भारतवर्ष में एक वर्ष बाद आम चुनाव होने वाले है। इसलिए आम आदमी की जिज्ञासा रहती है कि अबकी बार
मेरा  वोट किस राजनैतिक दल को देने से देश एवं समाज के लिए हितकारी सिद्ध हो सकता है।
राष्ट्रनेता संत श्री विनोबा भावे की उक्ति - "चुनावों में आत्म प्रशंसा, परनिंदा एवं मिथ्या भाषण होते हैं" को
समक्ष रखकर विषय को आगे ले चलता हूँ। चुनावी मौसम में प्रत्येक राजनैतिक दल एवं राजनेता स्वयं को
शत प्रतिशत सत्य प्रमाणित करने की कोशिश करता है तथा विरोधी को शत प्रतिशत गलत बताने का हर संभव
प्रयास करता है। इतने पर भी काम नहीं होने पर इधर-उधर की बातें कर भ्रम फैलाने से भी नहीं चूकते है।
राजनीति के इस दूषित माहौल में किसी भी एक दल को श्रेष्ठ बताना विषय के साथ न्याय नहीं हो सकता है।
महान सामाजिक व आर्थिक चिन्तक एवं युगप्रवर्तक श्री प्रभात रंजन सरकार की लोकतंत्र पर
एक राय - "लोकतंत्र एक मूर्खतंत्र है। यदि एक विद्यालय में लोकतंत्र स्थापित कर दिया जाए तो सदैव बहुमत
विद्यार्थियों का रहता है तथा इस बहुमत ने यह फैसला ले लिया कि हमारी उत्तर पुस्तिका हम ही जांच करेंगे तो
परीक्षा तंत्र ही अर्थहीन हो जाएगा।" को भी समक्ष रखकर विषय पर मंथन करते है। समाज नीति में कहा जाता कि सौ मूर्खों पर एक विद्वान भारी लेकिन राजनीति सौ मूर्खों का दामन छोड़कर एक विद्वान का हाथ नहीं थाम सकती है। इस परिस्थिति में किसी एक राजनैतिक दल को श्रेष्ठता की जय माला पहनना एक दुष्कर कार्य है। चूंकि विषय चल पड़ा है इसलिए विषय के साथ न्याय तो करना ही होगा।
राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता का एक मानक पैमाना तय किए बिना विषय  के साथ सही न्याय नहीं कर सकते है।
हम सभी जानते हैं कि यह पैमाना तय करने का अधिकार कानून का है, लेकिन लोकतंत्र ने यह अधिकार जनता
को दे रखा है तथा  जनता राजनीति को अपने सभी अधिकार दे देती है। राजनीति जनता नचाती रहती है तथा
यही से तो समस्या ने जन्म लिया है कि कौनसा राजनैतिक दल श्रेष्ठ?
संविधान सभा को राजनेताओं के लिए एक आचरण संहिता एवं राजनैतिक दलों के लिए एक मर्यादा की लक्ष्मण
रेखा खींच लेनी चाहिए थी तो उक्त समस्या के स्थान पर प्रश्न होता कि किस उम्मीदवार को वोट दिया पाए?
जिसका उत्तर मतदाता  सहज खोज लेता। यदि यह प्रश्न आम आदमी के समक्ष होता तो इतना सोचना नहीं
पड़ता। राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता प्रमाणित करने का अर्थ यह है कि उस दल की विचारधारा के आधार पर राष्ट्र
एवं समाज का निर्माण करना। यह कार्य तो संविधान सभा है। इसलिए  समाज को प्रथम एक गतिशील एवं
जीवित संविधान सभा देनी होगी। जो मूल्यों का निर्धारण, संरक्षण व संवृद्धन करने का कार्य करें।
यह हो जाने पर राजनैतिक विचारधारा से आम आदमी को राहत मिल जाएगी लेकिन राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता
से पीछा नहीं छूट सकता है। समस्या को अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
राजनैतिक दल का रहना अर्थात एक विचारधारा का रहना है। संविधान सभा यह तय कर सकती है कि राजनैतिक
दलों को नव्य मानवतावादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था के सूत्रों को लेकर एक कार्य योजना निर्माण
करना एवं इसे लेकर जनता के बीच में जाना एवं जनादेश लेकर आना। जनादेश लेकर आने वाला राजनैतिक दल
यदि अपने उत्तरदायित्व का निर्धारित समय सीमा में पूर्ण नहीं करें तो  संविधान सभा को उसके भविष्य का
निर्णय करने का भी अधिकार रखना चाहिए। यदि यह हो जाता है तो राजनैतिक दल की श्रेष्ठता की समस्या का
समाधान सरल हो जाएगा। जिसका समाधान जनता के पास मिल सकता है लेकिन स्थायी समाधान के लिए
समस्या को ओर अधिक गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।

यदि  एक राजनैतिक दल की कार्य योजना अच्छी है, लेकिन उसको क्रियान्वयन करने वाला मात्र एक ही
समयावधि को लेकर आता है तथा समाज  को तीन तेरह करके चले जाते हैं तो समस्या ओर भी गंभीर रुप धारण
कर लेती है। इसलिए राजनेताओं की आचरण संहिता को गंभीरता से लेना होगा। नैतिकवान राजनेताओं की
आवश्यकता को स्वीकार किया बिना राजनैतिक दलों की श्रेष्ठता अर्थहीन  है। नैतिकता के पीछे एक आंतरिक बल
की आवश्यकता है। इसको आत्मिक अथवा आध्यात्मिक बल कहते है। आध्यात्मिकता एवं नैतिकता एक दूसरे
की पूरक एवं सहयोगी शक्ति के रुप लेने से काम चलेगा। अर्थात राजनेता को आध्यात्मिक नैतिकवान होना ही
होगा। आध्यात्मिक नैतिकवान नेता ही समाज को श्रेष्ठता की ओर ले जा सकते हैं। राजनीति को पंथ, सम्प्रदाय
एवं मत मतान्तर से एतराज था। इसकी सजा समाज को देना उचित नहीं है। कर्तव्य , दायित्व तथा धर्म से दूरी
बनाना एक गलत दिशा थी। समय रहते इस भूल को नहीं सुधार गया तो व्यवस्था कितनी भी अच्छी क्यों न हो
वह अच्छाई को प्रदर्शित नहीं कर सकती है। श्रेष्ठ राजनैतिक व्यवस्था के लिए उन्नत एवं सर्वांगीण,  सामाजिक
सोच तथा मजबूत एवं प्रगतिशील आर्थिक सूत्र की आवश्यकता के साथ आध्यात्मिक नैतिकवान नेतृत्व की
आवश्यकता है।
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