मनुष्य का धर्म से गहरा रिश्ता है तथा शास्त्र धर्म विहीन जीवन को पशु तुल्य मानते है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को धर्म का ज्ञान होना आवश्यक है। व्याकरणाचार्यो धर्म शब्द की उत्पत्ति धृ धातु के मन प्रत्येक संयोग बताते है। जिसका अर्थ धारण करना बताया है। क्या धारण करना प्रश्न के जबाब में विश्लेषक बताते हैं कि वह मौल अथवा लक्षण जिससे उस सत्ता का अस्तित्व संपन्न होता है, उसे धर्म कहा जाता है। अर्थात अस्तित्व बताने वाला मूल गुण अथवा लक्षण धर्म है अथवा अन्य शब्दों में कहा जाये तो धर्म वह मूल गुण अथवा लक्षण जिसके अभाव में उस सत्ता का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है अथवा खत्म हो जाता है। मनुष्य का धर्म वृहद प्रणिधान को बताया गया है। जहाँ वृहदता अर्थात बडप्पन में मनुष्य का अस्तित्व निवास करता है। इसके मनुष्य तनधारी पशु है। वृहद को लौकिक रुप में इंसानियत, मनुष्यता, मनखपना, मानवता, ह्युमेनिटी इत्यादि इत्यादि नाम से जाना एवं पहचान जाता है। व्यक्ति वाचक संज्ञा के रुप में इसे मानव धर्म नाम दिया गया है, जिसका भावगत नाम भागवत धर्म है। यह भागवत धर्म ही मनुष्य का धर्म है। धर्म में उपस्थित मूल तत्व वृहद के आधार पर मनुष्य के मत एवं पथ का निर्माण होता है। यदि मत एवं पथ के सर्जन, विवेचन, विमोचन एवं विश्लेषण में त्रुटि रहने पर मनुष्य के लिए क्षतिकारक हो जाता है। इसलिए मनुष्य का मत की प्रत्येक प्रस्तुत एवं प्रकटीकरण में वृहदाकार का समावेश होना चाहिए। उस मत एवं धर्म में पार्थक्य कुछ भी नहीं होता है। इस प्रकार पथ चयन भी धर्म के अनुकूल होना चाहिए। भागवत धर्म मनुष्य का धर्म है। यह मनुष्य का सूचित करता है कि मनुष्य का पथ परमपद को प्रदान करने वाला होना चाहिए। चूंकि परमपद आनन्दधन अवस्था है इसलिए मनुष्य का आनन्द से लबालब होना आवश्यक गुण है।
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श्री आनन्द किरण
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