विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 08


👑 श्रीराम युग- सप्तम् संभूति 👑 ⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳⛳
              ग्राम स्वराज युग संभूति के श्री राम युग अथवा रामराज्य के नाम से जाना जाता है। भृगुपति अर्थात ऋषि युग के बाद ग्राम राज्य अस्तित्व में आये। यह ग्राम राज्य सामाजिक आर्थिक इकाई के रुप में कार्य करते है। ऋषि युग के उत्तर काल विभिन्न गुरुकुल के आचार्यों द्वारा आदर्श समाज के चित्रण को लेकर नाटकों का मंथन किए जाते थे। वशिष्ठ गुरुकुल का रामराज्य नाटक सबसे अधिक ख्याति पाई। विश्वामित्र गुरुकुल के द्वारा सीता स्वयंवर ने भी ख्याति प्राप्त की। इसके बाद राम को नायक रुप में चित्रित एक के बाद एक  नाटक का मंथन होने लगे। इसलिए यह युग को राम युग के नाम जाना जाने लगा।
      तंत्र में पृथ्वी तत्व सोने की लंका, जलतत्व को सागर पर सेतु बंधन, अग्नि तत्व को बालि वध, वायु तत्त्व को हनुमान, आकाश तत्व को शब्द तन्मात्र शबरी , नासिक के ललना चक्र गंध से जोड़ते जटायु , आज्ञा चक्र को पंचतत्व की पंचवटी, गुरु चक्र को चित्रकुट एवं सहस्रार चक्र अयोध्या। जिसके बारे में कहा जाता है कि साधना समर द्वारा अ योद्धय (अजेय) है। इस  अवस्था को अयोध्या के सांकेतिक नामों से चित्रित किया गया। जीवात्मा एवं कुलकुंडलिनी को सीताराम के रुप समझाया गया। कालांतर में तंत्र का राम विज्ञान एवं गुरुकुल के नाट्य राम चरित्र मिलकर रामायण के रुप में अस्तित्व में आए।
     बाल्मीकी द्वारा रचित रामायण को श्री राम युग का इतिहास लिखने का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। बताया जाता हैं कि बाल्मीकी जी ने श्री राम के जन्म से पूर्व इस गाथा को लिख दिया था। इसके कारण श्री राम पर काल्पनिक पात्र होने की आशंकाएँ व्यक्त की गई। मैंने इतिहास का लेखन कार्य आरंभ करने पूर्व ही स्पष्ट कर दिया था। कथाएँ आस्था एवं विश्वास के बिम्ब होते है। इनकी सत्यता जाँच करना मेरा विषय नहीं है।  इसके बाद श्री राम जी के चरित्र का भारतवर्ष एवं भारतवर्ष के बाहर भी विभिन्न भाषाओं में गाया गया। तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस ने सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल की है।
           श्री राम युग ग्राम राज्य सभ्यता का युग था। मानव ने इस युग में आते आते खेती एवं अन्य व्यवसाय में सिद्धहस्त हासिल कर ली थी। एक स्थान पर मनुष्य ने रहना प्रारंभ किया। सामाजिक जिम्मेदारियों को वहन करते आर्थिक विषय में अधिक रुचि लेने लगा। इस युग में विश्व में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक क्षेत्र को लेकर यह ग्राम राज्य अस्तित्व में आए। इन्होंने प्रशासनिक योग्यता भगवान सदाशिव द्वारा प्रतिपादित गण व्यवस्था से हासिल कर दी थी। चूंकि ग्राम स्वराज आर्थिक इकाई के केंद्र हुआ करते थे। अत: यह राज्य विशुद्ध वैश्य गणराज्य थे।
श्री राम युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन विश्व में जहाँ भी मानव सभ्यता का निर्माण हुआ था। वहाँ ग्राम इकाइयों के बाद नगरी सभ्यता का विकास हुआ था। इतिहास के कालक्रम के अनुसार 3000  से 4500 ईसा पूर्व का युग ग्राम स्वराज जो भारतीय सभ्यता में राम राज्य के नाम विश्लेषित किया गया।
(१) राजनैतिक जीवन  इस युग में राजनैतिक व्यवस्था सुव्यवस्थित रुप से लागू हो गई थी। राजा के चुनाव में योग्यता के मापदंड का ध्यान रखा जाता था। सभा, मंत्रीमंडल इत्यादि इकाइयों का गठन हो गया था। प्रशासनिक कार्यों में नारियों की भागीदारी के प्रमाण मिलते हैं। राज्य छोटी-छोटी जनगोष्ठी के बने थे।
(२) सामाजिक जीवन सुव्यवस्थित  सामाजिक परंपरा का गठन हो गया था। पुरुष एक से अधिक विवाह करता था। विधवा विवाह की प्रथा विद्यमान होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। नारियों की स्थिति सम्मान जनक होने के प्रमाण उपलब्ध हैं।
(३) धार्मिक जीवन इस युग में धर्म के क्षेत्र में व्यापक जाग्रति थी। पूजा पद्धति के विभिन्न तरीके उपलब्ध थे। इस युग में विश्व के लगभग सभी स्थानों पर मूर्ति पूजा के प्रमाण उपलब्ध नहीं है। जीवन जीने के कुछ नैतिक मानदंड को लेकर चलने वाले का समाज में मान एवं सम्मान था।
(४) आर्थिक जीवन यह युग सबसे अधिक आर्थिक जगत में विकास की गाथा लिखता है। आर्थिक जगत की दृष्टि यह युग विश्व इतिहास का स्वर्ण युग था। क्षेत्रीयता विभिन्नता के आधार आर्थिक इकाई को लेकर राज्य गठित थे। व्यापार के परंपरा सुव्यवस्थित संचालित था। उद्योग वही स्थापित किये गये थे। जहां कच्चा माल उपलब्ध हो जाता था।
(५) मनोरंजनात्मक दशा श्री राम युग में सभ्यता का काफी विकास हो गया था। मनोरंजनात्मक क्षेत्र भी काफी विकसित हो गया था। रंगमंच पर नाट्य का मंथन एवं युद्ध कौशल की करतब मुख्य आकर्षण हुआ करते होंगे। शिक्षा पद्धति का भी व्यवस्थित पद्धति लागू की गई थी।
(६) विश्व को देन इस युग विश्व को जीवन जीने की आदर्श शैली प्रदान की तथा भक्ति को एक जन आंदोलन में रूपांतरित कर दिखाया।
         श्री राम युग प्रगतिशील उपयोग तत्व द्वारा प्रतिपादित समाज चक्र में द्वितीय वैश्य युग की परिधि में रखा जाता है तथा भारतीय चिन्तन इस त्रेतायुग का अन्तिम पायदान बताता है। इसके बाद पुनः समाज चक्र घूर्णन की अवस्था में आता है। यह विश्व इतिहास की द्वितीय परिक्रांति हुई। उसके बाद विश्व को एक युग संधि गुजरना पड़ा, जो तृतीय शूद्र युग का शंखनाद था।
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लेखक - श्री आनन्द किरण
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पहले भगवान या फिर दुकान ??
जयपुर में एक नाई की दुकान पर बाल कटवा रहा था। नाई एवं पास की कुर्सी पर दाढ़ी बना रहे एक भाई के बीच धर्म चर्चा चल रही थी। इस चर्चा का एक निष्कर्ष निकाला पहले भगवान, फिर दुकान। जब पास यह चर्चा यदि कोई लेखक सुना रहा हो तो अवश्य ही बाल की खाल निकालने के कलम से पेपर कुरसने लग जाता है। मैं भला इतना अच्छा विषय छोड़ कैसे सकता था। मेरा ध्यान विषय की  में डुबकी लगाने लगा। भगवान एवं दुकान दोनो शब्द से परिचित था। भगवान के नाम पर दुकानें चलाना आजकल के युग की एक आम परिपाटी हो गई है लेकिन यहाँ तो दुकान से पहले भगवान की महत्ता को अंगीकार किया जा रहा है। दुकान धंधा अच्छा चले इसलिए भगवान की पूजा धूप करते तो मैंने सहस्रजन को देखा है।  मेरे जीवन का यह प्रथम वाक्याय था कि एक व्यक्ति भगवान एवं दुकान पृथक मानते हुए भगवान को प्रधान एवं दुकान गौण स्थान पर रख रहा है। भगवान के लिए जगत को छोड़कर जाने वालों के सहस्र सुन रखे थे लेकिन यहां दोनों के महत्व को अंगीकार करते हुए आर्थिकता से पहले आध्यात्मिकता को स्थापित किया जाने बात थी।
         धार्मिक रूढ़िवादीता आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे का विपरीत रास्ता बताते हैं। वस्तु जगत में न तो आध्यात्म अर्थ शक्ति से पृथक रहा है, न ही अर्थ शक्ति आध्यात्म के बिना चल पाई है। साम्यवादी एवं नास्तिकवादी विचारक आध्यात्म को अर्थ  जगत के लिए उपयुक्त नहीं बताते हैं लेकिन वे अपने आत्मिक पटल से कभी भी आध्यात्म को ओझल नहीं किया है । वस्तुतः आध्यात्म एवं अर्थ शक्ति में कुछ संबंध है। जिसे समझे बिना विषय पूर्णतया को प्राप्त नहीं हो सकता है। आर्थिकता चकाचौंध में मनुष्य आध्यात्म को भूल जाता है लेकिन घरा की वास्तविकता उसे पुनः लाती है। कई बार समय रहते मुसाफिर संभल जाता है तथा कभी-कभी संभलने से पूर्व ही वक्त निकल जाता है । अत: हम कह सकते हैं कि आध्यात्म एवं आर्थिकता एक दूसरे की पूरक शक्तियां हैं।
       अर्थ शक्ति एवं आध्यात्म दोनो को गति एक दूसरे के विपरीत होने पर भी  यह कभी भी एक दूसरे के विरोध में नहीं है। आध्यात्म अन्त: जगत में समृद्धि को लाता है जबकि अर्थ शक्ति बाह्य जगत में रिद्धि सिद्धि का अध्याय लिखती हैं। आंतरिक अशान्ति बाह्य शान्ति को खतरे में डाल देती  तथा बाह्य अशान्ति अन्त जगत को प्रभावित कर लेते हैं। किसी भी समाज अथवा देश के संतुलित एवं प्रगतिशील विकास के लिए आध्यात्म प्रधान अर्थनीति की आवश्यकता होती है।
       विकास यदि एक आयामी होता तो अवश्य ही दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। विकास समग्रता के आधार स्तंभ पर स्थापित है। भौतिक विकास के साथ मानसिक, आचार विचार एवं चिन्तन में भी विकास होता है। ठीक इसी प्रकार आत्मिक विकास के रिद्धि सिद्धि भी पीछे पड़ने लगती है।
         विश्व मंच पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के आर्थिक मूल्य आध्यात्म प्रेरित थे। उसके बाद श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा आध्यात्म प्रेरित अर्थ व्यवस्था प्रदान की गई है। इस अर्थव्यवस्था का नाम प्रणेता ने प्रगतिशील उपयोगी तत्व ( प्रउत) प्रदान करते हैं ।
      प्रउत व्यवस्था नाई दुकान पर चर्चा कर रहे ज्ञानियों का सही उत्तर हो सकता है। यह न्यूनतम आवश्यकता की ग्रारण्टी देकर आर्थिकता आध्यात्म को संरक्षण प्रदान करती तो विवेकपूर्ण वितरण की पद्धति, संग्रहण की वृत्ति पर समाज की लगाम एवं संभावना व सामर्थ्य की सुसंतुलित एवं अधिकतम उपयोग आर्थिक जगत आध्यात्म की आवश्यकता को अंगीकार करती है।
          प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता को प्रमाणित करने के लिए दर्शन की उक्ति आत्म मोक्षार्थ जगत हितायश्च में निहित है । आत्म मोक्ष के लिए भगवान तथा जगत हित के लिए दुकान का साथ साथ होना आवश्यक है।
        वह व्यष्टि प्रथम स्थान पर भगवान को रखकर यह कहना चाहता है कि मनमनुष्य जीवन में आध्यात्मिकता की प्रधानता है। अन्य कार्य अनावश्यक नहीं है अपितु द्वितीयक स्थान पर है। एडम स्मिथ एवं कॅार्ल माक्स इत्यादि ने मनुष्य को आर्थिक प्राणी बताकर एक दिशाहीन एवं प्रकृत गतिधर्म के विरुद्ध चिन्तन दिया। भारतीय चिन्तन में एक प्रमाणित विज्ञान है। जिसमें मनुष्य को आध्यात्मिक प्राणी बताया है। मनुष्य की जीवन यात्रा सृष्टि के उषाकाल से ही पूर्णत्व की ओर रही है। उस व्यष्टियों की चर्चा सहज में मनुष्य की जीवन यात्रा को चित्रित कर रही थी।
           मनुष्य की कर्मधारा सदैव अनन्त सुख की ओर रही है। यह अनन्त सुख अथवा आनन्द पूर्णत्व में निहित है। पूर्णत्व आध्यात्मिकता की संपदा है। आर्थिक शक्ति का कितना भी विस्तार क्यों न हों पूर्ण नहीं हो सकती है।
       वह हसते हसाते ब्रह्म ज्ञान दे गया। ऋषि, मुनि व देवगण के जीवन का सारा बाल कटिंग की दुकान पर सहज एवं सरलता से मिल रहा था। उसे एक लेखक भला कैसे खोने देता है। यह ज्ञान विज्ञान आप मेरे लिए उसे ऐसे ही अविरल बहने दीजिए। जिसे आवश्यकता होगी ले लेगा । अन्यथा बहता सच्चे जिझासु के पास पहुँच जाएगा।
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श्री आनन्द किरण
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मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वरचित