विश्व इतिहास का द्वितीय अध्याय
कूर्म ( कच्छप) युग- द्वितीय संभूति
क्षीरसागर में जीवों की हलचल धरती को आनन्दित करती थी। जब कोई जीव क्रीड़ा करता हुआ किनारे
की ओर चल आता था। धरती माँ का जी उसे अपने गोद में उठाने के लिए मचल जाता था। ज्योंही अपने बाहें
फैलाकर गोदी में उठाने की मनचाहा होती। जीव पुनः सागर की गहराइयों में चल जाता है। यह देख धरती माँ
को आनन्द से अधिक सन्तति को स्पर्श करने का दर्द होता था। एक दिन गहरी निद्रा में सो रही धरती के बदन
पर कुछ गुदगुदी होने लगी। इस खुशनुमा एहसास ने नवचेतना का संचार किया। ज्यौंही आंखें खोलें तो देखा कि
कोई पथ भूले राहगीर की भाँति कोई जीव धरती माता के बदन पर उचल कूद कर रहा था। पल झपकते ही वह
सागर की गहराइयों में चला गया। जी हाँ हम बात कर रहे हैं। उभयचर जीवों के युग की। जलीय जीवों के बाद
सृष्टि विकास के में उभय वर्गीय जीवों का युग आता है। जो जल एवं थल दोनों पर रह सकते हैं। विश्व इतिहास
में इसे द्वितीय अध्याय के रुप में चुना गया। यह विष्णु की द्वितीय संभूति कच्छप के रुप में चित्रित किया गया। कच्छप उभयचर जीवों का प्रतिनिधित्व करता है।
कथा में कहा गया कि देवगण एवं दैत्यों द्वारा सागर मंथन में भूगर्भ घस रहे पर्वतराज को अपने पीठ पर धारण करने के लिए इस संभूति का वरण किया गया। कथा की सत्य को जांचे बिना एक बात को रेखांकित करता हूँ। मनुष्य के चलने की गति में विवेकपूर्ण निर्णय की गति को रेखांकित करता है। चर्य एवं अचर्य पर विचार कर चर्य कार्य करने होते हैं। यहाँ भाव प्रवण गतिधारा पर विवेक की लगाम है। इसे विचार पूर्ण
मानसिकता कहा जाता है। इसके लिए कठोर निर्णय शक्ति एवं मानसिकता की आवश्यकता होती है। जिसका
प्रतिनिधित्व कुर्म जीव करता है। भावावेश में चलना मन तरलता का द्योतक है। इसके वाद भावुकता से उपर
उठकर गंभीरता को धारण करता है। इस क्रिया के मध्य मन का मंथन होता है। उसमें सार तत्व उपर आ जाता
है। साधुजन उस को ग्रहण कर लेते है। अन्य मट्ठे को विवाद करते रहते है। इस मंथन में लोक हितार्थ विष भी
पान करना पड़ा तो सत पुरुष पाव पीछे नहीं रखते है। इस मनोविज्ञान को चित्रित करता विश्व इतिहास का
द्वितीय पन्ना।
मानसिक गति के अनुकूल ही भौतिक जगत में भी काल रेखाए उरेखित हुई है। सरीसृप एवं मेंढक वर्गीय
जीवों का यह युग कुछ स्थायी भू मंडल पर रहने वाली प्रजातियों का भी विकास करता है। पादप एवं पक्षी वर्ग
की प्रजातियों के विकास में यह युग महत्वपूर्ण है।
कूर्म युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन ➡ मत्स्य युग से कुछ उन्नत वर्ग के जीवों का युग था लेकिन बौद्धिक क्षेत्र से कोटिशः कदम दूर थे। यद्यपि इस युग का मूल्यांकन करने वाले साक्ष्य उपलब्ध नहीं है तथापि इस वर्ग के जीवों का मानसिक विकास ऐतिहासिक मूल्यांकन के लिए पर्याप्त आधार है।
(१) राजनैतिक जीवन ➡ यह युग स्वदेश, परदेश, प्रदेश तथा क्षेत्रीयता को समझने का मजबूत आधार है।
जलीय जीवों के लिए जल स्वदेश व थल परदेश तथा थलचरों के विपरीत प्रतिक्रिया है। उभयचर के प्रदेश गमन
के तुल्य ही है। इसके अतिरिक्त जल-थल के अलग - अलग परिवेश क्षेत्रीयता को रेखांकित करता है।
(२) सामाजिक जीवन ➡ उभयचर वर्गीय जीवों में संवेदना का जागरण दिखाई देता है। गंध तन्मात्र के माध्यम
से माता एवं संतान में एक विशेष किस्म का आकर्षण दिखाई देता है। कच्छप वर्ग की मादाएँ अंडे देकर जल की
गहराइयों में जाकर बैठ जाती है। शिशु कछुआ गंध तन्मात्रा के माध्यम से मातृ कछुए को पहचान जाती है।
उनके साथ समूह में रहने की प्रकृति है। यह सामाजिकता का चिन्ह है।
(३) धार्मिक जीवन ➡ कच्छप युगीन धार्मिक जीवन की कछुए का हिन्दू धर्म स्थलों सबसे अग्रणीय स्थान पर
स्थापित करने से महत्ता दिखाई देती है। कछुआ की भाँति योगी सभी बाह्य वृत्तियों को भीतर समावेश करने से आत्मिक विकास की ओर बढ़ता है।
(४) आर्थिक जीवन ➡ इस युग में जीव अपनी प्रजातियों पर हमला नहीं करता। शाकाहार के प्रति रुझान
दिखाई देता है। शिशु के खाद्यान्न व्यवस्था करने की मानसिकता का स्पष्ट विकास नहीं हुआ था। लेकिन देखभाल की प्रारंभिक वृत्ति विकसित अवस्था में थी।
(५) मनोरंजनात्मक अवस्था ➡ उभयचर, सरीसृप एवं नभचर वर्ग के जीवों की रंग बिरंगी दुनिया अपने आपमें
मन को रंजीत कर देती है। इनकी क्रीड़ा एवं रचना प्रकृति की मनुष्य को अनुपम देन है।
(६) विश्व को देन - समुद्र मंथन की अवधारणा से ज्ञात होता है कि रत्न के समुद्र के गर्भ होने की उपादेयता
स्वीकार्य है। स्थल पर प्राणी जगत को स्थापित करना इस युग की सबसे बड़ी देने है।
कच्छप युग में पहली बार जीव एक सरदार के अधीन समूहित हुए। यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत में
प्रथम क्षत्रिय युग है। भारतीय चिन्तन का सतयुग शैशवावस्था से किशोर एवं युवा अवस्था में आता है।