विश्वामित्र गुरुकुल के द्वारा सीता स्वयंवर ने भी ख्याति प्राप्त की। इसके बाद राम को नायक रुप में चित्रित एक के बाद एक  नाटक का मंथन होने लगे। इसलिए यह युग को राम युग के नाम जाना जाने लगा।
      तंत्र में पृथ्वी तत्व सोने की लंका, जलतत्व को सागर पर सेतु बंधन, अग्नि तत्व को बालि वध, वायु तत्त्व को हनुमान, आकाश तत्व को शब्द तन्मात्र शबरी , नासिक के ललना चक्र गंध से जोड़ते जटायु , आज्ञा चक्र को पंचतत्व की पंचवटी, गुरु चक्र को चित्रकुट एवं सहस्रार चक्र अयोध्या। जिसके बारे में कहा जाता है कि साधना समर द्वारा अ योद्धय (अजेय) है। इस  अवस्था को अयोध्या के सांकेतिक नामों से चित्रित किया गया। जीवात्मा एवं कुलकुंडलिनी को सीताराम के रुप समझाया गया। कालांतर में तंत्र का राम विज्ञान एवं गुरुकुल के नाट्य राम चरित्र मिलकर रामायण के रुप में अस्तित्व में आए।
     बाल्मीकी द्वारा रचित रामायण को श्री राम युग का इतिहास लिखने का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। बताया जाता हैं कि बाल्मीकी जी ने श्री राम के जन्म से पूर्व इस गाथा को लिख दिया था। इसके कारण श्री राम पर काल्पनिक पात्र होने की आशंकाएँ व्यक्त की गई। मैंने इतिहास का लेखन कार्य आरंभ करने पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था। कथाएँ आस्था एवं विश्वास के बिम्ब होते है। इनकी सत्यता जाँच करना मेरा विषय नहीं है।  इसके बाद श्री राम जी के चरित्र का भारतवर्ष एवं भारतवर्ष के बाहर भी विभिन्न भाषाओं में गाया गया। तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस ने सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की है।
           श्री राम युग ग्राम राज्य सभ्यता का युग था। मानव ने इस युग में आते आते खेती एवं अन्य व्यवसाय में सिद्धहस्त हासिल कर ली थी। एक स्थान पर मनुष्य ने रहना प्रारंभ किया। सामाजिक जिम्मेदारियों को वहन करते आर्थिक विषय में अधिक रुचि लेने लगा। इस युग में विश्व में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र को लेकर यह ग्राम राज्य अस्तित्व में आए। इन्होंने प्रशासनिक योग्यता भगवान सदाशिव द्वारा प्रतिपादित गण व्यवस्था से हासिल कर दी थी। चूंकि ग्राम स्वराज आर्थिक इकाई के केंद्र हुआ करते थे। अत: यह राज्य विशुद्ध वैश्य गणराज्य थे।
श्री राम युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व में जहाँ भी मानव सभ्यता का निर्माण हुआ था। वहाँ ग्राम इकाइयों के बाद नगरी सभ्यता का विकास हुआ था। इतिहास के कालक्रम के अनुसार 3000  से 4500 ईसा पूर्व का युग ग्राम स्वराज जो भारतीय सभ्यता में राम राज्य के नाम विश्लेषित किया गया।
(१) राजनैतिक जीवन  इस युग में राजनैतिक व्यवस्था सुव्यवस्थित रुप से लागू हो गई थी। राजा के चुनाव में योग्यता के मापदंड का ध्यान रखा जाता था। सभा, मंत्रीमंडल इत्यादि इकाइयों का गठन हो गया था। प्रशासनिक कार्यों में नारियों की भागीदारी के प्रमाण मिलते हैं। राज्य छोटी-छोटी जनगोष्ठी के बने थे।
(२) सामाजिक जीवन सुव्यवस्थित  सामाजिक परंपरा का गठन हो गया था। पुरुष एक से अधिक विवाह करता था। विधवा विवाह की प्रथा विद्यमान होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। नारियों की स्थिति सम्मान जनक होने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में धर्म के क्षेत्र में व्यापक जाग्रति थी। पूजा पद्धति के विभिन्न तरीके उपलब्ध थे। इस युग में विश्व के लगभग सभी स्थानों पर मूर्ति पूजा के प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जीवन जीने के कुछ नैतिक मानदंड को लेकर चलने वाले का समाज में मान एवं सम्मान था।
(४) आर्थिक जीवन यह युग सबसे अधिक आर्थिक जगत में विकास की गाथा लिखता है। आर्थिक जगत की दृष्टि यह युग विश्व इतिहास का स्वर्ण युग था। क्षेत्रीयता विभिन्नता के आधार आर्थिक इकाई को लेकर राज्य गठित थे। व्यापार के परंपरा सुव्यवस्थित संचालित था। उद्योग वही स्थापित किये गये थे। जहां कच्चा माल उपलब्ध हो जाता था।
(५) मनोरंजनात्मक दशा श्री राम युग में सभ्यता का काफी विकास हो गया था। मनोरंजनात्मक क्षेत्र भी काफी विकसित हो गया था। रंगमंच पर नाट्य का मंथन एवं युद्ध कौशल की करतब मुख्य आकर्षण हुआ करते होंगे। शिक्षा पद्धति का भी व्यवस्थित पद्धति लागू की गई थी।
(६) विश्व को देन इस युग विश्व को जीवन जीने की आदर्श शैली प्रदान की तथा भक्ति को एक जन आंदोलन में रूपांतरित कर दिखाया।
         श्री राम युग प्रगतिशील उपयोग तत्व द्वारा प्रतिपादित समाज चक्र में द्वितीय वैश्य युग की परिधि में रखा जाता है तथा भारतीय चिन्तन इस त्रेतायुग का अन्तिम पायदान बताता है। इसके बाद पुनः समाज चक्र घूर्णन की अवस्था में आता है। यह विश्व इतिहास की द्वितीय परिक्रांति हुई। उसके बाद विश्व को एक युग संधि गुजरना पड़ा, जो तृतीय शूद्र युग का शंखनाद था।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 07


     👑 भृगुपति युग- षष्टम् संभूति 

               भारतीय साहित्य में विष्णु की षष्टम् संभूति भृगुपति को बताया गया है। क्षत्रिय युग का विनाशक के रुप में दिखाया गया है। परशा नामक हथियार धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए। यह ऋषि युग के नाम भी जाना जाता है। वामन युग धार्मिक चेतना ने जिन व्यष्टि में आत्मिक आनन्द की क्षुधा जगाई थी। वे भृगुपति युग में प्रभावशाली हुए। उन्होंने शारीरिक शक्ति  स्थान पर बौद्धिक शक्ति से कार्य करना आरंभ किया। अपने बौद्धिक संपदा से कई नहीं पद्धति का आविष्कार किया। युद्ध नये व्यूह रचना तरीके से लड़वाकर समस्त व्यवस्था पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। मल युद्ध के स्थान लाठी प्रहार, लाठी जबाव परशा आदि एक से एक मारक हथियार के कौशल व पहिए तथा आग के आविष्कार सहित नूतन शोध ने समाज में ऋषियों की श्रेष्ठता स्थापित की।
        यह युग मानव जाति के इतिहास में पाषाण युग से ग्राम राज्यों की स्थापना से पूर्व का युग था। आधुनिक मनुष्य ने असभ्यता एवं बर्बरता का दामन छोड़ एक नये पायदान पर पांव रखने की गाथा को लिखने का साक्ष्य भृगुपति युग है। इस युग में मानव पर्वतवासी था। मैदानी अंचल में रहना आरंभ नहीं किया था। मनुष्य ने ऋषियों के पर्वत से अपनी गोत्र का परिचय देना आरंभ किया। वामन युगीन मनुष्य से इस युग के मनुष्य के आचार विचार, रहन सहन, उठने बैठने आदि तौर तरीकों में क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
     इस युग आते आते मनुष्य ने सदाशिव के रुप में महासंभूति का सानिध्य प्राप्त किया। उन्होंने पशु स्वभाव से मनुष्य को मानवीय सभ्यता के सांचे में ढाला। यह महादेव के रुप ख्याति प्राप्त की। इस युग को सभ्यता का प्रथम युग कह सकते है।
भृगुपति युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन सभ्यता के प्रथम अध्याय ने मनुष्य ने जो कुछ प्राप्त किया। वह अपने आप पहली वैचारिक क्रांति थी। इस युग के मनुष्य का अध्ययन जड़ जीव विज्ञान की प्रयोगशाला में करना वैज्ञानिकों एवं इतिहास के शोधकर्ताओं की भूल है। मनुष्य का जीवन विज्ञान मनोजीव विज्ञान होना चाहिए। इस मनुष्य की क्रिया का मुख्य नियंता मन रहा है। अब मनुष्य जीव एवं जन्तु नहीं रहा एक विचारशील मनुष्य बन गया था। उसी परिप्रेक्ष्य को मध्य नजर रखते हुए इतिहास लेखन की यह नूतन विधा तत्कालीन मानव सभ्यता का मूल्यांकन करता है।
(१) राजनैतिक जीवन इस युग में मनुष्य ने पर्वतों को अपना स्वदेश बना दिया था। इनका मुख्या ऋषि के नाम से जाना जाता था तथा लोग उन्हें के नाम से अपना परिचय देते थे। अपने अपने पर्वत की संपदा पर अपना एकाधिकार समझते थे। इसको लेकर विभिन्न गोष्ठियों मारक युद्ध भी होते थे। संधि- समझौता, मित्र एवं शत्रु पर्वत प्रदेश स्थापित करने की परंपरा का विकास हो गया था। इस युग के उत्तरार्ध में युग पुरुष सदाशिव द्वारा गण एवं गणाधिपति के राजनैतिक सूत्र आरंभ किया। इस प्रणाली के माध्यम से विभिन्न पर्वतीय प्रदेश आपस में सम्पर्क में आए।
(२) सामाजिक जीवन यह युग सामाजिक इतिहास लिखने का रोचक अध्याय हैं। इस युग के आरंभ में नारी जाति पर संतति के पालन पोषण की पीड़ा को मनुष्य ने पहचान। पुरुष वर्ग कुछ सामूहिक जिम्मेदारी का परिचय देना प्रारंभ किया। इस युग के महानायक भगवान सदाशिव ने प्रथम विवाह कर मनुष्यों के पारिवारिक जीवन का शुभारंभ किया। इससे पूर्व किसी भी ऋषि ने एक स्त्री को अपने अर्द्धांगिनी बनाने का साहस नहीं किया। यह सााहस युग पुरुष सदाशिव ने प्रथमतः किया। इसके लिए सदाशिव को तत्कालीन गोष्ठी परंपरावादियों संघर्ष भी करना पड़ा था। अर्थात इस युग के उत्तरार्ध में पारिवारिक परम्परा का सूत्रपात हो गया था।
(३) धार्मिक जीवन इस युग का धार्मिक जीवन विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। इस युग में वैदिक जीवन शैली एवं तांत्रिक जीवन शैली का श्री गणेश हुआ था। वैदिक सभ्यता जड़ प्रकृति एवं उसकी महत्ता को लेकर अनुसंधान प्रस्तुत करता था जबकि तंत्र ने मनुष्य के जीवन के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास का अनुसंधान किया तथा वस्तु जगत से सुसामंजस्य स्थापित करने की कलाओं में दक्षता प्राप्त की। कालांतर में आर्य एवं अनार्य परंपरा का मिलन हुआ भी हुआ। सूक्ष्म आध्यात्मिक साधना की सुव्यवस्थित पद्धति से मनुष्य को दीक्षित करने का कार्य महागुरु सदाशिव ने किया। यहाँ दो विरोधी विचारधारा भी दिखाई दी। आर्य परंपरा यज्ञ समर्थक तथा अनार्य यज्ञ विरोधी। इसको लेकर रक्तरंजित संघर्ष भी हुए थे।
(४) आर्थिक जीवन इस युग में फलों एवं अनाज की प्रचुरता ने अधिक आर्थिक चिंता में मग्न नहीं किया। आपसी सहयोग से एक दूसरे की वस्तुओं का आदान प्रदान करना आरम्भ हो गया था लेकिन वस्तु विनिमय की प्रणाली का प्रारंभ नहीं हुआ था। आपात कालीन परिस्थितियों में मैदानी अंचल में आकर कतिपय साहसी लोग कुछ दाने उगाते थे। कार्य संपादन के बाद पुनः पर्वतीय प्रदेश लौट जाते थे। अर्थात खेती की व्यवस्थित प्रणाली अभी तक विकास नहीं हुआ था। व्यापार की आवश्यकता अधिक नहीं थी लेकिन आभूषण इत्यादि को ढ़ालने इत्यादि की हस्तकला में कुछ लोगों को सिद्धहस्त हासिल थी। प्रारंभ में इनके आभूषण तथा दैनिक उपयोग की वस्तु पत्थर, हड्डियों एवं हाथी दांत की होती थी। बाद मनुष्य धातु से परिचित होने पर इनका उपयोग करने लगा।
(५) मनोरंजनात्मक दशा   इस युग नृत्यकला, संगीत कला, व्यायाम, योग, नाट्यकला उत्तरोत्तर विकास हुआ। सदाशिव नटराज की उपाधि से विभूषित किए गए।
(६) विश्व को देन इस युग कला एवं विज्ञान के विकास का प्रथम अध्याय लिखा गया। इस युग आयुर्वेद, वैदक शास्त्र रुप चिकित्सा पद्धति का आविष्कार हुआ। इस युग मानव सभ्यता को आग, पहिया एवं बीज उगाने की पद्धति प्रदान की। राजनैतिक क्षेत्र गणतंत्र प्रणाली, सामाजिक क्षेत्र में पारिवारिक प्रणाली, धार्मिक क्षेत्र में यज्ञ एवं ध्यान साधना, साहित्य के क्षेत्र वैदिक साहित्य व तंत्र शास्त्र प्रदान किए।
         सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत के अनुसार यह युग द्वितीय विप्र युग था तथा मानव सभ्यता का प्रथम विप्र युग था। भारतीय चिन्तन के अनुसार त्रेतायुग की मध्यमावस्था थी।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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 विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 06

 🔵 विश्व इतिहास का 6 अध्याय🔵
     👑 वामन युग- पंचम संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳
               प्रथम परिक्रान्ति के बाद युग ने करवट बदली नये युग का सूत्रपात हुआ। पाश्विक युग से मनुष्य का युग शुरू हुआ। मनुष्य की कहानी का पहला पन्ना है लेकिन इसे विश्व इतिहास का पहला पन्ना कहना इतिहासकारों की भूल है। प्रथम मानव शिशु जिसे आदि मानव अर्थात प्राइमेट मानव के युग होमो सेम्पियन युग पूर्व के मानव की अवस्था को अविकसित मानव को विष्णु की संभूति में वामन युग कहा जाता है। मनुष्य दिखने बहुत छोटा सा है लेकिन इसने अपने पुरुषार्थ के बल एक पांव में धरती, दूसरे पांव में आकाश तथा तीसरा पांव में बलशाली जीवों को अपने वश में कर दिया। यही बलि महाराज एवं वामन अवतार की कथा का सारगर्भित तथ्य है। यह कथा एक अविकसित मनुष्य की है लेकिन विकसित मनुष्य ने तो प्रगति के कही सौपान लिखे है। जिसे मनुष्य ने अपने इतिहास में क्रमिक रूप से सजाकर रखें है।
            इस युग की शुरुआत से पूर्व एक युग संधि से समय को गुजरना पड़ा है। यह विश्व इतिहास की प्रथम युग संधि थी। इसे स्पष्ट रुप से पृथक युग के रुप में परिभाषित करना सरल कार्य नहीं है। यह युग संधि सामाजिक आर्थिक तंत्र में शूद्र युग की परिधि में रखी जाती है। जिसका पृथक अध्ययन करना सरल एवं साध्य नहीं है। युग संधि में दोनों युग के लक्षण दिखाई देते हैं। अत: पूर्व युग के बाद उत्तर युग का अध्ययन सीधा चला जाता है।
        वामन युग में मानव इस धरती पर कंद मूल, फल, शाक एवं सब्जियों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करता था। यहाँ एक बात रेखांकित करता हूँ कि मनुष्य स्वभाव से शाकाहारी हैं। शरीर विज्ञान ने उसका पाचन तंत्र मांसाहार के अनुकूल नहीं बनाया है। परिस्थितियों के दबाव एवं पशुओं की संगत के प्रभाव ने आदि मानव के उत्तरकालीन युग में मांसाहार के आकृष्ट किया। मनुष्य का विकास वानर से हुआ है। मानव की प्रथम श्रेणी जिसे इतिहास ने प्राइमेट मानव नाम दिया है। अपने दो पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता था। चलने के लिए चारों पांवों की मदद लेनी पड़ती थी। उत्तरकालीन मनुष्य की विभिन्न श्रेणियों ने धीरे-धीरे दो पांवों पर चलना सीखा। अपनी पूंछ को भी पीछे छोड़ कर आगे बढ़ गया।
वामन युगीन मनुष्य का ऐतिहासिक मूल्यांकन वामन युग के मनुष्य का इतिहास लिखने के पर्याप्त सबूत इतिहास के पास उपलब्ध है। इसके बल पर इतिहासकारों ने इस युग बहुत कुछ वर्णन किया है। उसे आधार मानकर वामन युगीन मानव का ऐतिहासिक मूल्यांकन सहज एवं सरलता पूर्वक किया जा सकता है।
(१) राजनैतिक जीवन इस युग में प्रथम बार मनुष्य एक शारीरिक शक्ति सम्पन्न मनुष्य के अधीन चलना प्रारंभ किया। छोटे दल बनाकर गिरि कंधराओं में इधर से उधर घूमता था। मनुष्य के घुमक्कड़ स्वभाव कारण इतिहासकारों द्वारा भोजन की तलाश खोज गया है। मनुष्य के मनोविज्ञान से परिचित व्यक्ति जानता है कि यह एक गौण कारण है। मूल कारण तो यह है मनुष्य एक जगह पर अधिक दिन नहीं रह पाने के कारण जीवन में नवीनता ग्रहण करना है। आर्थिक कारण ने मनुष्य को एक स्थान से बांधकर रखा है। समूहगत शक्तिशाली सरदार के नेतृत्व में मनुष्य ने रहना आरंभ कर दिया था। यह जिसकी लाठी उसकी भैंस की नीति की राजनीति का युग था।
(२) सामाजिक जीवन वामन कालीन मनुष्य ने परिवार बनाना नहीं सीखा था। नारी जाति को स्वयं के पेट के अतिरिक्त अपने शिशु के पेट को भी पालना पड़ता था। पुरुष जिम्मेदारी नहीं उठाता था। कभी कोई पुरुष दयालु बनकर नारी एवं असहाय मनुष्य की सेवा कर लेता था लेकिन यह एक अनिवार्य सामाजिक परंपरा नहीं थी। तत्कालीन इतिहास के प्रमाण सुव्यवस्थित समाज का उल्लेख नहीं मिलता है। धर्म कथाओं का लेखन बहुत बाद में लिखी गई थी। जो संभावनाओं व्यक्त करती थी तथा कथाकार, लेखक एवं कवि की मनोदशा का भी समावेश कर दिया जाता था। यह साहित्यकार युग की परिस्थितियों के अनुकूल ऐतिहासिक पात्रों को ढ़ालकर अपने साहित्य की शोभा बढ़ाते थे।
(३) धार्मिक जीवन   वामन युग के मनुष्य में चिन्तन का गुण सुप्त अवस्था में विद्यमान था। कभी - कभी किसी - किसी मनुष्य ने इस स्वभाविक गुण का सद्पयोग करने का प्रयास किया था। प्रथम बार भूमंडल पर चिन्तन से रहस्य की ओर बढ़ने पथ निर्देशना मनुष्य ने इस युग में प्राप्त की थी। वामन युग के मानवों के इतिहास में धार्मिक जीवन सबसे अधिक सुफल था।
(४) आर्थिक जीवन वामन युग के मानव की भोजन एक मात्र आर्थिक आवश्यकता थी। उसी को लेकर मनुष्य चलता था। कंद मूल, शाक, पत्ते, फल इत्यादि खाकर जीवन यापन करता था। उसके दैनिक आहार की इन वस्तुओं का उत्पादन करना मनुष्य नहीं सिखा था। मनुष्य की इस दुर्बलता ने मांसाहार को विकल्प के रुप में चुना।
(५) मनोरंजनात्मक दशा   वामन युग में मानव की बुद्धि का विकास कम था। अपनी ताकत का प्रदर्शन उनके लिए मनोरंजन होता था। गाना, नाचना, कूद मनुष्य को आता था लेकिन उसमें लय ताल का कोई मेल नहीं रहता था। शिकारी युग में मानव शेर का शिकार करने में गौरवशाली महसूस करता था।
(६) विश्व को देन इस युग की विश्व सबसे बड़ी देने यह थी। मानव विकास विभिन्न पीढ़ियों तक मानव सभ्यता से परिचय करवाता है।
         यह युग सामाजिक आर्थिक चिन्तन के अनुसार द्वितीय क्षात्र युग था तथा भारतीय परम्परा के अनुसार त्रेतायुग का शंखनाद था। व्यापक पैमाने प्रथम क्षात्र प्रधानता वाले युग की शुरुआत थी।
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लेखक - श्री आनन्द किरण

विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 03
     

         विश्व इतिहास का द्वितीय अध्याय
        कूर्म ( कच्छप) युग- द्वितीय संभूति 


           क्षीरसागर में जीवों की हलचल धरती को आनन्दित करती थी। जब कोई जीव क्रीड़ा करता हुआ किनारे
की ओर चल आता था। धरती माँ का जी उसे अपने गोद में उठाने के लिए मचल जाता था। ज्योंही अपने बाहें
फैलाकर गोदी में उठाने की मनचाहा होती। जीव पुनः सागर की गहराइयों में चल जाता है। यह देख धरती माँ
को आनन्द से अधिक सन्तति को स्पर्श करने का दर्द होता था। एक दिन गहरी निद्रा में सो रही धरती के बदन
पर कुछ गुदगुदी होने लगी। इस खुशनुमा एहसास ने नवचेतना का संचार किया। ज्यौंही आंखें खोलें तो देखा कि
कोई पथ भूले राहगीर की भाँति कोई जीव धरती माता के बदन पर उचल कूद कर रहा था। पल झपकते ही वह
सागर की गहराइयों में चला गया। जी हाँ हम बात कर रहे हैं। उभयचर जीवों के युग की। जलीय जीवों के बाद
सृष्टि विकास के में उभय वर्गीय जीवों का युग आता है। जो जल एवं थल दोनों पर रह सकते हैं। विश्व इतिहास
में इसे द्वितीय अध्याय के रुप में चुना गया। यह विष्णु की द्वितीय संभूति कच्छप के रुप में चित्रित किया गया। कच्छप उभयचर जीवों का प्रतिनिधित्व करता है।


                  कथा में कहा गया कि देवगण एवं दैत्यों द्वारा सागर मंथन में भूगर्भ घस रहे पर्वतराज को अपने पीठ पर धारण करने के लिए इस संभूति का वरण किया गया। कथा की सत्य को जांचे बिना एक बात को रेखांकित करता हूँ। मनुष्य के चलने की गति में विवेकपूर्ण निर्णय की गति को रेखांकित करता है। चर्य एवं अचर्य पर विचार कर चर्य कार्य करने होते हैं। यहाँ भाव प्रवण गतिधारा पर विवेक की लगाम है। इसे विचार पूर्ण
मानसिकता कहा जाता है। इसके लिए कठोर निर्णय शक्ति एवं मानसिकता की आवश्यकता होती है। जिसका
प्रतिनिधित्व कुर्म जीव करता है। भावावेश में चलना मन तरलता का द्योतक है। इसके वाद भावुकता से उपर
उठकर गंभीरता को धारण करता है। इस क्रिया के मध्य मन का मंथन होता है। उसमें सार तत्व उपर आ जाता
है। साधुजन उस को ग्रहण कर लेते है। अन्य मट्ठे को विवाद करते रहते है। इस मंथन में लोक हितार्थ विष भी
पान करना पड़ा तो सत पुरुष पाव पीछे नहीं रखते है। इस मनोविज्ञान को चित्रित करता विश्व इतिहास का
द्वितीय पन्ना।


           मानसिक गति के अनुकूल ही भौतिक जगत में भी काल रेखाए उरेखित हुई है। सरीसृप एवं मेंढक वर्गीय
जीवों का यह युग कुछ स्थायी भू मंडल पर रहने वाली प्रजातियों का भी विकास करता है। पादप एवं पक्षी वर्ग
की प्रजातियों के विकास में यह युग महत्वपूर्ण है।

कूर्म युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन ➡ मत्स्य युग से कुछ उन्नत वर्ग के जीवों का युग था लेकिन बौद्धिक क्षेत्र से कोटिशः कदम दूर थे। यद्यपि इस युग का मूल्यांकन करने वाले साक्ष्य उपलब्ध नहीं है तथापि इस वर्ग के जीवों का मानसिक विकास ऐतिहासिक मूल्यांकन के लिए पर्याप्त आधार है।

  (१) राजनैतिक जीवन ➡ यह युग स्वदेश, परदेश, प्रदेश तथा क्षेत्रीयता को समझने का मजबूत आधार है।
जलीय जीवों के लिए जल स्वदेश व थल परदेश तथा थलचरों के विपरीत प्रतिक्रिया है। उभयचर के प्रदेश गमन
के तुल्य ही है। इसके अतिरिक्त जल-थल के अलग - अलग परिवेश क्षेत्रीयता को रेखांकित करता है।
(२) सामाजिक जीवन ➡ उभयचर वर्गीय जीवों में संवेदना का जागरण दिखाई देता है। गंध तन्मात्र के माध्यम
से माता एवं संतान में एक विशेष किस्म का आकर्षण दिखाई देता है। कच्छप वर्ग की मादाएँ अंडे देकर जल की
गहराइयों में जाकर बैठ जाती है। शिशु कछुआ गंध तन्मात्रा के माध्यम से मातृ कछुए को पहचान जाती है।
उनके साथ समूह में रहने की प्रकृति है। यह सामाजिकता का चिन्ह है।
(३) धार्मिक जीवन ➡ कच्छप युगीन धार्मिक जीवन की कछुए का हिन्दू धर्म स्थलों सबसे अग्रणीय स्थान पर
स्थापित करने से महत्ता दिखाई देती है। कछुआ की भाँति योगी सभी बाह्य वृत्तियों को भीतर समावेश करने से आत्मिक विकास की ओर बढ़ता है।
(४) आर्थिक जीवन ➡ इस युग में जीव अपनी प्रजातियों पर हमला नहीं करता। शाकाहार के प्रति रुझान
दिखाई देता है। शिशु के खाद्यान्न व्यवस्था करने की मानसिकता का स्पष्ट विकास नहीं हुआ था। लेकिन देखभाल की प्रारंभिक वृत्ति विकसित अवस्था में थी।
(५) मनोरंजनात्मक अवस्था ➡ उभयचर, सरीसृप एवं नभचर वर्ग के जीवों की रंग बिरंगी दुनिया अपने आपमें
मन को रंजीत कर देती है। इनकी क्रीड़ा एवं रचना प्रकृति की मनुष्य को अनुपम देन है।
(६) विश्व को देन - समुद्र मंथन की अवधारणा से ज्ञात होता है कि रत्न के समुद्र के गर्भ होने की उपादेयता
स्वीकार्य है। स्थल पर प्राणी जगत को स्थापित करना इस युग की सबसे बड़ी देने है।
कच्छप युग में पहली बार जीव एक सरदार के अधीन समूहित हुए। यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत में
प्रथम क्षत्रिय युग है। भारतीय चिन्तन का सतयुग शैशवावस्था से किशोर एवं युवा अवस्था में आता है।

विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 01
🔵 विश्व इतिहास का शून्य अध्याय🔵
    👑 पाक ऐतिहासिक अवस्था 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
              इतिहास लेखन की भारतीय परम्परा ने  परम पुरुष की संभूति में विश्व इतिहास के दर्शन होते हैं। परमतत्त्व का सम्पूर्ण विकास महासंभूति है जबकि सृष्टि के विकास के विभिन्न अवस्थाओं को संभूति नाम दिया गया। सृष्टि चक्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि ब्रह्म का सृजन क्रिया रुप का नाम ब्रह्मा है। सृजनहार होने के ब्रह्मा स्वरुप में सृष्टि की पूर्वावस्था में स्थित है तथा महेश संहारकर्ता होने के सृष्टि के उत्तरार्ध अवस्था का नाम  हैं। सृष्टि की चलयमान अवस्था का नाम विष्णु दिया गया है। इसलिए सृष्टि एक प्रथम से अन्तिम बिन्दु तक की अवस्था विष्णु है।
               विष्णु में विश्व इतिहास का शून्य अध्याय, संभूति से पूर्व अवस्था का नाम है। भारतीय शोध पत्र के अनुसार विष्णु की अब तक दस संभूति का विकास है। इस संभूति के इतिहास से पूर्व की अवस्था शून्य तुल्य पाक ऐतिहासिक अवस्था है। इस अवस्था में इस विश्व ब्रह्मांड का निर्माण  से जीवों के आगमन से पूर्व तक की अवधि है।
         ब्राह्मण के निर्माण की कहानी, विज्ञान एवं दर्शन दोनों ही कहते हैं। इतिहास के काल गणना की वैज्ञानिक विधि कार्बन 14 से खगोलिए पिंड की जीवन अवधि ज्ञात की जा सकती हैं। विज्ञान की प्रयोगशाला में अब तक पृथ्वी के सूर्य से उत्पत्ति की पुष्टि कर चुका है। सूर्य में विशेष गैसों की अनवरत क्रिया फलस्वरूप ऊर्जा सृजन का भी अनुमान विज्ञान के पास है। आकाश गंगा एवं निहारिकाओं के संदर्भ में विज्ञान के पास ज्ञान है। सृष्टि के सृजन का क्रमबद्ध ज्ञान दर्शन के पास है। दर्शन में वर्णित है कि भूमा चैतन्य से भूमा मन एवं भूमा मन से सृष्ट जगत् की उत्पत्ति हुई है। मतमतान्तर की चमत्कृत सृष्टि सृजन की अवधारणा तथा शून्य से सृजन की अभिग्रहीत उक्ति है।
           विज्ञान जहाँ जड़ से चेतन के आगमन की कहानी कहता है। वही मतमतान्तर की अवधारणा अव्यवहारिक सिद्धांत देता है। दर्शन ही एक मात्र विधा जो विश्व इतिहास के इस शून्य अध्याय को लिखने में मदद करता है। आनन्द मार्ग दर्शन में बताया गया है कि भूमा चैतन्य अर्थात ब्रह्म शिव तथा शक्ति का मिलित नाम है। शिव को चित्तिशक्ति, साक्षी सत्ता एवं पुरुष आदि पर्याय का भी उल्लेखित किया गया है। शक्ति जिसे प्रकृति लिखा जाता है। यह दोनो एक ही कागज के दो पृष्ठ है। जो एक दूसरे के बिना अस्तित्व विहिन है।  यह अवस्था मन के परे की हैं, इसलिए इस में कार्य कारण ढूंढना मन के सामर्थ्य के बाहर है। एक सर्वशक्तिमान सत्ता के रुप में इसकी क्रियाशीलता के प्रमाण के आधार पर इसका होना प्रमाणित है। इसके निर्माण का अध्याय अभिग्रहीत है। यह पाक सृष्ट अवस्था  अर्थात इतिहास लेखन के शून्य अध्याय से भी आदि की अवस्था है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। इसके सत्व गुण के कारण पुरुष देह में मैं हूँ का बोध जागृत होता है, जिसे महत् कहा जाता है। विश्व इतिहास प्रथम सृजित अंश भूमा महत् हैं। प्रकृति के रजो गुण से पुरुष देह में कर्तव्यभिमान का बोध हुआ जिसे अहम् नाम दिया गया। इसी प्रकार प्रकृति के तमोगुण के प्रभाव से पुरुष देह में कर्मवाच्य मैं का निर्माण हुआ । जिसे चित्त कहा गया। यह दर्शन की पाक सृष्ट अवस्था है। यह सृष्टि निर्माण के पूर्व की अवस्था है।
                  इतिहास लेखन का शून्य अध्याय शुरू होता है। चित्त पर तमोगुण के प्रभाव से पंच महाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी तत्व सृजन किया। इतिहास लेखन का शून्य अध्याय जीव निर्माण का पूर्वगामी अवस्था का नाम है। जहाँ आज विश्व ब्रह्मांड दिखाई देता है। एक समय ऐसा भी रहा था कि यह विश्व ब्रह्मांड वहाँ नहीं था लेकिन ज्ञातव्य है कि यह शून्य भी नहीं था। इसलिए दर्शन कि स्व: प्रमाणित खोज है कि यह सृष्टि ब्रह्म के मन में अवस्थित है। ब्रह्मांड से पूर्व ब्रह्म मन था तथा अन्त में भी ब्रह्म मन रहेगा।
        शून्य अध्याय की शुरुआत आकाश तत्व के निर्माण से होती है। दूर दूर तक एक सन्नाटा सा दृश्य होता था लेकिन वहाँ शब्द वहन करने का सामर्थ्य था। साधक की गहरी साधना प्रमाणित करती है कि एक ध्वनि जो अविरल बहती है, वह ॐ है। आकाश तत्व पर खगोलीय क्रिया एवं भौतिक रसायन की क्रियाशीलता के परिणाम स्वरुप गैसों का समूह वायु निर्मित हुआ। आकाश तत्व में जहाँ ध्वनि की क्रीड़ा थी। वही वायु महाभूत में गैसों की क्रीड़ा का स्पर्श था। भौतिक रसायन की जटिलता ने वायु में से ऊर्जा अर्थात अग्नि महाभूत का निर्माण किया। यह अवस्था दृश्य रुप में प्रकट होने लगी। यह विभिन्न रंगों का मनमोहक दृश्य है। तारों एवं ग्रह का  निर्माण होना एवं बने का सुन्दर दृश्य है। यह विश्व इतिहास के शून्य अध्याय का स्वर्णिम युग था। यहाँ भौतिक रसायन की क्रमिक जटिलता ने जल एवं ठोस अवस्था पृथ्वी का सृजन किया। जल एवं ठोस का संगम वह स्थल है जहाँ से विश्व इतिहास का प्रथम अध्याय लिखा जाना था।
विश्व इतिहास के शून्य अध्याय की ऐतिहासिक समीक्षा  हम जानते हैं कि यह अध्याय जीव एवं जन शून्य अवस्था है। लेकिन अध्याय तो अवश्य ही है। यह समीक्षा एक वैज्ञानिक एवं प्राकृतिक घटनाओं अनुशासन को रेखांकित कर की जा रही है। बुद्धि को कुछ पल रुक कर इसके बारे में सोचना एवं विचारना चाहिए।
(१) राजनैतिक जीवन प्रकृत शक्ति का साम्राज्य है। सभी आपसी आकर्षण एवं विकर्षण के बल पर अनुशासित है। उपग्रह, ग्रह, तारें, खगोलीय पिंड, आकाश गंगा, निहारिका सभी एक विशेष अनुशासन का पालन करते हैं। यद्यपि यह सभी अजीव तथापि कोई ऐसी व्यवस्था तो अवश्य है जो इनको संचालित करती है। यह राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी के लिए सीखने का पाठ्यक्रम  है। कभी कभी इस अनुशासन के तोड़ने की घटना भी देखने को मिली है। इसका परिणाम भुगताना पड़ा है। राजनीति विज्ञान की भाषा में युद्ध एवं राज्यों के विलय की युगान्तरकारी घटना सी है।
(२) सामाजिक जीवन विश्व ब्रह्मांड का यह एक परिवार है। जहाँ आकाश गंगा का अपना -अपना परिवार है, तारें ग्रह इत्यादि भी अपने अपने छोटे परिवारों के माध्यम के समुदाय एवं समाज की रचना करते है। समाजशास्त्र का विद्यार्थी यहाँ कुछ पल ठहरकर एकाकी एवं सामाजिक जीवन को रेखांकित कर सकता है।
(३) धार्मिक जीवन धार्मिक जीवन शब्द सुनते विद्वानों की चाय की प्याली में तूफान आ जाएगा। धर्म मात्र मनुष्यों की सम्पदा नहीं है। जीव एवं अजीव के अपने अपने निज गुणधर्म है। पानी तरलता का, अग्नि दहाकता का, वायु वाहकता का, पृथ्वी कठोरता का  तो आकाश भी सब समाकर रखने के धर्म का निवहन करते है। यह इनका निज धर्म ही इनकी पहचान है।
(४) आर्थिक जीवन शायद आप सोच रहें होगे की यह तो हास्य की चरम सीमा है लेकिन ऐसा नहीं है, इस युग के अजीवों के लिए भी आहार अर्थात ऊर्जा की आवश्यकता है। यही से आर्थिक जीवन की कहानी की शुरुआत हो जाती है। यह ऊर्जा एवं जीने की पद्धति अर्थशास्त्र की विषय वस्तु है।
(५) मनोरंजनात्मक दशा इस काल में मनोरंजन का आनन्द लेना वाली जैविक एवं मानवीय सत्ता का आगमन नहीं हुआ था लेकिन उस काल में निर्मित होने वाली खगोलीय क्रिया प्रतिक्रिया आज के मनुष्य के आनन्द में वृद्धि करती है। एक ग्रह का अपने तारे की परिक्रमा करते पथ भूल कर अन्य परिवार में गुरुत्वाकर्षण के बल चले जाने अवश्य विस्मित करने वाली घटना है तथा प्राकृतिक आनन्द में वृद्धि करती है। ब्लैक हॅाल में खगोलीय पिंडों का समाना एवं आंधी, तूफान, भूकंप, ज्वालामुखी आदि दुखदायी होने पर प्रकृति क्रिया का आनन्द ही हैं। यह ठीक उसी प्रकार का आनन्द है जैसे नव सर्जन में एक प्रसूता माँ संतान को जन्म देने में दुख भी आनन्द की अनुभूति के समदृश्य है।
(६) विश्व को देन इतिहास के इस पृष्ठ की विश्व को अतुलनीय देने रही है। जिसका उपभोग मनुष्य आज भी कर कर रहा है। उदाहरणार्थ कोटिशः वर्ष पूर्व सृजित भास्करदेव आज भी सौर मंडल को भास्वित कर रहे है। यह सुनहरा ब्रह्मांड उस युग की विश्व सबसे बड़ी देने है।
     उपसंहार में लिखता हूँ कि विश्व इतिहास का यह शून्य अध्याय, जीव शून्य है, इतिहास शून्य नहीं।
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Writer :- Anand kiran ( karan Singh Shivtalav