भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के संदर्भ में।

भारतीय  संविधान की  धारा 370 कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देती है। कश्मीर ही क्यों भारतवर्ष का प्रत्येक राज्य विशेष है। भारतवर्ष 44 जनगोष्ठियों का देश रहा है। उनकी भौगोलिक संरचना के अनुसार आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक थातियों का निर्माण हुआ है। इसके संरक्षण एवं संवर्धन के बिना प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति को रेखांकित नहीं किया जा सकता है। नूतन भारतवर्ष के निर्माण की प्रथम प्राथमिकता आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना है। आर्थिक प्रजातंत्र की अवधारणा एक सामाजिक आर्थिक इकाई की सुदृढ़ता एवं विश्व बंधुत्व की भावना में निहित है।


👉 भारतीय संविधान की धारा 370 के कारण कश्मीर को अपना संविधान रखने का अधिकार मिला। जिसमें कई दोषपूर्ण प्रावधान है। जो भारतवर्ष की एकता एवं अखंडता को चुनौती देते है। किसी भी देश की संप्रभुता के लिए राज्यों को राष्ट्र के आदर्श, एकता एवं अखंडता की मर्यादा को बनाए रखना आवश्यक है। यदि किसी राज्य में इसके लिए संगठित अथवा असंगठित प्रयास होते है तो उस राष्ट्र को उसे रोकने की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए।


👉 मैं एक संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा पर ले चलता हूँ। वहाँ प्रत्येक राज्य का अपना संविधान है, अपनी नागरिकता है तथा अपने -अपने ध्वज है। इसके चलते हुए भी संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व का सबसे शक्तिशाली राज्य है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि प्रत्येक राज्य राष्ट्र की संप्रभुता को प्रथम स्थान देता है। राष्ट्र संप्रभुता पर प्रश्न उठाने अथवा उठाने की संभावना के दृष्टिगोचर होते ही संघ का संविधान कठोर बन जाता है। उसके समक्ष राज्यों के संविधानों को नतमस्तक होना पड़ता है।


👉  कश्मीरी संविधान  अपने राज्य के समक्ष देश गौण बताता है। यहाँ भारतवर्ष एवं उसके आदर्श प्रतिमानों का अपमान करना अपराध नहीं माना जाता है। इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण विधान के बावजूद भी भारत संघ मौन दृष्टा बना खड़ा रहता है।


👉 भारतीय संविधान की धारा 370 के दोषपूर्ण प्रावधान को हटाकर एक सशक्त प्रावधान के साथ सभी राज्यों में स्थापित करनी चाहिए। कश्मीर के संविधान के उन तथ्यों को समाप्त कर देना चाहिए। जिससे वह भारतवर्ष से अलग जाने की बात सोच रहा है। भारत संघ के संविधान को राज्यों के संविधान से प्रथम एवं एक आदर्श प्रतिमान के रुप में स्थापित करना चाहिए।


👉 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 में समय-समय पर बहुत से संशोधन हुए है। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण कश्मीर के शासनाध्यक्ष का नाम प्रधानमंत्री से बदलकर मुख्यमंत्री रखना भी है। इस प्रकार भारत सरकार अपने संविधान के अनुच्छेद 370 को पुनः परिभाषित एवं संगठित कर एक सशक्त देश एवं समृद्ध राज्यों के निर्माण की कार्यशाला का निर्माण कर सकता है।

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करण सिंह शिवतलाव 
@कश्मीर भारतवर्ष का अभिन्न अंग है।@ विश्व सरकार की ओर

कब तक हम अपने आप से झूठ बोलेंगे?

हर पांच वर्ष के बाद चुनाव आते है। नेताजी एवं उनके अभिकर्ता हमें सपनों का भारत दिखाते है। हम अपनी-अपनी सोच के आधार पर इन्हें या उन्हें स्वीकार कर लेते है। मैं हम सबसे प्रश्न करता हूँ कि कब तक हम अपने आपसे झूठ बोलते रहेंगे? हम इन नेताओं एवं उनके अभिकर्ताओं क्यों नहीं कह पाते कि हम झूठ का साथ नहीं दे रहे है। ऐसा कौनसा डर जन मन में है कि 70 वर्ष की आजादी के भी गुप्त मतदान करना पड़ रहा है । जिस प्रकार नेता सीना तानकर अपने पार्टी के झूठ सपने आपको बेचने आते है। आप और हम उन्हीं की भाँति यह नहीं कह पाते हैं कि आपका out dated माल हमें स्वीकार नहीं है। 




 मेरी इस बात पर आपको गौर फरमाना होगा कि डर की छा लोकतंत्र का वृक्ष फल दे सकता है क्या? आखिर हमें डर किस बात है एवं क्यों डरते है? - जिंदा रहने के लिए अथवा स्वार्थ सिद्धि के लिए? यदि जिंदा रहने के लिए डरते है तो हमें आजादी के गाने नहीं गाने चाहिए तथा स्वार्थ पूर्ति के निमित्त उद्देश्य से डर का दामन थामना पड़ता है। भारतवर्ष को विश्व गुरु के रुप में देखने के सपने छोड़ देने चाहिए। मैं तो स्पष्ट कहता हूँ कि जहाँ डर है वहाँ लोकतंत्र नहीं भीरुतंत्र तथा भीरुतंत्र जनता का, जनता के लिए व जनता के द्वारा नहीं हो सकता है। इस स्थिति में हम अपने आप से झूठ बोलते रहेंगे तथा नेताओं की दुकानें चलती रहेगी। 



 मैं तो कहता हूँ कि राजनीति की छाया में लोकतंत्र का पौधा पनप भी नहीं सकता है। जो पौधा है नहीं वह फल कैसे दे सकता है? कागज के फूलों से खुशबू आ सकती है तो इस लोकतंत्र के कृत्रिम अथवा बनावटी पौधे पर फल लग सकते है। मैंने तो अपने आप से झूठ बोलना छोड़ दिया है कि राजनीति में लोकतंत्र है। लोकतंत्र तो समाजनीति में है। जो आर्थिक लोकतंत्र से संभव है। देखो! मैंने अपने आप से सत्य बोल दिया है कि राजनीति के झूठ झांसे में भारतवर्ष को नहीं देखूंगा । सच में समाजनीति में भारतवर्ष है। अब आपकी बारी है कि आप झूठ बोलते है अथवा नेताओं को मुह तोड़ जबाव देते हैं।



मन की बातें बहुत हो गई , दिल की बात है कि राजनीति नहीं समाजनीति चाहिए। भारतवर्ष को आर्थिक आजादी चाहिए।
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करण सिंह राजपुरोहित 
विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 12



     👑 विश्व इतिहास का भविष्य - भावी संभूतियां 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳


        भविष्य का इतिहास लिखना एक इतिहास के सामर्थ्य के बाहर होता है, लेकिन इतिहास लिखते लिखते एक इतिहास भविष्य को समझ जाता है। सभी जानते है कि इतिहास आगे बढेंगा रुका नहीं रहेगा। लेकिन भविष्यवाणी करने से घबराते है। मैं भविष्यवाणियों पर विश्वास नहीं करता हूँ, लेकिन सत्य को उरेखित करने से पीछे नहीं रहता हूँ।


        समाज चक्र को शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य युग में ही घूर्णनशील होना है। तृतीय परिक्रांति के बाद युग संधि की अवधि 1900 ईस्वी से आरंभ हो गई है। इस चतुर्थ शूद्र युग में वैश्यों शोषण के बल पर क्षात्र एवं विप्र मानसिकता विशुद्ध शूद्र में बदल रही है। इनके विप्लव अथवा क्रांति अथवा स्वाभाविक नियमानुसार  चतुर्थ क्षत्रिय युग की शुरुआत हो रही है। उसके बाद विप्र युग तथा तत्पश्चात वैश्य युग आएगा। उस युग के ऐतिहासिक विश्लेषक युग की मानसिकता के अनुसार संभूतियों नामक करेंगे।


     विश्व इतिहास के भविष्य का यह अध्याय भारतीय चिन्तन के अनुसार कल युग के नाम से जाना जाएगा। व्यापक पैमाने पर यह वैश्य युग रहेगा।


    मेरा मानना है कि भारतीय चिन्तन का सतयुग बड़े पैमाने पर शूद्र युग था, त्रेतायुग क्षत्रिय व द्वापर युग क्षत्रिय युग था। भविष्य का युग कलयुग वैश्य युग में रहेगा। इसके बाद व्यापक पैमाने पर पर एक परिक्रान्ति होगी। जिसे भविष्यवेता प्रलय कहते है। यह प्रलय सृष्टि प्रलय के रुप दिखाया जाता है। वह गलत है। किसी ग्रह की तापगत मृत्यु अथवा नये तौर तरीकों से जीवन है। वह सर्वनाश नहीं एक परिक्रान्ति होगी। जिसका इतिहास लिखने वाले जीवित व्यष्टि होंगे। यह बात में युग प्रवर्तक श्री प्रभात रंजन सरकार के विश्वास पर कह रहा हूँ।

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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 11



     👑 कल्कि युग- दशम् संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
        भारतीय विश्लेषकों द्वारा जिस युग में ऐतिहासिक तथ्यों को समावेशित कर विश्व को विष्णु को समर्पित किया था। उस युग में कल्कि एक काल्पनिक अवस्था थी। यह ठीक उसी प्रकार की आश थी। जिस प्रकार युहदी समाज में संसार को पापों से मुक्त करने के मसीह के आगमन  की इंतजार थी। जब क्राइस्ट ने स्वयं मसीहा बताया तो युहदियों अस्वीकार कर दिया। जरथरुट्र व पैगंबर हजरत मोहम्मद को भी अस्वीकृत मिली तथा समाज खेमों बट गया। हम आज भी कल्कि भगवान की राह देख रहे है तथा सहस्रों कल्कि भगवान होने का दावा कर गए है।
         तात्कालिक ऋषि परिषद की कल्कि भगवान की अवधारणा अवश्य किसी भावी स्थिति का संकेत कर रहा था। कल्कि संभूति, वास्तव में एक युग का चित्रण है। जो छल, कपट, कूटनीति एवं व्यक्तिगत स्वार्थ पर खेला जाने वाला था। इसे कलयुग नाम दिया गया है। लेकिन मैं ऋषि परिषद की इस राय से संतुष्ट नहीं हूँ। धर्म की जय हेतु छल का अभिनय तो द्वापर युग के मुख से शुरू हो गया था। कल्कि युग में तो मृत्यु के मुख में जाते। उसके बाद कलयुग की शरूआत होती है।
       जो भी हो ऐतिहासिक गवेषणा का विषय है। इतिहास के क्रमिक विकास  पर दृष्टिपात करेंगे। कल्कि युग 700 ईस्वी के बाद की अवधि है। बुद्ध युग का अंत हुआ एवं कल्कि युग की शुरुआत हुई। इस अवधि में मानसिकता धन की लोलुपता को समर्पित रही। किसी ने तलवार के बल पर तो किसी ने छल कपट के बल पर एक संगठित लूट को अंजाम दिया। आजकल धन, धन को लूट रहा है।
        विश्व अब युग संधि के इस मोड़ पर चल पड़ा है। जहाँ तृतीय परिक्रान्ति के बाद एक नये युग के समाज चक्र की युग संधि शुरु हो गई है। इस युग में तृतीय महासंभूति श्री श्री आनन्दमूर्ति जी का विश्व को दीदार हुआ है। वे नये युग के प्रतिपादन की घोषणा कर चुके है।
कल्कि युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व का इतिहास इस युग पर सबसे अधिक कलम चला चुका है। मैं ऐतिहासिक मूल्यांकन पर छन्द वाक्यों में ही इतिश्री करुंगा। राजनीति, राजतंत्र से लोकतंत्र को समर्पित हो गई। समाज, कलह में जीने लगा। धर्मनीति, धर्म निरपेक्षता की कोख में जा बैठी। अर्थनीति, पूंजीवाद-साम्यवाद में लूट गई। मनोरंजन, अश्लीलता की चादर ओढ़ ली। बुद्धि, .....वादों(......est) चली गई। विश्व को यांत्रिक, तकनीकी एवं कम्प्यूटर का युग मिला।
         कल्कि युग प्रउत समाज चक्र के अनुसार वैश्य युग में है तथा भारतीय चिन्तन के अनुसार द्वापर युग का अन्तिम पायदान है। इसके बाद कल युग की शुरुआत हो रही है। द्वापर युग व्यापक पैमाने पर विप्र युग है।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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  विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 10



👑 बुद्ध युग- नवम् संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
               विष्णु की दस संभूति के चित्रकारों ने महात्मा बुद्ध को नवम् संभूति के रुप में चित्रित किया है। विषय मान्यता एवं धारणा का है। इस पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा। चित्रकारों की सोच एवं भावनाओं की तारीफ करुंगा कि उन्होंने युग की मानसिकता को देखकर एक योग्य पात्र मतदान किया है।
        विश्व पटल पर 1000 ईसा पूर्व से 700 ईस्वी तक का समय नये धर्म दर्शन की अवधारणाओं का था। भारतवर्ष में जैन धर्म के 24 तीर्थंकर (विशेष रुप महावीर), चार्वाक, शंकराचार्य, नाथ परंपरा, महात्मा बुद्ध, चीन में कंफ्युशस, यूरोप में महात्मा ईसा, अरब में जरथुरुष्ट व हजरत मोहम्मद साहब तथा विश्व के अन्य कौन में इस प्रकार के विचारकों का जन्म हुआ जिन्होंने एक आध्यात्मिक बौद्धिक क्रांति को जन्म दिया। जिसके कारण जन मन के चिन्तन में आमूल शूल परिवर्तन आए। इस युग का प्रतिनिधित्व बुद्ध को देखकर ऐतिहासिक चित्रकार ने कोई भूल नहीं की। बुद्ध के दार्शनिक ज्ञान को अलग रखा जाए तो इन्होंने मन को निरपेक्ष चिन्तन की ओर बढ़ाया है। किसी भी प्रकार पूर्व रूढ़ मान्यताओं दूर रखकर मानव मन को स्वतंत्र गगन उन्मुक्त पंछी की भाँति विचरण को छोड़ा है। यह युग प्रवर्तक का ही कार्य हो सकता है। संभूति युग प्रवर्तक का प्रतिनिधित्व करती है।
       बुद्ध कालीन विश्व समाज अपनी धारणा, मान्यताओं एवं भावनाओं से संघर्ष कर रहा था। नये पथ प्रदर्शकों ने नई चेतना संचार किया तथा युग पर अपने हस्ताक्षर किये। बौद्धिक एवं आध्यात्मिक चेतना के निर्माण के नाम पर समर्पित हुआ। जिसने आगे चलकर वैश्विक चिन्तन को प्रोत्साहन दिया एवं आवश्यकता महसूस करवाईं।
बुद्ध युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन - बुद्ध युगीन मनुष्य वैश्विक चिन्तनधार में बह रहा था। राजा अपनी राज्यों के सीमा बढ़ाने एवं विश्व विजय के अभियान में निकल पड़े।
(१) राजनैतिक जीवन   इस काल के राजा राज्य विस्तार की नीति में लगे हुए थे। बौद्धिक रुप से चिन्तन आगे बढ़ा लेकिन भौतिक  क्षमता के कम विकास के कारण के राजा स्थायी एक छत्रराज स्थापित करने में असफल रहे।
(२) सामाजिक जीवन बुद्ध के काल में सामाजिक जीवन महापुरुषों के अनुरूप नये जाति एवं सम्प्रदाय बनने व बिगड़ लगे। समाज की जीवन रेखा मजहब के आधार पर खिंची जाने लगी।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में मनुष्य का धार्मिक जीवन विराट बनने को निकाला था लेकिन कालांतर में मजहब की ओट में खो गया। अनुयायी अपने प्रवर्तक की जीवन शैली का अनुसरण करते हुए, विश्व को समदृष्टि देखने के स्थान पर एक सीमित दायरे स्वयं को समेट कर रख दिया।
(५) आर्थिक जीवन यह आर्थिकता को समर्पित नहीं था। आर्थिक मूल्य उत्तरोत्तर गति करते हुए जातिगत व्यवसाय बन गए। इससे कार्य के कौशल में वृद्धि हुई।
(५) मनोरंजनात्मक दशा व्यक्ति के मनोरंजन के लिए कुछ जातियों ने अपना पेशा बना दिया। इससे उनका पेट भी पला, साथ में आम जन का मनोरंजन होने लगा।
(६) विश्व को देन इस युग के कारण विश्व को नई- नई जीवन शैलियां मिलने लगी।
        बुद्ध युग को भारतीय कालक्रम विभाजकों ने कलयुग के मुख पर रखा, लेकिन मेरे विचार से यह द्वापर युग की मध्यमा अवस्था थी तथा समाज चक्र के यह तृतीय विप्र युग था।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 09



     👑 हलधर युग- अष्टम संभूति 👑 

               विश्व इतिहास का नगरीय सभ्यता का भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा में हलधर युग के नाम से जाना जाने लगा। हलधर शब्द एवं नगरीय सभ्यता शायद इतिहासकारों की चाय की प्याली में तूफान पैदा कर रही होगी। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का कथन है कि जब खेती फलती फूलती है, तब उद्योग धंधे पनपते है। इस कथन अधिक विस्तृत करते हुए कहा जा सकता है कि उद्योग धंधों के पनपने से रिद्धि, सिद्धि एवं समृद्धि में वृद्धि होती है तथा यह तीनों व्यक्ति को व्यक्ति के नजदीक लाते है। जिससे नगरीय जीवन का विकास हुआ था। अत: सुस्पष्ट हो जाता है कि नगरी सभ्यता के विकास का आधार खेती है। इसलिए नगरी सभ्यता का प्रतीक चिन्ह हलधर सही पात्र है।
           विष्णु की संभूति में अष्टम स्थान हलधर को दिया गया था। जो कालांतर में व्याख्याकारों ने गिरधर में रूपांतरित कर दिया। जो एक ऐतिहासिक भूल है। इस युग में महासंभूति श्री कृष्ण का आगमन हुआ था। उनके प्रभुत्व के चलते लोगों ने उन्हें विष्णु की संभूति में बैठा दिया। वस्तुतः श्री कृष्ण महासंभूति थे जबकि हलधर एक संभूति का विकास है।
           विश्व के इतिहास में लगभग 3000 हजार ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के मध्यम कई सभ्यता एवं संस्कृतियाँ अभिप्रकाश में आई। यह सभ्यताएं नगर के विकास से इतिहासकारों के नजर में आई। ग्राम स्वराज सभ्यता के काल में विशालकाय एवं आलीशान भवनों के अवशेष नहीं मिलने के कारण इतिहासकार इस पर अपनी कलम चलाने से रुक गए। यह बात सभी जानते है कि एक नगर ग्राम से निकलता है। सभ्यता के इस युग सम्पूर्ण विश्व इतिहास का स्वर्ण युग बताना अतिशयोक्ति नहीं है।
           ग्राम सभ्यता के विकास की उत्तरोत्तर अवस्था में नगरी युग में आते-आते आचार-विचारों में बहुत अधिक परिवर्तन आ गया था। इसलिए कुछ अवधि तक युग संधि की अवधि से गुजरना पड़ा। पुरातन मूल्य नूतन मूल्यों को अंगीकार नहीं थे। नूतन मूल्य पुरातन मूल्यों को सहन करने के लिए तैयार नहीं रहते है। अत: यह व्यवस्था अराजकता के तुल्य यह अवस्था तृतीय शूद्र युग का परिचय देती है। हलधर युग में विश्व में कई ऐतिहासिक कीर्तिमान तैयार किए। जिसमें मिश्र के पिरामिड़, मेसोपोटामिया सभ्यता, सिन्धु सरस्वती के नगर, चीन का ज्ञान विज्ञान, रोम की भव्यता, युनान का दार्शनिक ज्ञान एवं द्वारिका नगरी के निर्माण का कौशल शामिल है।
    हलधर अथवा बलराम को धर्म के विश्लेषकों ने शेषनाग का अवतार बताया है तथा श्री कृष्ण को विष्णु के अवतार के रुप में चित्रित किया है। यहाँ आस्था एवं विश्वास का मामला आ जाता है। अत: एक इतिहासकार को यहाँ अधिक टांग खिंचाई नहीं करनी चाहिए। यह धार्मिक गवेषणा एक दार्शनिक विश्लेषण का विषय है। जो उनके पास ही शोभित होता है।
हलधर युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ को ऐतिहासिक मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होती है। वह स्वयं में एक मूल्यांकन ही होता है। फिर ऐतिहासिक सूत्र के मध्य गुजरना अधिक अच्छा रहता है।
(१) राजनैतिक जीवन इस युग में राजतंत्र एक सुदृढ़ अवस्था में था।  राज्य अपने सीमाओं के विस्तार एवं एक छत्र राज्य के लिए अभियान चलाते थे। चक्रवर्ती सम्राट बनने की परंपरा विश्व के सभी सम्राट के मनो मस्तिष्क में दिखाई दी है।
(२) सामाजिक जीवन इस युग का सामाजिक जीवन एक वंश परंपरा को ग्रहण कर लिया था। व्यक्ति अपनी माता , पिता, पितामह एवं पूर्वजों के नाम पर परिचय देने में गर्व महसूस करने थे। बहुपत्निक, बहुपतिक, अन्तर्जातिय विवाह एवं निरोध प्रथा के प्रचलन था। इस युग में नारी स्वाधीन थी लेकिन राजनैतिक मामलों में प्रभुत्व कम था। इस युग में जाति व्यवस्था के भी विद्यमान होने के प्रमाण हैं।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में महासंभूति श्री कृष्ण ने धर्म को पुनः परिभाषित किया था। विश्व के सभी स्थानों पर अलग अलग धार्मिक परंपराओं का विद्यमान होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। तंत्र एवं वैदिक दोनों प्रकार की उपासना पद्धति विश्व की सभी सभ्यताओं में मिलता था। इस युग में धर्म को लेकर दार्शनिक गवेषणा भी खूब अधिक प्रचलित हुई थी। विश्व की सभी सभ्यता में धर्म के दार्शनिक मूल्य दिखाई देते हैं।
(४) आर्थिक जीवन इस युग में खेती तथा खेती पर आधारित उद्योग, विभिन्न धातु अधातु उद्योग, व्यापार विनिमय तथा अन्य व्यवसायिक श्रेणियां व्याप्त थी। इस युग के नायक हलधर उर्फ बलराम उच्च कोटि के अभियंता थे। जो खेती की उच्च तकनीकियों के, भवन, नगर निर्माण में दक्ष थे। विश्व भर अच्छे अभियंता एवं चिकित्साचार्या के मौजूद होने के प्रमाण हैं। विज्ञान एवं गणित भी बहुत अधिक विकसित अवस्था में थी। यांत्रिक क्षेत्र भी उन्नत अवस्था में था।
(५) मनोरंजनात्मक दशा मनोरंजन के लिए रंगशाला, धुर्त, क्रीड़ा, आखेट, विश्व विजय अभियान एवं मल युद्ध इत्यादि आयोजित होते थे। जन साधारण में उत्साह सर्जन करने के लिए उत्सव का आयोजन होता था।
(६) विश्व को देन इस युग विश्व को सभ्यता एवं संस्कृति प्रदान की है। जिस में आचार-विचार, कला-विज्ञान एवं अन्य सभी क्षेत्रों का विकास आ जाते है ।
          यह युग समाज चक्र के अनुसार तृतीय क्षत्रिय युग था तथा भारतीय परम्परा के काल विभाजन में द्वापर युग का शंखनाद हुआ था। अब तक विश्व इतिहास में समाज चक्र दो बाहर पूर्ण घुमा था। द्वितीय परिक्रान्ति के बाद एक नये समाज चक्र की यात्रा प्रारंभ हुई थी। द्वापर युग मूलतया ज्ञान विज्ञान एवं बौद्धिक विकास के आधार विभिन्न परिचय विश्व को देता है इसलिए इसे विप्र प्रदान समाज चक्र कहा जाता है। जिसमें विभिन्न युग चलयमान होते है। भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास में विप्र ऋषि, क्षत्रिय ऋषि, वैश्य ऋषि, शूद्र ऋषि, विप्र योद्धा, क्षत्रिय योद्धा, वैश्य योद्धा, शूद्र योद्धा, विप्र व्यवसायी, क्षत्रिय व्यवसायी, वैश्य व्यवसायी एवं शूद्र व्यवसायी होने का उल्लेख मिलता है। अत: मोटे रुप से एवं सूक्ष्म रुप से समाज चक्र घूर्णन करता है। समाज विश्लेषकों की सबसे बड़ी भूल यहाँ दृष्टिगोचर होती है कि द्वापर युग यही विराम देते हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है यह द्वापर युग शुरुआत है। आगे के बुद्ध युग एवं कल्लि युग इसी परिधि में है।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 08


👑 श्रीराम युग- सप्तम् संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
              ग्राम स्वराज युग संभूति के श्री राम युग अथवा रामराज्य के नाम से जाना जाता है। भृगुपति अर्थात ऋषि युग के बाद ग्राम राज्य अस्तित्व में आये। यह ग्राम राज्य सामाजिक आर्थिक इकाई के रुप में कार्य करते है। ऋषि युग के उत्तर काल विभिन्न गुरुकुल के आचार्यों द्वारा आदर्श समाज के चित्रण को लेकर नाटकों का मंथन किए जाते थे। वशिष्ठ गुरुकुल का रामराज्य नाटक सबसे अधिक ख्याति पाई। विश्वामित्र गुरुकुल के द्वारा सीता स्वयंवर ने भी ख्याति प्राप्त की। इसके बाद राम को नायक रुप में चित्रित एक के बाद एक  नाटक का मंथन होने लगे। इसलिए यह युग को राम युग के नाम जाना जाने लगा।
      तंत्र में पृथ्वी तत्व सोने की लंका, जलतत्व को सागर पर सेतु बंधन, अग्नि तत्व को बालि वध, वायु तत्त्व को हनुमान, आकाश तत्व को शब्द तन्मात्र शबरी , नासिक के ललना चक्र गंध से जोड़ते जटायु , आज्ञा चक्र को पंचतत्व की पंचवटी, गुरु चक्र को चित्रकुट एवं सहस्रार चक्र अयोध्या। जिसके बारे में कहा जाता है कि साधना समर द्वारा अ योद्धय (अजेय) है। इस  अवस्था को अयोध्या के सांकेतिक नामों से चित्रित किया गया। जीवात्मा एवं कुलकुंडलिनी को सीताराम के रुप समझाया गया। कालांतर में तंत्र का राम विज्ञान एवं गुरुकुल के नाट्य राम चरित्र मिलकर रामायण के रुप में अस्तित्व में आए।
     बाल्मीकी द्वारा रचित रामायण को श्री राम युग का इतिहास लिखने का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। बताया जाता हैं कि बाल्मीकी जी ने श्री राम के जन्म से पूर्व इस गाथा को लिख दिया था। इसके कारण श्री राम पर काल्पनिक पात्र होने की आशंकाएँ व्यक्त की गई। मैंने इतिहास का लेखन कार्य आरंभ करने पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था। कथाएँ आस्था एवं विश्वास के बिम्ब होते है। इनकी सत्यता जाँच करना मेरा विषय नहीं है।  इसके बाद श्री राम जी के चरित्र का भारतवर्ष एवं भारतवर्ष के बाहर भी विभिन्न भाषाओं में गाया गया। तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस ने सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की है।
           श्री राम युग ग्राम राज्य सभ्यता का युग था। मानव ने इस युग में आते आते खेती एवं अन्य व्यवसाय में सिद्धहस्त हासिल कर ली थी। एक स्थान पर मनुष्य ने रहना प्रारंभ किया। सामाजिक जिम्मेदारियों को वहन करते आर्थिक विषय में अधिक रुचि लेने लगा। इस युग में विश्व में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र को लेकर यह ग्राम राज्य अस्तित्व में आए। इन्होंने प्रशासनिक योग्यता भगवान सदाशिव द्वारा प्रतिपादित गण व्यवस्था से हासिल कर दी थी। चूंकि ग्राम स्वराज आर्थिक इकाई के केंद्र हुआ करते थे। अत: यह राज्य विशुद्ध वैश्य गणराज्य थे।
श्री राम युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व में जहाँ भी मानव सभ्यता का निर्माण हुआ था। वहाँ ग्राम इकाइयों के बाद नगरी सभ्यता का विकास हुआ था। इतिहास के कालक्रम के अनुसार 3000  से 4500 ईसा पूर्व का युग ग्राम स्वराज जो भारतीय सभ्यता में राम राज्य के नाम विश्लेषित किया गया।
(१) राजनैतिक जीवन  इस युग में राजनैतिक व्यवस्था सुव्यवस्थित रुप से लागू हो गई थी। राजा के चुनाव में योग्यता के मापदंड का ध्यान रखा जाता था। सभा, मंत्रीमंडल इत्यादि इकाइयों का गठन हो गया था। प्रशासनिक कार्यों में नारियों की भागीदारी के प्रमाण मिलते हैं। राज्य छोटी-छोटी जनगोष्ठी के बने थे।
(२) सामाजिक जीवन सुव्यवस्थित  सामाजिक परंपरा का गठन हो गया था। पुरुष एक से अधिक विवाह करता था। विधवा विवाह की प्रथा विद्यमान होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। नारियों की स्थिति सम्मान जनक होने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में धर्म के क्षेत्र में व्यापक जाग्रति थी। पूजा पद्धति के विभिन्न तरीके उपलब्ध थे। इस युग में विश्व के लगभग सभी स्थानों पर मूर्ति पूजा के प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जीवन जीने के कुछ नैतिक मानदंड को लेकर चलने वाले का समाज में मान एवं सम्मान था।
(४) आर्थिक जीवन यह युग सबसे अधिक आर्थिक जगत में विकास की गाथा लिखता है। आर्थिक जगत की दृष्टि यह युग विश्व इतिहास का स्वर्ण युग था। क्षेत्रीयता विभिन्नता के आधार आर्थिक इकाई को लेकर राज्य गठित थे। व्यापार के परंपरा सुव्यवस्थित संचालित था। उद्योग वही स्थापित किये गये थे। जहां कच्चा माल उपलब्ध हो जाता था।
(५) मनोरंजनात्मक दशा श्री राम युग में सभ्यता का काफी विकास हो गया था। मनोरंजनात्मक क्षेत्र भी काफी विकसित हो गया था। रंगमंच पर नाट्य का मंथन एवं युद्ध कौशल की करतब मुख्य आकर्षण हुआ करते होंगे। शिक्षा पद्धति का भी व्यवस्थित पद्धति लागू की गई थी।
(६) विश्व को देन इस युग विश्व को जीवन जीने की आदर्श शैली प्रदान की तथा भक्ति को एक जन आंदोलन में रूपांतरित कर दिखाया।
         श्री राम युग प्रगतिशील उपयोग तत्व द्वारा प्रतिपादित समाज चक्र में द्वितीय वैश्य युग की परिधि में रखा जाता है तथा भारतीय चिन्तन इस त्रेतायुग का अन्तिम पायदान बताता है। इसके बाद पुनः समाज चक्र घूर्णन की अवस्था में आता है। यह विश्व इतिहास की द्वितीय परिक्रांति हुई। उसके बाद विश्व को एक युग संधि गुजरना पड़ा, जो तृतीय शूद्र युग का शंखनाद था।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 07


     👑 भृगुपति युग- षष्टम् संभूति 

               भारतीय साहित्य में विष्णु की षष्टम् संभूति भृगुपति को बताया गया है। क्षत्रिय युग का विनाशक के रुप में दिखाया गया है। परशा नामक हथियार धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए। यह ऋषि युग के नाम भी जाना जाता है। वामन युग धार्मिक चेतना ने जिन व्यष्टि में आत्मिक आनन्द की क्षुधा जगाई थी। वे भृगुपति युग में प्रभावशाली हुए। उन्होंने शारीरिक शक्ति  स्थान पर बौद्धिक शक्ति से कार्य करना आरंभ किया। अपने बौद्धिक संपदा से कई नहीं पद्धति का आविष्कार किया। युद्ध नये व्यूह रचना तरीके से लड़वाकर समस्त व्यवस्था पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। मल युद्ध के स्थान लाठी प्रहार, लाठी जबाव परशा आदि एक से एक मारक हथियार के कौशल व पहिए तथा आग के आविष्कार सहित नूतन शोध ने समाज में ऋषियों की श्रेष्ठता स्थापित की।
        यह युग मानव जाति के इतिहास में पाषाण युग से ग्राम राज्यों की स्थापना से पूर्व का युग था। आधुनिक मनुष्य ने असभ्यता एवं बर्बरता का दामन छोड़ एक नये पायदान पर पांव रखने की गाथा को लिखने का साक्ष्य भृगुपति युग है। इस युग में मानव पर्वतवासी था। मैदानी अंचल में रहना आरंभ नहीं किया था। मनुष्य ने ऋषियों के पर्वत से अपनी गोत्र का परिचय देना आरंभ किया। वामन युगीन मनुष्य से इस युग के मनुष्य के आचार विचार, रहन सहन, उठने बैठने आदि तौर तरीकों में क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
     इस युग आते आते मनुष्य ने सदाशिव के रुप में महासंभूति का सानिध्य प्राप्त किया। उन्होंने पशु स्वभाव से मनुष्य को मानवीय सभ्यता के सांचे में ढाला। यह महादेव के रुप ख्याति प्राप्त की। इस युग को सभ्यता का प्रथम युग कह सकते है।
भृगुपति युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन सभ्यता के प्रथम अध्याय ने मनुष्य ने जो कुछ प्राप्त किया। वह अपने आप पहली वैचारिक क्रांति थी। इस युग के मनुष्य का अध्ययन जड़ जीव विज्ञान की प्रयोगशाला में करना वैज्ञानिकों एवं इतिहास के शोधकर्ताओं की भूल है। मनुष्य का जीवन विज्ञान मनोजीव विज्ञान होना चाहिए। इस मनुष्य की क्रिया का मुख्य नियंता मन रहा है। अब मनुष्य जीव एवं जन्तु नहीं रहा एक विचारशील मनुष्य बन गया था। उसी परिप्रेक्ष्य को मध्य नजर रखते हुए इतिहास लेखन की यह नूतन विधा तत्कालीन मानव सभ्यता का मूल्यांकन करता है।
(१) राजनैतिक जीवन इस युग में मनुष्य ने पर्वतों को अपना स्वदेश बना दिया था। इनका मुख्या ऋषि के नाम से जाना जाता था तथा लोग उन्हें के नाम से अपना परिचय देते थे। अपने अपने पर्वत की संपदा पर अपना एकाधिकार समझते थे। इसको लेकर विभिन्न गोष्ठियों मारक युद्ध भी होते थे। संधि- समझौता, मित्र एवं शत्रु पर्वत प्रदेश स्थापित करने की परंपरा का विकास हो गया था। इस युग के उत्तरार्ध में युग पुरुष सदाशिव द्वारा गण एवं गणाधिपति के राजनैतिक सूत्र आरंभ किया। इस प्रणाली के माध्यम से विभिन्न पर्वतीय प्रदेश आपस में सम्पर्क में आए।
(२) सामाजिक जीवन यह युग सामाजिक इतिहास लिखने का रोचक अध्याय हैं। इस युग के आरंभ में नारी जाति पर संतति के पालन पोषण की पीड़ा को मनुष्य ने पहचान। पुरुष वर्ग कुछ सामूहिक जिम्मेदारी का परिचय देना प्रारंभ किया। इस युग के महानायक भगवान सदाशिव ने प्रथम विवाह कर मनुष्यों के पारिवारिक जीवन का शुभारंभ किया। इससे पूर्व किसी भी ऋषि ने एक स्त्री को अपने अर्द्धांगिनी बनाने का साहस नहीं किया। यह सााहस युग पुरुष सदाशिव ने प्रथमतः किया। इसके लिए सदाशिव को तत्कालीन गोष्ठी परंपरावादियों संघर्ष भी करना पड़ा था। अर्थात इस युग के उत्तरार्ध में पारिवारिक परम्परा का सूत्रपात हो गया था।
(३) धार्मिक जीवन इस युग का धार्मिक जीवन विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। इस युग में वैदिक जीवन शैली एवं तांत्रिक जीवन शैली का श्री गणेश हुआ था। वैदिक सभ्यता जड़ प्रकृति एवं उसकी महत्ता को लेकर अनुसंधान प्रस्तुत करता था जबकि तंत्र ने मनुष्य के जीवन के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास का अनुसंधान किया तथा वस्तु जगत से सुसामंजस्य स्थापित करने की कलाओं में दक्षता प्राप्त की। कालांतर में आर्य एवं अनार्य परंपरा का मिलन हुआ भी हुआ। सूक्ष्म आध्यात्मिक साधना की सुव्यवस्थित पद्धति से मनुष्य को दीक्षित करने का कार्य महागुरु सदाशिव ने किया। यहाँ दो विरोधी विचारधारा भी दिखाई दी। आर्य परंपरा यज्ञ समर्थक तथा अनार्य यज्ञ विरोधी। इसको लेकर रक्तरंजित संघर्ष भी हुए थे।
(४) आर्थिक जीवन इस युग में फलों एवं अनाज की प्रचुरता ने अधिक आर्थिक चिंता में मग्न नहीं किया। आपसी सहयोग से एक दूसरे की वस्तुओं का आदान प्रदान करना आरम्भ हो गया था लेकिन वस्तु विनिमय की प्रणाली का प्रारंभ नहीं हुआ था। आपात कालीन परिस्थितियों में मैदानी अंचल में आकर कतिपय साहसी लोग कुछ दाने उगाते थे। कार्य संपादन के बाद पुनः पर्वतीय प्रदेश लौट जाते थे। अर्थात खेती की व्यवस्थित प्रणाली अभी तक विकास नहीं हुआ था। व्यापार की आवश्यकता अधिक नहीं थी लेकिन आभूषण इत्यादि को ढ़ालने इत्यादि की हस्तकला में कुछ लोगों को सिद्धहस्त हासिल थी। प्रारंभ में इनके आभूषण तथा दैनिक उपयोग की वस्तु पत्थर, हड्डियों एवं हाथी दांत की होती थी। बाद मनुष्य धातु से परिचित होने पर इनका उपयोग करने लगा।
(५) मनोरंजनात्मक दशा   इस युग नृत्यकला, संगीत कला, व्यायाम, योग, नाट्यकला उत्तरोत्तर विकास हुआ। सदाशिव नटराज की उपाधि से विभूषित किए गए।
(६) विश्व को देन इस युग कला एवं विज्ञान के विकास का प्रथम अध्याय लिखा गया। इस युग आयुर्वेद, वैदक शास्त्र रुप चिकित्सा पद्धति का आविष्कार हुआ। इस युग मानव सभ्यता को आग, पहिया एवं बीज उगाने की पद्धति प्रदान की। राजनैतिक क्षेत्र गणतंत्र प्रणाली, सामाजिक क्षेत्र में पारिवारिक प्रणाली, धार्मिक क्षेत्र में यज्ञ एवं ध्यान साधना, साहित्य के क्षेत्र वैदिक साहित्य व तंत्र शास्त्र प्रदान किए।
         सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत के अनुसार यह युग द्वितीय विप्र युग था तथा मानव सभ्यता का प्रथम विप्र युग था। भारतीय चिन्तन के अनुसार त्रेतायुग की मध्यमावस्था थी।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 03
     

         विश्व इतिहास का द्वितीय अध्याय
        कूर्म ( कच्छप) युग- द्वितीय संभूति 


           क्षीरसागर में जीवों की हलचल धरती को आनन्दित करती थी। जब कोई जीव क्रीड़ा करता हुआ किनारे
की ओर चल आता था। धरती माँ का जी उसे अपने गोद में उठाने के लिए मचल जाता था। ज्योंही अपने बाहें
फैलाकर गोदी में उठाने की मनचाहा होती। जीव पुनः सागर की गहराइयों में चल जाता है। यह देख धरती माँ
को आनन्द से अधिक सन्तति को स्पर्श करने का दर्द होता था। एक दिन गहरी निद्रा में सो रही धरती के बदन
पर कुछ गुदगुदी होने लगी। इस खुशनुमा एहसास ने नवचेतना का संचार किया। ज्यौंही आंखें खोलें तो देखा कि
कोई पथ भूले राहगीर की भाँति कोई जीव धरती माता के बदन पर उचल कूद कर रहा था। पल झपकते ही वह
सागर की गहराइयों में चला गया। जी हाँ हम बात कर रहे हैं। उभयचर जीवों के युग की। जलीय जीवों के बाद
सृष्टि विकास के में उभय वर्गीय जीवों का युग आता है। जो जल एवं थल दोनों पर रह सकते हैं। विश्व इतिहास
में इसे द्वितीय अध्याय के रुप में चुना गया। यह विष्णु की द्वितीय संभूति कच्छप के रुप में चित्रित किया गया। कच्छप उभयचर जीवों का प्रतिनिधित्व करता है।


                  कथा में कहा गया कि देवगण एवं दैत्यों द्वारा सागर मंथन में भूगर्भ घस रहे पर्वतराज को अपने पीठ पर धारण करने के लिए इस संभूति का वरण किया गया। कथा की सत्य को जांचे बिना एक बात को रेखांकित करता हूँ। मनुष्य के चलने की गति में विवेकपूर्ण निर्णय की गति को रेखांकित करता है। चर्य एवं अचर्य पर विचार कर चर्य कार्य करने होते हैं। यहाँ भाव प्रवण गतिधारा पर विवेक की लगाम है। इसे विचार पूर्ण
मानसिकता कहा जाता है। इसके लिए कठोर निर्णय शक्ति एवं मानसिकता की आवश्यकता होती है। जिसका
प्रतिनिधित्व कुर्म जीव करता है। भावावेश में चलना मन तरलता का द्योतक है। इसके वाद भावुकता से उपर
उठकर गंभीरता को धारण करता है। इस क्रिया के मध्य मन का मंथन होता है। उसमें सार तत्व उपर आ जाता
है। साधुजन उस को ग्रहण कर लेते है। अन्य मट्ठे को विवाद करते रहते है। इस मंथन में लोक हितार्थ विष भी
पान करना पड़ा तो सत पुरुष पाव पीछे नहीं रखते है। इस मनोविज्ञान को चित्रित करता विश्व इतिहास का
द्वितीय पन्ना।


           मानसिक गति के अनुकूल ही भौतिक जगत में भी काल रेखाए उरेखित हुई है। सरीसृप एवं मेंढक वर्गीय
जीवों का यह युग कुछ स्थायी भू मंडल पर रहने वाली प्रजातियों का भी विकास करता है। पादप एवं पक्षी वर्ग
की प्रजातियों के विकास में यह युग महत्वपूर्ण है।

कूर्म युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन ➡ मत्स्य युग से कुछ उन्नत वर्ग के जीवों का युग था लेकिन बौद्धिक क्षेत्र से कोटिशः कदम दूर थे। यद्यपि इस युग का मूल्यांकन करने वाले साक्ष्य उपलब्ध नहीं है तथापि इस वर्ग के जीवों का मानसिक विकास ऐतिहासिक मूल्यांकन के लिए पर्याप्त आधार है।

  (१) राजनैतिक जीवन ➡ यह युग स्वदेश, परदेश, प्रदेश तथा क्षेत्रीयता को समझने का मजबूत आधार है।
जलीय जीवों के लिए जल स्वदेश व थल परदेश तथा थलचरों के विपरीत प्रतिक्रिया है। उभयचर के प्रदेश गमन
के तुल्य ही है। इसके अतिरिक्त जल-थल के अलग - अलग परिवेश क्षेत्रीयता को रेखांकित करता है।
(२) सामाजिक जीवन ➡ उभयचर वर्गीय जीवों में संवेदना का जागरण दिखाई देता है। गंध तन्मात्र के माध्यम
से माता एवं संतान में एक विशेष किस्म का आकर्षण दिखाई देता है। कच्छप वर्ग की मादाएँ अंडे देकर जल की
गहराइयों में जाकर बैठ जाती है। शिशु कछुआ गंध तन्मात्रा के माध्यम से मातृ कछुए को पहचान जाती है।
उनके साथ समूह में रहने की प्रकृति है। यह सामाजिकता का चिन्ह है।
(३) धार्मिक जीवन ➡ कच्छप युगीन धार्मिक जीवन की कछुए का हिन्दू धर्म स्थलों सबसे अग्रणीय स्थान पर
स्थापित करने से महत्ता दिखाई देती है। कछुआ की भाँति योगी सभी बाह्य वृत्तियों को भीतर समावेश करने से आत्मिक विकास की ओर बढ़ता है।
(४) आर्थिक जीवन ➡ इस युग में जीव अपनी प्रजातियों पर हमला नहीं करता। शाकाहार के प्रति रुझान
दिखाई देता है। शिशु के खाद्यान्न व्यवस्था करने की मानसिकता का स्पष्ट विकास नहीं हुआ था। लेकिन देखभाल की प्रारंभिक वृत्ति विकसित अवस्था में थी।
(५) मनोरंजनात्मक अवस्था ➡ उभयचर, सरीसृप एवं नभचर वर्ग के जीवों की रंग बिरंगी दुनिया अपने आपमें
मन को रंजीत कर देती है। इनकी क्रीड़ा एवं रचना प्रकृति की मनुष्य को अनुपम देन है।
(६) विश्व को देन - समुद्र मंथन की अवधारणा से ज्ञात होता है कि रत्न के समुद्र के गर्भ होने की उपादेयता
स्वीकार्य है। स्थल पर प्राणी जगत को स्थापित करना इस युग की सबसे बड़ी देने है।
कच्छप युग में पहली बार जीव एक सरदार के अधीन समूहित हुए। यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत में
प्रथम क्षत्रिय युग है। भारतीय चिन्तन का सतयुग शैशवावस्था से किशोर एवं युवा अवस्था में आता है।

विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 02
विश्व इतिहास का प्रथम अध्याय��
�� मत्स्य युग- प्रथम संभूति ��

             भूमा मन से पंच महाभूत के निर्माण की कहानी अंतिम दो पायदान जल एवं पृथ्वी के निर्माण में जाकर
रुक नहीं जाती है। यहाँ महाभूत में जड़ विस्फोट के फलस्वरूप सूक्ष्म भूत समूह तथा जीव देह, जीव प्राण व जीव मन का निर्माण होता है। दर्शन के इस ज्ञान का प्रमाण शास्त्र एवं विज्ञान दोनों के पास उपलब्ध है। शास्त्र में
उपलब्ध प्रमाण कहते हैं कि प्रथम जीव का आगमन जल में हुआ तथा विज्ञान का शोध भी इसे प्रमाणित करता
है। अत: निर्विवाद प्रमाणित होता है। विश्व इतिहास का प्रथम पन्ना जल में जीव की उत्पत्ति एवं जल में जीवों के संसार में हैं।
       
               भारतीय साहित्य कहते है कि विष्णु की प्रथम संभूति मत्स्य के रुप में हुई थी। कथा में लिखा है कि
हयग्रीव दैत्य द्वारा वेदों को चुरा दिए जाने पर संसार में ज्ञान शून्यता को आलोकित करने तथा सत्यव्रत के
माध्यम से सृष्टि के संरक्षण करने के लिए भगवान विष्णु ने इस संभूति को धारण किया। कथा आस्था एवं
विश्वास की सम्पदा है। इतिहास उससे आगे की सोच यथार्थ एवं शिक्षा है। इतिहास का यह पन्ना बता है कि
जीव प्रथमतः जल में आगमन से जैविक जगत की शुरुआत हुई। एक कोशिकीय पादप एवं जीव के साथ जलचर
जीवों का प्रतीक चिह्न मत्स्य युग है। शिक्षाप्रद उक्तियां मछली को जल की रानी की उपमा देती है। भारतीय
साहित्य ने मछली में संभूति दिखाकर विश्व इतिहास में प्रथम साम्राज्य त्रिया राज्य दिखाया है। मछली विश्व की प्रथम जैविक सम्राज्ञीनी होने शिक्षा देता है। जलीय जीवों के संसार का प्रतिनिधित्व मत्स्य वर्ग को दिया गया है। वास्तव में देखा जाए तो जल मछली का राज्य है। जल परिवार के मुखिया की भूमिका अदा करने में इसे
प्रतिनिधित्व दिया जा सकता था।

           विश्व इतिहास का यह प्रथम अध्याय लिखने तक स्थल पर जैविक विकास के योग्य परिवेश का निर्माण
नहीं हुआ था। जल के गर्भ में ही प्रथम जीवों की किलकारियाँ धरती माता ने सुनी थी। जैव विकास के इतिहास
में बताया जाता है सर्व प्रथम काई का निर्माण हुआ। यह जलीय पादप श्रेणी है। यहाँ से आगे सूक्ष्म जीव एवं
वृहत काय जलीय जीवों की सृष्टि होती है।

मत्स्य युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन ➡ जीवों के आगमन के इस प्रथम की कहानी लिखने वाला साक्ष्य
उपलब्ध नहीं है। यद्यपि इस युग का सुन्दर इतिहास कल्पना से लिखा जाता है तथापि वास्तविकता एक लकीर भी इधर उधर नहीं जाता है। यद्यपि इस युग का उपभोग करने वाले मानसिक का जीव उस युग में नहीं था तथापि यह युग इतिहास को विचारने के बिन्दु पर छोड़ जाता है।

           (१) राजनैतिक जीवन ➡ मत्स्य युग मछली की प्रधानता वाला युग है। इस युग राजनीति में अराजकता काउदाहरण है। किसी की प्रधानता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अपने अपने मानसिक आभोग के अनुसार आकर्षण एक विकर्षण है। अपने पेट की अग्नि शांत करने के किसी निश्चित नियम अधिक नहीं है। बड़ी मछली छोटी मछली निगलने सिद्धांत की व्यवस्था का नाम है। इतना होने पर भी एक साम्राज्ञी का सिद्धांत
प्रभावशाली है। यह त्रिया राज्य का उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जा सकता है। जिस प्रकार एक रानी मधुमक्खी के
इर्द गिर्द सम्पूर्ण छत्ता की नगरी निर्मित होते है। इसी प्रकार मछली जलीय दुनिया की आधार शीला है।
         (२) सामाजिक जीवन ➡ इस युग जीवों में विवेक का अभाव था। स्वयं मातृका मछली पुत्री मछली को जठराग्नि की शिकार बना लेते थी। फिर इतिहास में मातृ सत्तात्मक समाज के बीज दृष्टिगोचर होते हैं। परिवार शब्द से यह युग कोसों दूर था। मात्र जैविक जनन क्रिया के चलते यह संचार चल रहा था।
        (३) धार्मिक जीवन ➡ शंख का जलीय जगत से प्राप्त होना। इस युग का धार्मिक इतिहास लिखने का मजबूत साक्ष्य है। इस युग में स्वयं बारे मे चिन्तन करने की मानसिकता का निर्माण भी नहीं हुआ था। उपासना का प्रतीक शंख शरीर देकर नव उदघोष की घोषणा करता है। विष्णु के अवतार का चित्रण धार्मिक इतिहास का
सबसे गुरुत्व बिन्दु है। समग्र युग को इसे समर्पित कर देता है।
       (४) आर्थिक जीवन ➡ नीति शास्त्र में कहा गया है पापी पेट के चलते चारों जीवों की क्रियाशीलता है। यह युग सम्पूर्ण रुपेण जठराग्नि को समर्पित है। अपनी क्षुधा पूर्ति के समक्ष सभी कानून नगण्य सा दृश्य दिखाई देता है।
     (५) मनोरंजनात्मक स्थिति ➡ चित्त युक्त जीवों मन किसी भी रंग में रंजीत नहीं होता है। वर्तमान सभ्य घरों में मानसिक आनन्द एवं सौंदर्य वृद्धि के घरों में उपस्थित मत्स्य घर जलीय जीवों के सुन्दर कलवहन की कहानी कहता है। मछलियों की क्रिया देखने एक मन घंटों खड़ा रह जाता है। यह मन को आकृष्ट करने वाला दृश्य जल के संसार का सुन्दर मनोरंजनात्मक दृश्य है।
   (६) विश्व को देन ➡ न्याय व्यवस्था का प्रथम सूत्र मत्स्य न्याय व्यवस्था इस युग प्रथम उदाहरण है। जिसकी प्रतिक्रियात्मक न्याय व्यवस्था का जन्म होता है। विश्व को जीव विज्ञान इस युग ने दिया है। प्रथम जीव इस युग में ही आया था।


        भारतीय साहित्य में वर्णित सतयुग की शुरुआत का प्रथम पायदान था। सामाजिक आर्थिक चिन्तन में यह
प्रथम शूद्र युग था। यहाँ से समाज चक्र का पहिया प्रथम बार घूर्णनशील होता है। मत्स्य युग विश्व इतिहास का
पहला पन्ना है। जिस पर इतिहास खड़ा है।



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लेखक - श्री आनन्द किरण
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विष्णु में विश्व इतिहास part 1