👑 हलधर युग- अष्टम संभूति 👑 

               विश्व इतिहास का नगरीय सभ्यता का भारतीय इतिहास लेखन की परंपरा में हलधर युग के नाम से जाना जाने लगा। हलधर शब्द एवं नगरीय सभ्यता शायद इतिहासकारों की चाय की प्याली में तूफान पैदा कर रही होगी। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात का कथन है कि जब खेती फलती फूलती है, तब उद्योग धंधे पनपते है। इस कथन अधिक विस्तृत करते हुए कहा जा सकता है कि उद्योग धंधों के पनपने से रिद्धि, सिद्धि एवं समृद्धि में वृद्धि होती है तथा यह तीनों व्यक्ति को व्यक्ति के नजदीक लाते है। जिससे नगरीय जीवन का विकास हुआ था। अत: सुस्पष्ट हो जाता है कि नगरी सभ्यता के विकास का आधार खेती है। इसलिए नगरी सभ्यता का प्रतीक चिन्ह हलधर सही पात्र है।
           विष्णु की संभूति में अष्टम स्थान हलधर को दिया गया था। जो कालांतर में व्याख्याकारों ने गिरधर में रूपांतरित कर दिया। जो एक ऐतिहासिक भूल है। इस युग में महासंभूति श्री कृष्ण का आगमन हुआ था। उनके प्रभुत्व के चलते लोगों ने उन्हें विष्णु की संभूति में बैठा दिया। वस्तुतः श्री कृष्ण महासंभूति थे जबकि हलधर एक संभूति का विकास है।
           विश्व के इतिहास में लगभग 3000 हजार ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के मध्यम कई सभ्यता एवं संस्कृतियाँ अभिप्रकाश में आई। यह सभ्यताएं नगर के विकास से इतिहासकारों के नजर में आई। ग्राम स्वराज सभ्यता के काल में विशालकाय एवं आलीशान भवनों के अवशेष नहीं मिलने के कारण इतिहासकार इस पर अपनी कलम चलाने से रुक गए। यह बात सभी जानते है कि एक नगर ग्राम से निकलता है। सभ्यता के इस युग सम्पूर्ण विश्व इतिहास का स्वर्ण युग बताना अतिशयोक्ति नहीं है।
           ग्राम सभ्यता के विकास की उत्तरोत्तर अवस्था में नगरी युग में आते-आते आचार-विचारों में बहुत अधिक परिवर्तन आ गया था। इसलिए कुछ अवधि तक युग संधि की अवधि से गुजरना पड़ा। पुरातन मूल्य नूतन मूल्यों को अंगीकार नहीं थे। नूतन मूल्य पुरातन मूल्यों को सहन करने के लिए तैयार नहीं रहते है। अत: यह व्यवस्था अराजकता के तुल्य यह अवस्था तृतीय शूद्र युग का परिचय देती है। हलधर युग में विश्व में कई ऐतिहासिक कीर्तिमान तैयार किए। जिसमें मिश्र के पिरामिड़, मेसोपोटामिया सभ्यता, सिन्धु सरस्वती के नगर, चीन का ज्ञान विज्ञान, रोम की भव्यता, युनान का दार्शनिक ज्ञान एवं द्वारिका नगरी के निर्माण का कौशल शामिल है।
    हलधर अथवा बलराम को धर्म के विश्लेषकों ने शेषनाग का अवतार बताया है तथा श्री कृष्ण को विष्णु के अवतार के रुप में चित्रित किया है। यहाँ आस्था एवं विश्वास का मामला आ जाता है। अत: एक इतिहासकार को यहाँ अधिक टांग खिंचाई नहीं करनी चाहिए। यह धार्मिक गवेषणा एक दार्शनिक विश्लेषण का विषय है। जो उनके पास ही शोभित होता है।
हलधर युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ को ऐतिहासिक मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होती है। वह स्वयं में एक मूल्यांकन ही होता है। फिर ऐतिहासिक सूत्र के मध्य गुजरना अधिक अच्छा रहता है।
(१) राजनैतिक जीवन इस युग में राजतंत्र एक सुदृढ़ अवस्था में था।  राज्य अपने सीमाओं के विस्तार एवं एक छत्र राज्य के लिए अभियान चलाते थे। चक्रवर्ती सम्राट बनने की परंपरा विश्व के सभी सम्राट के मनो मस्तिष्क में दिखाई दी है।
(२) सामाजिक जीवन इस युग का सामाजिक जीवन एक वंश परंपरा को ग्रहण कर लिया था। व्यक्ति अपनी माता , पिता, पितामह एवं पूर्वजों के नाम पर परिचय देने में गर्व महसूस करने थे। बहुपत्निक, बहुपतिक, अन्तर्जातिय विवाह एवं निरोध प्रथा के प्रचलन था। इस युग में नारी स्वाधीन थी लेकिन राजनैतिक मामलों में प्रभुत्व कम था। इस युग में जाति व्यवस्था के भी विद्यमान होने के प्रमाण हैं।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में महासंभूति श्री कृष्ण ने धर्म को पुनः परिभाषित किया था। विश्व के सभी स्थानों पर अलग अलग धार्मिक परंपराओं का विद्यमान होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। तंत्र एवं वैदिक दोनों प्रकार की उपासना पद्धति विश्व की सभी सभ्यताओं में मिलता था। इस युग में धर्म को लेकर दार्शनिक गवेषणा भी खूब अधिक प्रचलित हुई थी। विश्व की सभी सभ्यता में धर्म के दार्शनिक मूल्य दिखाई देते हैं।
(४) आर्थिक जीवन इस युग में खेती तथा खेती पर आधारित उद्योग, विभिन्न धातु अधातु उद्योग, व्यापार विनिमय तथा अन्य व्यवसायिक श्रेणियां व्याप्त थी। इस युग के नायक हलधर उर्फ बलराम उच्च कोटि के अभियंता थे। जो खेती की उच्च तकनीकियों के, भवन, नगर निर्माण में दक्ष थे। विश्व भर अच्छे अभियंता एवं चिकित्साचार्या के मौजूद होने के प्रमाण हैं। विज्ञान एवं गणित भी बहुत अधिक विकसित अवस्था में थी। यांत्रिक क्षेत्र भी उन्नत अवस्था में था।
(५) मनोरंजनात्मक दशा मनोरंजन के लिए रंगशाला, धुर्त, क्रीड़ा, आखेट, विश्व विजय अभियान एवं मल युद्ध इत्यादि आयोजित होते थे। जन साधारण में उत्साह सर्जन करने के लिए उत्सव का आयोजन होता था।
(६) विश्व को देन इस युग विश्व को सभ्यता एवं संस्कृति प्रदान की है। जिस में आचार-विचार, कला-विज्ञान एवं अन्य सभी क्षेत्रों का विकास आ जाते है ।
          यह युग समाज चक्र के अनुसार तृतीय क्षत्रिय युग था तथा भारतीय परम्परा के काल विभाजन में द्वापर युग का शंखनाद हुआ था। अब तक विश्व इतिहास में समाज चक्र दो बाहर पूर्ण घुमा था। द्वितीय परिक्रान्ति के बाद एक नये समाज चक्र की यात्रा प्रारंभ हुई थी। द्वापर युग मूलतया ज्ञान विज्ञान एवं बौद्धिक विकास के आधार विभिन्न परिचय विश्व को देता है इसलिए इसे विप्र प्रदान समाज चक्र कहा जाता है। जिसमें विभिन्न युग चलयमान होते है। भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास में विप्र ऋषि, क्षत्रिय ऋषि, वैश्य ऋषि, शूद्र ऋषि, विप्र योद्धा, क्षत्रिय योद्धा, वैश्य योद्धा, शूद्र योद्धा, विप्र व्यवसायी, क्षत्रिय व्यवसायी, वैश्य व्यवसायी एवं शूद्र व्यवसायी होने का उल्लेख मिलता है। अत: मोटे रुप से एवं सूक्ष्म रुप से समाज चक्र घूर्णन करता है। समाज विश्लेषकों की सबसे बड़ी भूल यहाँ दृष्टिगोचर होती है कि द्वापर युग यही विराम देते हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है यह द्वापर युग शुरुआत है। आगे के बुद्ध युग एवं कल्लि युग इसी परिधि में है।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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