विश्व में इतिहास की पहली पुस्तक संभवतया महाभारत है। इसका प्रारंभिक रुप जय संहिता के रुप 1000 श्लोकों का था। आज यह पुस्तक 1,00,000 श्लोकों के साथ महाभारत के रुप में मौजूद है। इसके रचियता कृष्णद्वैपायन व्यास है तथा लेखन में लिपिक का कार्य श्री गणेश ने किया। 1 हजार से 1 लाख श्लोक की यात्रा का क्या रहस्य इसके संदर्भ में तथ्य एवं साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। महाभारत की कथाओं से जो बात सामने आए वे अपने आप में विशिष्ट है, जो महाभारत की विशिष्टता की कहानी कहती है।
(A) राजा भरत, भारत एवं प्रजातंत्र– भारत इतिहास में पढ़ाया जाता है कि भारत देश का नाम शकुन्तला एवं दुष्यंत पुत्र देश के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत के नाम रखा गया है। इतिहास के इसी पृष्ठ से ज्ञात होता है कि राजा भरत ने भारत देश में प्रजातांत्रिक व्यवस्था की नीव रखी थी। जिसमें प्रजा की राय एवं गुणीजन की सलाह के बाद राजा योग्य व्यक्ति की परीक्षा लेकर सम्पूर्ण राज्य में से योग्य प्रतिनिधि राज्य को देता था। यहाँ प्रजातंत्र एवं लोकतंत्र में एक अंतर भी दिखाई देता है- प्रजातंत्र में प्रजा के लिए भावी राजा का चयन प्रजा की भावना, गुणीजन की सलाह एवं योग्यता के आधार पर वर्तमान राजा करता है। यहाँ जनता की राय ली जाती है जबकि जनता की ओर से मत राजा ही देता है। अर्थात प्रजातंत्र में निवर्तमान राजा की होना आवश्यक तथा उसकी भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है जबकि लोकतंत्र में जनता अपने लिए प्रतिनिधि स्वयं चुनती है अर्थात निवर्तमान प्रतिनिधि को होना आवश्यक नहीं है तथा उसकी भावी अध्यक्ष चुनने में कोई भूमिका नहीं होती है।
(B) शांतनु, गंगा, सत्यवती बनाम भीष्म प्रतिज्ञा – महाभारत से ज्ञात होता है कि राजा शांतनु के युग में महाभारत के इतिहास ने एक मोड़ लिया। कंचन एवं कामिनी की सुन्दरता के मोह में राजा ने प्रजातांत्रिक मूल्य की बलि दी। जिसका प्रथम उदाहरण त्रियाराज्य की युवराजकुमारी गंगा तथा दूसरा उदाहरण धीर कबीले के मुुुखिया की पुत्री सत्यवती है।
त्रियाराज्य - भारत के इतिहास का वह लुप्त अध्याय है जो अपनी उपस्थित ही बहुत कुछ इतिहास सुना देता है। राजाओं के राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़तेे थे - बंदी बनाए पराजित सेना के योद्धा एवं राज परिवार की महिलाएँ। बंदी पुरुषों को मलेच्छ मानकर हेय कार्य करवाया जाता अथवा नरभक्षी का आहार बनाया जाता था तथा नारियों को विजेताओं की हवस का शिकार होना पड़ता था। ऐसी स्थिति में नारी के समक्ष दो विकल्प रहते थे - अपने शरीर को अग्नि सौप दे अथवा राज्य दूर चली जाए, जहाँ वे अपने मान, सम्मान एवं आत्म स्वाभिमान को जिंदा रख सके। वह परिवेश किसी जन झुरमुट में संभव नहीं इसलिए नदी घाटी एवं पर्वत की श्रृंखला में अपना त्रिया राज स्थापित करती थी तथा अपनी सुरक्षा के लिए नव युवतियों सैनिक शिक्षा देती थी। उन्हें पुरुषों की न्याय प्रियता पर तनिक भी भरोसा नहीं था इसलिए वे अपने राज्य में पुरुष प्रवेश निषेध रखती थी लेकिन उन्हें अपने राज्य की वंश वृद्धि की चिंता रहती थी, इस कार्य के नव युवतियो को मात्र गर्भधारण करने तक पुरुष के संग की अनुमति प्रदान करती थी। राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकार का उपयोग कर यह युवतियाँ तेजस्वी ऋषि पुत्रों एवं राजकुमारों से गर्भ धारण करने के लिए उन्हें अपने प्यार के झाल में फसाकर त्रिया राज्य ले जाती थी अथवा किसी टेंट राजधानी में किसी अनुबंध के तहत गंधर्व विवाह करती थी। गंधर्व विवाह में संतान प्राप्ति तक ही पति के साथ रहने की प्रथा थी। संतान उत्पन्न करने के संदर्भ में त्रिया राज्य की एक शर्त थी कि नर शिशु को नदी की जलधारा में बहाना होता था जबकि मादा शिशु को त्रिया राज्य में लाना होता था। नर शिशु को नहीं मारना तथा गंधर्व पति को सौपने की कमजोरी दिखने पर त्रिया राज्य में अपराध माना जाता था। यद्यपि गर्भ धारण करने वाली युवतियां त्रिया राज्य के अनुशासन के प्रति वफादार होती थी तथापि गुप्त एवं छदम सैन्य निगरानी में रहते हुए उक्त योजना को क्रिया रुप देना होता था।
कबीला शासन व्यवस्था - इतिहास का यह छुपा अध्याय पराजित राज्य के स्वाभिमान से जीने वाले जन समुदाय अथवा स्वतंत्रता प्रिय प्रजातियों का होता था। जो मैदानी भाग दूर जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्र में होता था। इनके पास भी एक विशेष युद्ध कौशल होता था। यह घुमक्कड़ एवं स्थायी रहने वाले दोनों प्रकार के होते थे। यहाँ का एक सामाजिक अनुशासन होता था। कभी कभी तो ऐसे कबीलों का क्षेत्र एकाधिक राज्यों की सीमाओं से छटा रहता था। इनकी पुत्रियाँ मैदानी अंचल के पुरुषों से विशेष अनुबंध में ही शादियां कर सकती थी, क्योंकि उसके बाद पिता का दरवाजा सदैव लिए बंद होता था। इसलिए पिता अथवा युवतियां अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के वचन के आधार पर ही कार्य करती थी।
भीष्म प्रतिज्ञा - देवव्रत राजा शांतनु की कमजोरी के जीवन को हर्ष के साथ जीने वाला हस्ताक्षर था, एक ओर जननी बिना किसी सुरक्षा के हस्ताक्षर किए छोड़ जाना था, राज परिवार में अकेले बालक को कितने षड्यंत्र से सुरक्षित रहना होता है, यह दुर्ग के अंदर इतिहास ही बताता है। दूसरी ओर सौतेली माता अपनी भावी संतान के लिए एक सुरक्षित एवं सुदृढ़ हस्ताक्षर लेकर आई थी, जिसमें देवव्रत के सभी अधिकार क्षीण हो गए थे। देवव्रत भीष्म इसलिए नहीं हुआ कि उसने राज्य त्याग दिया, यदि ऐसा होता तो रामायण के पात्र भरत से बड़ा त्यागी कोई दूसरा नहीं है, जिसकी शरणों में आया राज्य सत्य तथा धर्म की मर्यादा के लिए समर्पित कर दिया था। इसलिए भी वह भीष्म नहीं कहलाया कि उसने ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर दी थी क्योंकि ऐसा दृढ़ संकल्प लेने वालों की भारत में कमी नहीं है। वह भीष्म इसलिए कहलाया था कि उसको प्रतिज्ञा दिलाने वाले ने, राज्य के कानून ने, समाज के नियमों, धर्म के अनुशासन तथा अवसरों ने आजादी एवं सुलभता प्रदान की फिर भी वह अपने वचन की अड़ींगता से तील भर इधर उधर नहीं हुआ। प्रथम अवसर राजा शांतनु का सत्यवती को संतान दिये बिना मर जाना तथा काशी की कन्या जिसकी देवव्रत से प्रतिज्ञा से पूर्व संबंध की बात तय हुई थी एवं जो देवव्रत की प्रियतमा भी थी वह आजीवन प्रतिक्षा में बैठी थी फिर भी मन, कर्म एवं वचन से अपनी प्रतिज्ञा को निभाई। द्वितीय अंबिका एवं अंबालिका को संतान देने हेतु सहवास का माता सत्यवती द्वारा आदेश देना, समाज की तात्कालिक मर्यादा एवं धर्म की अनुमति होने पर भी प्रतिज्ञा से नहीं डिगना तथा तृतीय अम्बा द्वारा वरमाला पेश करने पर सभी राज्यों के कानून के आदेश, समाज के पंचों के आदेश तथा धार्मिक संतों आदेश की परवाह किये बिना पथ पर बने रहना देवव्रत को भीष्म बनाता है।
(C) चित्रांगद, विचित्रवीर्य एवं हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी – राज माता सत्यवती की दो संतानों का उल्लेख महाभारत में आता है। वस्तुतः यह दोनों जीवित मनुष्य नहीं थे प्रथम एक यांत्रिक मानव चित्र+ अंग + द तथा दूसरा विचित्र प्रकार वीर्य जो संतान उत्पन्न करने के लिए तैयार किया गया था अर्थात जैव रसायनिक मानव। प्रथम भारत की भौतिक विज्ञान की विकसित होने का प्रमाण देता है तथा द्वितीय जैव रसायन की उन्नत अवस्था का बोध करता है।
यांत्रिक मानव राजा(रॉबर्ट राजा) चित्रांगद - कहानी इस प्रकार है कि शांतनु भीष्म के साथ हुए अन्याय की व्यथा से व्यथित होकर सत्यवती को संतान दिये बिना ही देह त्याग कर दी थी। इस स्थिति में हस्तिनापुर सिहांसन शुन्य हो गया तथा शांतनु द्वारा सत्यवती के होने वाले पुत्र को राजा घोषित कर दिया गया थाा, जबकि सत्यवती की कोई संतान नहीं थी, इसलिए सत्यवती एवं उनके पिता ने भीष्म को दोनों वचन से मुक्त किया तथा प्रतिज्ञा तोड़ने का आग्रह किया लेकिन भीष्म ने अपने प्रतिज्ञा को महत्व देते हुए आग्रह ठुकराकर प्रश्न फिर से सत्यवती के पास भेज दिया। इस विषम परिस्थिति में सत्यवती ने अपने पालित पुत्र वेद व्यास की मदद से व्यास विद्यापीठ के अभियंता द्वारा क्रुरुवंशियों की अस्थियों तथा विशेष आवरण से एक यांत्रिक मानव (रॉबर्ट) तैयार किया। जिसे हस्तिनापुर की सभा सदन की सलाह पर सत्यवती ने समस्या के हल होने तक अपना पुत्र राजा स्वीकार किया तथा भीष्म को उनका तथा राज्य का रक्षक नियुक्त किया। तब यह माना जा रहा था कि समय के साथ भीष्म के मन में बदलाव आ जाएगा। यांत्रिक मानव की रचना का प्रमाण तात्कालिक भौतिक विज्ञान की प्रगति के प्रमाण - द्रोणाचार्य गुरुकुल द्वारा निर्मित विशेष वेग गति करने वाले यांत्रिक घडियाल जो जीवित घडियाल सदृश्य था, यांत्रिक पक्षी एवं पंचाल देश के अभियंता द्वारा निर्मित यांत्रिक मछली जो गतिमान रहती थी। आधुनिक रॉबर्ट की भांति यह विद्युत ऊर्जा के स्थान पर यांत्रिक ऊर्जा से चलयमान होते थे।
जैव रासायनिक मानव विचित्रवीर्य - यांत्रिक राजा चित्रांगद के समय एक दृश्य यह हुआ कि काशी राज्य में तीन राजकुमारी अंबा, अंबिका व अंबालिका स्वयंवर आयोजित हो रहा था तथा उस स्वयंवर में भारतवर्ष के सभी राजवंश में आमंत्रण भेजा गया लेकिन हस्तिनापुर को आमंत्रित नहीं किया गया। इसके दो कारण थे प्रथम भीष्म द्वारा काशी कन्या से रिश्ता तोड़ना तथा द्वितीय हस्तिनापुर के मानव राजा नहीं होना जिसमें प्रथम कारण को अधिक बल दिया गया था। भीष्म ने इसे हस्तिनापुर ने का अपमान मानकर तीनों राजकुमारियों बलपूर्वक उठा लाया, जिसमें अंबा ने शाल्व राज को पति स्वीकार ने की बात कही तो भीष्म उसे ससम्मान शाल्व देश भेज दिया लेकिन उसने दान की वस्तु मानकर अंबा को पत्नी मानने से इंकार कर दिया। इस स्थित में
अंबानी भीष्म की जिम्मेदारी होती थी। लेकिन भीष्म के द्वारा इसे स्वीकार नहीं करने के कारण अम्बा कालांतर में भीष्म के लिए मृत्युबाण बनी। अंबिका व अंबालिका हस्तिनापुर की महारानियाँ बन गई। अकेली महारानियाँ हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी नहीं दे सकती थी इस स्थिति में हस्तिनापुर के पास एक ही विकल्प था कि भीष्म महारानियाँ के साथ सहवास कर हस्तिनापुर को उत्तराधिकारी दे, लेकिन भीष्म अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को कदापि तैयार नहीं था इसलिए सत्यवती ने हस्तिनापुर की इस दूसरी समस्या का तोड़ भी अपने पालित पुत्र वेद व्यास माध्यम निकलवाया। व्यासपीठ के चिकित्साचार्यों ने हस्तिनापुर के पूर्व राजाओं के जीवाश्मों से जीव विज्ञान की प्रयोगशाला में एक विचित्र प्रकार का वीर्य तैयार किया व उन्हें अंबिका, अंबालिका व उनकी दासी( यह काशी से राजकुमारियों के साथ आने वाली एक मात्र दासी थी तथा तत्कालीन नियमानुसार यह भी महारानियों के पति की संपदा मानी जाती थी) के गर्भ में प्रवेश करवाया गया। इस प्रकार विचित्रवीर्य राजा माता सत्यवती का दूसरा पुत्र कहलाया तथा दोनों महारानियाँ विचित्रवीर्य की अर्द्धांगिनी।
क्लॉन शिशु - तीनों माताओं ने अपनी मानसिक दशा के अनुसार संतान को जन्म दिया। अंबिका अपने भविष्य को अंधकारमय देखती थी तथा अंबालिका अपने जीवन में चिंतित रहती थी जबकि दासी अपने जीवन को अपना कर्तव्य मानती थी। उसी के अनुरूप धृतराष्ट्र अंधे, पांडु अस्वस्थ एवं विदुर ज्ञानी हुए। चूंकि इनका जन्म हस्तिनापुर के राजाओं के जीवाश्मों द्वारा निर्मित शुक्र से तथा हस्तिनापुर की स्वीकृत महारानियाँ के गर्भ से होने के कारण धृतराष्ट्र एवं पांडु क्रुरुवंशी हुए।
(D) कौरव, पांड़व व हस्तिनापुर - धृतराष्ट्र का विवाह गांधार राजकुमारी गांधारी व उसी सखी राज कन्या से हुआ था। इसके साथ कई दासियां भी हस्तिनापुर आई थी। तात्कालिक नियमानुसार यदि दासियों का विवाह अन्य पुरुष से नहीं होता था तो वे राजा की उप पत्नियां कहलाती तथा उनके पुत्र राजा के पुत्र माने जाते थे। गांधारी एक विद्वान महिला थी उसके दो पुत्र दुर्योधन व दुशासन तथा एक पुत्री दुशाला थी, धृतराष्ट्र की दूसरी पत्नी के युयुत्सु व विकर्ण तथा शेष पंचानवें कौरव धृतराष्ट्र की उप पत्नियों के पुत्र थे। पांडु का कुंतिभोज की राजकुमारी कुंति व माद्र देश की राजकुमारी माद्री से हुआ था। कुंति के चार पुत्र कर्ण, युधिष्ठिर, भीम व अर्जुन क्रमशः राजा, सूर्य देवर्षि धर्मराज, महर्षि पवन व राजर्षि इन्द्र से हुए थे। कर्ण का जन्म कुंति के विवाह पूर्व हुआ था, तत्कालीन समाज में इस प्रकार के शिशु को जन्म देना गलत नहीं माना जाता था। माद्री के दोनों पुत्र ऋषि कुमारों के पुत्र थे।। चूंकि पांडु संतान उत्पन्न करने में अयोग्य थे इसलिए उसने अपने पत्नियों को अन्य पुरुषों से गर्भधारण करने की आज्ञा प्रदान की थी जो तात्कालिक समाज शास्त्र के अनुसार पांडु के पुत्र ही कहलाए।
हस्तिनापुर के उत्तराधिकार – हस्तिनापुर की जनता, सभा संसद एवं नीतिकार कानून युधिष्ठिर को उत्तराधिकारी चयनित करते थे जबकि धृतराष्ट्र की उच्चाकांक्षाएं दुर्योधन को राजा के रुप में देखना चाहती थी इसलिए गंधार नरेश शकुनि ने दुर्योधन को छलकपट से राज्य का अधिकार अपने पक्ष में करने का पाठ पढ़ाया। यह महाभारत की लड़ाई का एक कारण था
(E) महाभारतकालीन सैन्य, राज्य कौशल तथा द्युतक्रीडा का दृश्य – महाभारत एक इतिहास है, इसलिए यहाँ से राज्य की व्यवस्था, सैन्य संचालन की प्रणाली एवं समाज की दशा का ज्ञान मिलता है। महाभारत का सैन्य कौशल पैदल सेना, अश्वरोही सेना, रथ सेना, गजरोही सेना तथा ऊँट व अन्य पशुओं से शस्त्र आपूर्ति करने वाली पंच अंग सेना होती थी। प्रथम पैदल सेना यह सेना के बीच में रहती थी तथा इनके हथियार गदा, लाठी व मल युद्ध होते थे। सेना बहुत बड़ा हिस्सा इस प्रकार के सैनिक का होता था। पांडव पक्ष में भीम तथा कौरव पक्ष सभी धृतराष्ट्र पुत्र इस सेना सदस्य थे। द्वितीय अश्व सेना यह सेना के दोनों ओर रहते थे तथा इनका अस्त्र तलवार होती थी। पांडव पक्ष में इस सेना में नकुल व कौरव सेना से कृतवर्मा थे। तृतीय रथ सेना, यह पैदल सेना के पीछे धनुष बाण नामक शस्त्र से युद्ध करते थे। पांडव पक्ष में अर्जुन तथा कौरव पक्ष में भीष्म, कर्ण, द्रोणाचार्य इत्यादि इस सेना के रथी थे। चतुर्थ गज सेना यह सबसे पीछे मुख्य यौद्धा को लेकर रहती थी। पांडव पक्ष से इस सेना प्रभार युधिष्ठिर के पास जबकि कौरव सेना में यह प्रभार शल्य के पास था। पंचम ऊँट सेना, यह अस्त्र, शस्त्र आपूर्ति का कार्य करती थी। पांडव सेना में यह कार्य सहदेव की देखरेख में तथा कौरव सेना में शकुनि की। राज्य की संरचना में राजा के अतिरिक्त चार प्रमुख विभाग होते थे- गृह, मित्र राष्ट्र, शिक्षा एवं धर्म। युधिष्ठिर के राज्य में यह कार्य क्रमशः भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव की अधीन थे जबकि धृतराष्ट्र के शासन काल में यह कार्य विधुर, भीष्म, द्रोणाचार्य व कृपाचार्य के द्वारा संपन्न किये जाते थे। तीसरा बिन्दु द्युतक्रीडा एक प्रासंगिक विषय है जिसने महाभारत के इतिहास को सबसे अधिक प्रभावित किया है। यह एक ऐसा दृश्य चित्रित करता है कि धर्मयुद्ध के पूर्व राजा की संपत्ति में अचल, चल के अलावा भाई एवं पत्नी भी आते थे। जिसे राजा एक दानी की भाँति किसी को दे सकता था तथा जुगारी की भाँति हार भी सकता था। उसके बाद मानवीय मूल्यों के साथ कुछ नियम बदले गए छोटे भाई साथी मित्र तथा पत्नी सहभागी बन कर कार्य करने लगे। यह दृश्य ऐतिहासिक था अथवा काल्पनिक यह शोध का विषय है जबकि यह शिक्षा मूलक है इसलिए प्रासंगिक है।
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श्री आनन्द किरण
महाभारत भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर है
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