विष्णु में विश्व इतिहास ➡ 04

   विश्व इतिहास का तृतीय अध्याय🔵
     👑 वराह युग- तृतीय संभूति

           उभयचर जीवों के बाद जीवों की एक ऐसी प्रजाति आई। स्थायी रुप से पृथ्वी पर वास करने लगी। यह युग अंडज से जरायुज वर्गीय जीवों के इतिहास का  है। इस युग में जीवों की विभिन्न श्रेणियों के साथ पादपों की विशालता दिखाई देने लगी। पृथ्वी के स्थायी निवासी कच्छप, सरीसृप, नभचर, कुकुर, गाय, लोमड़, हिरण्य,  बिल्ली एवं वानर प्रजाति के  जीवों का प्रतिनिधित्व वराह ने किया। यह जगली एवं पालतू दोनों ही रुप में पाया है। शाकाहार एवं मांसाहार दोनों के गुण विद्यमान हैं। यह विशालकाय एवं लधुकाय दोनों में योजक बन सकता है। थलचर, उभयचर एवं जलचर तीनों में सामंजस्य स्थापित कर सकता है। नभचर भी इसे अपने प्रतिनिधि प्रदान कर सकते है। क्योंकि उनके लिए सफाई का कार्य सम्पादित करने के लिए तत्पर रहता है।

         वराह संभूति की कथा में कहा गया है कि हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को जल की गहराइयों छिपा दिया था। श्री हरि विष्णु ने वराह रुप धरकर पृथ्वी को पुनः उसके निर्धारित कक्ष में स्थापित किया। मैंने पूर्व ही लिखा है कि कथाओं की वास्तविकता एवं अवास्तविकता रेखांकित करना मेरा विषय नहीं है। हिरण्य अर्थात स्वर्ण एवं आभूषण इत्यादि बहुमूल्य रत्नों के जल से थल पर प्रकट होने की बात को रेखांकित करने के प्रतीकात्मक स्वरूप में भूमि को खोदने वाले के प्रतिबिंब के रुप में सुअर को चित्रित किया होगा। यह युग स्तनधारी जीवों का युग है। 

वराह युग का ऐतिहासिक मूल्यांकन   विश्व के इतिहास का तृतीय अध्याय एवं चतुर्थ पन्ना लिखा जा रहा है। इतिहास के परिप्रेक्ष्य में परीक्षा देकर इसे आगे बढ़ना होगा। जैविक युग इतिहास लिखा जा रहा ऐतिहासिक मूल्यांकन इतिहासकारों के हास्य का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं के एक दिशा निर्देश लाइन खिंचना भी लेखन का उद्देश्य होता है। वराह युग इतिहास की प्रत्येक कसौटी पर कसना इसके साथ न्याय है। इससे पूर्व कूर्म, मत्स्य एवं पाक ऐतिहासिक युग ने भी कठिन परीक्षा दी है।

(१) राजनैतिक जीवन   वराह युग में जीवों की विभिन्न प्रजातियों एवं जैविक परिवार की स्पष्ट रेखा दिखायी देती है। इसके साथ कहीं न कहीं जैव जगत का एक सामान्य अनुशासन भी है। जीव अपनी-अपनी सुरक्षा एवं भोजन संग्रहण के लिए झुंड में रहता था। संघात्मक शासन का प्रथम स्वरुप यहाँ दिखाई देता है। यह पशु अपने में से चतुर्थ एवं धूर्त शक्तिशाली का नेतृत्व स्वीकार करते थे तथा अपनी प्रजाति के निर्बल एवं अकेले पर हमला अथवा अन्य आपदा आने पर सामूहिक सहयोग का परिचय देते हैं। संधात्मक भावना है। नभ, जगल, गिरी कंधरा, बिल, वृक्ष, दलदली एवं मैदान धरती पर मानो प्रकृति के दिए राज्य है।

(२) सामाजिक जीवन इस युग के जीवों में ममत्व का भाव अंकुरित हुआ था। जो सामाजिकता की रेखा खींचने के लिए पर्याप्त आधार रेखा है। चूंकि यह स्तनधारी जानवरों का युग था। जहाँ शिशु से लगाव होना मातृ सत्तात्मक समाज के चित्रण का एक सुंदर उदाहरण है। 

(३) धार्मिक जीवन जैव धर्म के अंग  अहार, भय, निंद्रा तथा मैथुनीय यहाँ दिखाई देते है। निर्बल एवं असहाय के प्रति सहानुभूति की वृत्ति ने मदद करने के धार्मिक मूल्यों को परिभाषित करने का अवसर दिया है। जो इस युग के धार्मिक जीवन के मजबूत रेखा है।

(४) आर्थिक जीवन - स्वयं एवं संतान के लिए आहार जुटाना के भाव का अंकुरण आर्थिकता के जीवन रेखा है। युथबद्ध जीवों में मिलकर भोजन की तलाश के लिए जाने की वृत्ति सहकारिता के सूत्र का रेखांकित करने का अच्छा उदाहरण बन सकता है।

(५) मनोरंजनात्मक दशा इस युग में मनोरंजन की प्रचुरता मिली है। विभिन्न जीवों का सजातीय मित्रों के साथ क्रीड़ा करना तथा एक मांग के लिए लड़ना मनोरंजन का स्वरुप है। दो नर पशुओं को लड़ाकर आनन्द लेने वाले इस काल की मनोरंजनात्मक दुनिया से कैसे इनकार कर सकते है। पहाड़ों पर चढ़ाई, मिट्टी एवं जल में खेलना भी इस युग के जीवों के मनोरंजन था।

(६) विश्व को देन   इस युग ने मनुष्य को शिक्षा के लिए पंचतंत्र जैसे शिक्षा मूलक कहानियाँ लिखने के लिए स्वयं का मंच दिया है। विश्व को 'संगठन में शक्ति है' सूत्र प्रदान करने की शिक्षा इस युग के जीवों की जीवन शैली ने दी है।

         यह सामाजिक अर्थनीति सिद्धांत की विप्र युग की अवस्था है। शरीर प्रधान जीव भी कुछ चातुर्य का उपयोग करने लगे थे। बल के स्थान पर युक्ति की जीत के सूत्र के बल पर यह जीव रक्षा करते थे, जो विप्र युग कहने के पर्याप्त आधार है । सतयुग अब अधिक प्रौढ़ हुआ था।

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लेखक - श्री आनन्द किरण
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 क्या धरती पर स्वर्ग आ सकता है?
🔴 विश्व के सभी धर्म दर्शन, व्यक्ति के लिए एक सुन्दर एवं सुन्दरतम् परिवेश स्वर्ग की अभिकल्पना की गई है। इसकी सत्यता को परखना हमारा विषय नहीं है। हमारा विषय सभी प्रकार के सुख, समृद्धि एवं खुशहाली का जो स्वप्न धर्म दर्शन में दिखाया गया है। वह परिदृश्य धरती की कठोर माटी पर स्थापित हो सकता है अथवा नहीं। एक नकारात्मक सोच का व्यक्तित्व इस उत्तर नहीं में देकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाता है लेकिन मैं एक आशावादी हूँ, इसलिए सकारात्मक जगत को देखता हूँ। जिस परिदृश्य की अभिकल्पना मानव के मन में सृजित हुई है। वह कठोर से कठोरत्तम परिक्षेत्र में फलीभूत हो सकती है। मनुष्य ने अपने मेहनत के बल पर असंभव कार्य को संभव बनाकर दिखाया है। पौराणिक कथाओं में कहा गया है भागीरथ ने अपने तपस्या के बल पर गंगा को स्वर्ग से धरती पर खींच कर ले आए थे। मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कथाओं की सत्यता परखना मेरा विषय नहीं है। मेरा विषय हर उस प्रयास एवं शिक्षा का उपयोग कर मनुष्य के स्वप्न के परिदृश्य साकार रूप संभव होने की संभावनाओं की खोज करना है। जब इस देश का एक भागीरथ सफल हो सकता है तो स्वर्ग धरती पर आ सकता है।
🔴👉 धरती पर स्वर्ग आना असंभव नहीं है। इसलिए स्वर्ग देखना भी हमारे लिए आवश्यक है। स्वर्ग कैसा तथा कैसा दिखता है। स्वर्ग को शास्त्रों में एक आनन्दायी परिदृश्य बताया गया है। जिसमें व्यष्टि की इच्छा मात्र से सभी कार्य संभव हो जाते हैं तथा इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाता है। मनुष्य की चाहता भी कदाचित यही है। इस परिभाषा को सुनकर, पढ़कर एवं समझकर व्यक्ति इसके धरती पर आने की संभावना को शून्य बताएगा। स्वर्ग वस्तुतः उस अवस्था का नाम है, जिसमें मनुष्य निष्काम भाव से कार्य करते हुए समाज के सुन्दर परिदृश्य का निर्माण करें। जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक लिए जीएँ। यह भाव सृजित करने मात्र से स्वर्ग धरती पर दिखाई देने लगेगा तथा इसकी पराकाष्ठा स्वर्गमय धरती का निर्माण है।
🔴👉 मृत्यु के बाद स्वर्ग जाने की बातों की पुष्टि तो सभी धर्म दर्शन सतकर्म के ज्ञान एवं विज्ञान के बल देते आए हैं। जीवित व्यक्ति के स्वर्ग जाने की एक कहानी त्रिशंकु बनने की कही जाती हैं। हमें सुनाया जाता था कि प्राचीन काल में व्यक्ति एवं देवगण धरती एवं स्वर्ग के बीच गमन करते थे। अर्थात जीवित अवस्था में भी स्वर्ग आना जाना असंभव नहीं है। विषय यदि व्यक्ति स्वर्ग आना एवं जाना का होता तो मैं उसे हिन्दू देवताओं मिलने की सलाह देकर अपना कर्तव्य निवहन कर लेता लेकिन बात स्वर्ग को धरती पर उतारने की हैं। अन्य शब्दों में कहा जाए तो धरती को स्वर्ग बनाने की बात है। इसलिए संभवता खोजना ओर भी अधिक जरूरी हो जाता है। यदि में राजनेता होता तो जनता के समक्ष स्वर्ग धरती पर लाने का घोषणापत्र जारी कर जनादेश मांग लेता। मैं ठहरा लेखनी का सिपाही ज्ञान विज्ञान से लड़ कर ही स्वर्ग एवं धरती को एक बना सकता हूँ।
🔴👉 स्वर्ग  एक सर्वात्मक सोच है, जहाँ एक सबके लिए तथा सब एक के लिए है। मनुष्य के चिन्तन को इसमें समाविष्ट करने पर मनुष्य का संसार स्वर्ग हो जाएगा। कदाचित लोकतंत्र की मूल भावना भी यही है तथा समाज शब्द का अर्थ भी यही है। राह बिल्कुल स्पष्ट हो गई कि मनुष्य को अपना एक समाज बनाना है । मनुष्य जिस दिन अपने लिए एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना कर देगा। वह मनुष्य के लिए धरती पर स्वर्ग लाने का कार्य सिद्ध हो जाएगा। आज मनुष्य को धरती पर स्वर्ग इसलिए नहीं दिखाई देता है कि मनुष्य का एक समाज नहीं है।
🔴👉 मानव समाज के निर्माण के लिए एक कला एवं कौशल की आवश्यकता है जो मनुष्य को आनन्द मार्ग दिखता है। आनन्द मार्ग पर चलकर मनुष्य एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव तक पहुंचता है। सुख, दुख, आमोदप्रमोद इत्यादि इत्यादि कोई भी मार्ग मानव समाज तक नहीं ले जा सकता है।
🔴👉 इस धरा पर बहुत से प्रवर्तक आए। मनुष्य के कष्टों के निवारण के लिए स्वयं की शरण में आने का संदेश देकर चले गए। मनुष्य ने उन देवदूतों की वाणी पर अक्षत: विश्वास कर उनकी शरण भी पकड़ ली लेकिन उसे प्राप्त हुआ एक मजहब, पंथ, मत एवं रिलिजन कष्टों का क्षय नहीं हुआ। इस धरा पर प्रथम बार किसी व्यक्ति ने मानव समाज बनाने का कार्य अपने हाथ में लिया है। वह व्यक्ति है श्री प्रभात रंजन सरकार। जिन्होंने छेला अथवा अनुयायी बनाने का कारखाना नहीं खोल उन्होंने खोली एक मनुष्य बनाने की कार्यशाला जहाँ मनुष्य का निर्माण किया जाता है। एक एक मनुष्य को बनाकर एक मानव समाज का निर्माण कर दिया जाएगा। उन्होंने मनुष्य बनाने के सिद्धहस्त कारीगरों का दल तैयार किया है । जो मनुष्य का निर्माण करता है। 
🔴👉 श्री प्रभात रंजन सरकार की कुशल कारीगरी के बल एक दिन एक सुन्दर मानव समाज का निर्माण होगा। जहाँ हर पुरुष देव तथा नारी देवी होगी तथा धरती देवालय हो जाएगी। यही तो हम चाहते हैं कि धरती स्वर्ग बन जाएं। ताकि मनुष्य बंधन मुक्ति की साधना कर आनन्दमूर्ति बन जाए।
🔴 👉 धरती पर स्वर्ग अनुयायी बनने से नहीं, एक मनुष्य बनने से बनेगी। श्री प्रभात रंजन सरकार के मनुष्य निर्माणकारी मिशन का अंग बनकर मनुष्य का निर्माण करें एवं मनुष्य बने स्वर्ग स्वतः ही धरती पर उत्तर आएगा।
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लेखक:-  करण सिंह राजपुरोहित उर्फ आनंद किरण
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