आनन्द कण
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[22/11/20, 8:54 AM]
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"भारतीय संस्कृति ने विश्व को अहिंसा परमोधर्म का संदेश दिया है। अहिंसा यम योग साधना एवं नैतिकता का प्रथम स्तंभ भी बताया गया है। अहिंसा भीरुओं की नहीं वीरों का आभूषण है। इस पर चलने वाले को महावीर की उपाधि दी जाती है तथा व्यष्टि व समष्टि आनन्द में वृद्धि होती है। इसलिए आनन्द मार्ग के राही को यम नियम में प्रतिष्ठित होना होता है। मन, वचन एवं कर्म से दूसरों को कष्ट पहुँचाने का भाव भी मन में नहीं लाने का नाम अहिंसा दिया गया है। इसका अर्थ अन्याय व अनीति सहन करना नहीं होता है। समाज में फैल रहे अधर्म व आतंक को देखकर जो शांति-शांति की माला जपता है, वह सबसे बड़ा हिंसक है। शांति बुरा देखकर आँख,कान व मुख बंद करने वालों को नहीं मिलती है। यह तो संघर्ष का प्रतिफल है। अहिंसा कभी भी अव्यवहारिक एवं अमनोवैज्ञानिक नहीं है। यह प्रैक्टिकल है, जिसका अनुसरण कर व्यक्ति शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक प्रगति करता है। इसलिए यम(अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य) नियम(शौच, संतोष,तप,स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान) मनुष्य व उसके समाज के प्रथम बिम्ब आवश्यक है। आनन्द मार्ग के साधक लिए यम नियम का पालन करना आवश्यक शर्त है। इसलिए आनन्द मार्ग एक व्यवहारिक पथ है।"
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[29/11/2020, 7:43 AM]
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"सत्यमेव जयते भारतीय संस्कृति एवं संविधान का आदर्श वाक्य है एवं सत्य को सर्वत्र अंगीकार किया गया है। इसलिए शास्त्र मनुष्य को सत्याश्रयी बनने की शिक्षा देते है। सत्यानुगामी का जीवन कभी भी संकटग्रस्त नहीं हो सकता है। अत: जीवन वेद ने सत्य को परिभाषित किया है। परहित में प्रस्तुत किये गए दृश्य को सत्य कहा गया लेकिन जैसा है वैसा कहने को ऋत नाम दिया गया है। इसलिए स्मृति में सामुहिक जीवन में सत्य का अनुसरण करने एवं व्यक्तिगत जीवन में ऋत का पालन की व्यवस्था दी है। यह सत्यमेव जयते का मूल है तथा जीवन को आनन्दित करता है। जो पथ विजय माला एवं आनन्द से विभूषित करता है।वही मनुष्य का मार्ग है। इसलिए मनुष्य गर्व से कहता है कि मैं आनन्द मार्गी हूँ। "
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[12/6, 7:30 AM]
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"विश्व की सभी राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था में चोरी करना अपराध बताया है तथा धार्मिक व्यवस्था में इसे पाप की श्रेणी में रखा गया है। इसलिए शास्त्र मनुष्य को चौर्यवृति से दूर रहकर अस्तेय पर चलने की शिक्षा देता है। 'जीवन वेद ने बिना पूछे दूसरों की वस्तु को छूने का भाव भी मन में न लाने को अस्तेय के रुप में परिभाषित किया है।' अस्तेय के पालन करने से समष्टि शुचिता बनी रहती तथा व्यष्टि के जीवन को कल्याणकारी बनाता है। जहाँ कल्याण एवं शुचिता है वहाँ आनन्द का निवास है। जिसने आनन्द मार्ग पर चलने का दृढ़ संकल्प लिया है वह शुद्ध व पवित्र जीवन शैली अपनाता है। सर्वजन हितार्थ व सुखार्थ मनुष्य को अस्तेय में प्रतिष्ठित होना चाहिए। यह यात्रा मनुष्य के आनन्ददायक होती है। अत: मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसमें है कि वह आनन्द मार्ग को जीवन व्रत के रुप में ले। "
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[13/12/2020, 7:37 AM]
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"विश्व में असमानता का मुख्य कारण व्यष्टि का अपरिग्रह के सूत्र में प्रतिष्ठित नहीं होना है। समष्टि जगत में संपदा सीमित है लेकिन व्यष्टि की इच्छाएँ असीमित है। सीमित व असीमित के इस समीकरण को संतुलित करने के लिए अपरिग्रह के सूत्र में प्रतिष्ठित होना बताया गया है। अपरिग्रह में परहित की साधना व समष्टि के प्रति व्यष्टि का दायित्व निहित है। जहाँ पर परहित व सामाजिक दायित्व विद्यमान वहाँ आनन्द रहता है। जीवन को आनन्दित बनाने के लिए अपरिग्रह की साधना करनी चाहिए। जीवन वेद में अपरिग्रह को देह रक्षा के अतिरिक्त द्रव्य की संग्रहित नहीं करना तथा इसका भाव भी मन में नहीं रखना बताया गया है। अपरिग्रह का पथ मनुष्य को आत्म मोक्ष एवं जगत हित की ओर ले चलता है। आत्म मोक्ष एवं जगत हित का उद्देश्य मनुष्य को आनन्द मार्ग पर लाता है।"
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[20/12/2020, 8:32 AM]
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"ब्रह्म भाव में विचरण करना, अथवा ब्रह्ममय बन जाना अथवा ब्रह्म तत्व का अनुसरण करने का नाम ब्रह्मचर्य है जबकि समाज में यह भ्रम फैला हुआ है कि अविवाहित रहना अथवा स्त्री पुरुष संसर्ग नहीं करना ब्रह्मचर्य है। जीवन वेद में ब्रह्मचर्य शब्द के शाब्दिक विन्यास एवं भावार्थ के महत्व को स्वीकार कर वैज्ञानिक परिभाषा दी गई है। फिर भी सांसारिक जगत में सन्यासी का पूर्णतया संयमित जीवन को नैष्ठिक ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ का संयमित प्रजापत्य ब्रह्मचर्य नाम दिया गया है। इसे मानकर चलना स्वास्थ्य के अच्छा है तथा सामाजिक अनुशासन के आवश्यक भी है। ब्रह्मचर्य के अनुपालन से मनुष्य की शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति होती है तथा मनुष्य उत्तरोत्तर अपने जीवन लक्ष्य की ओर द्रुतगति से बढ़ता है। यह पथ मनुष्य के आनन्द में उसी अनुपात में वृद्धि करता जाता है। जिस पथ पर चलने मनुष्य की प्रगति होती है तथा आनन्द उपलब्ध होता है, वह सतपथ है। सतपथ पर चलना मनुष्य के लिए चरम निर्देश है। चरम निर्देश को जो मानकर चलता है,वही आनन्द मार्गी है। मनुष्य का आनन्द मार्गी होना गौरव का विषय है। इसलिए सृष्टि के सभी मानवोचित जीवों को आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए।"
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[27/12/2020, 6:47 AM]
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"भारतवर्ष की धार्मिक शब्दावली में शुद्धता एवं पवित्रता शब्द का उल्लेख मिलता है। साफ शरीर व परिवेश को शुद्धता तथा साफ मन को पवित्रता की उपमा दी गई है। नियम साधना में उक्त क्रिया को शौच नाम दिया गया है। जीवन वेद में बाह्य व आंतरिक परिच्छन्नता में प्रतिष्ठित होने का गहन ज्ञान है। शौच नियम के दोनों रुप में प्रतिष्ठित होते ही व्यष्टि का मन निर्मल, शरीर स्वस्थ एवं पर्यावरण स्वच्छ होता है। यह परिवेश व्यष्टि व समष्टि के लिए कल्याणकारी व प्रगति का सूचक होता है। जैसे ही व्यष्टि प्रगति एवं कल्याण को धारण करता है वैसी जयी होने लगता है। मनुष्य सदा जय अवस्था रहे इसलिए आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए"*
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[03/01/2021, 06:30AM]
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"संतोषी मन सदा सुखी। धर्म शास्त्र का यह श्लोगन मनुष्य को संतोष नियम की उपादेयता समझाता है। बिना मांगे अर्थात आयाचित रुप से जो मिले, उसमें तृप्त रहने का नाम संतोष दिया गया है। संतोष मनुष्य की प्रगति के पथ एवं हक की लड़ाई के रास्ते का बाधक नहीं है। जीवन वेद में संतोष सहित संपूर्ण यम व नियम की व्यवहारिकता पर प्रकाश डाला है। इसलिए सभी मनुष्यों को जीवन वेद को समझना चाहिए। संतोष नियम में प्रतिष्ठित होना साधना की पराकाष्ठा की अनुभूति करता है।जिस पथ पर पराकाष्ठा है, वह जीवन लक्ष्य का पथ है। चूंकि मनुष्य का जीवन लक्ष्य आनन्दोपल्बधि है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य सदैव आनन्द मार्ग पर ही चलता है।"
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[10/01/2021, 06:45 AM]
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"तप का उल्लेख सभी धर्म शास्त्र में अल्प एवं अधिक परिमाण में मिलता है। लेकिन अंध धारणा के वशीभूत होकर शरीर को अनावश्यक यातना देने के साथ तप का कोई संबंध नहीं है। जीवन वेद में उद्देश्य साधना के लिए शारीरिक कृच्छ को तप बताया गया है। परहित, सार्वजनिक सुख, जनसेवा, सामाजिक दायित्व निवहन अथवा अपने जीवन निर्माण के उद्देश्य से स्वेच्छा से कष्ट ग्रहण करने के अतिरिक्त तप के नाम पर जीवन को जोखिम में डालने का खेल अंध विश्वास से अधिक कुछ नहीं है। तप से साधक का जीवन निखरता है। जहाँ जीवन में निखार आता है, वहाँ सत्यता डेरा डाल देती है। जैसे ही सत्य का वास होता है, तैसे ही मनुष्य का जीवन आनन्द से लबालब हो जाता है। इसलिए परमपुरुष का कहना है कि मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना ही होगा।"
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[14/01/2021, 12:53 AM]
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"मनुष्य के मन में सुप्त अथवा जाग्रत अवस्था में स्वयं, सृष्टि एवं परमतत्व की विषय में जानने की जिज्ञासा रहती है। मनुष्य की यह जिज्ञासा, जब तड़प अथवा लगन बन जाते है, तब वह ज्ञान की खोज में निकल पड़ता है। इसी क्रम में मनुष्य के अंदर स्व: अध्ययन की रुचि जगती है। यह रुचि मनुष्य में स्वाध्याय की प्रवृत्ति को जन्म देती है। जीवन वेद में अर्थ समझकर शास्त्रों का अध्ययन करने का नाम स्वाध्याय दिया गया है। शास्त्र में स्वाध्याय को साधक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: सभी मनुष्य को नियमित स्वाध्याय करना चाहिए। चर्याचर्य की व्यवस्था के अनुसार पाठ ग्रहण में असक्षम व्यक्ति सतसंग अथवा अन्य के मुख से सुनकर स्वाध्याय कर सकता है। धर्म चक्र में नियमित उपस्थिति होने से श्रेष्ठ स्वाध्याय साधना होती है। स्वाध्याय नियम के पालन से साधक आत्म चिंतन,मनन एवं मंथन के रास्ते धीरे धीरे आत्मज्ञान को पा लेता है। आत्मज्ञान अर्थात कैवल्य ज्ञान व्यक्ति को महापुरुष बना देता है। महापुरुष समाज में ईश्वर के प्रतिनिधि की संज्ञा पाई है। अत: प्रमाणित होता है कि स्वाध्याय साधना के रास्ते होकर जीव कोटी, ईश्वर कोटी व ब्रह्म कोटी में उन्नत हो सकता है। जिस रास्ते से मनुष्य की प्रगति होती है। वह मनुष्य के लिए करणीय व आनन्ददायक है। अतः आनन्द मार्ग का मार्गी होना मनुष्य के लिए गौरव का विषय है। "
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[17/01/2021, 12:30AM]
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"जीवन वेद में सुख दु:ख में, संपद, विपद में ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखना और जागतिक समस्त कार्य स्वयं को यंत्र समझकर करना, ईश्वर प्रणिधान कहा गया है। ईश्वर प्रणिधान मनुष्य को इष्ट एवं आदर्श में विश्वास रखने तथा उस पर चलने की शक्ति प्रदान करता है। सृष्टि के शास्वत नियम कहते है कि जहाँ इष्ट एवं आदर्श है, वहाँ विजय निश्चित होती है। इसलिए मनुष्य को सफल जीवन जीने तथा जीवन में सफल होने के लिए ईश्वर प्रणिधान को मानकर चलना चाहिए। यह मनुष्य को आनन्द में प्रतिष्ठित करता है तथा मनुष्य प्रसन्नता के साथ आनन्द मार्ग को जीवन पथ के रुप में चुनता है।"
--- श्री आनन्द किरण
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