सद्भाव शब्द का अर्थ शुभ भाव (Goodwill) होता है। चरम कल्याण के भाव को सबसे अच्छा भाव माना गया है। ब्रह्म सद्भाव का अर्थ ब्रह्म के स्व:भाव में व्यक्ति का प्रतिष्ठित होना है। जगत में मूलतः ब्रह्म भाव ही स्व:भाव है। मैं वही हूँ, यही ब्रह्म का स्व:भाव है। यह मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। इसलिए ब्रह्म सद्भाव को साधना का उत्तम अंग माना गया है। इसके अभाव ध्यान, धारणा, जप इत्यादि विशुद्ध रूप में नहीं हो पाता हैं। इसलिए साधना का आरंभ ब्रह्म की सद्भावना लेकर किया जाता है। ब्रह्म सद्भाव यही नहीं रुकता है कि 'मैं वही हूँ'। इसके साथ 'सबकुछ वही है' की भी आवश्यकता है। इसलिए साधना की प्रथम एवं द्वितीया अवस्था इससे सज्जित की जाती है। एक दीपक अन्य दीपकों को तब ही प्रज्वलित कर सकता है, जब वह स्वयं प्रज्ज्वलित होता है। अतः 'सबकुछ ब्रह्म है' में प्रतिष्ठित होने से पहले स्वयं को ब्रह्म बनना होता है। यदि साधक स्वयं ब्रह्म नहीं है तो वह दूसरों को अथवा सब को ब्रह्म मान एवं जान ही नहीं सकता है। अतः ब्रह्म सद्भाव अध्याय कहता है कि सर्वप्रथम स्वयं ब्रह्म बन कर जो कुछ भी देखते, सुनते, कहते एवं करते हैं, उन्हें ब्रह्म रुप में देखता है, तब ही ब्रह्म सद्भाव की पूर्णता होती है। अतः सबसे उत्तम साधना ब्रह्म सद्भाव को बताया गया है।
साधक को जगत में सदैव ब्रह्मभाव में रहना होता है। इसके लिए रामदास बनने से नहीं चलता है अपितु रामस्वरूप बनना ही होता है। इसलिए भारतवर्ष में पुरुष के नाम के पीछे देव तथा नारी के नाम के पीछे देवी पदवी लगती थी। कालांतर में पुरुष के नाम के पीछे राम भी लगता था। अतः राममय बनकर दुनिया को जीते हुए, राम में विलिन हो जाना है। अतः संस्कृत में कहा गया है कि 'रावणस्य मरण राम:'। जब हमारे अन्दर का रावण मर जाता है तो तब हमारे अंदर राम प्रकट होता है। इसलिए साधक को कभी भी अपने को इष्ट से अलग मानना, समझना तथा जानना नहीं चाहिए। अतः हमारा व्यवहार एवं आचरण कभी भी इष्ट से पृथक नहीं होना चाहिए। समाज में व्यक्ति की प्रतिष्ठा ही उसके इष्ट को प्रतिष्ठा दिलाता है। अतः सर्वप्रथम व्यक्ति को स्वयं को प्रतिष्ठित होना होता है। इसलिए तो गुरुदेव कहते हैं कि दुनिया मुझे तुम्हारे आचरण एवं व्यवहार से जानेगी। अतः स्वयं को कभी भी दुनिया से पृथक अथवा ऊपर नहीं मानना चाहिए। दुनिया के साथ मिलकर स्वयं को सद्चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहिए।
ब्रह्म सद्भाव की नैतिक शिक्षा के बाद ब्रह्म सद्भाव के व्यवहारिक प्रक्रिया की ओर बढ़ते हैं। ब्रह्म सद्भाव की व्यवहारिक प्रक्रिया यम-नियम, पंचदश-शील, षोडश-विधि एवं आचरण-विधि में निहित है। इसको आत्मसात करके चलना ही ब्रह्म सद्भाव में दृढ़ता से स्थापित करता है। स्वयं में ब्रह्म तथा दूसरों में ब्रह्म देखने की कला एवं विज्ञान का नाम ही ब्रह्म सद्भाव है। अतः स्वयं का आचरण एवं व्यवहार सदैव ब्रह्म के अनुकूल रखना चाहिए तथा दूसरों के व्यवहार एवं आचरण को ब्रह्म के अनुकूल बनाने की कोशिश करते रहना चाहिए। यही ब्रह्म सद्भाव की गति का विज्ञान है। ब्रह्म विज्ञान बताता है कि व्यक्ति जितना अधिक दृढ़ भाव से स्वयं को ब्रह्म भाव में रखता है, उतना ही अधिक दूसरों को वह ब्रह्म भाव में ले चलता है।
'मैं आनन्दमूर्ति हूँ', यही आनन्द मार्गी का ब्रह्म भाव है। अतः हमारे आचरण एवं व्यवहार से कभी भी आनन्दमूर्तित्व अलग नहीं दिखना चाहिए। 'बाबा नाम केवलम' की सफलता स्वयं को बाबा से अलग रखने में नहीं है, अपितु स्वयं को बाबा में रखने में है। अतः बाबा का दास नहीं बाबा का स्वरूप बनने एवं बनाने के लिए बाबा नाम केवलम गाया जाता है। यद्यपि यह सत्य है कि बाबा नाम केवलम में समस्त जागतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक समस्या का निदान है। लेकिन बाबा नाम केवलम इस भाव से गाने के लिए नहीं है। वह मात्र ब्रह्म भाव के लिए गाने के लिए है।
ब्रह्म सद्भाव से पृथक होकर साधना के अन्य कोई भी लेशन नहीं करने चाहिए अन्यथा यह सुफल नहीं देते हैं। प्राणायाम एवं चक्र शोधन को तो ब्रह्म भाव से भरने के लिए इष्ट मंत्रमय बना दिए हैं लेकिन तत्व धारणा को करते समय विशेष ध्यान रखना आवश्यक है कि तत्व धारण फलादेश के लिए नहीं अपितु तत्व को धारण करने के लिए है। तत्व की धारणा में भी ब्रह्म भाव आरोपित करते चलना होगा। अत: ब्रह्म सद्भाव को एक पल भी भूलकर नहीं रहना चाहिए। जगत हमें बहुत अधिक दुखी भी क्यों न कर दे अथवा जगत से दु:ख ही क्यों न मिल जाए तो भी ब्रह्म सद्भाव से विचलित नहीं होना ही ब्रह्म सद्भाव की प्रतिष्ठा है।
ब्रह्म सद्भाव में परमपुरुष को यंत्री तथा स्वयं को यंत्र मानकर चलने की कला में दक्ष किया जाता है। यह विद्या व्यक्ति के मन को परमभाव में प्रतिष्ठित करता है तथा ऐसा कोई भी आचरण नहीं करता, जो ब्रह्म सद्भाव के विरुद्ध हो। यहाँ एक प्रश्न को लेंगे कि ब्रह्म भाव के आगे सत् उपसर्ग क्यों लगा? क्योंकि हम ब्रह्म भाव के साधक हैं तथा ब्रह्म भाव अपने आप में सद्भाव है। फिर ब्रह्म भाव के स्थान पर ब्रह्म सद्भाव शब्द क्यों आया है? ब्रह्म भाव की प्रतिष्ठा की यात्रा में सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दो स्थिति होती है। सैद्धांतिक स्थिति कमजोर अथवा काल्पनिक है जबकि व्यवहारिक स्थिति मजबूत तथा वास्तविक है। सैद्धांतिक स्थिति में ब्रह्म भाव में विचरण करने वाला साधक हर उस स्थिति को भी ब्रह्म भाव मान लेता है, जो उसके मन को अच्छी लगती है। इसको अच्छी तरह से समझने के लिए कुछ उदाहरण लेते हैं। किसी तथाकथित संत विशेष कहलाने वाले व्यक्ति का आचरण समाज विरोधी अथवा नैतिक मूल्यों के प्रतिकूल होने पर भी वह मुख से ब्रह्म भाव की वर्षा करते देखे जाते हैं। उनके प्रवचन में मानो ब्रह्म स्वयं आकर बैठ गए हो। यह सैद्धांतिक अवस्था भी नहीं है। लम्बे मंत्र बोलकर ब्रह्म भाव का दिखावा करते हैं। अपरिग्रह, अहिंसा, अस्तेय इत्यादि यम को तीन तेरह करने वाले तथाकथित अवधूत भी ब्रह्म भाव की ऐसी अभिव्यक्ति करते हैं कि उन्हें सहज ही देखकर ब्रह्म भाव विहिन नहीं कहा जा सकता है। कतिपय कथाकार, भजनकार एवं कीर्तन गायक ऊपर से ब्रह्म मूर्ति से लगते हैं किंतु अन्दर से खंगाला जाए तो इतने ही कमजोर साबित होते हैं। मैं सभी कथाकारों, भजनकार एवं कीर्तन गायकों पर आरोप नहीं लगा रहा हूँ। पर्याय ऐसे कुछ उक्त कलाकार मिल जाते हैं। अतः ब्रह्म भाव की व्यवहारिक स्थित में पहुंचने के लिए सतपथ का अनुसरण करना पड़ता है। इसलिए ब्रह्म भाव के आगे सत् उपसर्ग आया है। जिसका अर्थ सतपथ पर चलते हुए ब्रह्म भाव की सैद्धांतिक स्थिति से व्यवहारिक स्थिति में जाना। सतपथ क्या है? जो ब्रह्म भाव को ब्रह्म सद्भाव बनाकर प्रस्तुत करते हैं। यम-नियम, पंचदश- शील, षोडश विधि, आचरण विधि तथा शास्त्रोचित्त प्रगति के समग्र उपाय को दृढ़ता से मानकर चलना ही सद्भाव भाव है। जब इसमें ब्रह्म तत्व आ जाता है, तब ब्रह्म भाव ब्रह्म सद्भाव बन जाता है। इसलिए धर्म सूत्र ने ब्रह्म भाव की उत्तम अवस्था को ब्रह्म सद्भाव कहकर पेश किया है। अक्सर जिसको धर्म कहा जाता है, वह व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार में निहित होता है। जो केवल आध्यात्मिक अभ्यास से ही नहीं मिलता है। इसके लिए नीतिवता, आदर्श मूल्य, आदर्श विधि तथा आदर्श करणी की भी आवश्यकता है। यह जब जीवन में झलकने लगता है तब धर्म निखरने लगता है। ऐसा व्यक्ति साधु के वेश में शैतान बनकर नहीं आता है। अतः जागतिक जीवन में यम-नियम, पंचदश- शील, षोडश-विधि तथा आचरण-विधि का अनुसरण करना तथा भूमाभाव की साधना करना ही ब्रह्म सद्भाव की परिभाषा है। अतः सद्गुरु कहते है कि न आध्यात्मिक व्यष्टि तथा न ही नैतिकवान व्यष्टि समाज का उद्धार कर सकते है। समाज के उद्धारकों को आध्यात्मिक नैतिकवान होना आवश्यक है। ब्रह्म सद्भाव निवास ही आध्यात्मिक नैतिकता में करता है।
आध्यात्मिकता ने जब नैतिकता तथा नैतिकता ने जब आध्यात्मिकता को छोड़ा है तब ब्रह्म सद्भाव नहीं बना है। जब ब्रह्म सद्भाव नहीं बना है तब सैद्धांतिक ब्रह्म भाव व्यवहारिक ब्रह्म भाव में प्रतिष्ठित नहीं हुआ। ब्रह्म भाव सिद्धांत में ग्रहण करने पर नैतिकता को साथ लेकर चलने से ब्रह्म सद्भाव की उत्तम अवस्था को प्राप्त किया जाता है।
आज के परिवेश में ब्रह्म सद्भाव की नितांत आवश्यकता है इसलिए सैद्धांतिक नहीं व्यवहारिक बनने की आवश्यकता है। सैद्धांतिक लोग मुह के बल गिर जाएंगे, व्यवहारिक लोग ही सुपथ दे पाएंगे। आज जो समाज में असंतुलन दिखाई दे रहा है, वह ब्रह्म सद्भाव के अभाव के कारण ही तो सृष्ट हो रहा है। समाज, संस्था एवं संगठनों का असंतुलित होना ब्रह्म सद्भाव की कमी को पुष्टि करती है।
ब्रह्म सद्भाव की सरल परिभाषा सतपथ पर चलते हुए सद्भाव को इस प्रकार मानकर चलना कि मन का ब्रह्म में विचरण करने लग जाता है।
आनन्द किरण
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