सरकारी कृषि विधेयकों का समर्थन में - यह करणीय
सरकारी कृषि विधेयकों का समर्थन किया जा सकता है
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प्रश्न - क्या सरकारी कृषि विधेयकों का समर्थन किया जा सकता है? 
उत्तर - हा, यदि सरकार ऐसा करे तो
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मोदी सरकार के द्वारा लाये गए कृषि विधेयकों को खत्म करने की किसानों की मांग है वही सरकार इसे कतई खत्म नहीं करना चाहती जबकि सरकार संशोधन करने को तैयार है ।  इसको लेकर सभी के मन में एक प्रश्न है कि क्या कोई बीच का रास्ता है? उत्तर बीच का रास्ता है तथा सुगम रास्ता है और वह भी सरकार की गरिमा को चार चांद लगाने वाला तथा किसानों का भाग्योदय करने वाला है। 

प्रश्न - कौनसा रास्ता? 
उत्तर - जरा इसे समझते हैं। 

विधेयक नंबर 1-  कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020: - प्रस्तावित कानून का उद्देश्य किसानों को अपने उत्पाद नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (APMC) यानी तय मंडियों से बाहर बेचने की छूट देना है। 

सरकारी लक्ष्य - किसानों को उनकी उपज के लिये प्रतिस्पर्धी वैकल्पिक व्यापार माध्यमों से लाभकारी मूल्य उपलब्ध कराना है। इस कानून के तहत किसानों से उनकी उपज की बिक्री पर कोई सेस या फीस नहीं ली जाएगी। 

किसानों का भय - नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (APMC) अर्थात कृषि मंडी बंद हो जाएगी तथा न्युनतम समर्थन मूल्य(MSP) खत्म हो जाएगा। 

सरकार का आश्वासन - नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (APMC) अर्थात खत्म नहीं होगी व न्युनतम समर्थन मूल्य(MSP) भी खत्म नहीं होगा। 

बीच का रास्ता - विधेयक के अंदर  दलाली, सेस अथवा बिक्री कर रहित नोटिफाइड ऐग्रिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी (APMC) अर्थात कृषि मंडी को आबाद रखने की व्यवस्था का समावेश कर  न्युनतम समर्थन मूल्य(MSP) निर्धारण का अधिकार किसानों को देने का प्रावधान रखना तथा इस मूल्य से कम किसी भी परिस्थिति में व्यापारी अथवा अन्य खरीददार नहीं खरीद सकता है। 30 दिन की समयावधि में यदि कोई ओर किसानों के उत्पादों को नहीं खरीदता है तो सरकार खरीदेगी। 

 फायदा - कृषि लाभकारी बनेगी तथा सरकार का किसानों को लाभ देने का उद्देश्य पूर्ण होगा। 

विधेयक नंबर 2 - मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020: - इस प्रस्तावित कानून के तहत किसानों को उनके होने वाले कृषि उत्पादों को पहले से तय दाम पर बेचने के लिये कृषि व्यवसायी फर्मों, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार मिलेगा।

सरकारी लक्ष्य - इससे किसानों को अपने फसले बेचने का पहले से ही एक लिखित आश्वासन मिलेगा। 

किसानों का भय - कारपोरेट अथवा कंपनी के हाथ किसान, कृषि एवं भूमि बिक सकते है तथा गुलामी के नये युग की शुरुआत हो जाएगी। 

सरकार का आश्वासन - सौदा करने न करने के लिए किसान स्वतंत्र है तथा  किसान की इच्छा के बिना जमीन नहीं बिकेगी

संभावना - किसान कंपनी से जो समझौता करेगा, उसमें देखने को कोई त्रुटि नहीं है लेकिन भारत का किसान गरीब, अनपढ़ व सीधा सादा है। वह कंपनी के झांसे में तथा प्रलोभन में आकर अपनी अस्मिता  तक भी दाव पर लगा सकता है। 

बीच का रास्ता - समझौता करने का प्रथम पक्षकार किसान हो तथा उसके द्वारा तय की गई कीमत पर ही समझौता होगा, इस समझौते द्वितीय पक्षकार सरकार होगी जो किसानों हीत, जमीन एवं मान मर्यादा की रक्षा के लिए जिम्मेदार होगी एवं तृतीय पक्षकार कंपनी होगी जो इस समझौते को स्वीकार करेंगी साथ में वह इसके लिए भी उत्तरदायी होगी यदि कृषि उत्पादन में मौसम इत्यादि किसी कारणों से क्षति होती है तो नुकसान में भी भागीदारी निभाएंगी। 

फायदा - किसानों की मान मर्यादा, रोजगार तथा कृषि पर मालिकाना हक सुरक्षित रहेगा तथा सरकार का कृषि उत्थान के लिए क्रांतिकारी कदम

विधेयक नंबर  3 -  आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 : - यह प्रस्तावित कानून आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, प्याज और आलू जैसी कृषि उपज को युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि व प्राकृतिक आपदा जैसी 'असाधारण परिस्थितियों' को छोड़कर सामान्य परिस्थितियों में हटाने का प्रस्ताव करता है तथा इस तरह की वस्तुओं पर लागू भंडार की सीमा भी समाप्त हो जायेगी।

सरकारी लक्ष्य - भंडारण के माध्यम से किसान एवं व्यवसायी अपने माल को बाजार में बेचने योग्य परिस्थितियों तक सुरक्षित रख सकेगा। 

किसानों का भय - किसान भंडारण करने में अधिक सक्षम नहीं इसका सीधा फायदा कारपोरेट को होगा तथा जमाखोरी व मूल्य वृद्धि होगी। 

सरकार का आश्वासन - कुछ नहीं

बीच का रास्ता - कोल्ड स्टोरेज अर्थात भंडारण करने का अधिकार मात्र एवं मात्र किसान के पास रहे तथा बिना किराये इसकी व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए। 

फायदा- सरकार का लोक कल्याणकारी राज्य बनाने का उद्देश्य पूर्ण होगा तथा किसानों को सबलता मिलेगी। 

बीच के इस रास्ते को अपनाने से आंदोलनकारी किसान अपने लक्ष्य से काफी अधिक प्राप्त कर लेंगे तथा सरकार का किसानों के भाग्योदय करने का लक्ष्य एवं सपना साकार हो जाएगा। 
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विचार मंथन मंच पर - करण सिंह राजपुरोहित की कलम से
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श्री आनन्द किरण कलम से निकले -आनन्द कण - 02
            
           आनन्द कण
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      [22/11/20, 8:54 AM] 
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"भारतीय संस्कृति ने विश्व को अहिंसा परमोधर्म का संदेश दिया है। अहिंसा यम योग साधना एवं नैतिकता का प्रथम स्तंभ भी बताया गया है। अहिंसा भीरुओं की नहीं वीरों का आभूषण है। इस पर चलने वाले को महावीर की उपाधि दी जाती है तथा व्यष्टि व समष्टि आनन्द में वृद्धि होती है। इसलिए आनन्द मार्ग के राही को यम नियम में प्रतिष्ठित होना होता है। मन, वचन एवं कर्म से दूसरों को कष्ट पहुँचाने का भाव भी मन में नहीं लाने का नाम अहिंसा दिया गया है। इसका अर्थ अन्याय व अनीति सहन करना नहीं होता है। समाज में फैल रहे अधर्म व आतंक को देखकर जो शांति-शांति की माला जपता है, वह सबसे बड़ा हिंसक है। शांति बुरा देखकर आँख,कान व मुख बंद करने वालों को नहीं मिलती है। यह तो संघर्ष का प्रतिफल है।  अहिंसा कभी भी अव्यवहारिक एवं अमनोवैज्ञानिक नहीं है। यह प्रैक्टिकल है, जिसका अनुसरण कर व्यक्ति शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक प्रगति करता है। इसलिए यम(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य) नियम(शौच, संतोष,तप,स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान) मनुष्य व उसके समाज के प्रथम बिम्ब आवश्यक है। आनन्द मार्ग के साधक लिए यम नियम का पालन करना आवश्यक शर्त है। इसलिए आनन्द मार्ग एक व्यवहारिक पथ है।"
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       [29/11/2020, 7:43 AM] 
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"सत्यमेव जयते भारतीय संस्कृति एवं संविधान का आदर्श वाक्य है एवं सत्य को सर्वत्र अंगीकार किया गया है। इसलिए शास्त्र मनुष्य को सत्याश्रयी बनने की शिक्षा देते है। सत्यानुगामी का जीवन कभी भी संकटग्रस्त नहीं हो सकता है। अत: जीवन वेद ने सत्य को परिभाषित किया है। परहित में प्रस्तुत किये गए दृश्य को सत्य कहा गया लेकिन जैसा है वैसा कहने को ऋत नाम दिया गया है। इसलिए स्मृति में सामुहिक जीवन में सत्य का अनुसरण करने एवं व्यक्तिगत जीवन में ऋत का पालन की व्यवस्था दी है। यह सत्यमेव जयते का मूल है तथा जीवन को आनन्दित करता है। जो पथ विजय माला एवं आनन्द से विभूषित करता है।वही मनुष्य का मार्ग है। इसलिए मनुष्य गर्व से कहता है कि मैं आनन्द मार्गी हूँ। "
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[12/6, 7:30 AM] 
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"विश्व की सभी राजनैतिक,  सामाजिक  एवं आर्थिक व्यवस्था में चोरी करना अपराध बताया है तथा धार्मिक व्यवस्था में इसे पाप की श्रेणी में रखा गया है। इसलिए शास्त्र मनुष्य को चौर्यवृति से दूर रहकर अस्तेय पर चलने की शिक्षा देता है। 'जीवन वेद ने बिना पूछे दूसरों की वस्तु को छूने का भाव भी मन में न लाने को अस्तेय के रुप में परिभाषित किया है।' अस्तेय के पालन करने से समष्टि शुचिता बनी रहती तथा व्यष्टि के जीवन को कल्याणकारी बनाता है। जहाँ कल्याण एवं शुचिता है वहाँ आनन्द का निवास है। जिसने आनन्द मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प लिया है वह शुद्ध व पवित्र जीवन शैली अपनाता है। सर्वजन हितार्थ व सुखार्थ मनुष्य को अस्तेय में प्रतिष्ठित होना चाहिए। यह यात्रा मनुष्य के आनन्ददायक होती है। अत: मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसमें है कि वह आनन्द मार्ग को जीवन व्रत के रुप में ले। "
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    [13/12/2020, 7:37 AM]
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"विश्व में असमानता का मुख्य कारण व्यष्टि का अपरिग्रह के सूत्र में प्रतिष्ठित नहीं होना है। समष्टि जगत में संपदा सीमित है लेकिन व्यष्टि की इच्छाएँ असीमित है। सीमित व असीमित के इस समीकरण को संतुलित करने के लिए अपरिग्रह के सूत्र में प्रतिष्ठित होना बताया गया है। अपरिग्रह में परहित की साधना व समष्टि के प्रति व्यष्टि का दायित्व निहित है। जहाँ पर परहित व सामाजिक दायित्व विद्यमान वहाँ आनन्द रहता है। जीवन को आनन्दित बनाने के लिए अपरिग्रह की साधना करनी चाहिए। जीवन वेद में अपरिग्रह को देह रक्षा के अतिरिक्त द्रव्य की संग्रहित नहीं करना तथा इसका भाव भी मन में नहीं रखना बताया गया है। अपरिग्रह का पथ मनुष्य को आत्म मोक्ष एवं जगत हित की ओर ले चलता है। आत्म मोक्ष एवं जगत हित का उद्देश्य मनुष्य को आनन्द मार्ग पर लाता है।"
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    [20/12/2020, 8:32 AM] 
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"ब्रह्म भाव में विचरण करना, अथवा ब्रह्ममय बन जाना अथवा ब्रह्म तत्व का अनुसरण करने का नाम ब्रह्मचर्य है जबकि समाज में यह भ्रम फैला हुआ है कि अविवाहित रहना अथवा स्त्री पुरुष संसर्ग नहीं करना ब्रह्मचर्य है। जीवन वेद में ब्रह्मचर्य शब्द के शाब्दिक विन्यास एवं भावार्थ के महत्व को स्वीकार कर वैज्ञानिक परिभाषा दी गई है। फिर भी सांसारिक जगत में सन्यासी का पूर्णतया संयमित जीवन को नैष्ठिक ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ का संयमित प्रजापत्य ब्रह्मचर्य नाम दिया गया है। इसे मानकर चलना स्वास्थ्य के अच्छा है तथा सामाजिक अनुशासन के आवश्यक भी है। ब्रह्मचर्य के अनुपालन से मनुष्य की शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति होती है तथा मनुष्य उत्तरोत्तर अपने जीवन लक्ष्य की ओर द्रुतगति से बढ़ता है। यह पथ मनुष्य के आनन्द में उसी अनुपात में वृद्धि करता जाता है। जिस पथ पर चलने मनुष्य की प्रगति होती है तथा आनन्द उपलब्ध होता है, वह सतपथ है। सतपथ पर चलना मनुष्य के लिए चरम निर्देश है। चरम निर्देश को जो मानकर चलता है,वही आनन्द मार्गी है। मनुष्य का आनन्द मार्गी होना गौरव का विषय है। इसलिए सृष्टि के सभी मानवोचित जीवों को आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए।"
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         [27/12/2020, 6:47 AM] 
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"भारतवर्ष की धार्मिक शब्दावली में शुद्धता एवं पवित्रता शब्द का उल्लेख मिलता है। साफ शरीर व परिवेश को शुद्धता तथा साफ मन को पवित्रता की उपमा दी गई है। नियम साधना में उक्त क्रिया को शौच नाम दिया गया है। जीवन वेद में बाह्य व आंतरिक परिच्छन्नता में प्रतिष्ठित होने का गहन ज्ञान है। शौच नियम के दोनों रुप में प्रतिष्ठित होते ही व्यष्टि का मन निर्मल, शरीर स्वस्थ एवं पर्यावरण स्वच्छ होता है। यह परिवेश व्यष्टि व समष्टि के लिए कल्याणकारी व प्रगति का सूचक होता है। जैसे ही व्यष्टि प्रगति एवं कल्याण को धारण करता है वैसी जयी होने लगता है। मनुष्य सदा जय अवस्था रहे इसलिए आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए"*
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      [03/01/2021, 06:30AM]
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"संतोषी मन सदा सुखी। धर्म शास्त्र का यह श्लोगन मनुष्य को संतोष नियम की उपादेयता समझाता है। बिना मांगे अर्थात आयाचित रुप से जो मिले, उसमें तृप्त रहने का नाम संतोष दिया गया है। संतोष मनुष्य की प्रगति के पथ एवं हक की लड़ाई  के रास्ते का बाधक नहीं है। जीवन वेद में संतोष सहित संपूर्ण यम व नियम की व्यवहारिकता पर प्रकाश डाला है। इसलिए सभी मनुष्यों को जीवन वेद को समझना चाहिए। संतोष नियम में प्रतिष्ठित होना साधना की पराकाष्ठा की अनुभूति करता है।जिस पथ पर पराकाष्ठा है, वह जीवन लक्ष्य का पथ  है। चूंकि मनुष्य का जीवन लक्ष्य आनन्दोपल्बधि है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य सदैव आनन्द मार्ग पर ही चलता है।"
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   [10/01/2021, 06:45 AM] 
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"तप का उल्लेख  सभी धर्म शास्त्र में  अल्प एवं अधिक परिमाण में मिलता है। लेकिन अंध धारणा के वशीभूत होकर शरीर को अनावश्यक यातना देने के साथ तप का कोई संबंध नहीं है। जीवन वेद में उद्देश्य  साधना के लिए शारीरिक कृच्छ को तप बताया गया है। परहित, सार्वजनिक सुख, जनसेवा, सामाजिक दायित्व निवहन अथवा अपने जीवन निर्माण के उद्देश्य से स्वेच्छा से कष्ट ग्रहण करने के अतिरिक्त तप के नाम पर जीवन को जोखिम में डालने का खेल अंध विश्वास से अधिक कुछ नहीं है। तप से साधक का जीवन निखरता है। जहाँ जीवन में निखार आता है, वहाँ सत्यता डेरा डाल देती है। जैसे ही सत्य का वास होता है, तैसे ही मनुष्य का जीवन आनन्द से लबालब हो जाता है। इसलिए परमपुरुष का कहना है कि मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना ही होगा।"
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    [14/01/2021, 12:53 AM] 
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"मनुष्य के मन में सुप्त अथवा जाग्रत अवस्था में स्वयं, सृष्टि एवं परमतत्व की विषय में जानने की जिज्ञासा  रहती है। मनुष्य की यह जिज्ञासा,  जब तड़प अथवा लगन बन जाते है, तब वह ज्ञान की खोज में निकल पड़ता है।  इसी क्रम में मनुष्य के अंदर स्व: अध्ययन की रुचि जगती है। यह रुचि मनुष्य में स्वाध्याय की प्रवृत्ति को जन्म देती है। जीवन वेद में अर्थ समझकर शास्त्रों का अध्ययन करने का नाम स्वाध्याय दिया गया है। शास्त्र में स्वाध्याय को साधक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: सभी मनुष्य को नियमित स्वाध्याय करना चाहिए। चर्याचर्य की व्यवस्था के अनुसार पाठ ग्रहण में असक्षम व्यक्ति सतसंग अथवा अन्य के मुख से सुनकर स्वाध्याय कर सकता है। धर्म चक्र में नियमित उपस्थिति होने से श्रेष्ठ स्वाध्याय साधना होती है। स्वाध्याय नियम के पालन से साधक आत्म चिंतन,मनन एवं मंथन के रास्ते धीरे धीरे आत्मज्ञान को पा लेता है। आत्मज्ञान अर्थात कैवल्य ज्ञान व्यक्ति को महापुरुष बना देता है। महापुरुष समाज में ईश्वर के प्रतिनिधि की संज्ञा पाई है। अत: प्रमाणित होता है कि स्वाध्याय साधना के रास्ते होकर जीव कोटी, ईश्वर कोटी व ब्रह्म कोटी में उन्नत हो सकता है। जिस रास्ते से मनुष्य की प्रगति होती है। वह मनुष्य के लिए करणीय व आनन्ददायक है। अतः आनन्द मार्ग का मार्गी होना मनुष्य के लिए गौरव का विषय है। "
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      [17/01/2021, 12:30AM]
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"जीवन वेद में  सुख दु:ख में, संपद, विपद में ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखना और जागतिक समस्त कार्य स्वयं को यंत्र समझकर करना,  ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। ईश्वर प्रणिधान मनुष्य को इष्ट एवं आदर्श में विश्वास रखने तथा उस पर चलने की शक्ति प्रदान करता है। सृष्टि के शास्वत नियम कहते है कि जहाँ इष्ट एवं आदर्श  है, वहाँ विजय निश्चित होती है। इसलिए मनुष्य को सफल जीवन जीने तथा जीवन में सफल होने के लिए ईश्वर प्रणिधान को मानकर चलना चाहिए। यह मनुष्य को आनन्द में प्रतिष्ठित करता है तथा मनुष्य प्रसन्नता के साथ आनन्द मार्ग को जीवन पथ के रुप में चुनता है।"
    --- श्री आनन्द किरण


श्री आनन्द किरण की कलम से निकले - आनन्द के कण -01
             आनन्द कण 
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        [13/10/2020, 6:53 AM] 
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"मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवार काल्पनिक है। यह एक स्वप्न की भांति है, जिसकी जीवन अवधि निंद्रा के भंग होने तक है। यह मानव समाज कुंभकर्ण की निंद्रा में नहीं सोया है।आत्मज्ञान से समग्र मानवता के आत्मचक्षु खुलते ही वसुधैव कुटुबं का भाव जग जाएगा तथा मानव समाज एक एवं अविभाज्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा। इसलिए मनुष्य को व्यक्तिगत जीवन में चलना होता है, साधना,सेवा एवं त्याग के पथ पर। यही से शुरू होता आनन्द मार्ग।"
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         [14/10/2020, 8:44 AM] 
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"मनुष्य जीवन भोग के लिए नहीं ब्रह्म प्राप्ति के लिए है। शास्त्र कहता है कि ब्रह्म आनन्दधन अवस्था है। व्यष्टि एवं समष्टि जीवन में शांति की चाहत रखने वालों को संकीर्णता, कुप्रथा, कुनीति कुव्यवस्था एवं कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करने को सदैव तैयार रहना चाहिए क्योंकि शांति संघर्ष का प्रतिफल है।इसलिए व्यक्ति को अपने चिंतन एवं सोच को वृहद रखना चाहिए। शास्त्र के अनुसार वृहद का प्रणिधान करना ही धर्म है। धर्म का रास्ता मनुष्य को नव्य मानवतावाद में प्रतिष्ठित करता है ।  नव्य मानवतावाद ही विश्व शांति की प्रतिष्ठा करता है तथा व्यक्ति के जीवन में सुख की वर्षा करता है। शास्त्र में अनंत सुख को आनन्द कहा गया है। आनन्दधन अवस्था ही ब्रह्म संप्राप्ति है। इसलिए व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन में भूमाभाव की साधना करते हुए समाजिक जीवन में नव्य मानवतावादी आदर्श को लेकर चलना चाहिए। यही आनन्द मार्ग को प्रवेश द्वार है।"
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         [15/10/2020, 6:49 AM] 
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"अंधकार कितना भी घना होने पर भी रोशनी की एक ही बिम्ब से हट जाता है। सूर्य के आते  रात्रि चली जाती है। ठीक इस भांति सकारात्मक चिंतन नकारात्मक सोच, विचारधारा एवं वातावरण को हटा देती। इसिलिए शास्त्र कहता अंधकार से आलोक की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर एवं अज्ञान से ज्ञान की ओर गति जीवन को आनन्द से भर देती है। गुरुदेव का निर्देश है कि घृणा को प्रशंसा से अंधकार को आलोक से जय करों। आशावादी एवं सकारात्मक रहना सुपथ है। यही से मनुष्य को आनन्द मार्ग दिखाई देता है।*
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           [16/10, 7:04 AM] 
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"सत्य असत्य, नीति अनीति, धर्म अधर्म एवं संकीर्णता व्यापकता के बीच संघर्ष होना स्वाभाविक है। इस प्रकार के संघर्ष में जय सत्य,नीति, धर्म एवं व्यापकता की रही है। यह जय का विज्ञान है। इसिलिए महापुरुष कहते है कि मनुष्य को सुपथ अर्थात सत्य, नीति, धर्म एवं व्यापकता के पथ का वरण करना चाहिए। यह पथ यम नियम में निहित है। अत: मनुष्य को यम नियम का पालन करते हुए  साधना, सेवा एवं त्याग पथ चलना चाहिए। यही है आनन्द मार्ग का प्रथम पायदान।"*
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        [17/10, 7:04 AM] 
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"शरदोत्सव  सभी के जीवन में ऋद्धि,सिद्धि एवं समृद्धि लाए इसलिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की पथ निर्देशना के अनुसार मनुष्य को शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़, मानसिक दृष्टि से मज़बूत एवं आध्यात्मिक अग्रगतिशील होना होगा। यह पथ मनुष्य को आनन्द मार्ग की ओर ले चलता है।" उनका आशीर्वाद _"तुम लोगों की जय हो"- से संपूर्ण सृष्टि लाभान्वित हो। 
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      [18/10/2020, 7:33 AM] 
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"मनुष्य के समाज के गठन में त्रुटिपूर्णता आज की समस्याओं कारण है। मनुष्य अपने विवेक बुद्धि का उपयोग कर मानव समाज का सही संगठन करते ही सभी समस्याएँ छूमंतर हो जाएंगी। इस कार्य देरी करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने लिए अशांति की निशा की जीवन अवधि बढ़ाना, इसलिए मनुष्य को शीध्र ही आध्यात्म की भित्ति पर आधारित आनन्ददायक संसार की रचना कर देनी चाहिए। जहाँ मनुष्य  भूखा, नंगा, बेघर, बेरोजगार, गरीबी, अशिक्षा तथा चिकित्सा के अभाव अभिशाप लेकर  जीवन को बोझ नहीं मानेगा तथा सभी एक स्वर में गायेंगे - सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय..........। यहाँ पर ही मनुष्य को  आनन्द मार्ग से साक्षात्कार हो जाता है"
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       [19/10/2020, 7:28 AM] 
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"सुख एवं दुख एक ही सिक्के के दो पहलू बताये गए है, यह बताया गया है कि एक अवस्था दूसरे के आगमन की सूचना देता है। इसलिए महापुरुष बताते है कि सुख में अति उत्साही होकर अपने विवेक को खोकर कुपथ की ओर नहीं चलना चाहिए तथा दुख से व्यथित होकर अनुचित पथ का चयन नहीं करना भी महापुरुषों की ही शिक्षा है। सुख की अनन्त अवस्था तथा दुख की शून्य अवस्था को आनन्द नाम दिया गया है। आनन्द के पथिक को सुख-दुख आँख मिचौली नहीं खेला सकती है। अत: मनुष्य के कुपथ पर जाने की संभावना भी शून्य है । मनुष्य की बुद्धिमता इसमें है कि उसे आनन्द के मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा करने पर मनुष्य आ जाता है आनन्द मार्ग पर।"
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    [20/10/2020, 6:35 AM] 
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"नीति  शास्त्र में कहा गया है कि अपना पराया की गणना लघु चेतना वाला इंसान करता है, उदार चरित्र वाले संपूर्ण संसार को अपना कुटुबं मानते है। नीति शास्त्र का यह संदेश मनुष्य को स्वयं का मूल्यांकन करने की शिक्षा देता है कि स्वयं तुम तय करो - तुम्हारी गति आनन्ददायक है अथवा नहीं। मनुष्य के समाज में वृहद सोच के लोगों की संख्या अधिक से अधिक हो इसलिए मनुष्य को अपने समाज की सामाजिक संरचना को समरसता मूलक एवं आर्थिक संरचना को प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक बनानी होगी। व्यष्टि एवं समष्टि यह कार्य आनन्दमय सृष्टि रचना करता है। यह कार्य करने वाला अपना परिचय आनन्द मार्गी के रुप में देता है तथा वह कहता है कि मेरे चलने का पथ आनन्द मार्ग है।"
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      [21/10, 5:33 AM] 
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"व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्माण करना शिक्षा व्यवस्थाओं का आधार रहा है। व्यक्तित्व में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास को रखकर व्यक्ति देखने से उसके निर्माण का सही मूल्यांकन होता है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में व्यक्ति को पूर्णत्व की ओर ले चलता है। पूर्णत्व की अवस्था नर में नारायण के दर्शन कराती है तथा व्यक्ति  आनन्दधन की अवस्था को पा लेता है।  यह मनुष्य की आनन्द मार्ग की यात्रा है ।"
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         [22/10, 8:01 AM] 
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"आनन्द मार्ग के  यात्री सभी है, कोई खंड में तो कोई अखंड में, कोई बाह्य लोक में तो कोई अंत: लोक में आनन्द की खोज कर रहा है। मनुष्य के यह खोज एक दिन उसे आनन्दमूर्ति से साक्षात्कार करवाएंगी, तब मनुष्य की आनन्द मार्ग की यात्रा फलिभूत होगी। यही है आनन्द मार्ग का रहस्य ज्ञान।"
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    [23/10/2020, 7:18 AM] 
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"आनन्द पाने के लिए घर बहार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। मात्र दृष्टिकोण में परिवर्तन करने से आनन्द की अनुभूति जाती है। नकारात्मक वातावरण लिप्त बुद्धि जहाँ निराशा आवरण में जग को दुखदायी मानती है, वही सकारात्मक सोच का भाव आशावादी बना देता है तथा अपने जीवन को सुन्दर बनाने का एक स्वप्न दिखाई देने लगता है। उसी अनुरूप कर्म साधना बनते ही मनुष्य अपने जीवन को धन्य समझने लगता है। सबमें अच्छा देखो अच्छाई  मिलेगी। यही मानव का मनोविज्ञान है तथा यही मनुष्य आनन्द मार्ग पर ले चलता है। "
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        [24/10/20, 6:54 AM] 
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"शास्त्र में कहा गया है कि धर्म का पथ सरल तथा पाप का पथ कुटिल है। धर्म का पथिक सरल, स्पष्ट एवं सत्य होता है, इसलिए वह सदैव निर्भय एवं आनन्दित रहता है जबकि पापी कुंठित, बनावटी एवं मिथ्या होता है इसलिए भयभीत तथा अशांत रहता है। अत: परमपुरुष का निर्देश है कि मनुष्य को धर्म( सतपथ) के पथ का अनुसरण करना चाहिए। यह  आनन्द का मार्ग है। आनन्द मार्ग पर चलना सभी का धर्म(कर्तव्य) है।"
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       [25/10/20, 7:04 AM]
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"जीत-हार का भाव सुख-दुख का कारण बनता है।  शास्त्रोंक्ति है कि  समष्टि एवं व्यष्टि जगत में अधर्म (असत्य,बुराई, आसुरी शक्ति) के पर धर्म (सत्य,अच्छाई, दैवीय शक्ति) की जय एक शास्वत सत्य  तथा आनन्दायक है। यहाँ हार एवं जीत का भाव नहीं, सत्य धर्म की संस्थापना का संकल्प है। यह अवस्था मानव समाज के  लिए कल्याणकारी तथा सर्वजन हितार्थ है। इसलिए सत्य धर्म के खातीर को व्यष्टि व समष्टि को विजय रहना है। यह मानसिकता आनन्द मार्ग पर चलने वाले पथिक के लिए आवश्यक है।"
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       [26/10/20, 7:31 AM] 
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"शास्त्र में कहा गया है कि ब्रह्म एक है द्वितीय नहीं (एकोहम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति)। यही बात हजरत मुहम्मद कह गये है अल्लाह एक है। अत: परम तत्व को लेकर संसार में जो भेद दृष्टिगोचर होता है, वह अज्ञानता के कारण है। मनुष्य ने भाषागत, संस्कारगत, परिवेशगत, देशगत एवं बुद्धि के स्तरगत कारण से उसे अलग-अलग नामों से पुकारा है। इस कारण परमतत्व अनेक मान लेना मनुष्य की भूल है। इस भूल सुधार शीध्र ही आवश्यक है। अन्यथा मनुष्य अपनी क्षति कर सकता है। मनुष्य तथा उसके समाज की कोई क्षति नहीं हो इसलिए समझना होगा ब्रह्म तत्व एवं उसकी सृष्टि व जीव आनन्दमय है। इस आनन्द चक्र, ब्रह्मचक्र के प्राण केन्द्र आनन्दमूर्ति है, जिसे दर्शन में परमशिव तथा भक्ति में कृष्ण का गया है। ठीक इसी भांति भाषागत अथवा किसी अन्य कारण से उसे अलग-अलग नाम दिये गये है। इस कारण ब्रह्म को देखने में भेद बुद्धि लगाने से मनुष्य अपने आनन्द में कमी करता है। चूँकि मनुष्य का मार्ग आनन्द मार्ग है, इसलिए वह एकोहम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति में प्रतिष्ठित होकर आगे बढेगा। यही एक आनन्द मार्गी की पहचान।"
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       [27/10/20, 5:59 AM] 
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"जिज्ञासु के मन में एक प्रश्न सदैव रहता है कि सबसे बड़ा भगवान कौन? जब ब्रह्म एक ही है तो यह प्रश्न अर्थहीन नजर आता है। वस्तु ऐसा नहीं है जिज्ञासु के इस प्रश्न के पीछे एक मंशा छिपी रहती है कि कौनसा पथ श्रेष्ठ है? जब मनुष्य जान जाता है कि मनुष्य मात्र का मार्ग आनन्द मार्ग है तो यह प्रश्न भी मूल्यवान नहीं रहता दिखता है। लेकिन यह प्रश्न तो और ही भाव लेकर जन्मा था, वह है कौनसा साधन सर्वोत्तम है? साधक जानता है कि साधन साध्य तक पहुँचने का माध्यम है। मनुष्य का साध्य जैसा होगा वैसा ही साधन सबसे अधिक उचित नजर आएगा। इसलिए मनुष्य को सबसे पहले अपने साध्य का निर्धारण ठीक से कर लेना चाहिए,उपयुक्त साधन स्वत: ही साधक के पास आताहै। यही आध्यात्म विज्ञान है। चूँकि चराचर जगत ज्ञात अथवा अज्ञात भाव से आनन्द मार्ग पर चल रहा है तो उसका साध्य आनन्द है तथा इस आनन्द का नाभिकेन्द्र आनन्दमूर्ति नाम से जाना जाता है।  आनन्दमूर्ति तक पहुँचने का साधन भक्ति है। इसलिए शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम्, भक्ति भगवत भावना का नाम है इसलिए आनन्दमूर्ति का भाव लेते हुए साधना करते रहने मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, वह भावातित में भी प्रतिष्ठित हो जाता है। इस प्रकार की जिज्ञासा मनुष्य आनन्द मार्ग पर लाती है।"
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     [28/10/2020, 5:47AM]
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"चमत्कारों व वरदानों का साधना में कोई संबंध नहीं है, यदि कोई इस आश अथवा लालसा में साधना करता है तो ऐसा कर स्वयं अपने को अंधकार में रखता है। साधना पूर्णत्व प्राप्ति की यात्रा है, जिसमें उक्त तत्व का कोई मूल्य नहीं है। यदि कोई साधक अपने, अपने गुरु के अथवा अपने आराध्य के चमत्कारों एवं वरदानों का बखान ही करते घुमता है तो समझना चाहिए कि वह अंदर से उतना ही खोखला है, जितना वह उनका बखान करता है। अपनी अपूर्णता छिपाने के लिए यह रास्ता उचित नहीं तथा यह व्यष्टि व समष्टि के हित में नहीं है, जो कार्य हितकारी नहीं है, वह आनन्ददायक तथा कल्याणकारी भी नहीं है। अपने कर्म के बल पर परमपद को प्राप्त करना आनन्द का पथ है।  आनन्द  का मार्गी कभी भी मिथ्या बातों की आश में नहीं रहता है। आनन्द मार्ग मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की ओर ले चलता है। यही मनुष्य के लिए सुपथ है।"
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        [29/10/20, 7:01 AM] 
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" शास्त्र बताता है कि मनुष्य मन प्रधान प्राणी है जबकि शेष जीव शरीर प्रधान है। मनुष्य के मन की प्रधानता ने उसे जीव जगत में  श्रेष्ठ बनाया है। मनुष्य की इस विशिष्टता का सदुपयोग करने से मनुष्य की प्रगति होती तथा वह क्रमशः साधुत्व, देवत्व एवं ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इसके विपरीत दुरूपयोग करने से क्रमशः पशुत्व, असुरत्व एवं निचतापन को प्राप्त करता है। प्रथम स्थित मनुष्य के श्रेयकर है। इसलिए इस मार्ग को धर्म का पथ बताया है। इसके विपरीत पथ को अधर्म बताया गया है। धर्मयुद्ध (समष्टि व व्यष्टि जगत में आत्म व स्व: मंथन का संघर्ष) में धर्म जयी रहता है, यह शास्वत सत्य तथा सृष्टि का विधान है। धर्म का मार्ग मनुष्य के लिए आनन्द का मार्ग है। इसलिए मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए। इसी को मनुष्य जीवन की सदगति कहा गया है। अतः प्रमाणित होता है कि आनन्द मार्ग ही मनुष्य का मार्ग है।"
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       [30/10/2020, 6:21 AM] 
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"शास्त्र में वर्णित है कि मनुष्य के सुकर्म के प्रतिफल में जो परिवेश मिलता है, वह स्वर्ग तथा कुकर्म के प्रतिफल का परिवेश नरक है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के अनुसंधान के अनुसार इस सृष्टि से परे स्वर्ग व नरक नाम की वाटिकाएँ नहीं बनी हुई है। यह शास्त्र के व्याख्याकारों का भ्रमजाल बिछाया हुआ है। अत: प्रमाणित हो जाता कि यह धरा ही स्वर्ग एवं नरक के रुप व्यक्ति के संस्कार के अनुसार दिखाई देती है। मनुष्य अपने दृष्टिकोण एवं कर्म की दिशा बदलने से नरक को स्वर्ग में तथा स्वर्ग को नरक में बदल सकता है। शास्त्र की व्यवस्था के अनुसार निष्काम सतकर्म मनुष्य स्वर्ग नरक के परिदृश्य के उपर आनन्द लोक में ले चलता है। बाबा बताते है कि अपने कर्म पर ब्रह्म भाव आरोपित करने से मनुष्य  कर्म बन्धन में नहीं जकड़ता है। यही निष्काम कर्म करने की विधा है। ब्रह्म भावमय निष्काम कर्म मनुष्य को आनन्द मार्ग पर ले चलता है। यह विज्ञान मनुष्य को मुक्ति मोक्ष की ओर ले चलेगा। मुक्ति मोक्ष की आकांक्षा रखे बिना परमपिता का काम करते करते मर जाना तथा मरते मरते भी परमपिता का काम करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। मनुष्य जीवन को सार्थक करने का बोध ही मनुष्य को आनन्द मार्गी बनता है।"
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      [31/10/2020, 7:13 AM] 
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"जातपात, मजहब सम्प्रदाय व क्षेत्र देश की कटुता लेकर जीने वाले विध्वंसक है। यह रास्ता अधर्म का है। शास्त्र के अनुसार इष्ट का वास अधर्म मे नहीं धर्म में है। इसलिए मनुष्य को अधर्म के पथ पर नहीं चलना चाहिए। यह मनुष्य के लिए आनन्ददायक नहीं है। सर्वजन कल्याण का चिन्तन व कर्म मनुष्य का अपना धर्म है। धर्म मनुष्य के लिए आनन्ददायक है इसलिए शास्त्र मनुष्य को धर्म पर चलने की शिक्षा देता है। यही वसुधैव कुटुबं का सार है। आनन्द मार्ग, मानव समाज के सर्वांगीण कल्याण का पथ है, जहाँ अधर्म जनित किसी भेद एवं अस्पर्शयता का स्थान नहीं है। समष्टि के हित में व्यष्टि का हित तथा व्यष्टि हित में समष्टि हित विराजमान है। यही सोच व कर्म मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलाता है।"
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      [07/11/2020, 1:37 PM] 
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"ब्रह्म साधना मनुष्य की अमूल्य संपदा है, जो हमारे पुरखें हमारे लिए विरासत में छोड़ गये है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी अंत: निहित शक्तियों की पहचान करता है तथा वह अनुभव करता है कि वह जगत का अतिविशिष्ट प्राणी है। मनुष्य को जब यह अनुभव हो जाता है कि इसकी यह विशिष्टता उसके लिए वरदान है, तब वह सतपथ चल पड़ता है। मनुष्य का यह सतपथ उसे आनन्द प्रदान करता है एवं वह गर्व से कहता है कि मेरे चलने का पथ आनन्द मार्ग है। आनन्द मार्गी आत्म मोक्ष एवं जगत हित की भावना लेकर आगे बढ़ता है, उसकी यह गति उसे मनुष्य जीवन चरम लक्ष्य में परिणत करती है और उसका मनुष्य रुप में आने का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। इसी को शास्त्र में सुपथ बताया है। आनन्द मार्ग ही सुपथ एवं सतपथ है।"
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        [14/11/2020, 6:46 AM] 
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"शास्त्र में आत्मदीप बनने का उल्लेख आता है। उजियारा को जीवन माना गया इसलिए महाजन, मनुष्य से सदैव प्रज्ज्वलित रहने की आश रखते है। यह अंदर की रोशनी मनुष्य के लिए आनन्ददायी है। जीवन को आनन्दमय बनाने लिए आत्मदीप भव का संदेश दिया गया है। यह अवस्था ही मनुष्य के लिए सही अर्थ में दिवाली है। आत्म आलोक के पथ पर चलते हुए सबको आलोकित करना आनन्द का पथ है। अत:आनन्द मार्गी ब्रह्म सत्य व जगत को आपेक्षिक सत्य का सूत्र धारण स्वयं अपने घर में आनन्द की दिवाली मनाता है एवं सब के घर  आनन्द का दीपोत्सव मनाने में अपना सहयोग देता है। इसलिए आनन्द मार्ग  पर चलो सदैव दीपावली मनाओं।"
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                   श्री आनन्द किरण


मत, पथ एवं धर्म
         मनुष्य का धर्म से गहरा रिश्ता है तथा शास्त्र धर्म विहीन जीवन को पशु तुल्य मानते है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को धर्म का ज्ञान होना आवश्यक है। व्याकरणाचार्यो  धर्म शब्द की उत्पत्ति धृ धातु के मन प्रत्येक संयोग बताते है। जिसका अर्थ धारण करना बताया है। क्या धारण करना प्रश्न के जबाब में विश्लेषक बताते हैं कि वह मौल  अथवा लक्षण जिससे उस सत्ता का अस्तित्व संपन्न होता है, उसे धर्म कहा जाता है। अर्थात अस्तित्व बताने वाला मूल गुण अथवा लक्षण धर्म है अथवा अन्य शब्दों में कहा जाये  तो  धर्म वह मूल गुण अथवा लक्षण जिसके अभाव में उस सत्ता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है अथवा खत्म हो जाता है। मनुष्य का धर्म वृहद प्रणिधान को बताया गया है। जहाँ वृहदता अर्थात बडप्पन में मनुष्य का अस्तित्व निवास करता है। इसके मनुष्य तनधारी पशु है। वृहद को लौकिक रुप में इंसानियत, मनुष्यता, मनखपना, मानवता, ह्युमेनिटी इत्यादि इत्यादि नाम से जाना एवं पहचान जाता है। व्यक्ति वाचक संज्ञा के रुप में इसे मानव धर्म नाम दिया गया है, जिसका भावगत नाम भागवत धर्म है। यह भागवत धर्म ही मनुष्य का धर्म है। धर्म में उपस्थित मूल तत्व वृहद के आधार पर मनुष्य के मत एवं पथ का निर्माण होता है। यदि मत एवं पथ के सर्जन, विवेचन, विमोचन एवं विश्लेषण में त्रुटि रहने पर मनुष्य के लिए क्षतिकारक हो जाता है। इसलिए मनुष्य का मत की प्रत्येक प्रस्तुत एवं प्रकटीकरण में वृहदाकार का समावेश होना चाहिए। उस मत एवं धर्म में पार्थक्य कुछ भी नहीं होता है। इस प्रकार पथ चयन भी धर्म के अनुकूल होना चाहिए। भागवत धर्म मनुष्य का धर्म है। यह मनुष्य का सूचित करता है कि मनुष्य का पथ परमपद को प्रदान करने वाला होना चाहिए। चूंकि परमपद आनन्दधन अवस्था है इसलिए मनुष्य का आनन्द से लबालब होना आवश्यक गुण है। 
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श्री आनन्द किरण
प्रथम पुरुष भगवान - सदाशिव
कोटी वर्ष पुराने इस पृथ्वी ग्रह पर 10 लाख वर्ष पूर्व मनुष्य आया था लेकिन प्रथम पुरुष की उपमा सात हजार पूर्व इस धरा पर विचरण करने वाले महासंभूति भगवान सदाशिव को दी जाती है। यह एक प्रासंगिक एवं मानव इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। भारतीय मान्यता के अनुसार भगवान शिव को सृष्टि के आदि कारक बताया गया है। वही भारतवर्ष के बाहर भी दृश्य एवं अदृश्य साक्ष्य भगवान शिव के आदि स्वरूप को प्रमाणित करते हैं। इस विश्व इतिहास में प्रथम बार महासंभूति तारकंब्रह्म श्री श्री आनन्दमूर्ति जी एक विप्लवी, साहसी, सत्य एवं ऐतिहासिक घोषणा की कि भगवान सदाशिव सात हजार वर्ष पूर्व इस धरा आए तथा कैलाश पर्वत पर रहते  मनुष्य व मानव समाज के निर्माण का प्रथम शंखनाद किया। 

(1) सृष्टि का निर्माण एवं शिव - वैैज्ञानिक एवं दार्शनिक विश्लेषण सृष्टि निर्माण के विषय में शोधपत्र रखते है। दार्शनिक शोधपत्रों का सार कहता है कि चेतन से जड़ का उदगम हुआ तथा जड़  से जैविक सत्ता का आगमन हुआ है। सृृष्टि के आदि कारक चेतन तत्व को दार्शनिक ने अलग-अलग नाम दिये तथा अपने दृष्टि सामर्थ्य के अनुसार परिभाषित भी किया है । मूूलरुपेण दार्शनिक धारणा सकारात्मक एवं नकारात्मक गति के आधार पर अपने शोधपत्र जारी किये। सकारात्मक विचारधारा एक आशावादी भाव को लेकर चलता है इसलिए अपना दर्शन आनन्दमय रुप में प्रस्तुत करता है। वही नकारात्मक स्वरूप मौजूदा स्वरूप की कमियों के आधार पर नया  प्रादर्श प्रस्तुत करते है। यह मनोविज्ञान इन्हें दुखवादी स्वरुप दिखा देता है तथा सर्वत्र कमी ही दिखाई देती है अन्ततोगत्वा यह पलायनवाद में जाकर प्रश्रय पाते हैं। दुखवादी दर्शन की शाखा ने चेतन को शून्य, आकाशीय वस्तु अथवा अज्ञात कह कर छोड़ देता है जबकि आनन्दमय दर्शन चेतन शुद्ध चैतन्य सत्ता चित्तिशक्ति के स्वरूप में देखता उसे शिव नाम देकर जीव अजीव का आदि अनादि बिन्दु बताता है।  दूसरी विज्ञान का शोधपत्र ज्ञात अज्ञात रुप से चेतन तत्व के अस्तित्व को सृष्टि का आदि बिन्दु अभिधारणा के रुप अंगीकार करता है। 
प्रयोगशाला में पुष्टि करने के लिए आधिकारिक तौर पर इस घोषित करने से रोक रखा है।  सारांश में सृष्टि के आदि एवं अनादि बिन्दु को शिव माना गया है। जो सबका सारांश है अथवा अन्य शब्द में शिव का एकोह्म अस्तित्व शेष उनके सापेक्ष है अर्थात उनको हटाने से सभी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। यह समष्टि रुप में भूमा चैतन्य परमात्मा तथा व्यष्टि रुप में अणु चैतन्य आत्मा कहलाता है। 

(2). हिन्दू मान्यता एवं शिव - शिव का नाम, व्यक्तित्व एवं धरोहर हिन्दू मान्यता संभाले हुए है, अत: शिव की छवि अधिक स्पष्ट से देखने के हिन्दू धारणा के परिपेक्ष्य में अध्ययन कर शिव के समग्र रुप का दर्शन करते है। हिन्दू मान्यता के अनुसार सृष्टि के आदि अनादि कारक शिव की इस सृष्टि का नियंत्रण ब्रह्मा विष्णु महेश नामक तीन शक्तिपुंज द्वारा होता है। यहाँ एक विरोधाभास यह की आदि अनादि कारक शिव एवं महेश को एक मान लिया गया है। जबकि सृष्टि नियंत्रण एक कार्य संहार इस शक्ति द्वारा संपन्न होता है जबकि शिव समग्र शक्ति के नियंत्रक है। जिसमें ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों का समावेश है। हिन्दू मान्यता शिव के दो रुप महादेव एवं शंकर भी विद्यमान है।  सदाशिव  इस धरा पर जब जन जागरण कर रहे थे तब रहस्य एवं नियंत्रक शक्ति के लिए देव शब्द का व्यवहार किया जा रहा था, इसी संदर्भ भगवान सदाशिव को महादेव कहा जाने लगा जो देवो के भी देव है। इसलिए महेेश एवं शिव को समानार्थ लेने की त्रुुटि की गई। शंकर शब्द का उदभव भक्ति की देन है। अपने आराध्य को सहज, सरल एवं सुलभ रुप दिखाने भोले शंकर शब्द का व्यवहार किया गया। पशुुुपति इत्यादि शिव के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द सदाशिव की विभिन्न भूमिका को चित्रित करती है।

(3) सदाशिव मानवता की धरोहर है - सदाशिव का आगमन इस धरा पर उस समय हुआ जिस समय मानव संस्कृति का प्रथम अध्याय लिखा जा रहा था, मनुष्य में पाश्विक प्रवृत्ति के अलावा मानवीय गुणों का प्रथम अभिप्रकाश हो रहा था। यह काल अनुमानतः पांच हजार ईसा पूर्व का था। इस युग में विश्व सभ्यताओं की पृष्ठभूमि बन रही थी। आज से पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व मध्य एशिया में ऋग्वेद की रचना प्रारंभ हुई थी। सदाशिव के आगमन से पूर्व ऋग्वेद की रचना हो गई थी। उस युग में मजहब, सम्प्रदाय अथवा जाति का जन्म नहीं हुआ था तथा सदाशिव ने संपूर्ण मानव जन गोष्ठी के लिए कार्य किया था। इसलिए सदाशिव को किसी देश या 
सम्प्रदाय की धरोहर कहना नादानी होगी। वह संपूर्ण मानवता की धरोहर है। 
(4)  सदाशिव ऐतिहासिक पुरुष थे  - इतिहास का अब तक का आलेख भगवान सदाशिव को कथा का पात्र एवं हिन्दू देवता कह कर बंंद हो जाता है। इतिहास के पास सदाशिव को ऐतिहासिक पात्र कहने साक्ष्य उपलब्ध है। उनके आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है कि भगवान सदाशिव एक ऐतिहासिक पात्र थे। शिव का निवास 
स्थान, विशेभूषा, वाहन, अस्त्र, शस्त्र एवं कार्य पद्धति एक जमीनी व्यक्ति की थी तथा उनके कार्य तत्कालीन परिवेश के अनुकूल थे। यह सब उन्हें काल्पनिक बताते ने अनुमति नहीं देते है। 

(5)प्रथम पुरुष सदाशिव - दर्शन के शिव एवं ऐतिहासिक पुुुरुष सदाशिव में कोई पार्थक्य रेखा नहीं है। शिव को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है वही सदाशिव को समझने के लिए भक्ति में प्रतिष्ठित होना पड़ता है। सदाशिव जिस युग में अपने हस्ताक्षर दे रहे थे, वह युग पहाड़ में कंदराओं में मनुष्य के निवास स्थान का युग था। इस युग के सदाशिव ही वह प्रथम पुरुष थे जिसने प्रथम विवाह कर मानव समाज की नीव रखी थी। उससे पहले यह सत साहस एवं समझ देने वाला कोई नहीं आया। वे ही प्रथम समाज शास्त्री, प्रथम राजनैतिक शास्त्री, प्रथम अर्थशास्त्री, प्रथम धर्म शास्त्री, प्रथम शिक्षा शास्त्री, प्रथम चिकित्सा शास्त्री, प्रथम कला शास्त्री, प्रथम विज्ञान शास्त्री एवं प्रथम पुरुष थे । यहाँ एक प्रश्न आ सकता है कि जब ऋग्वेद, वैदक शास्त्र एवं लिंग पुजा सदाशिव के पूर्व के थे तो सदाशिव प्रथम पुरुष कैसे?  उक्त विधा मनुष्य की चेतना के विकास के क्रम में प्रकाश में आई । लेकिन इसमें लय, क्रमबद्ध तथा नियमन सदाशिव के प्रभाव से मनुष्य कर पाया। ऋग्वेद की ऋचाएँ एवं मंडल सदाशिव के पहले के है लेकिन उसमें जहाँ प्राणिन चेतना है, वह सदाशिव के प्रभाव से आई । वैदक शास्त्र के औषधी सदाशिव से पूर्व मनुष्य जान गया था लेकिन इसके उपयोग की सुव्यवस्थित विद्या सदाशिव ने ही दी थी, लिंग पूजा एवं प्रकृति पूजा का प्रार्दुभाव सदाशिव पूर्व विद्यमान था लेकिन आत्मिक चेतना को जानने की साधना सर्व प्रथम सदाशिव ने ही मनुष्य को सिखाई ।  यह सभी सदाशिव को प्रथम पुरुष के रूप में नमन करने की अनुमति देते है। 

(6) सदाशिव का मानवता अवदान - इस धरा पर व्यक्तिगत नाम रचने वाले प्रथम महा मानव सदाशिव ही है। इस धरा उन्होंने ही तत्कालीन विखंडित मानवता को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रथम प्रयास सदाशिव ने किया था। सदाशिव के युग में मानव विभिन्न पहाड़ी ऋषि गोत्र में बटा हुआ था तथा अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्ष करते थे। खुन खराबे की भाषा को समझने वाले मनुष्य  कोो सदाशिव ने ही संंगच्ध्वम् का मंत्र सिखाया था। उन्होंने संगीत, 
नृत्य, चिकित्सा, तंत्र, कला, भक्ति, ज्ञान एवं आध्यात्म का पाठ पढ़ाया है। 
महाभारत पर एक शोधपत्र - भाग १
                                                         
विश्व में इतिहास की पहली पुस्तक संभवतया महाभारत है। इसका प्रारंभिक रुप जय संहिता के रुप 1000 श्लोकों का था। आज यह पुस्तक 1,00,000 श्लोकों के साथ महाभारत के रुप में मौजूद है। इसके रचियता कृष्णद्वैपायन व्यास है तथा लेखन में लिपिक का कार्य श्री गणेश ने किया। 1 हजार से 1 लाख श्लोक की यात्रा का क्या रहस्य इसके संदर्भ में तथ्य एवं साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।  महाभारत की कथाओं से जो बात सामने आए वे अपने आप में विशिष्ट है, जो महाभारत की विशिष्टता की कहानी कहती है। 

(A) राजा भरत, भारत एवं प्रजातंत्र– भारत इतिहास में पढ़ाया जाता है कि भारत देश का नाम शकुन्तला एवं दुष्यंत पुत्र देश के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत के नाम रखा गया है। इतिहास के इसी पृष्ठ से ज्ञात होता है कि राजा भरत ने भारत देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था की नीव रखी थी। जिसमें प्रजा की राय एवं गुणीजन की सलाह के बाद राजा योग्य व्यक्ति की परीक्षा लेकर सम्पूर्ण राज्य में से योग्य प्रतिनिधि राज्य को देता था। यहाँ प्रजातंत्र एवं लोकतंत्र में एक अंतर भी दिखाई देता है- प्रजातंत्र में प्रजा के लिए भावी राजा का चयन प्रजा की भावना, गुणीजन की सलाह एवं योग्यता के आधार पर वर्तमान राजा करता है। यहाँ जनता की राय ली जाती है जबकि जनता की ओर से मत राजा ही देता है। अर्थात प्रजातंत्र में निवर्तमान राजा की होना आवश्यक तथा उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है जबकि लोकतंत्र में जनता अपने लिए प्रतिनिधि स्वयं चुनती है अर्थात निवर्तमान प्रतिनिधि को होना आवश्यक नहीं है तथा उसकी भावी अध्यक्ष चुनने में कोई भूमिका नहीं होती है।

(B) शांतनु, गंगा, सत्यवती बनाम भीष्म प्रतिज्ञा – महाभारत से ज्ञात होता है कि राजा शांतनु के युग में महाभारत के इतिहास ने एक मोड़ लिया। कंचन एवं कामिनी की सुन्दरता के मोह में राजा ने प्रजातांत्रिक मूल्य की बलि दी। जिसका प्रथम उदाहरण त्रियाराज्य की युवराजकुमारी गंगा तथा दूसरा उदाहरण धीर कबीले के मुुुखिया की पुत्री सत्यवती है।
             त्रियाराज्य - भारत के इतिहास का वह लुप्त अध्याय है जो अपनी उपस्थित ही बहुत कुछ इतिहास सुना देता है। राजाओं के राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़तेे थे - बंदी बनाए पराजित सेना के योद्धा एवं राज परिवार की महिलाएँ। बंदी पुरुषों को मलेच्छ मानकर हेय कार्य करवाया जाता अथवा नरभक्षी का आहार बनाया जाता था तथा नारियों को विजेताओं की हवस का शिकार होना पड़ता था। ऐसी स्थिति में नारी के समक्ष दो विकल्प रहते थे - अपने शरीर को अग्नि सौप दे अथवा राज्य दूर चली जाए, जहाँ वे अपने मान, सम्मान एवं आत्म स्वाभिमान को जिंदा रख सके। वह परिवेश किसी जन झुरमुट में संभव नहीं इसलिए नदी घाटी एवं पर्वत की श्रृंखला में अपना त्रिया राज स्थापित करती थी तथा अपनी सुरक्षा के लिए नव युवतियों सैनिक शिक्षा देती थी। उन्हें पुरुषों की न्याय प्रियता पर तनिक भी भरोसा नहीं था इसलिए वे अपने राज्य में पुरुष प्रवेश निषेध रखती थी लेकिन उन्हें अपने राज्य की वंश वृद्धि की चिंता रहती थी, इस कार्य के नव युवतियो को मात्र गर्भधारण करने तक पुरुष के संग की अनुमति प्रदान करती थी। राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकार का उपयोग कर यह युवतियाँ तेजस्वी ऋषि पुत्रों एवं राजकुमारों से गर्भ धारण करने के लिए उन्हें अपने प्यार के झाल में फसाकर त्रिया राज्य ले जाती थी अथवा किसी  टेंट राजधानी में किसी अनुबंध के तहत गंधर्व विवाह करती थी। गंधर्व विवाह में संतान प्राप्ति तक  ही पति के साथ रहने की प्रथा थी। संतान उत्पन्न करने के संदर्भ में त्रिया राज्य की एक शर्त थी कि नर शिशु को नदी की जलधारा में बहाना होता था जबकि मादा शिशु को त्रिया राज्य में लाना होता था। नर शिशु को नहीं मारना तथा गंधर्व पति को सौपने की कमजोरी दिखने पर त्रिया राज्य में अपराध माना जाता था। यद्यपि गर्भ धारण करने वाली युवतियां त्रिया राज्य के अनुशासन के प्रति वफादार होती थी तथापि गुप्त एवं छदम सैन्य निगरानी में रहते हुए उक्त योजना को क्रिया रुप देना होता था। 
       कबीला शासन व्यवस्था -  इतिहास का यह छुपा अध्याय पराजित राज्य के स्वाभिमान से जीने वाले जन समुदाय अथवा स्वतंत्रता प्रिय प्रजातियों का होता था। जो मैदानी भाग दूर जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्र में होता था। इनके पास भी एक विशेष युद्ध कौशल होता था। यह घुमक्कड़ एवं स्थायी रहने वाले दोनों प्रकार के होते थे। यहाँ का एक सामाजिक अनुशासन होता था। कभी कभी तो ऐसे कबीलों का क्षेत्र एकाधिक राज्यों की सीमाओं से छटा रहता था। इनकी पुत्रियाँ मैदानी अंचल के पुरुषों से विशेष अनुबंध में ही शादियां कर सकती थी, क्योंकि उसके बाद पिता का दरवाजा सदैव लिए बंद होता था। इसलिए पिता अथवा युवतियां अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के वचन के आधार पर ही कार्य करती थी। 
        भीष्म प्रतिज्ञा - देवव्रत राजा शांतनु की कमजोरी के जीवन को हर्ष के साथ जीने वाला हस्ताक्षर था, एक ओर जननी बिना किसी सुरक्षा के हस्ताक्षर किए छोड़ जाना था, राज परिवार में अकेले बालक को कितने षड्यंत्र से सुरक्षित रहना होता है, यह दुर्ग के अंदर इतिहास ही बताता है। दूसरी ओर सौतेली माता अपनी भावी संतान के लिए एक सुरक्षित एवं सुदृढ़ हस्ताक्षर लेकर आई थी, जिसमें देवव्रत के सभी अधिकार क्षीण हो गए थे। देवव्रत भीष्म इसलिए नहीं हुआ कि उसने राज्य त्याग दिया, यदि ऐसा होता तो रामायण के पात्र भरत से बड़ा त्यागी कोई दूसरा नहीं है, जिसकी शरणों में आया राज्य सत्य तथा धर्म की मर्यादा के लिए समर्पित कर दिया था। इसलिए भी वह भीष्म नहीं कहलाया कि उसने ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर दी थी क्योंकि ऐसा दृढ़ संकल्प लेने वालों की भारत में कमी नहीं है। वह भीष्म इसलिए कहलाया था कि उसको प्रतिज्ञा दिलाने वाले ने, राज्य के कानून ने, समाज के नियमों, धर्म के अनुशासन तथा अवसरों ने  आजादी एवं सुलभता प्रदान की फिर भी वह अपने वचन की अड़ींगता से तील भर इधर उधर नहीं हुआ। प्रथम अवसर राजा शांतनु का सत्यवती को संतान दिये बिना मर जाना तथा काशी की कन्या जिसकी देवव्रत से प्रतिज्ञा से पूर्व संबंध की बात तय हुई थी एवं जो देवव्रत की प्रियतमा भी थी वह आजीवन प्रतिक्षा में बैठी थी फिर भी मन, कर्म एवं वचन से अपनी प्रतिज्ञा को निभाई। द्वितीय अंबिका एवं अंबालिका को संतान देने हेतु सहवास का माता सत्यवती द्वारा आदेश देना, समाज की तात्कालिक मर्यादा एवं धर्म की अनुमति होने पर भी प्रतिज्ञा से नहीं डिगना तथा तृतीय अम्बा द्वारा वरमाला पेश करने पर सभी राज्यों के कानून के आदेश, समाज के पंचों के आदेश तथा धार्मिक संतों आदेश की परवाह किये बिना पथ पर बने रहना देवव्रत को भीष्म बनाता है।

(C) चित्रांगद, विचित्रवीर्य एवं  हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी – राज माता सत्यवती की दो संतानों का उल्लेख महाभारत में आता है। वस्तुतः यह दोनों जीवित मनुष्य नहीं थे प्रथम एक यांत्रिक मानव चित्र+ अंग + द तथा दूसरा विचित्र प्रकार वीर्य जो संतान उत्पन्न करने के लिए तैयार किया गया था अर्थात जैव रसायनिक मानव। प्रथम भारत की भौतिक विज्ञान की विकसित होने का प्रमाण देता है तथा द्वितीय जैव रसायन की उन्नत अवस्था का बोध करता है। 

यांत्रिक मानव राजा(रॉबर्ट राजा) चित्रांगद - कहानी इस प्रकार है कि शांतनु भीष्म के साथ हुए अन्याय की व्यथा से व्यथित होकर सत्यवती को संतान दिये बिना ही देह त्याग कर दी थी।  इस स्थिति में हस्तिनापुर सिहांसन शुन्य हो गया तथा शांतनु द्वारा सत्यवती के होने वाले पुत्र को राजा घोषित कर दिया गया थाा, जबकि सत्यवती की  कोई संतान नहीं थी, इसलिए सत्यवती एवं उनके पिता ने भीष्म को दोनों वचन से मुक्त किया तथा प्रतिज्ञा तोड़ने का आग्रह किया लेकिन भीष्म ने अपने प्रतिज्ञा को महत्व देते हुए आग्रह ठुकराकर प्रश्न फिर से सत्यवती के पास भेज दिया। इस विषम परिस्थिति में सत्यवती ने अपने पालित पुत्र वेद व्यास की मदद से व्यास विद्यापीठ के अभियंता द्वारा क्रुरुवंशियों की अस्थियों तथा विशेष आवरण से एक यांत्रिक मानव (रॉबर्ट) तैयार किया। जिसे हस्तिनापुर की सभा सदन की सलाह पर सत्यवती ने समस्या के हल होने तक अपना पुत्र राजा स्वीकार किया तथा भीष्म को उनका तथा राज्य का रक्षक नियुक्त किया। तब यह माना जा रहा था कि समय के साथ भीष्म के मन में बदलाव आ जाएगा। यांत्रिक मानव की रचना का प्रमाण तात्कालिक भौतिक विज्ञान की प्रगति के प्रमाण - द्रोणाचार्य गुरुकुल द्वारा  निर्मित विशेष वेग गति करने वाले यांत्रिक घडियाल जो जीवित घडियाल सदृश्य था, यांत्रिक पक्षी एवं पंचाल देश के अभियंता द्वारा निर्मित यांत्रिक मछली जो गतिमान रहती थी। आधुनिक रॉबर्ट की भांति यह विद्युत ऊर्जा के स्थान पर यांत्रिक ऊर्जा से चलयमान होते थे।

 जैव रासायनिक मानव विचित्रवीर्य - यांत्रिक राजा चित्रांगद के समय एक दृश्य यह हुआ कि काशी राज्य में तीन राजकुमारी अंबा, अंबिका व अंबालिका स्वयंवर आयोजित हो रहा था तथा उस स्वयंवर में भारतवर्ष के सभी राजवंश में आमंत्रण भेजा गया लेकिन हस्तिनापुर को आमंत्रित नहीं किया गया। इसके दो कारण थे प्रथम भीष्म द्वारा काशी कन्या से रिश्ता तोड़ना तथा द्वितीय हस्तिनापुर के मानव राजा नहीं होना जिसमें प्रथम कारण को अधिक बल दिया गया था। भीष्म ने इसे हस्तिनापुर ने का अपमान मानकर तीनों राजकुमारियों बलपूर्वक उठा लाया, जिसमें अंबा ने शाल्व राज को पति स्वीकार ने की बात कही तो भीष्म उसे ससम्मान शाल्व देश भेज दिया लेकिन उसने दान की वस्तु मानकर अंबा को पत्नी मानने से इंकार कर दिया। इस स्थित में  
अंबानी भीष्म की जिम्मेदारी होती थी। लेकिन भीष्म के द्वारा इसे स्वीकार नहीं करने के कारण अम्बा कालांतर में भीष्म के लिए मृत्युबाण बनी। अंबिका व अंबालिका हस्तिनापुर की महारानियाँ बन गई। अकेली महारानियाँ हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी नहीं दे सकती थी इस स्थिति में हस्तिनापुर के पास एक ही विकल्प था कि भीष्म महारानियाँ के साथ सहवास कर हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी दे, लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को कदापि तैयार नहीं था इसलिए सत्यवती ने हस्तिनापुर की इस दूसरी समस्या का तोड़ भी अपने पालित पुत्र वेद व्यास माध्यम निकलवाया। व्यासपीठ के चिकित्साचार्यों ने हस्तिनापुर के पूर्व राजाओं के जीवाश्मों से जीव विज्ञान की प्रयोगशाला में एक विचित्र प्रकार का वीर्य तैयार किया व उन्हें अंबिका, अंबालिका व उनकी दासी( यह काशी से राजकुमारियों के साथ आने वाली एक मात्र दासी थी तथा तत्कालीन नियमानुसार यह भी महारानियों के पति की संपदा मानी जाती थी) के गर्भ में प्रवेश करवाया गया। इस प्रकार विचित्रवीर्य राजा माता सत्यवती का दूसरा पुत्र कहलाया तथा दोनों महारानियाँ विचित्रवीर्य की अर्द्धांगिनी। 

 क्लॉन शिशु - तीनों माताओं ने अपनी मानसिक दशा के अनुसार संतान को जन्म दिया। अंबिका अपने भविष्य को अंधकारमय देखती थी तथा अंबालिका अपने जीवन में चिंतित रहती थी जबकि दासी अपने जीवन को अपना कर्तव्य मानती थी। उसी के अनुरूप धृतराष्ट्र अंधे, पांडु अस्वस्थ एवं विदुर ज्ञानी हुए। चूंकि इनका जन्म हस्तिनापुर के राजाओं के जीवाश्मों द्वारा निर्मित शुक्र से तथा हस्तिनापुर की स्वीकृत महारानियाँ के गर्भ से होने के कारण धृतराष्ट्र एवं पांडु क्रुरुवंशी हुए। 

(D) कौरव, पांड़व व हस्तिनापुर -  धृतराष्ट्र का विवाह गांधार राजकुमारी गांधारी व उसी सखी राज कन्या से हुआ था। इसके साथ कई दासियां भी हस्तिनापुर आई थी। तात्कालिक नियमानुसार यदि दासियों का विवाह अन्य पुरुष से नहीं होता था तो वे राजा की उप पत्नियां कहलाती तथा उनके पुत्र राजा के पुत्र माने जाते थे। गांधारी एक विद्वान महिला थी उसके दो पुत्र दुर्योधन व दुशासन तथा एक पुत्री दुशाला थी, धृतराष्ट्र की दूसरी पत्नी के युयुत्सु व विकर्ण तथा शेष पंचानवें कौरव धृतराष्ट्र की उप पत्नियों के पुत्र थे। पांडु का कुंतिभोज की राजकुमारी कुंति व माद्र देश की राजकुमारी माद्री से हुआ था। कुंति के चार पुत्र कर्ण, युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन क्रमशः राजा, सूर्य देवर्षि धर्मराज, महर्षि पवन व राजर्षि इन्द्र से हुए थे। कर्ण का जन्म कुंति के विवाह पूर्व हुआ था, तत्कालीन समाज में इस प्रकार के शिशु को जन्म देना गलत नहीं माना जाता था। माद्री के दोनों पुत्र ऋषि कुमारों के पुत्र थे।। चूंकि पांडु संतान उत्पन्न करने में अयोग्य थे इसलिए उसने अपने पत्नियों को अन्य पुरुषों से गर्भधारण करने की आज्ञा प्रदान की थी जो तात्कालिक समाज शास्त्र के अनुसार पांडु के पुत्र ही कहलाए। 

हस्तिनापुर के उत्तराधिकार – हस्तिनापुर की जनता, सभा संसद एवं नीतिकार कानून युधिष्ठिर को  उत्तराधिकारी चयनित करते थे जबकि धृतराष्ट्र की उच्चाकांक्षाएं दुर्योधन को राजा के रुप में देखना चाहती थी इसलिए गंधार नरेश शकुनि ने दुर्योधन को छलकपट से राज्य का अधिकार अपने पक्ष में करने का पाठ पढ़ाया। यह महाभारत की लड़ाई का एक कारण था

(E) महाभारतकालीन सैन्य, राज्य कौशल तथा द्युतक्रीडा का दृश्य – महाभारत एक इतिहास है, इसलिए यहाँ से राज्य की व्यवस्था, सैन्य संचालन की प्रणाली एवं समाज की दशा का ज्ञान मिलता है। महाभारत का सैन्य कौशल पैदल सेना, अश्वरोही सेना, रथ सेना, गजरोही सेना तथा ऊँट व अन्य पशुओं से शस्त्र आपूर्ति करने वाली पंच अंग सेना होती थी। प्रथम पैदल सेना यह सेना के बीच में रहती थी तथा इनके हथियार गदा, लाठी व मल युद्ध होते थे। सेना बहुत बड़ा हिस्सा इस प्रकार के सैनिक का होता था। पांडव पक्ष में भीम तथा कौरव पक्ष सभी धृतराष्ट्र पुत्र इस सेना सदस्य थे। द्वितीय अश्व सेना यह सेना के दोनों ओर रहते थे तथा इनका अस्त्र तलवार होती थी। पांडव पक्ष में इस सेना में नकुल व कौरव सेना से कृतवर्मा थे। तृतीय रथ सेना, यह पैदल सेना के पीछे धनुष बाण नामक शस्त्र से युद्ध करते थे। पांडव पक्ष में अर्जुन तथा कौरव पक्ष में भीष्म, कर्ण, द्रोणाचार्य इत्यादि इस सेना के रथी थे। चतुर्थ गज सेना यह सबसे पीछे मुख्य यौद्धा को लेकर रहती थी। पांडव पक्ष से इस सेना प्रभार युधिष्ठिर के पास जबकि कौरव सेना में यह प्रभार शल्य के पास था। पंचम ऊँट सेना, यह अस्त्र, शस्त्र आपूर्ति का कार्य करती थी। पांडव सेना में यह कार्य सहदेव की देखरेख में तथा कौरव सेना में शकुनि की। राज्य की संरचना में राजा के अतिरिक्त चार प्रमुख विभाग होते थे- गृह, मित्र राष्ट्र, शिक्षा एवं धर्म। युधिष्ठिर के राज्य में यह कार्य क्रमशः भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव की अधीन थे जबकि धृतराष्ट्र के शासन काल में यह कार्य विधुर, भीष्म, द्रोणाचार्य व कृपाचार्य के द्वारा संपन्न किये जाते थे। तीसरा बिन्दु द्युतक्रीडा एक प्रासंगिक विषय है जिसने महाभारत के इतिहास को सबसे अधिक प्रभावित किया है। यह एक ऐसा दृश्य चित्रित करता है कि धर्मयुद्ध के पूर्व राजा की संपत्ति में अचल, चल के अलावा भाई एवं पत्नी भी आते थे। जिसे राजा एक दानी की भाँति किसी को दे सकता था तथा जुगारी की भाँति हार भी सकता था। उसके बाद मानवीय मूल्यों के साथ कुछ नियम बदले गए छोटे भाई साथी मित्र तथा पत्नी सहभागी बन कर कार्य करने लगे। यह दृश्य ऐतिहासिक था अथवा काल्पनिक यह शोध का विषय है जबकि यह शिक्षा मूलक है इसलिए प्रासंगिक है।
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श्री आनन्द किरण

भारतवर्ष का राजनैतिक परिदृश्य



विश्व में प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति सबसे अधिक प्रासंगिक है। वर्तमान युग में विश्व जिस शान्ति का संदेश को दे रहा है। सृष्टि के उषाकाल में सर्वजन के सुखमय एवं विश्व परिवार का संदेश भारतवर्ष के संस्कार में दिया गया। विश्व की इस महान संस्कृति का संदेश जब तक सत चरित्र के पास रहा तब तक सम्पूर्ण धरा ने नमन किया है। भारतवर्ष की संस्कृति के इस महान संदेश को जिस दिन संदेशवाहकों द्वारा स्वार्थ के हेतुभूत होकर परिभाषित किया उस दिन भारत के अभिशापमय अस्पृश्य छवि का उद्भव हुआ। मानवता का यह धृणित अध्याय देव संस्कृति के आंचल पर कलंक के रुप साबित हुआ। भारतवर्ष के इतिहास के पन्नों पर पाखंड, आडंबर एवं शोषण का रक्त रंजीत पृष्ठ है तो साथ में तुर्क, अफगान एवं यूरोपीय जाति की गुलामी को भी रेखांकित किया गया है। इसलिए भारत का राजनैतिक परिदृश्य उक्त पंक्तियों को स्पर्श किये बिना विशुद्ध रुप से दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है।

        भारतवर्ष का राजनैतिक परिदृश्य लोग राजनैतिक दलों के प्रति जन आकर्षण की बनती एवं बिगड़ती तस्वीर से नहीं देखा जा सकता है। चूंकि राजनैतिक परिदृश्य सम्पूर्ण समाज की तस्वीर को दिखाने का कार्य करता है इसलिए इसका स्वरूप समाज हित के सदृश्य होना चाहिए। 

          स्वतंत्र भारतवर्ष में भारतवर्ष के समक्ष दो चुनौतियां थी। प्रथम नवोदित राष्ट्र का निर्माण एवं द्वितीय विश्व के समक्ष भारत की एक आदर्शमय पहचान को रखना। इन चुनौतियों का जबाव पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक राजनीति ने देने का प्रयास किया वह ठीक है लेकिन संतोषजनक नहीं है। हम जिस संस्कार एवं संस्कृति के पौषक हैं उसका पाठ पढ़ाने मात्र से सुन्दर परिदृश्य का निर्माण नहीं होता है। इसके निर्माण हेतु राजनीति के पास समाज एवं अर्थनीति का प्रगतिशील एवं उपयोगी होना आवश्यक है। बड़े दुख के साथ लिखना पड़ता है कि लोकतांत्रिक राजनीति का कोई भी दृश्य विराट दर्शन के अनुकूल नहीं दिखता है। इसके निर्माण के लिए वाम पंथी, दक्षिण पंथी, समाजवादी एवं कांग्रेस  की किसी भी विचारधारा ने अर्थनीति एवं समाजनीति को भारतवर्ष के आदर्श के अनुकूल बनाने का प्रयास नहीं किया गया। इसके दुस्परिणाम स्वरूप भारतवर्ष में जातिगत, साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय राजनीतिक का उद्भव हुआ। आज का किसी भी एक राजनैतिक दर्पण से नहीं देखा जा सकता है। भारतवर्ष अनेक व्यक्तिवादी दर्पण क्रियाशील हैं। इसलिए भारतीय राजनीति को किसी एक कोण से देखकर पूर्ण परिदृश्य को नहीं देखा जा सकता है। भारतीय राजनीति को सांस्कृतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में निर्मित करने का तथाकथित हिन्दूवादी राजनीति भी नरेन्द्र मोदी के चेहरे रुप के दर्पण में दिखाई दे रही है। भारतवर्ष की राजनीति को प्रगतिशील उपयोगी तत्व के नव्य मानवीयता दर्पण में आनन्दमयी ज्योति में देखने पर ही हम राजनीति सम्पूर्ण परिदृश्य को देख सकते है। 

         भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति विश्व कल्याण एवं सर्वजन सुखार्थ व हितार्थ की अवधारणा को लेकर खड़ी हैं इसलिए हमारी राजनीति के त्रिनेत्र को होना चाहिए। प्रथम व्यष्टि एवं समष्टि का उद्देश्य आनन्दमयी सृष्टि का निर्माण करना, द्वितीय नव्य मानवतावाद सोच लिए खड़ा एक समाज हो तथा तृतीय अर्थव्यवस्था प्रगतिशील उपयोगी तत्व को लेकर सृजित हो। यही परिदृश्य भारतीय राजनीति को होना चाहिए तथा विश्व इसी राजनैतिक परिदृश्य का बेसब्री से इतंजार कर रहा है। विश्व शांति के अग्रदूतों एवं राष्ट्र भक्तों को मूल कर्तव्य है कि कल्याणमयी राजनैतिक परिदृश्य का निर्माण करें।
हस्ताक्षर
करण सिंह शिवतलाव
रामायण में ब्रह्म विज्ञान
            रामायण में ब्रह्म विज्ञान
       विश्व का सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रंथ रामायण है, विश्व की विभिन्न भाषाओं में रामायण को पढ़ा समझा एवं सुना जाता है। रामायण का प्रथम स्वरुप रामकथा के रुप आया - जिसे विभिन्न ऋषि गुरुकूल द्वारा एक सामाजिक नाट्य के रूप में दिखाया गया, जिसमें वशिष्ठ गुरुकुल का रामराज्य प्रथम नाट्य था, तत्पश्चात विश्वामित्र गुरुकुल से सीता स्वयंवर, भारद्वाज गुरुकुल से वन में राम तथा अगस्त्य गुरुकुल से रावण वध सामाजिक नाट्य के रुप में मंथन किये गए। महर्षि वाल्मीकि ने प्रथम बार राम शब्द अविष्कार किया था। कालांतर में बाल्मीकि गुरुकुल की ओर से रामायण नामक महाकाव्य की रचना की गई। रामायण की सबसे अधिक लोकप्रियता संत तुलसीदास के ग्रंथ रामचरितमानस के माध्यम से आई।  रामलीला के मंथन ने रामायण को जन, गण मन में बैठा दिया। 
(1.) श्रीराम ऐतिहासिक पुरुष थे अथवा नहीं – इतिहासकारों ने राम को ऐतिहासिक पुरुष दर्जा नहीं दिया है, इसलिए एक विवाद है कि राम वास्तविक है अथवा काल्पनिक? -
 राम नाम का उदभव महर्षि बाल्मीकि की जिह्वा से हुआ, राम के नाम को राम से बड़ा माना गया है तथा रामायण को बाल्मीकि की भविष्य दृष्टि के रुप में चित्रित किया गया है। अतः प्रथम पक्ष इसे काल्पनिक बताता है जबकि राम  जन मन के भगवान है तथा भक्त के मन में उभरने वाली भगवान छवि ऐतिहासिक हो अथवा नहीं  पर वह छवि सदैव वास्तविक रुप में ही प्रकट होती है। इसलिए इस विवाद से अधिक मूल्यवान है – रामायण की शिक्षाएँ। 

(2.) रामायण में शिक्षा – राम कथाओं का उदभव सामाजिक शिक्षा के लिए हुआ था। इसलिए इसकी प्रत्येक घटना, पात्र एवं दृष्टांत शिक्षा से भरे पड़े है। जिसमें श्रीराम को एक मर्यादा पुरुषोत्तम के रुप दिखाया गया है। उसके इर्दगिर्द सभी पात्र एक मर्यादा लेकर दिखाई देते है, खलनायक रावण को भी ज्ञानी एवं बिना ईच्छा के स्त्री की शीलभंग नहीं करने वाला बताया गया है। इससे सिद्ध होता है कि विश्व में शिक्षा प्राप्त करने सबसे प्रमाणिक पुस्तक रामायण है। 

(3.) रामायण में विज्ञान  - रामायण ज्ञान विज्ञान का भंडार है। जहाँ मनुष्य भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक खुशहाली का ज्ञान प्राप्त होता है। भौतिक दृष्टि से रामराज्य समाज की एक आदर्श अवस्था का चिंतन है, मानसिक दृष्टि श्रीराम एक संयम, संतुलन व दृढ़ता के प्रतीक है तथा आध्यात्मिक दृष्टि से राम योगियों के हृदय में रमने वाले भगवान है

(4.) रामायण में ब्रह्म विज्ञान – रामायण छिपा आत्मज्ञान समझने संपूर्ण रामायण की तीन  यात्रा करते है- 
     (1.) दशानन से दशरथ – रामायण का प्रथम मिथक दशानन से दशरथ है। दशानन दस मुख की छवि को बताता है। एक ऐसा व्यक्ति जो किसी के शासन में नहीं रहता हो तथा कोई उसे शासन की बागडोर में नहीं बांध सकता है। इसलिए विशेष शक्ति संपन्न दशरथ की आवश्यकता है। दशानन दसों दिशाओं में विचरण करने वाले मन का प्रतीक है, जो मनुष्य को पतन की चरम अवस्था में ले जाता है। इसके विपरीत दशरथ दसों दिशाओं में विचरण करने वाले मन को आत्म एवं जग कल्याण के लिए संगठित करने वाली मन की अवस्था है। यह अवस्था  खलनायक मन को मार तो नहीं सकती लेकिन दशानन को अपनी सीमाओं के भीतर नहीं आने देता है। इसलिए दिखाया गया है कि दशानन दशरथ राज सीमा से दूर निर्जन प्रदेश के वासियों को अपना भक्षण बनाता है अर्थात संकल्प शक्ति से रहित जीने वाले सज्जन पुरुुषों को दुर्जन पल पल दुखी कर कुुुपथ पर  चलने को मजबूर करता है अथवा मृत्यु के मुख में धकेलता है। अत: राम व रावण को समझने से पूर्व दशानन व दशरथ को समझना आवश्यक था। 
        रामायण की एक उक्ति है –
  राम राम सबहि जपें, दशरथ भये न कोई। 
जो मन दशरथ बन जाहि, ता घटमा राम स्वत: प्रकट भयी । 

  (2.) अयोध्या से लंका तक  - दशरथ अयोध्या के तथा दशानन लंका के राजा है। अयोध्या अर्थात अ + योद्य, जिसे युद्ध द्वारा जीता नहीं जा सकता है।  अवध जिसका वध नहीं किया जा सकता है शास्वत सनातन अवस्था सहस्त्राचक्र । साधना विज्ञान का चरम एवं परम स्थल, जहाँ साधक साधना समर द्वारा नहीं तारकंब्रह्म की कृपा से पहुचता है। लंका चरम जड़ता की अवस्था है। इस अवस्था को अंधकार की उपमा दी गई है अर्थात यहाँ का नरेश रात सदृश्य वर्ण का रावण कहलाया अर्थात दशानन रावण बन गया। उसी रावण को मारने के लिए अयोध्या के राजा दशरथ के घर राम प्रकट हुए। रामायण में भक्ति रस के स्वामी अथवा निर्गुण ब्रह्म की सगुण अवस्था राम है। अतः प्रमाणित है कि राम की जन्मभूमि, आध्यात्मिक अयोध्या है। चूंकि राम रावण मारने के आये थे इसलिए उन्हें अयोध्या तो छोड़ना ही था क्योंकि अयोध्या में रावण नहीं आ सकता है, जहाँ दशरथ है वहाँ दशानन नहीं रह सकता है। राजा दशरथ की तीन रानियाँ अर्थात सत्वगुण कौशल्या, रजोगुण कैकेयी एवं तमोगुण सुमित्रा। सत्व से सतपुरूष राम व रज से रजपुत भरत का जन्म होता है तथा सुमित्रा में जो सत्वगुण का अंश वह लक्ष्मण तथा रजोगुण का अंश शत्रुघ्न। राम को अयोध्या छोड़ दक्षिण में जाना अर्थात शरीर के दक्षिण के हिस्से में चित्रकुट अर्थात गुरु चक्र जहाँ भक्त व भगवान का मिलन होता है, पंचवटी आज्ञाचक्र, जो पंच तत्व का नियंता है, माँ शबरी का आश्रम अर्थात शब्द तंमात्रा वहन करने वाले आकाश तत्व को धारण करने वाला विशुद्ध चक्र, हनुमान का वास स्थान अर्थात वायु तत्व का धारक अनाहत चक्र, बाली की शक्ति अग्नि तत्व के धारक मणिपुर चक्र में है, समुद्र की विशाल जलराशि जल तत्व  स्वाधिष्ठान चक्र है तथा लंका लं बीज मंत्र एवं सोने के वर्ण की पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र है। सीता साधक की कुल कुंडलिनी जीव भाव तथा राम साधक का बंधन मुक्त शिव भाव है। सीता राम के मिलन बिना अयोध्या में राम पूर्ण नहीं जबकि सीता तो लंका में रावण अर्थात मायावी शक्ति के बंधन में है। कुल कुंडली के जागरण के बिना साधना मात्र एक प्रक्रिया है जो साधक यंत्रवत पूर्ण करता है। चौहद वर्ष सात चक्रों का ज्ञान अर्जन करना एवं साधना कर्म द्वारा सिद्ध होना है इसलिए सात गुणा दो बराबर चौदह है। वनवास अर्थात एकांत माने अपने में वास करना। 
      (3.)  पुष्पक विमान से अयोध्या  - रामायण में ब्रह्म विज्ञान के शोध में पुष्पक विमान से अयोध्या की यात्रा भी महत्वपूर्ण है। इसको समझने पूर्व रामायण के संदर्भ में एक उक्ति है उस पर दृष्टि डालते है –‘घर का भेदी लंका ढहाए’ , यह उक्ति विभीषण के संदर्भ में कही गई तथा इसका ईशारा एक गद्दार की ओर जाता है। लेकिन विभीषण को गद्दारों की अंतिम पंक्ति में भी किसी ने खड़ा करने साहस नहीं किया है। उक्ति अर्थ एवं संदर्भ व्यक्ति में कोई समानता  नहीं है तथा यह एक शोध का विषय है। लं जड़ता का बीज मंत्र है, लंका का अर्थ अंधकार, क्रुरता तथा बंधन का चरम बिन्दु । ढहाने का अर्थ हुआ गिराना तथा गिराने वाले को घर का भेदी बताया गया है। घर का अर्थ जड़ वस्तु से बनी वह आकृति जहाँ चेतन मन का निवास हो। इस अर्थ मनुष्य वास्तविक एवं स्थायी घर मानव शरीर है, जिसका भेदी अर्थात रहस्य ज्ञाता है। वह गुरु के रुप में मिल जाए तो जड़ता एवं अविद्या में बंधक मन का जीव भाव मुक्त हो जाता है अर्थात लंका ढहाई जाती है अन्यथा लंका ढ़हाना दुष्कर है। गुरु साधक को साधना रुपी पुष्पक विमान देते जिसमें सवार होकर साधक कुल कुंडलीनी सहित सहस्त्राचक्र की चल पड़ता है। गुरु द्वारा प्रधान किये पुष्पक विमान की सहायता से जिस पृथ्वी तत्व लंका का लंकेश रावण जैसा दुरात्मा बताया गया है, जल तत्व  समुद्र जो अथाह जल राशि के रुप में  मनुष्य के प्राणों को निगलने को आतुर है, अग्नि तत्व जो अथाह बलशाली है तथा प्रतिद्वंद्वी की शक्ति भी अपने में समावेश कर लेते है, वायु तत्व वह पर्वत शिखर है जहाँ चढ़ने श्वास फूल जाती है तथा आकाश तत्व जहाँ पापात्मा साधु मन जो अबला के समान है जगत की धकेलते रहता है। जिसका चित्रण अविद्या माया ने किया है उसको पार कर आज्ञाचक्र से भी उपर सहस्त्राचक्र में अधिष्ठित हो जाता है। पुष्पक विमान में बैठाने वाले गुरु कहते लंका पृथ्वी तत्व के स्वामी धर्मात्मा  विभीषण है जो तुम्हारा सहयोगी हैं, समुद्र अब तुम्हारा सहायक है जो भव सागर पार करने में प्रभु नाम सेतु बना रखा है, अग्नि तत्व  सुग्रीव के नियंत्रण में जो तुम्हारा सखा वह तुम्हारा मदद को आतुर है, वायु तत्व हनुमान का है जो तुम्हारा भक्त है तुमें अपने कंधे पर बैठा कर शिखर चढ़ा लेगा तथा आकाश तत्व में माता शबरी है जो इष्ट मंत्र रुपी शब्द तुमने पाया वही तो आकाश को पार करा देगा। फिर रहा आज्ञा चक्र पंचवटी जहाँ के  नियंत्रक मन तुम्हारा अपना  है जहाँ बैठकर मैंने तुझे साधना सिखायी एवं आत्मज्ञान करवाया। फिर पूर्ण सदगुरु कहते है कि गुरुचक्र में मैं ही तारकंब्रह्म के रुप हूँ, मै तुम्हें अपनी तारकंब्रह्म्मीय  कृपा से मुक्ति मोक्ष प्रधान कर सहस्त्राचक्र स्वामी बना दूंगा अर्थात अणु भूमा बन जाएगा जीवात्मा परमात्मा बन जाएगी। यह विद्या तंत्र है। अर्थात सीताराम अयोध्या के राजा राम बन गए। 
(5.)  रामायण की नीति –  रामायण की नीति है अंधकार को आलोक से, घृणा को प्रेम से, शत्रुता को मित्रता से, उद्दंडता को कठोरता से, निंदा को प्रशंसा एवं क्षुद्रता को महानता से जय करने की रही है। यद्यपि रामायण ग्रंथ युग युग में युग की आवश्यकता एवं मान्यता के आधार पर बहुत लिखा गया, पुनर्लेखन किया एवं मिटाना भी गया है तथापि रामायण में समानता रही है यह ग्रंथ मर्यादा की सीमा को परिभाषित करने में कोई भूल नहीं करता है। यद्यपि कथा के नायक श्रीराम को लेखकों ने अपनी भावना, विचार एवं संस्कार की डोर सजाने में कमी नहीं रखी तथापि उन्होंने श्रीराम की प्रभुता को कम आंकने की भूल नहीं की है।  इसलिए राम के संदर्भ में जो मिथ्या विचार चल रहे वह व्याख्याकार के धारण करने अज्ञानता, न्यूनता एवं नकारात्मकता का परिणाम है। 
एक मिथक समझते है -
मुख में राम बगल में छूरी - मुख का माने सामने अथवा मुख्य लक्ष्य राम अर्थात सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय आदर्श हो तथा बगल का माने पास में  छूरी अर्थात शक्ति हो वही सुशासन स्थापित कर सकता है। 

(6.) रामायण की प्रासंगिकता  - रामायण एक शिक्षा मूलक पुराण है तथा उसके नायक श्रीराम रोगियों हृदय के कण कण में रहने वाले प्रभु है। 
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श्री आनन्द किरण@9982322405
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श्रद्धेय एडवोकेट श्री नरेंद्र के राजपुरोहित को यह आलेख समर्पित

आदर्श राज्य का संविधान
       
                                                
          भारत वर्ष में पांच वर्ष के तथाकथित जनादेश को ताक पर रखकर एक दल की सरकारें गिराकर अपने दल की सरकारें बनाने का जो अभिनय हो रहा है तथा इसमें संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की जिम्मेदारी के पद पर आसीन राज्यपाल एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका पर लगने वाला सवालिया निशान भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक को संविधान की मजबूरी को समझने का अवसर देता है। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की बाड़ेबंदी, लोकतंत्र में आदर्श राज्य की उपादेयता को समझने की मांग करता है तथा उस आदर्श राज्य का संविधान का स्वरूप स्पष्ट करने की आवश्यकता महसूस करता है। 
            आदर्श राज्य समाज की उस व्यवस्था का नाम है, जहाँ प्रत्येक नागरिक यह महसूस करें कि उनके हित एवं सुख जबरन कोई हरण नहीं करें तथा समाज की उस व्यवस्था के प्रति नागरिकों के मन आत्मियता, सम्मान एवं स्वाभिमान का भाव रहे। इसके अभाव में नागरिक के मन अविश्वास, भय, लूट तथा स्वार्थ का माहौल बना रहता है। शासक एवं जनता के बीच के संबंध में पारिवारिक सौहार्द बना रहे। इसलिए कार्य करने की नीति सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ रहेगी। 

आदर्श राज्य के चित्रण के बिन्दु
1. आदर्श राज्य की जनक –  राज्य के समुख एक आदर्श होना चाहिए, जिसके सांचे में नागरिकों ड़ाला जा सकता है तथा शासन उस आदर्श का प्रतिफलित करने को कार्य करता है। इसलिए आदर्श राज्य पहचान में सर्वजन कल्याण के तत्व (सिद्धांत व मूल्य) होते है साथ में वह व्यक्तित्व भी राज्य की पहचान का आधार होता है, जो सर्व भवंतु सुखिनः का संस्थापित करने में जीवन लगा देते है। वही आदर्श राज्य के जनक की भूमिका का निवहन करते हैं। 
2. आदर्श राज्य की जननी – आदर्श राज्य के संचालन के नियम एवं विधान की पंजिका तैयार की जाती है। जिसे संविधान कहा गया है। इसलिए एक संविधान सभा की परियोजना है। धरातल पर देखा गया है कि संविधान सभा संविधान तैयार कर शासन संचालकों के हवाले संविधान को कर देते है। वहाँ शासक वर्ग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं मान्यताओं के आधार पर संविधान का चिरहरण होता है। जिससे संविधान बदलती परिस्थितियों के साथ सामजस्य स्थापित नहीं कर पाता है। इसलिए एक जीवित एवं गतिशील संविधान सभा की आवश्यकता है। जिसमें विशेषज्ञ संविधान की समीक्षा, समालोचना एवं टिप्पणी करते हैं। यहाँ एक मांग की जा सकती है कि संसद एक स्थायी संविधान सभा ही फिर अलग से संविधान सभा को गतिशील रखने की उपादेयता नहीं है। संसद सरकार का अंग अर्थात संविधान की पुत्री संस्थान है जबकि संविधान सभा संविधान की जननी संस्था है। जो संविधान से उपर रहकर कार्य करती है। युग के अनुरूप संविधान को परिभाषित एवं नियोजित करती है। संसद सरकार का अंग होने के कारण अपना हित साधने में अधिक ध्यान केंद्रित करती है। संविधान सभा का संगठन गुणीजनों से होता है। वे आयु के मापक नहीं उनमें उपस्थित गुण जो समाज हित में सलंग्न हो अर्थात एक सृजनशील व्यक्ति होना न्यूनतम योग्यता है। 
3. आदर्श राज्य का ताज – आदर्श राज्य का सर्वोच्च अधिकारी एक व्यक्ति नहीं एक संस्था जिसमे एक अध्यक्ष एवं अधिकतम एवं न्यूनतम तीन सदस्य होते हैं। सर्वानुमति के सूत्र पर कार्य करती है। किसी कारण यह सूत्र अक्रियाशील होने  बहुमत तथा दोनों ही सिद्ध होने पर अध्यक्ष की राय सर्वानुमति मानकर निर्णय लिया विधेय है। इनका चुनाव एक विशेषज्ञ के मतों से होता है। जिनकी संख्या अधिक होना राज्य के लिए हितकर है। 
4. आदर्श राज्य की सरकार – आदर्श राज्य में जिस प्रकार अध्यक्ष एक बोर्ड है उसी प्रकार सरकार भी शक्तिपृथककरण के सूत्र कार्य करेंगी इसके पांच अंग है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका एवं लेखा परिषद सभी स्वतंत्र कार्य करेंगी। लेकिन इनके संयोजन, नियमन एवं संचालन का दायित्व महासचिव (General Secretary) का होगा जो सरकार के किसी एक अंग सदस्य नहीं एक अलग से ही पद होगा, जो सरकार  एवं ताज के बीच योजक कड़ी का काम करेंगा। 
1. महासचिव – यह सरकार का मुखिया है, जिसका चुनाव तीन वर्ष के लिए मतदाताओं द्वारा किया जाना है। जिसकी न्यूनतम योग्यता शिक्षित, दीक्षित, नैतिकवान एवं परिपक्व होना है। 
2. कार्यपालिका – राज्य में व्यवस्था को लागू करवाने का दायित्व कार्यपालिका है, जो विशेषज्ञों के द्वारा संगठित है। इसमें सभी महत्वपूर्ण विभाग के विशेषज्ञ चुनाव लडेंगे जिस मतदाताओं द्वारा पांच वर्ष का जनादेश दिया जाता है। 
3. व्यवस्थापिका -  राज्य की व्यवस्था बनाए रखने के लिए संविधान के अतिरिक्त कुछ नियम एवं कायदे होते तथा योजनाएँ बनाने तथा उसको अंतिम रुप देकर अनुमोदित करने के लिए व्यवस्थापिका की आवश्यकता है। इसके मुख्य तीन सदन होते है। प्रथम जनसभा जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका चुनाव एक निश्चित भूभाग की निश्चित जनता के प्रतिनिधि के आधार पर निर्धारित क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा चुने जाते है। द्वितीय प्रतिनिधि सभा जो प्रांतों की सरकार का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इसका गठन प्रांत सरकारों द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि से होता है। तृतीय सदन विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों का होता है जो एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा चुने जाते हैं। प्रत्येक सदस्य समयावधि अधिकतम सात वर्ष तथा सदन स्थायी रहेंगे
4. न्यायपालिका – न्यायपालिका का संगठन विधि न्याय एवं समग्र मनोविज्ञान के ज्ञाताओं में से एक निश्चित प्रक्रिया के माध्यम से किया जाना है, जिस पर कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, लेखा परिषद एवं महासचिव का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। दीवानी, राजस्व एवं फौजदारी मुकदमों पर फैसला देने की एक न्यूनतम एवं अधिकतम सीमा अवधि का रहना आवश्यक है।  न्याय अपराध की मात्रा के अनुसार नहीं अपराध किये गए कारण, परिस्थिति, तथा अपराधी की मंशा के आधार पर करना अधिक संगत है। 
5. लेखा परिषद – वित्तीय शक्ति एवं कार्यकारी शक्ति में भी पृथक्करण आवश्यक है, इसलिए इसे सरकार के अंग रुप में स्वतंत्र कार्य करने का अवसर देना न्याय संगत है। इस संगठन उच्च योग्यताधारी एवं उच्च नैतिकवान के पर कठोर परीक्षा के माध्यम से करना चाहिए।
5. आदर्श राज्य की संस्थाएँ -  ताज व सरकार के अलावा कुछ संस्थान का स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। जो किसी भी प्रकार के दबाव से परे समाज व राज्य के स्वतंत्र कार्य करें, यह राज्य की संस्थाएँ कहलाती है। 
1. शिक्षा संस्थान - शिक्षा राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर शिक्षाविदों द्वारा संचालित होनी चाहिए। समाज को भावी नागरिक देने की जिम्मेदारी शिक्षा की है। इसलिए इसे किसी महत्वाकांक्षा के हाथ में रखना उचित नहीं है। 
2. चिकित्सा एवं स्वास्थ्य संस्थान – चिकित्सा सबकी आवश्यकता एवं अधिकार है। इसलिए इसका भी स्वतंत्र कार्य करना आवश्यक है। यह एक छत के निचे सारी चिकित्सा के सूत्र को अपना कर कार्य करेंगा। 
3. चुनाव एवं चयन आयोग – ताज, सरकार, संस्थाएँ तथा संपूर्ण राज्य की व्यवस्था के संचालन हेतु सभी का चुनाव एवं चयन एक स्वतंत्र निकाय द्वारा संपन्न करवाए जाना आवश्यक है। इसलिए चुनाव एवं चयन आयोग का स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। 
4. पुलिस एवं जाँच समितियां – राज्य में शांति एवं नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस एवं जाँच व अनुसंधान संस्थान की है। इसके लिए इनका स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। गुप्तचर व्यवस्था ताज, सरकार एवं संस्थाओं की अपनी अपनी निजी रहेगी, लेकिन शांति व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था एवं अपराध अनुसंधान व्यवस्था पूर्णतया स्वतंत्र ही कार्य करेंगी। सेना ताज के अधीन रहेगी। 
5. कला एवं विज्ञान संस्थान – मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में कला एवं विज्ञान की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए इसको भी स्वतंत्र के अवसर देने चाहिए। 
6. धर्म एवं आध्यात्म परिषद – समाज (व्यष्टि व समष्टि) में अनुशासन, नैतिकता का चिंतन व परिपूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करवाने की जिम्मेदारी इनकी है। अत: इनका स्वतंत्र एवं वैधानिक अस्तित्व आवश्यक है। 
7. साहित्यकार एवं पत्रकार संगठन – यद्यपि यह कभी भी पराधीन नहीं रह सकते हैं तथापि उनके सम्मान, निष्पक्षता के लिए स्वाधीनता, अनुशासन एवं वैधानिकता की आवश्यकता है। 
6. आदर्श राज्य का स्वरूप – आदर्श राज्य का स्वरूप संघीय होना हितकारी है। यह विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था तथा केन्द्रितकृत राजनैतिक व्यवस्था पर कार्य करे तब ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का लक्ष्य साधा जा सकता है। छोटी आर्थिक इकाइयां तथा बड़े प्रांत के आधार पर राज्य का संघीय स्वरूप चलेगा। 
7. मूल अधिकार, मौलिक कर्तव्य एवं नीति निर्देशक तत्व – संविधान सभा द्वारा निर्धारित, परिभाषित, निर्देशित एवं संरक्षित किये जाएंगे। चूंकि संविधान सभा एवं जीवित एवं गतिशील संगठन है। अतः इन विषयों की प्रासंगिकता सभी प्रश्न से परे है। 
उपसंहार – आदर्श राज्य सम्पूर्ण विश्व तथा उसका संविधान सब जगह एक समान है। फिर प्रगतिशील गुण के लिए देश, काल, पात्रानुसार परिवर्तनशील रहना आवश्यक है। 
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 श्री आनन्द किरण@9982322405

आदर्श  शिक्षा नीति
 
                                                      
भारतवर्ष में नई शिक्षा नीति आई है, इसलिए यह  आवश्यक है कि मानव तथा मानव समाज की आदर्श शिक्षा नीति का ज्ञान सभी को हो जाए।
आदर्श शिक्षानीति के आवश्यक बिन्दु निम्न होने चाहिए। 

१. सा विद्या या विमुक्तये  - विद्या वह है जो मनुष्य आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक बंधनों से मुक्त कर जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष में प्रदान करती है। विश्व की किसी भी शिक्षा पद्धति ने शिक्षा के इस रुप चित्रित नहीं किया है तथा वर्तमान में प्रचलित शिक्षा प्रणाली तथाकथित व्यक्तित्व निर्माण के नाम पर मनुष्य को त्रिबंधनों में जकड़ लेती है तथा अन्ततोगत्वा मनुष्य एक यंत्र बनकर रह जाता है अथवा पाश्विक क्रियाकलाप की ओर आकर्षित होता है। जो विश्व की किसी भी शिक्षा पद्धति का लक्ष्य नहीं है। 

२. समान, निशुल्क, अनिवार्य एवं सुलभ शिक्षा - विश्व की कई शिक्षा नीतियों ने इस  की आवश्यकता स्वीकार की है लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही है। समान परीक्षा नीति तभी सफल सिद्ध होती है जब शिक्षा व्यवस्था में ग्रामीण-शहरी, धनी-निर्धन, जाति-सम्प्रदायगत, लिग, नस्ल, शिक्षित अशिक्षित अभिभावकों इत्यादि आधार पर भेद मूलक तथा संसाधनों के अभाव को झेलती हुई न हो। इसके लिए शिक्षा को निशुल्क, अनिवार्य एवं सुलभ करना आवश्यक हो जाता है। जहाँ शिक्षा में यह व्यवस्था होगी वहाँ शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं हो सकता है। इसके अभाव में आज के शिक्षालय व्यवसाय के केन्द्र बने हुए है।

३. नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के समावेश युक्त अत्याधुनिक शिक्षा - यहाँ शिक्षा नीति प्रगतिशील गुणों को धारण करती है। ज्ञान विज्ञान की तकनीक के साथ मानवीय एवं दैविक गुणों का संचार करती है। जिससे शिक्षा प्राप्ति के बाद मनुष्य कुपथ पर नहीं चले तथा सभ्यता के विकास से कोशों दूर भी नहीं रहे।

४. शिक्षा के संचालन का भार शिक्षाविदों के हाथ में रखता है - यह बिन्दु शिक्षा जगत में क्रांति का कार्य है। आज प्रचलित शिक्षा नीति राजनेताओं एवं पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बन हुई है। कई शिक्षा अनैतिक, अल्प शिक्षित तथा अनभिज्ञ धनिकों की दासी बनी हुई है, तो कई नासमझ राजनीति की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ी हुई है। इसलिए प्रउत ने शिक्षा के संचालन का भार आध्यात्मिक नैतिकवान शिक्षाविदों के हाथ में दिया है। जिससे प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के गुणों को स्वीकार किया जा सकेगा। शिक्षा लाचार नहीं हो इसलिए वित्त भार की व्यवस्था राज्य पर रखी गई है।

५. रोजगार मूलक शिक्षा - आज की शिक्षा एवं राज्य ने नागरिकों के रोजगार का भार अपने कंधों पर नहीं लिया है। जिसके चलते समाज में विषम एवं विकराल स्थिति बनी हुई है। प्रउत की शिक्षा नीति रोजगारमुखी है तथा प्रउत नागरिकों को शत प्रतिशत रोजगार की ग्रारंटी देता है। बैरोजगारी व्यक्ति अथवा परिवार की नहीं समाज एवं राज्य की जिम्मेदारी है। जो रोजगार मूलक शिक्षा के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है। 

६. शिक्षार्थी में वैश्विक चिन्तन एवं नव्य मानवतावादी सोच का विकास करना है - वर्तमान युग विश्व शान्ति एवं पर्यावरण कि शुद्धता की राग अलापते है लेकिन अपने गर्भ में गंदी सोच लेकर घुमते है। शिक्षार्थी में जब तक वैश्विक दर्शन एवं नव्य मानवतावादी विचारों का विकास नहीं किया जाएगा तब तक एक पूर्ण एवं परफेक्ट मनुष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसलिए प्रउत की शिक्षा पद्धति संकीर्ण मनोभाव को शिक्षा की संपदा स्वीकार नहीं करता है तथा इनका शिक्षा में प्रवेश नहीं होने देता है। 

७. मातृभाषा में शिक्षा तथा अधिक से भाषाओं के सिखने अवसर हो  - प्रउत स्वीकार करता है कि सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था मातृभाषा में हो तथा शिक्षार्थी को अधिक से भाषा सिखने के अवसर प्राप्त हो। मातृभाषा सिखने, अधिगम करने एवं शिक्षा का आत्मसात करने का सही एवं उचित माध्यम है इसलिए शिक्षा का माध्यम सदैव मातृभाषा होना चाहिए। शिक्षार्थी सम्पूर्ण विश्व को जान एवं समझ ले इसलिए अधिक से अधिक भाषाओं के सिखने अवसर पर सहज एवं सुलभ उपलब्ध हो। 

८. शिक्षक को चयन में नैतिक मापदंड की अनिवार्यता है - शिक्षार्थी को गढ़ने वाले कारीगर शिक्षक में शैक्षिक ज्ञान के साथ नैतिकता होना आवश्यक है। अपनी टीम जीताने एवं शाला के अच्छे परिणाम के लिए अनैतिक मापदंड का उपयोग करता शिक्षक को देख कर शिक्षार्थी अनैतिक पथ पर चलता है। इसलिए शिक्षक के लिए नैतिक नियम एवं आचरण संहिता का होना आवश्यक है। यह विशेषता मात्र एवं मात्र प्रउत शिक्षा नीति में है। 

९. शिक्षा में अभिभावकों की भागीदारी स्वीकार करता है - शिक्षा देना मात्र विद्यालय अथवा शिक्षक की ही जिम्मेदारी नहीं है अपितु शिक्षार्थी के अभिभावक की भी जिम्मेदारी है। अभिभावक अयोग्य होने पर समाज उन शिक्षार्थी के उचित व्यवस्था करनी चाहिए। प्रउत इसे स्वीकार करता है तथा शिक्षा को इनके सहयोग से चलाता है।
 
१०. शिक्षा में समाज एवं सरकार की भी जिम्मेदारी स्वीकार करता है  - शिक्षा  शिक्षक एवं विद्यालय के बीच चलने वाली कड़ी नहीं है। यह समाज का अनिवार्य घटक है।  शिक्षा में समाज एवं सरकार को भी जिम्मेदारी लेने होगी। टीवी, रेडियो, समाचार पत्र, शिक्षा मूलक अभिनय इत्यादि माध्यम से सकारात्मक बना होगा तथा शिक्षा का वित्तीय भार सरकार के कंधों पर होगा। 

११. आनन्ददायी शिक्षा है - आजकल आनन्ददायी शिक्षा अथवा Education with happines का प्रचलन चल रहा है। प्रउत की शिक्षा नीति कहती है कि शिक्षार्थी के मन में ज्ञान की भूख जगाने वाली शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। यह शिक्षा को सुखदायक बनाती है तथा शिक्षा के साथ दीक्षा के समावेश से शिक्षा आनन्ददायी बनती है। आध्यात्मिकता के बिना शिक्षा आनन्ददायी बनाना दिवास्वप्न है। प्रउत आध्यात्मिक एवं ज्ञान की भूख जगाकर शिक्षा को आनन्दमय बनाता है। जिज्ञासा को शिक्षार्थी के सभी लक्षणों में से सबसे उत्तम लक्षण माना है। 

१२. प्रगतिशील परीक्षा प्रणाली है -शिक्षा एवं परीक्षा का घनिष्ठ संबंध है। इसलिए परीक्षा प्रणाली का प्रगतिशील होना आवश्यक है। युग की आवश्यकता के अनुसार परीक्षा व्यवस्था को नये आयाम धारण करना चाहिए। मूल्यांकन करते समय अशुद्धियों से अधिक परीक्षा के उत्तर देने भाव को भी समझना होगा। इसलिए प्रउत परीक्षा प्रणाली प्रश्न के उत्तर को परीक्षार्थी के समझने योग्य भाषा में देने छूट देता है। 

आदर्श शिक्षा नीति  की प्रक्रिया 
 भारतीय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में 0 से 25 वर्ष की शिक्षा प्रक्रिया थी। इसे आधुनिक परिपेक्ष्य में रखकर आदर्श प्रतिमान में स्थापित कर अध्ययन करते हैं। 
१. आगनवाड़ी शिक्षा (0 से 4 वर्ष) – शिशु के माता के गर्भ में प्रवेश के साथ ही शिक्षा का अनौपचारिक रुप चालू हो जाती है। माता की आवश्यक देखभाल, स्वास्थ्य संबधित प्रक्रिया आदि की देखभाल के लिए धाय माँ प्रथा का उल्लेख मिलता है। आधुनिक परिदृश्य में इसे मातृ शिक्षिका (Mother teacher) में रखकर व्यवहारिक बनाया जाता है। मातृ शिक्षिका का अर्थ नर्सिंग एवं शिक्षण कौशल की ज्ञाता होती है। यहाँ कोई विद्यालय भवन नहीं होता है अपितु मातृ शिक्षिका घर-घर जाकर एवं अभिभावकों से संपर्क स्थापित कर शिशु के शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक संगठन पर ध्यान रखती है। इस काल शिक्षार्थी की कोई परीक्षा नहीं ली जाती है। 
२. विद्यामंदिर शिक्षा (4 से 8 वर्ष) -  मातृ शिक्षिका के प्रमाण पत्र के आधार पर शिक्षार्थी बालक विद्यामंदिर में पांव रखेंगा। यह शिक्षार्थी की पूर्व प्राथमिक शिक्षा के नाम से जानी जाती है। 4 वर्ष की उम्र होते बालक, अभिभावक अथवा मातृ शिक्षिका के साथ विद्यामंदिर के आचार्य के समक्ष औपचारिक शिक्षा हेतु प्रस्तुत होता है। आचार्य द्वारा शिक्षार्थी को अपने संरक्षण में लेते ही प्रवेशिका में बालक को शिक्षा के लिए तैयार किया जाता है। 5 वर्ष की अवस्था में आचार्य बालक को दीक्षा देकर उसकी शिक्षा प्रारंभ करता है, इसलिए यह शिक्षार्थी की प्रारंभिका कक्षा कहलाती है। तत्पश्चात 6 वर्ष में कनिष्ठा, 7 वर्ष की अवस्था में वरिष्ठा तथा 8 वर्ष में पूर्व प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करता है। इस काल में खेल, कहानी, नाट्य एवं अभिनय के माध्यम से भाषा, गणित एवं पर्यावरण की शिक्षा दी जाती है। यहाँ शिक्षार्थी को सुनना, बोलना, समझना तथा लिखना सिखाया जाता है परन्तु परीक्षा मौखिक ही ली जाती है। जिसमें कोई असफल नहीं होता है, फिर भी बुद्धि को ग्रेडिंग में रखकर अध्ययन किया जाता है। जो प्राथमिक शिक्षा के लिए आचार्य की मदद करता है। इस काल में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा है
३. पाठशाला शिक्षा (8 से 12 वर्ष तक) – पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रमाण पत्र को लेकर शिक्षार्थी गाँव तथा मौहल्ले से परे प्राथमिक शिक्षा हेतु
 पाठशाला में आचार्य के समक्ष विधिवत शिक्षा लेने को प्रस्तुत होता है। यहाँ शिक्षार्थी, शालीनता की परीक्षा देकर आचार्य के संरक्षण को प्राप्त करता है। यहाँ दो फेज में शिक्षा प्राप्त करता है। प्रथम दो वर्ष में निम्न प्राथमिक तथा अंतिम दो वर्ष में उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार 8 वर्ष में अरुणिमा, 9 वर्ष में रक्तिमा , 10 वर्ष में दहकतिमा , 11 वर्ष में पूर्णिमा कक्षाएँ पारकर 12 वर्ष की अवधि में प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करता है। यहाँ खेल, कहानी, आदर्श पात्र चित्रण, कला, संस्कृति एवं व्यवहारिक प्रदर्शन के माध्यम से भाषा, गणित, पर्यावरण, कला एवं संस्कृति का ज्ञान दिया जाता है। यहाँ मातृभाषा के साथ स्थानीय, राष्ट्रीय एवं विश्व की योजक भाषा का ज्ञान भी दिया जाता है। इस काल में मौखिक एवं लिखित दोनों प्रकार परीक्षा ली जाती है। अयोग्य शिक्षार्थी को उपचारात्मक शिक्षा के माध्यम से सभी शिक्षार्थियों समकक्ष स्थापित किया जाता है, लेकिन रोक नहीं जाता है।
४. विद्यालय शिक्षा (12  से 16 वर्ष) – प्राथमिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र के आधार पर माध्यमिक शिक्षा हेतु शिक्षार्थी गाँव-शहर से परे विद्या क्षेत्र में स्थापित विद्यालय में प्रवेश लेता है। यहाँ भी निम्न माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा के दो फेज रहते है। 12 वर्ष साधारण योग दीक्षा के साथ प्रथम पूर्वार्द्ध तथा 13 वर्ष में द्वितीय पूर्वार्द्ध में प्रवेश लेता है तत्पश्चात 14 वर्ष में प्रथम उत्तरार्द्ध व 15 वर्ष में द्वितीय उत्तरार्द्ध में प्रवेश लेकर 16 वर्ष में माध्यमिक शिक्षा पूर्ण करता है। इस काल में भाषा, गणित, पर्यावरण के अतिरिक्त विद्यार्थी के रुचि कौशल के  अनुसार पृथक संकाय की शिक्षा दी जाएगी। यहाँ शिक्षा का अधिकांश अंश प्रयोगिक रहता है साथ में सिद्धांत की पुष्टि करवाई जाएगी। प्रयोगशालाएँ विषय के स्वरुप के अनुसार होती है लेकिन कोई भी विषय बिना प्रयोगशाला के संपन्न नहीं होता है। वह विषय दर्शन अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, वाणिज्य एवं विज्ञान ही क्यों न हो। इस काल में परीक्षा प्रयोगिक एवं सैद्धांतिक दोनों ही रुप में होगी। यहाँ से लिंग के अनुसार पृथक शिक्षा तथा शिक्षा का माध्यम शिक्षार्थी की रुचि के अनुकूल रहता है लेकिन परीक्षा का उत्तर लिखने के परीक्षा को सभी भाषाओं की छूट रहती है। परीक्षा बोर्ड संबंधित भाषा विशेषज्ञ  से संबंध स्थापित कर उचित मूल्यांकन करवाता है। 
५. गुरुकुल शिक्षा (16 से 20 वर्ष) – माध्यमिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र के आधार पर उच्च शिक्षा हेतु शिक्षार्थी गुरुकुल में चला जाता है। यहाँ 16 वर्ष में सहज योग की दीक्षा लेकर 16 से 18 वर्ष तक स्नातक एवं 18 से 20 वर्ष तक स्नातकोत्तर की शिक्षा लेता है। यहाँ शिक्षा छ: मासिक सेमेस्टर में तब्दील हो जाती जहाँ पूर्णतया व्यवहारिक व सर्जनात्मक शिक्षण होता है। यहाँ एक बात स्पष्ट है कि गुरुकुल जंगल में स्थापित शिक्षा केन्द्र नहीं, शिक्षा क्षेत्र के साथ वास्तविक जगत कार्यशाला है। इस काल में शिक्षार्थी की अर्जित संपत्ति शिक्षा विभाग की धरोहर होती जिस पर शिक्षार्थी एवं अभिभावक का कोई अधिकार नहीं होता है। यहाँ पर ही शत प्रतिशत रोजगार का सिद्धांत पुष्ठ हो जाता है। यह शिक्षा पूर्णतया संकाय आधारित होती है। इसलिए संकायवार पृथक-पृथक गुरुकुल स्थापित किये जाते हैं। यहाँ शिक्षा पूर्ण के बाद स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्री प्रदान की जाती है। इस काल में संकाय शिक्षा के साथ निर्वाचन, नागरिकता एवं सामाजिकता की शिक्षा सभी के लिए सामान्य रहती है। इस काल में शिक्षा का माध्यम शिक्षार्थी रुचि एवं क्षमता के अनुसार रहेगा तथा स्थानीय परिवेश की भाषा भी शिक्षार्थी के लिए में महत्वपूर्ण है। गुरुकुल में भी पृथक लैगिक व्यवस्था का सूत्र संचालित रहेगा। 

६. व्यवहारिक शिक्षा ( 20 से 24 वर्ष) -  उच्च शिक्षा पूर्ण कर शिक्षार्थी विशेष शिक्षा के लिए रोजगार के साथ सलंग्न रहेगा। इस काल में शिक्षार्थी की उपार्जित धनराशि में एक निश्चित राशि गुरु दक्षिणा के रुप में शिक्षा विभाग को देनी होती है। इस काल में शिक्षार्थी द्वारा अर्जित ज्ञान विज्ञान के अनुसार उपाधियों का आवंटन किया जाता है। यह काल शिक्षार्थी के द्वारा प्रोजेक्ट सबमिट करवाने का रहता है। उसी के आधार पर उपाधि प्राप्त करता है। यहाँ सेमेस्टर त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, एकवार्षिक व द्विवार्षिक चुनने की स्वाधीनता है। सेमेस्टर बड़ा होने पर शिक्षार्थी पर भार अधिक रहेगा इसकी जिम्मेदारी शिक्षार्थी की है। शिक्षा के माध्यम की भाषा शिक्षार्थी रुचि एवं विश्व के सभी जन के समझने के योग्य रहती है क्योंकि इस अवधि में शिक्षार्थी अपने ज्ञान विज्ञान से समाज को कुछ देता है। यहाँ लैंगिक शिक्षा की पृथकता का सूत्र समाप्त हो जाता है। 
७. परीक्षा वर्ष (25 वां वर्ष) -  शिक्षा पूर्ण करने के बाद शिक्षार्थी समाज में प्रवेश पाता है इसलिए विभिन्न रंगमंच पर अपने ज्ञान विज्ञान प्रदर्शन एवं अभिनय के माध्यम परीक्षा देकर समाज की नागरिकता प्राप्त करता है। 

श्री आनन्द किरण@ 9982322405

प्रउत का राजनैतिक दर्शन

      प्रउत का राजनैतिक दर्शन
       श्री प्रभात रंजन सरकार का प्रउत दर्शन को सामाजिक आर्थिक विचारधारा के रूप में पढ़ाया जाता है। प्रउत विचारधारा सामाजिक आर्थिक होने के कारण व्यष्टि एवं समष्टि जगत की सभी विघधाओं पर अपना दृष्टिकोण रखता है। इसलिए प्रउत सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों को भी परिभाषित करता है। इसी को देखते हुए प्रउत की राजनैतिक विचारधारा को विषय चुना गया है। यहाँ एक बात सत्य है कि राजनीति के माध्यम से प्रउत की स्थापना करने की सोच एक दिवास्वप्न है। जो वास्तविक जीवन से कोशों दूर है। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि राजनीति प्रउत की विषय वस्तु नहीं है अथवा राजनीति में प्रउत को प्रवेश ही नहीं करना चाहिए। प्रउत प्रणेता ने प्राउटिस्ट ब्लॉक, इंडिया नामक राजनैतिक दल के माध्यम से प्रउत को राजनीति तक भेजा था। अत: कहा जा सकता है कि प्रउत राजनीति करता है तथा राजनैतिक जगत में अपनी उपस्थित देता है। प्रउत राजनैतिक पर अपने विचार भी रखता है। 

प्रउत के राजनैतिक विचार - राज्य की व्यवस्था जिस नीति चलते हैं, उसे राजनीति कहा गया है। जैसी राजनीति होगी राज्य की व्यवस्था भी वैसी ही होगी। 
(1) मत देने का अधिकार यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास रहना होगा - लोकतंत्र सभी व्यस्क नागरिक को मताधिकार देता हैै। यही से राजनीति में बुराई जन्म लेेेती है। अशिक्षित, अविवेकी, अयोग्य, अपराधी एवं गैरजिम्मेदार व्यक्ति के पास मताधिकार रहने से उनके मत प्राप्त प्रतिनिधि से अच्छा कार्य करने की आश रखना निर्थक है। अत: प्रउत के यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास मताधिकार रखना सुविचार है। 

(2) चयनित प्रतिनिधित्व -  लोकतंत्र में ईच्छाधारी प्रत्येक व्यक्ति को चुनाव में खड़ा होने का अधिकार है।  उन्हें कुछ निर्धारित प्रस्ताव एवं समर्थक को जुटाना होता है। जिसकी व्यवस्था करना सरल है। प्रउत सलेक्टो इलेक्टो प्रतिनिधित्व की बात कहकर प्रतिनिधित्व को सलेक्शन समिति से गुजरने की बाध्यता रखता है। यहाँ ईच्छाधारियों की माया के चमत्कार की चकाचौंध में लोकतंत्र गुलाटी नहीं मारता है। वह 
स्थानीय समस्या से भिज्ञ तथा प्रशिक्षित व्यष्टि प्रतिनिधित्व के गुणों से संपन्न होता है। 

(3) दल विहिन आर्थिक लोकतंत्र - प्रउत दल विहिन एवं आर्थिक लोकतंत्र की बात करता है। राजनैतिक लोकतंत्र, लोकतंत्र की परिभाषा पर खरा नहीं उतरा है। दलगत राजनीति एक रुग्ण जनमत का  निर्माण  करती है। दलगत राजनीति को लेकर खड़े राजनैतिक लोकतंत्र का अनुभव दिशाहीन सामाजिक मूल्यों की ओट में 
खोने का रहा है। अत: आर्थिक लोकतंत्र दलविहीन प्रतिनिधित्व आवश्यक है। 

(4) अध्यक्षीय लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र से बेहतर - लोकतंत्र में ससंद में बहुमत दल के शाासन की व्यवस्था से अध्यक्षीय शासन व्यवस्था को प्रउत दर्शन में अच्छा माना गया है। 

(5) विश्व सरकार की हिमायत -  प्रउत दर्शन में विश्व सरकार का प्रावधान है वर्तमान युग में मानव सभ्यता को देेेश की सीमा में परिभाषित किया जा सकता है। 

(6) द्विसदनीय संसद को स्वीकृति - प्रउत दर्शन में द्विसदनीय संसद को 
स्वीकार किया है। एक जनता का प्रतिनिधित्व करता है, द्वितीय विभिन्न देश व राज्य की सरकारों का प्रतिनिधित्व करती है। 

(7) कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका के साथ महालेखाविद् के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रावधान - प्रउत दर्शन में सरकार के चारों अंग कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका तथा वित व्यवस्था के स्वतंत्र कार्य करने की सिफारिश करता है। 

(8).  राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण -  राजनीति का कार्य नागरिकों को सभी ओर से सुरक्षा प्रदान करना है जबकि अर्थनीति का नागरिकों की  आवश्यकता को पूर्ण करना है। अतः राजनीति का संचालन सेवा वृत्ति होना आवश्यक है जबकि अर्थनीति में आर्थिक क्रियाओं का संचालन अधिकतम उपयोग एवं विवेकपूर्ण वितरण से होता है। इससे प्रमाणित होता है कि दोनों का कार्य क्षेत्र अलग-अलग है। प्रउत में केन्द्रीकृत राजनीति एवं विकेन्द्रीकृत अर्थनीति का सूत्र है

(9). संघ व्यवस्था को सहमति - प्रउत व्यवस्था में संघीय शासन व्यवस्था के दर्शन होते हैं। यद्यपि प्रउत में राज शक्ति के केन्द्रीकरण की व्यवस्था है तथापि संघ व्यवस्था दिखाई देती है। 

(10).  केन्द्रित राजनीति का समर्थक - प्रउत एक मजबूत एवं शक्तिशाली केन्द्र सरकार की आवश्यकता महसूस करता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के शब्दकोश में
बड़े जीवों एवं छोटे राज्यों का युग इतिहास बन गया है इसलिए बड़े प्रांतों को लेकर संगठित एवं मजबूत राज शक्ति की आवश्यकता है। 

(11). सदविप्रों का अधिनायक तंत्र - प्रउत लोकतंत्र के स्थान पर सदविप्रों के अधिनायक तंत्र पर विश्वास करता है, सदविप्र पदवी वंशानुगत नहीं होकर योग्यता पद है। केन्द्र से लेकर गाँव स्तर तक सदविप्र बोर्ड क्रियाशील रहता है। प्रउत सभी में सदविप्रत्व का अभिप्रकाश देखना चाहता है लेकिन अयोग्य का राज्याभिषेक कभी भी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं है।