कब तक हम अपने आप से झूठ बोलेंगे?


हर पांच वर्ष के बाद चुनाव आते है। नेताजी एवं उनके अभिकर्ता हमें सपनों का भारत दिखाते है। हम अपनी-अपनी सोच के आधार पर इन्हें या उन्हें स्वीकार कर लेते है। मैं हम सबसे प्रश्न करता हूँ कि कब तक हम अपने आपसे झूठ बोलते रहेंगे? हम इन नेताओं एवं उनके अभिकर्ताओं क्यों नहीं कह पाते कि हम झूठ का साथ नहीं दे रहे है। ऐसा कौनसा डर जन मन में है कि 70 वर्ष की आजादी के भी गुप्त मतदान करना पड़ रहा है । जिस प्रकार नेता सीना तानकर अपने पार्टी के झूठ सपने आपको बेचने आते है। आप और हम उन्हीं की भाँति यह नहीं कह पाते हैं कि आपका out dated माल हमें स्वीकार नहीं है। 




 मेरी इस बात पर आपको गौर फरमाना होगा कि डर की छा लोकतंत्र का वृक्ष फल दे सकता है क्या? आखिर हमें डर किस बात है एवं क्यों डरते है? - जिंदा रहने के लिए अथवा स्वार्थ सिद्धि के लिए? यदि जिंदा रहने के लिए डरते है तो हमें आजादी के गाने नहीं गाने चाहिए तथा स्वार्थ पूर्ति के निमित्त उद्देश्य से डर का दामन थामना पड़ता है। भारतवर्ष को विश्व गुरु के रुप में देखने के सपने छोड़ देने चाहिए। मैं तो स्पष्ट कहता हूँ कि जहाँ डर है वहाँ लोकतंत्र नहीं भीरुतंत्र तथा भीरुतंत्र जनता का, जनता के लिए व जनता के द्वारा नहीं हो सकता है। इस स्थिति में हम अपने आप से झूठ बोलते रहेंगे तथा नेताओं की दुकानें चलती रहेगी। 



 मैं तो कहता हूँ कि राजनीति की छाया में लोकतंत्र का पौधा पनप भी नहीं सकता है। जो पौधा है नहीं वह फल कैसे दे सकता है? कागज के फूलों से खुशबू आ सकती है तो इस लोकतंत्र के कृत्रिम अथवा बनावटी पौधे पर फल लग सकते है। मैंने तो अपने आप से झूठ बोलना छोड़ दिया है कि राजनीति में लोकतंत्र है। लोकतंत्र तो समाजनीति में है। जो आर्थिक लोकतंत्र से संभव है। देखो! मैंने अपने आप से सत्य बोल दिया है कि राजनीति के झूठ झांसे में भारतवर्ष को नहीं देखूंगा । सच में समाजनीति में भारतवर्ष है। अब आपकी बारी है कि आप झूठ बोलते है अथवा नेताओं को मुह तोड़ जबाव देते हैं।



मन की बातें बहुत हो गई , दिल की बात है कि राजनीति नहीं समाजनीति चाहिए। भारतवर्ष को आर्थिक आजादी चाहिए।
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करण सिंह राजपुरोहित 
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