श्री आनन्द किरण की कलम से निकले - आनन्द के कण -01

             आनन्द कण 
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        [13/10/2020, 6:53 AM] 
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"मनुष्य मनुष्य के बीच भेद की दीवार काल्पनिक है। यह एक स्वप्न की भांति है, जिसकी जीवन अवधि निंद्रा के भंग होने तक है। यह मानव समाज कुंभकर्ण की निंद्रा में नहीं सोया है।आत्मज्ञान से समग्र मानवता के आत्मचक्षु खुलते ही वसुधैव कुटुबं का भाव जग जाएगा तथा मानव समाज एक एवं अविभाज्य स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा। इसलिए मनुष्य को व्यक्तिगत जीवन में चलना होता है, साधना,सेवा एवं त्याग के पथ पर। यही से शुरू होता आनन्द मार्ग।"
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         [14/10/2020, 8:44 AM] 
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"मनुष्य जीवन भोग के लिए नहीं ब्रह्म प्राप्ति के लिए है। शास्त्र कहता है कि ब्रह्म आनन्दधन अवस्था है। व्यष्टि एवं समष्टि जीवन में शांति की चाहत रखने वालों को संकीर्णता, कुप्रथा, कुनीति कुव्यवस्था एवं कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष करने को सदैव तैयार रहना चाहिए क्योंकि शांति संघर्ष का प्रतिफल है।इसलिए व्यक्ति को अपने चिंतन एवं सोच को वृहद रखना चाहिए। शास्त्र के अनुसार वृहद का प्रणिधान करना ही धर्म है। धर्म का रास्ता मनुष्य को नव्य मानवतावाद में प्रतिष्ठित करता है ।  नव्य मानवतावाद ही विश्व शांति की प्रतिष्ठा करता है तथा व्यक्ति के जीवन में सुख की वर्षा करता है। शास्त्र में अनंत सुख को आनन्द कहा गया है। आनन्दधन अवस्था ही ब्रह्म संप्राप्ति है। इसलिए व्यक्ति को व्यक्तिगत जीवन में भूमाभाव की साधना करते हुए समाजिक जीवन में नव्य मानवतावादी आदर्श को लेकर चलना चाहिए। यही आनन्द मार्ग को प्रवेश द्वार है।"
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         [15/10/2020, 6:49 AM] 
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"अंधकार कितना भी घना होने पर भी रोशनी की एक ही बिम्ब से हट जाता है। सूर्य के आते  रात्रि चली जाती है। ठीक इस भांति सकारात्मक चिंतन नकारात्मक सोच, विचारधारा एवं वातावरण को हटा देती। इसिलिए शास्त्र कहता अंधकार से आलोक की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर एवं अज्ञान से ज्ञान की ओर गति जीवन को आनन्द से भर देती है। गुरुदेव का निर्देश है कि घृणा को प्रशंसा से अंधकार को आलोक से जय करों। आशावादी एवं सकारात्मक रहना सुपथ है। यही से मनुष्य को आनन्द मार्ग दिखाई देता है।*
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           [16/10, 7:04 AM] 
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"सत्य असत्य, नीति अनीति, धर्म अधर्म एवं संकीर्णता व्यापकता के बीच संघर्ष होना स्वाभाविक है। इस प्रकार के संघर्ष में जय सत्य,नीति, धर्म एवं व्यापकता की रही है। यह जय का विज्ञान है। इसिलिए महापुरुष कहते है कि मनुष्य को सुपथ अर्थात सत्य, नीति, धर्म एवं व्यापकता के पथ का वरण करना चाहिए। यह पथ यम नियम में निहित है। अत: मनुष्य को यम नियम का पालन करते हुए  साधना, सेवा एवं त्याग पथ चलना चाहिए। यही है आनन्द मार्ग का प्रथम पायदान।"*
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        [17/10, 7:04 AM] 
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"शरदोत्सव  सभी के जीवन में ऋद्धि,सिद्धि एवं समृद्धि लाए इसलिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी की पथ निर्देशना के अनुसार मनुष्य को शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़, मानसिक दृष्टि से मज़बूत एवं आध्यात्मिक अग्रगतिशील होना होगा। यह पथ मनुष्य को आनन्द मार्ग की ओर ले चलता है।" उनका आशीर्वाद _"तुम लोगों की जय हो"- से संपूर्ण सृष्टि लाभान्वित हो। 
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      [18/10/2020, 7:33 AM] 
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"मनुष्य के समाज के गठन में त्रुटिपूर्णता आज की समस्याओं कारण है। मनुष्य अपने विवेक बुद्धि का उपयोग कर मानव समाज का सही संगठन करते ही सभी समस्याएँ छूमंतर हो जाएंगी। इस कार्य देरी करने का अर्थ है कि मनुष्य अपने लिए अशांति की निशा की जीवन अवधि बढ़ाना, इसलिए मनुष्य को शीध्र ही आध्यात्म की भित्ति पर आधारित आनन्ददायक संसार की रचना कर देनी चाहिए। जहाँ मनुष्य  भूखा, नंगा, बेघर, बेरोजगार, गरीबी, अशिक्षा तथा चिकित्सा के अभाव अभिशाप लेकर  जीवन को बोझ नहीं मानेगा तथा सभी एक स्वर में गायेंगे - सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय..........। यहाँ पर ही मनुष्य को  आनन्द मार्ग से साक्षात्कार हो जाता है"
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       [19/10/2020, 7:28 AM] 
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"सुख एवं दुख एक ही सिक्के के दो पहलू बताये गए है, यह बताया गया है कि एक अवस्था दूसरे के आगमन की सूचना देता है। इसलिए महापुरुष बताते है कि सुख में अति उत्साही होकर अपने विवेक को खोकर कुपथ की ओर नहीं चलना चाहिए तथा दुख से व्यथित होकर अनुचित पथ का चयन नहीं करना भी महापुरुषों की ही शिक्षा है। सुख की अनन्त अवस्था तथा दुख की शून्य अवस्था को आनन्द नाम दिया गया है। आनन्द के पथिक को सुख-दुख आँख मिचौली नहीं खेला सकती है। अत: मनुष्य के कुपथ पर जाने की संभावना भी शून्य है । मनुष्य की बुद्धिमता इसमें है कि उसे आनन्द के मार्ग पर चलना चाहिए। ऐसा करने पर मनुष्य आ जाता है आनन्द मार्ग पर।"
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    [20/10/2020, 6:35 AM] 
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"नीति  शास्त्र में कहा गया है कि अपना पराया की गणना लघु चेतना वाला इंसान करता है, उदार चरित्र वाले संपूर्ण संसार को अपना कुटुबं मानते है। नीति शास्त्र का यह संदेश मनुष्य को स्वयं का मूल्यांकन करने की शिक्षा देता है कि स्वयं तुम तय करो - तुम्हारी गति आनन्ददायक है अथवा नहीं। मनुष्य के समाज में वृहद सोच के लोगों की संख्या अधिक से अधिक हो इसलिए मनुष्य को अपने समाज की सामाजिक संरचना को समरसता मूलक एवं आर्थिक संरचना को प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक बनानी होगी। व्यष्टि एवं समष्टि यह कार्य आनन्दमय सृष्टि रचना करता है। यह कार्य करने वाला अपना परिचय आनन्द मार्गी के रुप में देता है तथा वह कहता है कि मेरे चलने का पथ आनन्द मार्ग है।"
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      [21/10, 5:33 AM] 
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"व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्माण करना शिक्षा व्यवस्थाओं का आधार रहा है। व्यक्तित्व में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास को रखकर व्यक्ति देखने से उसके निर्माण का सही मूल्यांकन होता है। शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में व्यक्ति को पूर्णत्व की ओर ले चलता है। पूर्णत्व की अवस्था नर में नारायण के दर्शन कराती है तथा व्यक्ति  आनन्दधन की अवस्था को पा लेता है।  यह मनुष्य की आनन्द मार्ग की यात्रा है ।"
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         [22/10, 8:01 AM] 
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"आनन्द मार्ग के  यात्री सभी है, कोई खंड में तो कोई अखंड में, कोई बाह्य लोक में तो कोई अंत: लोक में आनन्द की खोज कर रहा है। मनुष्य के यह खोज एक दिन उसे आनन्दमूर्ति से साक्षात्कार करवाएंगी, तब मनुष्य की आनन्द मार्ग की यात्रा फलिभूत होगी। यही है आनन्द मार्ग का रहस्य ज्ञान।"
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    [23/10/2020, 7:18 AM] 
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"आनन्द पाने के लिए घर बहार छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। मात्र दृष्टिकोण में परिवर्तन करने से आनन्द की अनुभूति जाती है। नकारात्मक वातावरण लिप्त बुद्धि जहाँ निराशा आवरण में जग को दुखदायी मानती है, वही सकारात्मक सोच का भाव आशावादी बना देता है तथा अपने जीवन को सुन्दर बनाने का एक स्वप्न दिखाई देने लगता है। उसी अनुरूप कर्म साधना बनते ही मनुष्य अपने जीवन को धन्य समझने लगता है। सबमें अच्छा देखो अच्छाई  मिलेगी। यही मानव का मनोविज्ञान है तथा यही मनुष्य आनन्द मार्ग पर ले चलता है। "
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        [24/10/20, 6:54 AM] 
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"शास्त्र में कहा गया है कि धर्म का पथ सरल तथा पाप का पथ कुटिल है। धर्म का पथिक सरल, स्पष्ट एवं सत्य होता है, इसलिए वह सदैव निर्भय एवं आनन्दित रहता है जबकि पापी कुंठित, बनावटी एवं मिथ्या होता है इसलिए भयभीत तथा अशांत रहता है। अत: परमपुरुष का निर्देश है कि मनुष्य को धर्म( सतपथ) के पथ का अनुसरण करना चाहिए। यह  आनन्द का मार्ग है। आनन्द मार्ग पर चलना सभी का धर्म(कर्तव्य) है।"
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       [25/10/20, 7:04 AM]
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"जीत-हार का भाव सुख-दुख का कारण बनता है।  शास्त्रोंक्ति है कि  समष्टि एवं व्यष्टि जगत में अधर्म (असत्य,बुराई, आसुरी शक्ति) के पर धर्म (सत्य,अच्छाई, दैवीय शक्ति) की जय एक शास्वत सत्य  तथा आनन्दायक है। यहाँ हार एवं जीत का भाव नहीं, सत्य धर्म की संस्थापना का संकल्प है। यह अवस्था मानव समाज के  लिए कल्याणकारी तथा सर्वजन हितार्थ है। इसलिए सत्य धर्म के खातीर को व्यष्टि व समष्टि को विजय रहना है। यह मानसिकता आनन्द मार्ग पर चलने वाले पथिक के लिए आवश्यक है।"
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       [26/10/20, 7:31 AM] 
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"शास्त्र में कहा गया है कि ब्रह्म एक है द्वितीय नहीं (एकोहम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति)। यही बात हजरत मुहम्मद कह गये है अल्लाह एक है। अत: परम तत्व को लेकर संसार में जो भेद दृष्टिगोचर होता है, वह अज्ञानता के कारण है। मनुष्य ने भाषागत, संस्कारगत, परिवेशगत, देशगत एवं बुद्धि के स्तरगत कारण से उसे अलग-अलग नामों से पुकारा है। इस कारण परमतत्व अनेक मान लेना मनुष्य की भूल है। इस भूल सुधार शीध्र ही आवश्यक है। अन्यथा मनुष्य अपनी क्षति कर सकता है। मनुष्य तथा उसके समाज की कोई क्षति नहीं हो इसलिए समझना होगा ब्रह्म तत्व एवं उसकी सृष्टि व जीव आनन्दमय है। इस आनन्द चक्र, ब्रह्मचक्र के प्राण केन्द्र आनन्दमूर्ति है, जिसे दर्शन में परमशिव तथा भक्ति में कृष्ण का गया है। ठीक इसी भांति भाषागत अथवा किसी अन्य कारण से उसे अलग-अलग नाम दिये गये है। इस कारण ब्रह्म को देखने में भेद बुद्धि लगाने से मनुष्य अपने आनन्द में कमी करता है। चूँकि मनुष्य का मार्ग आनन्द मार्ग है, इसलिए वह एकोहम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति में प्रतिष्ठित होकर आगे बढेगा। यही एक आनन्द मार्गी की पहचान।"
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       [27/10/20, 5:59 AM] 
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"जिज्ञासु के मन में एक प्रश्न सदैव रहता है कि सबसे बड़ा भगवान कौन? जब ब्रह्म एक ही है तो यह प्रश्न अर्थहीन नजर आता है। वस्तु ऐसा नहीं है जिज्ञासु के इस प्रश्न के पीछे एक मंशा छिपी रहती है कि कौनसा पथ श्रेष्ठ है? जब मनुष्य जान जाता है कि मनुष्य मात्र का मार्ग आनन्द मार्ग है तो यह प्रश्न भी मूल्यवान नहीं रहता दिखता है। लेकिन यह प्रश्न तो और ही भाव लेकर जन्मा था, वह है कौनसा साधन सर्वोत्तम है? साधक जानता है कि साधन साध्य तक पहुँचने का माध्यम है। मनुष्य का साध्य जैसा होगा वैसा ही साधन सबसे अधिक उचित नजर आएगा। इसलिए मनुष्य को सबसे पहले अपने साध्य का निर्धारण ठीक से कर लेना चाहिए,उपयुक्त साधन स्वत: ही साधक के पास आताहै। यही आध्यात्म विज्ञान है। चूँकि चराचर जगत ज्ञात अथवा अज्ञात भाव से आनन्द मार्ग पर चल रहा है तो उसका साध्य आनन्द है तथा इस आनन्द का नाभिकेन्द्र आनन्दमूर्ति नाम से जाना जाता है।  आनन्दमूर्ति तक पहुँचने का साधन भक्ति है। इसलिए शास्त्र कहता है कि भक्ति भक्तस्य जीवनम्, भक्ति भगवत भावना का नाम है इसलिए आनन्दमूर्ति का भाव लेते हुए साधना करते रहने मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, वह भावातित में भी प्रतिष्ठित हो जाता है। इस प्रकार की जिज्ञासा मनुष्य आनन्द मार्ग पर लाती है।"
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     [28/10/2020, 5:47AM]
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"चमत्कारों व वरदानों का साधना में कोई संबंध नहीं है, यदि कोई इस आश अथवा लालसा में साधना करता है तो ऐसा कर स्वयं अपने को अंधकार में रखता है। साधना पूर्णत्व प्राप्ति की यात्रा है, जिसमें उक्त तत्व का कोई मूल्य नहीं है। यदि कोई साधक अपने, अपने गुरु के अथवा अपने आराध्य के चमत्कारों एवं वरदानों का बखान ही करते घुमता है तो समझना चाहिए कि वह अंदर से उतना ही खोखला है, जितना वह उनका बखान करता है। अपनी अपूर्णता छिपाने के लिए यह रास्ता उचित नहीं तथा यह व्यष्टि व समष्टि के हित में नहीं है, जो कार्य हितकारी नहीं है, वह आनन्ददायक तथा कल्याणकारी भी नहीं है। अपने कर्म के बल पर परमपद को प्राप्त करना आनन्द का पथ है।  आनन्द  का मार्गी कभी भी मिथ्या बातों की आश में नहीं रहता है। आनन्द मार्ग मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की ओर ले चलता है। यही मनुष्य के लिए सुपथ है।"
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        [29/10/20, 7:01 AM] 
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" शास्त्र बताता है कि मनुष्य मन प्रधान प्राणी है जबकि शेष जीव शरीर प्रधान है। मनुष्य के मन की प्रधानता ने उसे जीव जगत में  श्रेष्ठ बनाया है। मनुष्य की इस विशिष्टता का सदुपयोग करने से मनुष्य की प्रगति होती तथा वह क्रमशः साधुत्व, देवत्व एवं ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है। इसके विपरीत दुरूपयोग करने से क्रमशः पशुत्व, असुरत्व एवं निचतापन को प्राप्त करता है। प्रथम स्थित मनुष्य के श्रेयकर है। इसलिए इस मार्ग को धर्म का पथ बताया है। इसके विपरीत पथ को अधर्म बताया गया है। धर्मयुद्ध (समष्टि व व्यष्टि जगत में आत्म व स्व: मंथन का संघर्ष) में धर्म जयी रहता है, यह शास्वत सत्य तथा सृष्टि का विधान है। धर्म का मार्ग मनुष्य के लिए आनन्द का मार्ग है। इसलिए मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए। इसी को मनुष्य जीवन की सदगति कहा गया है। अतः प्रमाणित होता है कि आनन्द मार्ग ही मनुष्य का मार्ग है।"
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       [30/10/2020, 6:21 AM] 
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"शास्त्र में वर्णित है कि मनुष्य के सुकर्म के प्रतिफल में जो परिवेश मिलता है, वह स्वर्ग तथा कुकर्म के प्रतिफल का परिवेश नरक है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के अनुसंधान के अनुसार इस सृष्टि से परे स्वर्ग व नरक नाम की वाटिकाएँ नहीं बनी हुई है। यह शास्त्र के व्याख्याकारों का भ्रमजाल बिछाया हुआ है। अत: प्रमाणित हो जाता कि यह धरा ही स्वर्ग एवं नरक के रुप व्यक्ति के संस्कार के अनुसार दिखाई देती है। मनुष्य अपने दृष्टिकोण एवं कर्म की दिशा बदलने से नरक को स्वर्ग में तथा स्वर्ग को नरक में बदल सकता है। शास्त्र की व्यवस्था के अनुसार निष्काम सतकर्म मनुष्य स्वर्ग नरक के परिदृश्य के उपर आनन्द लोक में ले चलता है। बाबा बताते है कि अपने कर्म पर ब्रह्म भाव आरोपित करने से मनुष्य  कर्म बन्धन में नहीं जकड़ता है। यही निष्काम कर्म करने की विधा है। ब्रह्म भावमय निष्काम कर्म मनुष्य को आनन्द मार्ग पर ले चलता है। यह विज्ञान मनुष्य को मुक्ति मोक्ष की ओर ले चलेगा। मुक्ति मोक्ष की आकांक्षा रखे बिना परमपिता का काम करते करते मर जाना तथा मरते मरते भी परमपिता का काम करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। मनुष्य जीवन को सार्थक करने का बोध ही मनुष्य को आनन्द मार्गी बनता है।"
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      [31/10/2020, 7:13 AM] 
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"जातपात, मजहब सम्प्रदाय व क्षेत्र देश की कटुता लेकर जीने वाले विध्वंसक है। यह रास्ता अधर्म का है। शास्त्र के अनुसार इष्ट का वास अधर्म मे नहीं धर्म में है। इसलिए मनुष्य को अधर्म के पथ पर नहीं चलना चाहिए। यह मनुष्य के लिए आनन्ददायक नहीं है। सर्वजन कल्याण का चिन्तन व कर्म मनुष्य का अपना धर्म है। धर्म मनुष्य के लिए आनन्ददायक है इसलिए शास्त्र मनुष्य को धर्म पर चलने की शिक्षा देता है। यही वसुधैव कुटुबं का सार है। आनन्द मार्ग, मानव समाज के सर्वांगीण कल्याण का पथ है, जहाँ अधर्म जनित किसी भेद एवं अस्पर्शयता का स्थान नहीं है। समष्टि के हित में व्यष्टि का हित तथा व्यष्टि हित में समष्टि हित विराजमान है। यही सोच व कर्म मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलाता है।"
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      [07/11/2020, 1:37 PM] 
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"ब्रह्म साधना मनुष्य की अमूल्य संपदा है, जो हमारे पुरखें हमारे लिए विरासत में छोड़ गये है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी अंत: निहित शक्तियों की पहचान करता है तथा वह अनुभव करता है कि वह जगत का अतिविशिष्ट प्राणी है। मनुष्य को जब यह अनुभव हो जाता है कि इसकी यह विशिष्टता उसके लिए वरदान है, तब वह सतपथ चल पड़ता है। मनुष्य का यह सतपथ उसे आनन्द प्रदान करता है एवं वह गर्व से कहता है कि मेरे चलने का पथ आनन्द मार्ग है। आनन्द मार्गी आत्म मोक्ष एवं जगत हित की भावना लेकर आगे बढ़ता है, उसकी यह गति उसे मनुष्य जीवन चरम लक्ष्य में परिणत करती है और उसका मनुष्य रुप में आने का उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। इसी को शास्त्र में सुपथ बताया है। आनन्द मार्ग ही सुपथ एवं सतपथ है।"
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        [14/11/2020, 6:46 AM] 
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"शास्त्र में आत्मदीप बनने का उल्लेख आता है। उजियारा को जीवन माना गया इसलिए महाजन, मनुष्य से सदैव प्रज्ज्वलित रहने की आश रखते है। यह अंदर की रोशनी मनुष्य के लिए आनन्ददायी है। जीवन को आनन्दमय बनाने लिए आत्मदीप भव का संदेश दिया गया है। यह अवस्था ही मनुष्य के लिए सही अर्थ में दिवाली है। आत्म आलोक के पथ पर चलते हुए सबको आलोकित करना आनन्द का पथ है। अत:आनन्द मार्गी ब्रह्म सत्य व जगत को आपेक्षिक सत्य का सूत्र धारण स्वयं अपने घर में आनन्द की दिवाली मनाता है एवं सब के घर  आनन्द का दीपोत्सव मनाने में अपना सहयोग देता है। इसलिए आनन्द मार्ग  पर चलो सदैव दीपावली मनाओं।"
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                   श्री आनन्द किरण


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