हम प्रउत विचारधारा के साथ सभ्यता के स्वर्णिम युग में प्रवेश करने जा रहा है। इस विचारधारा का जन्म भारतवर्ष की धरती पर हुआ है। इसलिए विश्व सभ्यता प्रथम अध्याय में भारतवर्ष में लिखकर आगे बढ़ते हैं। वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था को संचालित करने वाले राजनैतिक दलों के सिद्धांत एवं नीतियों से उभरने वाली भारतवर्ष की तस्वीर को देखकर हम प्रउत द्वारा बनाए जाने वाले भारतवर्ष में प्रवेश करते है। प्रउत विचारधारा एक विशुद्ध नूतन विचारधारा है। जिसका राजनैतिक दलों की पृष्ठभूमि एवं कार्यप्रणाली से दूर-दूर तक का कोई संबंध नहीं है, प्रउत विचारधारा को लेकर चलने वाले योद्धाओं को भारतवर्ष के राजनैतिक परिदृश्य सुस्पष्ट समझकर एवं देखकर प्रउत व्यवस्था को सफलतापूर्वक स्थापित करने के समर के लिए कमर कसनी हैं। यह सत्य है प्रउत विचारधारा एक विश्व सरकार का ढांचा लेकर चलती है। प्रउत विचारधारा को
स्थापित करने के लिए सदविप्रों को विश्व सरकार परिवेश तैयार करना होगा। यह नव्य मानवतावादी सोच पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा संचित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। इसके लिए न्यूनतम परिवेश विश्व सरकार की अवधारणा है। विश्व सरकार की अवधारणा प्रस्तुत करने से पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में चलयमान सामाजिक आर्थिक परिदृश्य एवं इसको संचालित करने वाले राजनैतिक परिवेश का अध्ययन करते हैं। इसी क्रम में प्रथम शुरूआत भारतवर्ष के राजनैतिक दलों के सिद्धांत, कार्य पद्धति एवं विचारधारा पर दृष्टिपात कर करते हैं। यहाँ एक बात याद रखनी होगी कि प्रउत व्यवस्था इनका विकल्प नहीं है अपितु प्रउत व्यवस्था एक संकल्प है। जो सर्वे भवन्तु सुखिन: के भारतवर्ष का निर्माण करेगी।
भारतवर्ष विश्व गुरु था एवं पुनः विश्व गुरु की मंजिल को प्राप्त करना चाहता है तो प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्य है। प्रउत विचारधारा अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील आयामों की द्योतक है। यह आध्यात्मिकता पर आधारित विश्व की प्रथम एवं एकमात्र आर्थिक सिद्धांत है। यह विचार प्रकृत विज्ञान के अनुकूल समाज की गतिधारा एवं विचित्रता को अंगीकार कर सम सामाजिकता की आधार आर्थिक सूत्रों को परिभाषित करता है। इस अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह है यह सर्वजन के हित एवं सर्वजन सुख पर आधारित अर्थव्यवस्था है।
भारतवर्ष के इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक व आर्थिक संपदा तथा सभ्यता व संस्कृति में विद्यमान तथ्यों को अवलोकन करने से ज्ञात हुआ कि इस धरा पर भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पदा से समृद्ध राष्ट्र था, हैं
एवं भविष्य में भी इस विपुल संपदा का धनी रहने की संभावना स्पष्ट दिखाई देती है। राजनैतिक इच्छाशक्ति की विवेकहीनता के कारण समृद्ध राष्ट्र को कंगाल सदृश बना दिखाई दे रहा है वस्तुतः भारतवर्ष कभी भी दरिद्र न था, है एवं रहेगा। मात्र सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिदृश्य सही नहीं होने के कारण भारतवर्ष को इस घृणित उपमा को धारण करना पड़ रहा है।
स्वतंत्र भारत के राजनैतिक परिदृश्य का अवलोकन कर हम प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्यता पर विचार करते हैं।
स्थापित करने के लिए सदविप्रों को विश्व सरकार परिवेश तैयार करना होगा। यह नव्य मानवतावादी सोच पर आधारित आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा संचित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है। इसके लिए न्यूनतम परिवेश विश्व सरकार की अवधारणा है। विश्व सरकार की अवधारणा प्रस्तुत करने से पूर्व विश्व के विभिन्न देशों में चलयमान सामाजिक आर्थिक परिदृश्य एवं इसको संचालित करने वाले राजनैतिक परिवेश का अध्ययन करते हैं। इसी क्रम में प्रथम शुरूआत भारतवर्ष के राजनैतिक दलों के सिद्धांत, कार्य पद्धति एवं विचारधारा पर दृष्टिपात कर करते हैं। यहाँ एक बात याद रखनी होगी कि प्रउत व्यवस्था इनका विकल्प नहीं है अपितु प्रउत व्यवस्था एक संकल्प है। जो सर्वे भवन्तु सुखिन: के भारतवर्ष का निर्माण करेगी।
भारतवर्ष विश्व गुरु था एवं पुनः विश्व गुरु की मंजिल को प्राप्त करना चाहता है तो प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्य है। प्रउत विचारधारा अर्थव्यवस्था के प्रगतिशील आयामों की द्योतक है। यह आध्यात्मिकता पर आधारित विश्व की प्रथम एवं एकमात्र आर्थिक सिद्धांत है। यह विचार प्रकृत विज्ञान के अनुकूल समाज की गतिधारा एवं विचित्रता को अंगीकार कर सम सामाजिकता की आधार आर्थिक सूत्रों को परिभाषित करता है। इस अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता यह है यह सर्वजन के हित एवं सर्वजन सुख पर आधारित अर्थव्यवस्था है।
भारतवर्ष के इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक व आर्थिक संपदा तथा सभ्यता व संस्कृति में विद्यमान तथ्यों को अवलोकन करने से ज्ञात हुआ कि इस धरा पर भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सम्पदा से समृद्ध राष्ट्र था, हैं
एवं भविष्य में भी इस विपुल संपदा का धनी रहने की संभावना स्पष्ट दिखाई देती है। राजनैतिक इच्छाशक्ति की विवेकहीनता के कारण समृद्ध राष्ट्र को कंगाल सदृश बना दिखाई दे रहा है वस्तुतः भारतवर्ष कभी भी दरिद्र न था, है एवं रहेगा। मात्र सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक परिदृश्य सही नहीं होने के कारण भारतवर्ष को इस घृणित उपमा को धारण करना पड़ रहा है।
स्वतंत्र भारत के राजनैतिक परिदृश्य का अवलोकन कर हम प्रउत विचारधारा की स्वीकार्यता अनिवार्यता पर विचार करते हैं।
(1) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ➡ सन् 1857 की सैनिक क्रांति एवं कतिपय समाज सुधार आंदोलनों ने शिक्षित
भारतीयों के मन में अपने अधिकार एवं स्वाभिमान का जागरण किया। इन युवाओं संगठित होने की आवश्यकता महसूस की तथा अंग्रेजों ने संभावित विद्रोह को टालने के लिए शिक्षित भारतीय के संगठन की राय के आधार पर कतिपय सुविधा भारतीय समुदाय को उपलब्ध करवाने की आवश्यक महसूस की। जिसकी बदौलत सन् 1885 को भारतवर्ष को कांग्रेस पार्टी मिली। अंग्रेजों के पास संवैधानिक माध्यम से परिवर्तन राह देने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। ताकि वे अपने राज्य निर्विध्न चला सके। यदि कांग्रेस का आंदोलन आर्थिक स्वाधीनता लेकर चला होता तो अंग्रेज भी चले जाते एवं भारत आर्थिक समृद्धि की राह पर बढ़ जाता। कांग्रेस के राजनैतिक सुधार से स्वाधीनता की यात्रा के क्रम में एक ओर साम्प्रदायिक राजनीति का जन्म
मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा के रुप में हुआ। दूसरी ओर अहिंसा की हठी धारणा के विरुद्ध क्रांतिकारी, खून देने एवं लेने विचारधारा का जन्म हुआ। इसके स्थान पर आर्थिक आजादी की लड़ाई लड़ी जाती तो एक सुदृढ़ भारत प्राप्त होता। स्वाधीनता के बाद एक राजनैतिक पार्टी के रुप में कांग्रेस ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के नाम एक छल
किया तथा यूरोपीय दूषित आर्थिक चिन्तन को भारतवर्ष दिलोदिमाग में भरने का प्रयास साबित हुआ। मिश्रित
अर्थव्यवस्था को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित आर्थिक मूल्यों एवं उसकी संचालन पद्धति से सिंचित
करने का प्रयास एक समृद्ध भारतवर्ष की ओर ले जाता। जन गण मन में नैतिकता का संचार नहीं करने कारण
राष्ट्र नेता भक्षक बनते गए तथा कांग्रेस जनता की साख खोती गई। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस अपनी दोषपूर्ण सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक नीतियों के चलते जातिवादी, क्षेत्रवादी एवं साम्प्रदायिक विचारधारा के समक्ष अपना अस्तित्व नहीं बसा पाई। प्रथम बार जब कांग्रेस के हाथ से निकल कर तमिलनाडु क्षेत्रीयता की भेंट चढ़ा, तब कांग्रेस ने मंथन किया होता तो अवश्य काम बनता। कांग्रेस की दीर्घ निंद्रा ने भारतवर्ष अपने हाथ से
खिचकने दिया। लोकतंत्र जन आकांक्षाओं की पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। कांग्रेस जन आकांक्षाओं को समझने में निष्फल रही। यदि कोई दल जन आकांक्षाओं पर समाज एवं राष्ट्र हित की तरह मोड़ देता है तो वह दल राजनैतिक अस्तित्व कुछ समय के लिए बसा सकता है। जन आकांक्षाओं में सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख की
अभिलाषा में सिंचित करने से आदर्श व्यवस्था का निर्माण किया जा सकता है।
(2) कम्युनिस्ट पार्टी ➡ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान यूरोप की साम्यवादी विचारधारा ने युवाओं को प्रभावित किया। कांग्रेस के समक्ष इस अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। केरल एवं बंगाल के लोगों का हृदय परिवर्तन करने में सक्षम हुए लेकिन यह अपने मूल आदर्श पर कभी भी काम नहीं कर सकी। कार्ल माक्स की रिलिजन से दूर रहने का संदेश भारतीय कम्युनिस्टों के समझ में नहीं आया तथा उन्होंने इसे धर्म और आध्यात्मिक के विरुद्ध खड़ा कर दिया। भारतीय जनमानस जिसने आध्यात्मिक को प्राण धर्म के रुप में अंगीकार किया हुआ है, उसने इसे आत्मा से अंगीकार नहीं किया, जिसके चलते साम्यवादियों का यह आंदोलन मुह के बल गिर गया। यदि यह भारतवर्ष में सफलीभूत हो जाता तो विश्व सभ्यता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता। इसके विपरीत साम्यवादी आंदोलन आध्यात्म एवं धार्मिक मूल्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करता तो धराशायी हो रही कांग्रेस के समक्ष मजबूत विकल्प बनकर खड़ा रहता।
(3) समाजवादी विचारधारा पर आधारित जनता पार्टी, जनता दल इत्यादि ➡ नेहरू जी की नीतियों से
असंतुष्ट कतिपय कांग्रेस नेताओं तथाकथित समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए इसका सबसे बड़ा विस्फोट जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में फूटा। यहाँ कांग्रेस को पदच्युत कर सत्ता पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा ने विभिन्न विचारधाराओं के मिश्रण करने की भूल की गई। यह भूल अल्पकाल में ही जनता पार्टी को तीन तेरह कर दिया। जनता दल समाजवाद की बजाए जातिगत गणित में उलझ गया और परिवारवाद व व्यक्तिवाद में बट गया। सामाजिक समरसता का सिद्धांत स्वार्थ में खो गया। समाजवादी सच्चे अर्थों में समाजवाद की लड़ाई लड़ते तथा सत्ता के गणित में नहीं उलझते तो अवश्य ही सत्ता देर से प्राप्त करते लेकिन आंदोलन अपने मूल उद्देश्य में सफलहोता। इनकी यह भूल समाजवाद के असामयिक मृत्यु का कारण बना।
(4) साम्प्रदायिक, जातिवादी एवं क्षेत्रवादी राजनीति ➡ अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति तथा कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति ने भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक राजनीति को प्रवेश दिया। अंबेडकर की आरक्षण सोच एवं कांग्रेस के जातिगत चुनावी गणित ने भारतीय राजनीति जातिवाद राजनीति को खड़ा होने दिया। राज्य एवं भाषाई नीति ने क्षेत्रवाद की राजनीति को पनपने का अवसर दिया। यह राजनीति कितनी
सफल रही यह बड़ा प्रश्न नहीं रहता है। बड़ा प्रश्न यह है कि इसने भारतवर्ष की महान सभ्यता एवं संस्कृति का
कितना नुकसान किया। राजनीति में इन तत्वों का पनपना लोकतंत्र पर मूर्खतंत्र के प्रभावी होने का परिणाम है। यदि कांग्रेस ने अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति का प्रति उत्तर तुष्टीकरण से नहीं दिया होता तो हमारे संस्कार साम्प्रदायिक सोच को दफना देते। ठीक इसी प्रकार अंबेडकर की आरक्षण की बैसाखी के सामने कांग्रेस नतमस्तक हुए बिना समाज संगठन को मजबूत करने पर ध्यान देती तो अवश्य ही जातिवाद जहर राजनीति में नहीं घुलता। राज्य के संदर्भ भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परंपरा के आधार पर आर्थिक इकाइयों का गठन किया जाता तो अवश्य एक मजबूत भारत का निर्माण करने में कांग्रेस सफल होती। मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा सभा, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी तेलुगू देशम् द्रविड़ मुनेत्र कडगम, अकाली दल , असमगण परिषद, नागाफंड इत्यादि इत्यादि राजनैतिक दल की मार भारतीय राजनीति को झेलनी पड़ रही है। यह बड़ी सोच के समक्ष स्वतः ही धूमिल होती नज़र आ रही है।
(5) राष्ट्रवादी एवं हिन्दूत्ववादी भारतीय जनता पार्टी ➡ पूर्व कांग्रेसी एवं हिन्दू महासभा के नेता डॉ केशवराव बलिराव हेडगेवार द्वारा पौषित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनैतिक शाखा जनसंघ अब भारतीय जनता पार्टी हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को लेकर चलती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दर्शन को लेकर चलने वाली भाजपा भारतीय राजनीति में इकलौती पार्टी हैं, जो अपनी अलग राजनीति विचारधारा को कारण
चर्चित रही है। इस पर साम्प्रदायिकता आरोप सदा लगा रहता है। वर्तमान में इसके नेतृत्व को हिटलर शाही नीति के अनुगामी कहकर आलोचना की जाती है। इस पार्टी के सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि शेष सभी का भारतीयकरण करना चाहती है लेकिन अर्थव्यवस्था के दोषपूर्ण सूत्र को कांग्रेस की भाँति ज्योंह का त्योंह धारण करके रखा है। यह दोष ही इस असफल करने में काफी है। अन्य दोष यह हिन्दूत्व के नाम पर भावजड़ता (Dogma) को बलपूर्वक पकड़ रखा है। यह एक स्वयं संघवादियों गले की हड्डी बन जाएगा। यह युग विश्व एक्कीकरण की ओर बढ़ रहा है। यहाँ राष्ट्रवाद को आर्थिक इकाई के रुप में परिभाषित कर लेकर चले तब तक स्वीकार्य हैं लेकिन जीवन मिशन एवं जीवन लक्ष्य के रुप लेकर चलना स्वयं भारतीय संस्कृति को आत्महत्या के विवश करने जैसा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह नीति भारतवर्ष की सभ्यता व संस्कृति के विपरीत जा रही है। इसके दुष्परिणाम जातिगत जहर उगलते आंदोलन एवं भारतीय मूल निवासी के नाम संगठित जन आर्य सभ्यता को तहस नहस करने को उतारू के रुप में दिखाई दे रहे हैं। कल तक जो तलवार इन्होंने हिन्दूत्व एवं राष्ट्रवाद को मजबूत करने के लिए धारण करवाइ थी। वही तलवार समाज व्यवस्था को ठीक नहीं करने के कारण वह जातिवाद एवं प्रदेशवाद की भेंट चढ़ रही है। भारतीय राजनीति का उपर्युक्त स्वरूप लगभग एक जैसी लकीर को थामें फकीर बन रहा है। कांग्रेस व
भाजपा एक ही सट्टे बट्टे है। किसी से भी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में निहित महान आदर्श एवं आर्थिक समृद्धि की कहानी नहीं लिखी जाएगी ।
यह कार्य करने के लिए समाज के दुख दर्द को अपने कंधे पर धारण करने के लिए प्राउटिस्टों को आगे आना होगा। यह प्रगतिशील सोच ही भारतवर्ष का स्वर्णिम भविष्य निखार सकती है।
प्रउत विचारधारा के समक्ष चुनौतियां ➡ प्रउत व्यवस्था को भारत का ताज फूलों का ताज के रुप में नहीं मिलने वाला है। प्रउत व्यवस्था को कांटों ताज मिलेगा स्वयं को अपनी कर्म कुशलता से सुन्दर फूलों की बगिया लगानी पड़ेगी। उस बगिया से सुगंधित फूलों को चुन चुन कर समाज के लिए सुन्दर आसन बनाना
होगा। प्रउत व्यवस्था को मात्र आर्थिक समस्या से ही नहीं सामाजिक, धार्मिक राजनैतिक समस्याओं का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। कई अन्तराष्ट्रीय समस्या भी प्राउटिस्टों रास्ते में खड़ी होगी। यह सभी हमें राजनीति व्यवस्था को विरासत में देने वाली है।
उपर्युक्त समस्याओं का होने पर भी सदविप्रों को पांव पीछे रखने की जरूरत नहीं है। सदविप्रों को धर्म की जयमाला प्रदान है। उसे धारण कर बाधाओं एवं विपदाओं को चूर्ण विचूर्ण करने की शक्ति प्रदान है। यह शक्ति सदविप्रों के मजबूत पांवों तले कचूमर हो जाएगी। सदविप्रों स्वयं में साहस भरने की जरूरत है। स्वयं के पैरों पर
खड़ा होना होगा। दृढ़ इच्छा शक्ति का जागरण कर जगत की हर समस्या को अपने कंधों पर। लेकर चलना होगा। नूतन उषा सदविप्रों की होगी। भारत की वर्तमान राजनैतिक तस्वीर बदलकर नूतन सूर्योदय करेगी।
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लेखक ➡ श्री आनन्द किरण
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(यह लेख मौलिक, अप्रकाशित एवं स्वलिखित हैं)
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