(1) सृष्टि का निर्माण एवं शिव - वैैज्ञानिक एवं दार्शनिक विश्लेषण सृष्टि निर्माण के विषय में शोधपत्र रखते है। दार्शनिक शोधपत्रों का सार कहता है कि चेतन से जड़ का उदगम हुआ तथा जड़ से जैविक सत्ता का आगमन हुआ है। सृृष्टि के आदि कारक चेतन तत्व को दार्शनिक ने अलग-अलग नाम दिये तथा अपने दृष्टि सामर्थ्य के अनुसार परिभाषित भी किया है । मूूलरुपेण दार्शनिक धारणा सकारात्मक एवं नकारात्मक गति के आधार पर अपने शोधपत्र जारी किये। सकारात्मक विचारधारा एक आशावादी भाव को लेकर चलता है इसलिए अपना दर्शन आनन्दमय रुप में प्रस्तुत करता है। वही नकारात्मक स्वरूप मौजूदा स्वरूप की कमियों के आधार पर नया प्रादर्श प्रस्तुत करते है। यह मनोविज्ञान इन्हें दुखवादी स्वरुप दिखा देता है तथा सर्वत्र कमी ही दिखाई देती है अन्ततोगत्वा यह पलायनवाद में जाकर प्रश्रय पाते हैं। दुखवादी दर्शन की शाखा ने चेतन को शून्य, आकाशीय वस्तु अथवा अज्ञात कह कर छोड़ देता है जबकि आनन्दमय दर्शन चेतन शुद्ध चैतन्य सत्ता चित्तिशक्ति के स्वरूप में देखता उसे शिव नाम देकर जीव अजीव का आदि अनादि बिन्दु बताता है। दूसरी विज्ञान का शोधपत्र ज्ञात अज्ञात रुप से चेतन तत्व के अस्तित्व को सृष्टि का आदि बिन्दु अभिधारणा के रुप अंगीकार करता है।
प्रयोगशाला में पुष्टि करने के लिए आधिकारिक तौर पर इस घोषित करने से रोक रखा है। सारांश में सृष्टि के आदि एवं अनादि बिन्दु को शिव माना गया है। जो सबका सारांश है अथवा अन्य शब्द में शिव का एकोह्म अस्तित्व शेष उनके सापेक्ष है अर्थात उनको हटाने से सभी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। यह समष्टि रुप में भूमा चैतन्य परमात्मा तथा व्यष्टि रुप में अणु चैतन्य आत्मा कहलाता है।
(2). हिन्दू मान्यता एवं शिव - शिव का नाम, व्यक्तित्व एवं धरोहर हिन्दू मान्यता संभाले हुए है, अत: शिव की छवि अधिक स्पष्ट से देखने के हिन्दू धारणा के परिपेक्ष्य में अध्ययन कर शिव के समग्र रुप का दर्शन करते है। हिन्दू मान्यता के अनुसार सृष्टि के आदि अनादि कारक शिव की इस सृष्टि का नियंत्रण ब्रह्मा विष्णु महेश नामक तीन शक्तिपुंज द्वारा होता है। यहाँ एक विरोधाभास यह की आदि अनादि कारक शिव एवं महेश को एक मान लिया गया है। जबकि सृष्टि नियंत्रण एक कार्य संहार इस शक्ति द्वारा संपन्न होता है जबकि शिव समग्र शक्ति के नियंत्रक है। जिसमें ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों का समावेश है। हिन्दू मान्यता शिव के दो रुप महादेव एवं शंकर भी विद्यमान है। सदाशिव इस धरा पर जब जन जागरण कर रहे थे तब रहस्य एवं नियंत्रक शक्ति के लिए देव शब्द का व्यवहार किया जा रहा था, इसी संदर्भ भगवान सदाशिव को महादेव कहा जाने लगा जो देवो के भी देव है। इसलिए महेेश एवं शिव को समानार्थ लेने की त्रुुटि की गई। शंकर शब्द का उदभव भक्ति की देन है। अपने आराध्य को सहज, सरल एवं सुलभ रुप दिखाने भोले शंकर शब्द का व्यवहार किया गया। पशुुुपति इत्यादि शिव के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द सदाशिव की विभिन्न भूमिका को चित्रित करती है।
(3) सदाशिव मानवता की धरोहर है - सदाशिव का आगमन इस धरा पर उस समय हुआ जिस समय मानव संस्कृति का प्रथम अध्याय लिखा जा रहा था, मनुष्य में पाश्विक प्रवृत्ति के अलावा मानवीय गुणों का प्रथम अभिप्रकाश हो रहा था। यह काल अनुमानतः पांच हजार ईसा पूर्व का था। इस युग में विश्व सभ्यताओं की पृष्ठभूमि बन रही थी। आज से पन्द्रह हजार वर्ष पूर्व मध्य एशिया में ऋग्वेद की रचना प्रारंभ हुई थी। सदाशिव के आगमन से पूर्व ऋग्वेद की रचना हो गई थी। उस युग में मजहब, सम्प्रदाय अथवा जाति का जन्म नहीं हुआ था तथा सदाशिव ने संपूर्ण मानव जन गोष्ठी के लिए कार्य किया था। इसलिए सदाशिव को किसी देश या
सम्प्रदाय की धरोहर कहना नादानी होगी। वह संपूर्ण मानवता की धरोहर है।
(4) सदाशिव ऐतिहासिक पुरुष थे - इतिहास का अब तक का आलेख भगवान सदाशिव को कथा का पात्र एवं हिन्दू देवता कह कर बंंद हो जाता है। इतिहास के पास सदाशिव को ऐतिहासिक पात्र कहने साक्ष्य उपलब्ध है। उनके आधार पर प्रमाणित किया जा सकता है कि भगवान सदाशिव एक ऐतिहासिक पात्र थे। शिव का निवास
स्थान, विशेभूषा, वाहन, अस्त्र, शस्त्र एवं कार्य पद्धति एक जमीनी व्यक्ति की थी तथा उनके कार्य तत्कालीन परिवेश के अनुकूल थे। यह सब उन्हें काल्पनिक बताते ने अनुमति नहीं देते है।
(5)प्रथम पुरुष सदाशिव - दर्शन के शिव एवं ऐतिहासिक पुुुरुष सदाशिव में कोई पार्थक्य रेखा नहीं है। शिव को समझने के लिए ज्ञान की आवश्यकता है वही सदाशिव को समझने के लिए भक्ति में प्रतिष्ठित होना पड़ता है। सदाशिव जिस युग में अपने हस्ताक्षर दे रहे थे, वह युग पहाड़ में कंदराओं में मनुष्य के निवास स्थान का युग था। इस युग के सदाशिव ही वह प्रथम पुरुष थे जिसने प्रथम विवाह कर मानव समाज की नीव रखी थी। उससे पहले यह सत साहस एवं समझ देने वाला कोई नहीं आया। वे ही प्रथम समाज शास्त्री, प्रथम राजनैतिक शास्त्री, प्रथम अर्थशास्त्री, प्रथम धर्म शास्त्री, प्रथम शिक्षा शास्त्री, प्रथम चिकित्सा शास्त्री, प्रथम कला शास्त्री, प्रथम विज्ञान शास्त्री एवं प्रथम पुरुष थे । यहाँ एक प्रश्न आ सकता है कि जब ऋग्वेद, वैदक शास्त्र एवं लिंग पुजा सदाशिव के पूर्व के थे तो सदाशिव प्रथम पुरुष कैसे? उक्त विधा मनुष्य की चेतना के विकास के क्रम में प्रकाश में आई । लेकिन इसमें लय, क्रमबद्ध तथा नियमन सदाशिव के प्रभाव से मनुष्य कर पाया। ऋग्वेद की ऋचाएँ एवं मंडल सदाशिव के पहले के है लेकिन उसमें जहाँ प्राणिन चेतना है, वह सदाशिव के प्रभाव से आई । वैदक शास्त्र के औषधी सदाशिव से पूर्व मनुष्य जान गया था लेकिन इसके उपयोग की सुव्यवस्थित विद्या सदाशिव ने ही दी थी, लिंग पूजा एवं प्रकृति पूजा का प्रार्दुभाव सदाशिव पूर्व विद्यमान था लेकिन आत्मिक चेतना को जानने की साधना सर्व प्रथम सदाशिव ने ही मनुष्य को सिखाई । यह सभी सदाशिव को प्रथम पुरुष के रूप में नमन करने की अनुमति देते है।
(6) सदाशिव का मानवता अवदान - इस धरा पर व्यक्तिगत नाम रचने वाले प्रथम महा मानव सदाशिव ही है। इस धरा उन्होंने ही तत्कालीन विखंडित मानवता को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रथम प्रयास सदाशिव ने किया था। सदाशिव के युग में मानव विभिन्न पहाड़ी ऋषि गोत्र में बटा हुआ था तथा अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्ष करते थे। खुन खराबे की भाषा को समझने वाले मनुष्य कोो सदाशिव ने ही संंगच्ध्वम् का मंत्र सिखाया था। उन्होंने संगीत,
नृत्य, चिकित्सा, तंत्र, कला, भक्ति, ज्ञान एवं आध्यात्म का पाठ पढ़ाया है।
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