भारतवर्ष में नई शिक्षा नीति आई है, इसलिए यह आवश्यक है कि मानव तथा मानव समाज की आदर्श शिक्षा नीति का ज्ञान सभी को हो जाए।
आदर्श शिक्षानीति के आवश्यक बिन्दु निम्न होने चाहिए।
१. सा विद्या या विमुक्तये - विद्या वह है जो मनुष्य आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक बंधनों से मुक्त कर जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष में प्रदान करती है। विश्व की किसी भी शिक्षा पद्धति ने शिक्षा के इस रुप चित्रित नहीं किया है तथा वर्तमान में प्रचलित शिक्षा प्रणाली तथाकथित व्यक्तित्व निर्माण के नाम पर मनुष्य को त्रिबंधनों में जकड़ लेती है तथा अन्ततोगत्वा मनुष्य एक यंत्र बनकर रह जाता है अथवा पाश्विक क्रियाकलाप की ओर आकर्षित होता है। जो विश्व की किसी भी शिक्षा पद्धति का लक्ष्य नहीं है।
२. समान, निशुल्क, अनिवार्य एवं सुलभ शिक्षा - विश्व की कई शिक्षा नीतियों ने इस की आवश्यकता स्वीकार की है लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रही है। समान परीक्षा नीति तभी सफल सिद्ध होती है जब शिक्षा व्यवस्था में ग्रामीण-शहरी, धनी-निर्धन, जाति-सम्प्रदायगत, लिग, नस्ल, शिक्षित अशिक्षित अभिभावकों इत्यादि आधार पर भेद मूलक तथा संसाधनों के अभाव को झेलती हुई न हो। इसके लिए शिक्षा को निशुल्क, अनिवार्य एवं सुलभ करना आवश्यक हो जाता है। जहाँ शिक्षा में यह व्यवस्था होगी वहाँ शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं हो सकता है। इसके अभाव में आज के शिक्षालय व्यवसाय के केन्द्र बने हुए है।
३. नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के समावेश युक्त अत्याधुनिक शिक्षा - यहाँ शिक्षा नीति प्रगतिशील गुणों को धारण करती है। ज्ञान विज्ञान की तकनीक के साथ मानवीय एवं दैविक गुणों का संचार करती है। जिससे शिक्षा प्राप्ति के बाद मनुष्य कुपथ पर नहीं चले तथा सभ्यता के विकास से कोशों दूर भी नहीं रहे।
४. शिक्षा के संचालन का भार शिक्षाविदों के हाथ में रखता है - यह बिन्दु शिक्षा जगत में क्रांति का कार्य है। आज प्रचलित शिक्षा नीति राजनेताओं एवं पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बन हुई है। कई शिक्षा अनैतिक, अल्प शिक्षित तथा अनभिज्ञ धनिकों की दासी बनी हुई है, तो कई नासमझ राजनीति की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ी हुई है। इसलिए प्रउत ने शिक्षा के संचालन का भार आध्यात्मिक नैतिकवान शिक्षाविदों के हाथ में दिया है। जिससे प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति के गुणों को स्वीकार किया जा सकेगा। शिक्षा लाचार नहीं हो इसलिए वित्त भार की व्यवस्था राज्य पर रखी गई है।
५. रोजगार मूलक शिक्षा - आज की शिक्षा एवं राज्य ने नागरिकों के रोजगार का भार अपने कंधों पर नहीं लिया है। जिसके चलते समाज में विषम एवं विकराल स्थिति बनी हुई है। प्रउत की शिक्षा नीति रोजगारमुखी है तथा प्रउत नागरिकों को शत प्रतिशत रोजगार की ग्रारंटी देता है। बैरोजगारी व्यक्ति अथवा परिवार की नहीं समाज एवं राज्य की जिम्मेदारी है। जो रोजगार मूलक शिक्षा के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।
६. शिक्षार्थी में वैश्विक चिन्तन एवं नव्य मानवतावादी सोच का विकास करना है - वर्तमान युग विश्व शान्ति एवं पर्यावरण कि शुद्धता की राग अलापते है लेकिन अपने गर्भ में गंदी सोच लेकर घुमते है। शिक्षार्थी में जब तक वैश्विक दर्शन एवं नव्य मानवतावादी विचारों का विकास नहीं किया जाएगा तब तक एक पूर्ण एवं परफेक्ट मनुष्य का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसलिए प्रउत की शिक्षा पद्धति संकीर्ण मनोभाव को शिक्षा की संपदा स्वीकार नहीं करता है तथा इनका शिक्षा में प्रवेश नहीं होने देता है।
७. मातृभाषा में शिक्षा तथा अधिक से भाषाओं के सिखने अवसर हो - प्रउत स्वीकार करता है कि सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था मातृभाषा में हो तथा शिक्षार्थी को अधिक से भाषा सिखने के अवसर प्राप्त हो। मातृभाषा सिखने, अधिगम करने एवं शिक्षा का आत्मसात करने का सही एवं उचित माध्यम है इसलिए शिक्षा का माध्यम सदैव मातृभाषा होना चाहिए। शिक्षार्थी सम्पूर्ण विश्व को जान एवं समझ ले इसलिए अधिक से अधिक भाषाओं के सिखने अवसर पर सहज एवं सुलभ उपलब्ध हो।
८. शिक्षक को चयन में नैतिक मापदंड की अनिवार्यता है - शिक्षार्थी को गढ़ने वाले कारीगर शिक्षक में शैक्षिक ज्ञान के साथ नैतिकता होना आवश्यक है। अपनी टीम जीताने एवं शाला के अच्छे परिणाम के लिए अनैतिक मापदंड का उपयोग करता शिक्षक को देख कर शिक्षार्थी अनैतिक पथ पर चलता है। इसलिए शिक्षक के लिए नैतिक नियम एवं आचरण संहिता का होना आवश्यक है। यह विशेषता मात्र एवं मात्र प्रउत शिक्षा नीति में है।
९. शिक्षा में अभिभावकों की भागीदारी स्वीकार करता है - शिक्षा देना मात्र विद्यालय अथवा शिक्षक की ही जिम्मेदारी नहीं है अपितु शिक्षार्थी के अभिभावक की भी जिम्मेदारी है। अभिभावक अयोग्य होने पर समाज उन शिक्षार्थी के उचित व्यवस्था करनी चाहिए। प्रउत इसे स्वीकार करता है तथा शिक्षा को इनके सहयोग से चलाता है।
१०. शिक्षा में समाज एवं सरकार की भी जिम्मेदारी स्वीकार करता है - शिक्षा शिक्षक एवं विद्यालय के बीच चलने वाली कड़ी नहीं है। यह समाज का अनिवार्य घटक है। शिक्षा में समाज एवं सरकार को भी जिम्मेदारी लेने होगी। टीवी, रेडियो, समाचार पत्र, शिक्षा मूलक अभिनय इत्यादि माध्यम से सकारात्मक बना होगा तथा शिक्षा का वित्तीय भार सरकार के कंधों पर होगा।
११. आनन्ददायी शिक्षा है - आजकल आनन्ददायी शिक्षा अथवा Education with happines का प्रचलन चल रहा है। प्रउत की शिक्षा नीति कहती है कि शिक्षार्थी के मन में ज्ञान की भूख जगाने वाली शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। यह शिक्षा को सुखदायक बनाती है तथा शिक्षा के साथ दीक्षा के समावेश से शिक्षा आनन्ददायी बनती है। आध्यात्मिकता के बिना शिक्षा आनन्ददायी बनाना दिवास्वप्न है। प्रउत आध्यात्मिक एवं ज्ञान की भूख जगाकर शिक्षा को आनन्दमय बनाता है। जिज्ञासा को शिक्षार्थी के सभी लक्षणों में से सबसे उत्तम लक्षण माना है।
१२. प्रगतिशील परीक्षा प्रणाली है -शिक्षा एवं परीक्षा का घनिष्ठ संबंध है। इसलिए परीक्षा प्रणाली का प्रगतिशील होना आवश्यक है। युग की आवश्यकता के अनुसार परीक्षा व्यवस्था को नये आयाम धारण करना चाहिए। मूल्यांकन करते समय अशुद्धियों से अधिक परीक्षा के उत्तर देने भाव को भी समझना होगा। इसलिए प्रउत परीक्षा प्रणाली प्रश्न के उत्तर को परीक्षार्थी के समझने योग्य भाषा में देने छूट देता है।
आदर्श शिक्षा नीति की प्रक्रिया
भारतीय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में 0 से 25 वर्ष की शिक्षा प्रक्रिया थी। इसे आधुनिक परिपेक्ष्य में रखकर आदर्श प्रतिमान में स्थापित कर अध्ययन करते हैं।
१. आगनवाड़ी शिक्षा (0 से 4 वर्ष) – शिशु के माता के गर्भ में प्रवेश के साथ ही शिक्षा का अनौपचारिक रुप चालू हो जाती है। माता की आवश्यक देखभाल, स्वास्थ्य संबधित प्रक्रिया आदि की देखभाल के लिए धाय माँ प्रथा का उल्लेख मिलता है। आधुनिक परिदृश्य में इसे मातृ शिक्षिका (Mother teacher) में रखकर व्यवहारिक बनाया जाता है। मातृ शिक्षिका का अर्थ नर्सिंग एवं शिक्षण कौशल की ज्ञाता होती है। यहाँ कोई विद्यालय भवन नहीं होता है अपितु मातृ शिक्षिका घर-घर जाकर एवं अभिभावकों से संपर्क स्थापित कर शिशु के शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक संगठन पर ध्यान रखती है। इस काल शिक्षार्थी की कोई परीक्षा नहीं ली जाती है।
२. विद्यामंदिर शिक्षा (4 से 8 वर्ष) - मातृ शिक्षिका के प्रमाण पत्र के आधार पर शिक्षार्थी बालक विद्यामंदिर में पांव रखेंगा। यह शिक्षार्थी की पूर्व प्राथमिक शिक्षा के नाम से जानी जाती है। 4 वर्ष की उम्र होते बालक, अभिभावक अथवा मातृ शिक्षिका के साथ विद्यामंदिर के आचार्य के समक्ष औपचारिक शिक्षा हेतु प्रस्तुत होता है। आचार्य द्वारा शिक्षार्थी को अपने संरक्षण में लेते ही प्रवेशिका में बालक को शिक्षा के लिए तैयार किया जाता है। 5 वर्ष की अवस्था में आचार्य बालक को दीक्षा देकर उसकी शिक्षा प्रारंभ करता है, इसलिए यह शिक्षार्थी की प्रारंभिका कक्षा कहलाती है। तत्पश्चात 6 वर्ष में कनिष्ठा, 7 वर्ष की अवस्था में वरिष्ठा तथा 8 वर्ष में पूर्व प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करता है। इस काल में खेल, कहानी, नाट्य एवं अभिनय के माध्यम से भाषा, गणित एवं पर्यावरण की शिक्षा दी जाती है। यहाँ शिक्षार्थी को सुनना, बोलना, समझना तथा लिखना सिखाया जाता है परन्तु परीक्षा मौखिक ही ली जाती है। जिसमें कोई असफल नहीं होता है, फिर भी बुद्धि को ग्रेडिंग में रखकर अध्ययन किया जाता है। जो प्राथमिक शिक्षा के लिए आचार्य की मदद करता है। इस काल में शिक्षा का माध्यम मातृभाषा है
३. पाठशाला शिक्षा (8 से 12 वर्ष तक) – पूर्व प्राथमिक शिक्षा के प्रमाण पत्र को लेकर शिक्षार्थी गाँव तथा मौहल्ले से परे प्राथमिक शिक्षा हेतु
पाठशाला में आचार्य के समक्ष विधिवत शिक्षा लेने को प्रस्तुत होता है। यहाँ शिक्षार्थी, शालीनता की परीक्षा देकर आचार्य के संरक्षण को प्राप्त करता है। यहाँ दो फेज में शिक्षा प्राप्त करता है। प्रथम दो वर्ष में निम्न प्राथमिक तथा अंतिम दो वर्ष में उच्च प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करता है। इस प्रकार 8 वर्ष में अरुणिमा, 9 वर्ष में रक्तिमा , 10 वर्ष में दहकतिमा , 11 वर्ष में पूर्णिमा कक्षाएँ पारकर 12 वर्ष की अवधि में प्राथमिक शिक्षा पूर्ण करता है। यहाँ खेल, कहानी, आदर्श पात्र चित्रण, कला, संस्कृति एवं व्यवहारिक प्रदर्शन के माध्यम से भाषा, गणित, पर्यावरण, कला एवं संस्कृति का ज्ञान दिया जाता है। यहाँ मातृभाषा के साथ स्थानीय, राष्ट्रीय एवं विश्व की योजक भाषा का ज्ञान भी दिया जाता है। इस काल में मौखिक एवं लिखित दोनों प्रकार परीक्षा ली जाती है। अयोग्य शिक्षार्थी को उपचारात्मक शिक्षा के माध्यम से सभी शिक्षार्थियों समकक्ष स्थापित किया जाता है, लेकिन रोक नहीं जाता है।
४. विद्यालय शिक्षा (12 से 16 वर्ष) – प्राथमिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र के आधार पर माध्यमिक शिक्षा हेतु शिक्षार्थी गाँव-शहर से परे विद्या क्षेत्र में स्थापित विद्यालय में प्रवेश लेता है। यहाँ भी निम्न माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा के दो फेज रहते है। 12 वर्ष साधारण योग दीक्षा के साथ प्रथम पूर्वार्द्ध तथा 13 वर्ष में द्वितीय पूर्वार्द्ध में प्रवेश लेता है तत्पश्चात 14 वर्ष में प्रथम उत्तरार्द्ध व 15 वर्ष में द्वितीय उत्तरार्द्ध में प्रवेश लेकर 16 वर्ष में माध्यमिक शिक्षा पूर्ण करता है। इस काल में भाषा, गणित, पर्यावरण के अतिरिक्त विद्यार्थी के रुचि कौशल के अनुसार पृथक संकाय की शिक्षा दी जाएगी। यहाँ शिक्षा का अधिकांश अंश प्रयोगिक रहता है साथ में सिद्धांत की पुष्टि करवाई जाएगी। प्रयोगशालाएँ विषय के स्वरुप के अनुसार होती है लेकिन कोई भी विषय बिना प्रयोगशाला के संपन्न नहीं होता है। वह विषय दर्शन अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, समाज शास्त्र, वाणिज्य एवं विज्ञान ही क्यों न हो। इस काल में परीक्षा प्रयोगिक एवं सैद्धांतिक दोनों ही रुप में होगी। यहाँ से लिंग के अनुसार पृथक शिक्षा तथा शिक्षा का माध्यम शिक्षार्थी की रुचि के अनुकूल रहता है लेकिन परीक्षा का उत्तर लिखने के परीक्षा को सभी भाषाओं की छूट रहती है। परीक्षा बोर्ड संबंधित भाषा विशेषज्ञ से संबंध स्थापित कर उचित मूल्यांकन करवाता है।
५. गुरुकुल शिक्षा (16 से 20 वर्ष) – माध्यमिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र के आधार पर उच्च शिक्षा हेतु शिक्षार्थी गुरुकुल में चला जाता है। यहाँ 16 वर्ष में सहज योग की दीक्षा लेकर 16 से 18 वर्ष तक स्नातक एवं 18 से 20 वर्ष तक स्नातकोत्तर की शिक्षा लेता है। यहाँ शिक्षा छ: मासिक सेमेस्टर में तब्दील हो जाती जहाँ पूर्णतया व्यवहारिक व सर्जनात्मक शिक्षण होता है। यहाँ एक बात स्पष्ट है कि गुरुकुल जंगल में स्थापित शिक्षा केन्द्र नहीं, शिक्षा क्षेत्र के साथ वास्तविक जगत कार्यशाला है। इस काल में शिक्षार्थी की अर्जित संपत्ति शिक्षा विभाग की धरोहर होती जिस पर शिक्षार्थी एवं अभिभावक का कोई अधिकार नहीं होता है। यहाँ पर ही शत प्रतिशत रोजगार का सिद्धांत पुष्ठ हो जाता है। यह शिक्षा पूर्णतया संकाय आधारित होती है। इसलिए संकायवार पृथक-पृथक गुरुकुल स्थापित किये जाते हैं। यहाँ शिक्षा पूर्ण के बाद स्नातक एवं स्नातकोत्तर की डिग्री प्रदान की जाती है। इस काल में संकाय शिक्षा के साथ निर्वाचन, नागरिकता एवं सामाजिकता की शिक्षा सभी के लिए सामान्य रहती है। इस काल में शिक्षा का माध्यम शिक्षार्थी रुचि एवं क्षमता के अनुसार रहेगा तथा स्थानीय परिवेश की भाषा भी शिक्षार्थी के लिए में महत्वपूर्ण है। गुरुकुल में भी पृथक लैगिक व्यवस्था का सूत्र संचालित रहेगा।
६. व्यवहारिक शिक्षा ( 20 से 24 वर्ष) - उच्च शिक्षा पूर्ण कर शिक्षार्थी विशेष शिक्षा के लिए रोजगार के साथ सलंग्न रहेगा। इस काल में शिक्षार्थी की उपार्जित धनराशि में एक निश्चित राशि गुरु दक्षिणा के रुप में शिक्षा विभाग को देनी होती है। इस काल में शिक्षार्थी द्वारा अर्जित ज्ञान विज्ञान के अनुसार उपाधियों का आवंटन किया जाता है। यह काल शिक्षार्थी के द्वारा प्रोजेक्ट सबमिट करवाने का रहता है। उसी के आधार पर उपाधि प्राप्त करता है। यहाँ सेमेस्टर त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, एकवार्षिक व द्विवार्षिक चुनने की स्वाधीनता है। सेमेस्टर बड़ा होने पर शिक्षार्थी पर भार अधिक रहेगा इसकी जिम्मेदारी शिक्षार्थी की है। शिक्षा के माध्यम की भाषा शिक्षार्थी रुचि एवं विश्व के सभी जन के समझने के योग्य रहती है क्योंकि इस अवधि में शिक्षार्थी अपने ज्ञान विज्ञान से समाज को कुछ देता है। यहाँ लैंगिक शिक्षा की पृथकता का सूत्र समाप्त हो जाता है।
७. परीक्षा वर्ष (25 वां वर्ष) - शिक्षा पूर्ण करने के बाद शिक्षार्थी समाज में प्रवेश पाता है इसलिए विभिन्न रंगमंच पर अपने ज्ञान विज्ञान प्रदर्शन एवं अभिनय के माध्यम परीक्षा देकर समाज की नागरिकता प्राप्त करता है।
श्री आनन्द किरण@ 9982322405