विश्व में प्राचीन भारत की सभ्यता एवं संस्कृति सबसे अधिक प्रासंगिक है। वर्तमान युग में विश्व जिस शान्ति का संदेश को दे रहा है। सृष्टि के उषाकाल में सर्वजन के सुखमय एवं विश्व परिवार का संदेश भारतवर्ष के संस्कार में दिया गया। विश्व की इस महान संस्कृति का संदेश जब तक सत चरित्र के पास रहा तब तक सम्पूर्ण धरा ने नमन किया है। भारतवर्ष की संस्कृति के इस महान संदेश को जिस दिन संदेशवाहकों द्वारा स्वार्थ के हेतुभूत होकर परिभाषित किया उस दिन भारत के अभिशापमय अस्पृश्य छवि का उद्भव हुआ। मानवता का यह धृणित अध्याय देव संस्कृति के आंचल पर कलंक के रुप साबित हुआ। भारतवर्ष के इतिहास के पन्नों पर पाखंड, आडंबर एवं शोषण का रक्त रंजीत पृष्ठ है तो साथ में तुर्क, अफगान एवं यूरोपीय जाति की गुलामी को भी रेखांकित किया गया है। इसलिए भारत का राजनैतिक परिदृश्य उक्त पंक्तियों को स्पर्श किये बिना विशुद्ध रुप से दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है।
भारतवर्ष का राजनैतिक परिदृश्य लोग राजनैतिक दलों के प्रति जन आकर्षण की बनती एवं बिगड़ती तस्वीर से नहीं देखा जा सकता है। चूंकि राजनैतिक परिदृश्य सम्पूर्ण समाज की तस्वीर को दिखाने का कार्य करता है इसलिए इसका स्वरूप समाज हित के सदृश्य होना चाहिए।
स्वतंत्र भारतवर्ष में भारतवर्ष के समक्ष दो चुनौतियां थी। प्रथम नवोदित राष्ट्र का निर्माण एवं द्वितीय विश्व के समक्ष भारत की एक आदर्शमय पहचान को रखना। इन चुनौतियों का जबाव पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक राजनीति ने देने का प्रयास किया वह ठीक है लेकिन संतोषजनक नहीं है। हम जिस संस्कार एवं संस्कृति के पौषक हैं उसका पाठ पढ़ाने मात्र से सुन्दर परिदृश्य का निर्माण नहीं होता है। इसके निर्माण हेतु राजनीति के पास समाज एवं अर्थनीति का प्रगतिशील एवं उपयोगी होना आवश्यक है। बड़े दुख के साथ लिखना पड़ता है कि लोकतांत्रिक राजनीति का कोई भी दृश्य विराट दर्शन के अनुकूल नहीं दिखता है। इसके निर्माण के लिए वाम पंथी, दक्षिण पंथी, समाजवादी एवं कांग्रेस की किसी भी विचारधारा ने अर्थनीति एवं समाजनीति को भारतवर्ष के आदर्श के अनुकूल बनाने का प्रयास नहीं किया गया। इसके दुस्परिणाम स्वरूप भारतवर्ष में जातिगत, साम्प्रदायिक एवं क्षेत्रीय राजनीतिक का उद्भव हुआ। आज का किसी भी एक राजनैतिक दर्पण से नहीं देखा जा सकता है। भारतवर्ष अनेक व्यक्तिवादी दर्पण क्रियाशील हैं। इसलिए भारतीय राजनीति को किसी एक कोण से देखकर पूर्ण परिदृश्य को नहीं देखा जा सकता है। भारतीय राजनीति को सांस्कृतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में निर्मित करने का तथाकथित हिन्दूवादी राजनीति भी नरेन्द्र मोदी के चेहरे रुप के दर्पण में दिखाई दे रही है। भारतवर्ष की राजनीति को प्रगतिशील उपयोगी तत्व के नव्य मानवीयता दर्पण में आनन्दमयी ज्योति में देखने पर ही हम राजनीति सम्पूर्ण परिदृश्य को देख सकते है।
भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कृति विश्व कल्याण एवं सर्वजन सुखार्थ व हितार्थ की अवधारणा को लेकर खड़ी हैं इसलिए हमारी राजनीति के त्रिनेत्र को होना चाहिए। प्रथम व्यष्टि एवं समष्टि का उद्देश्य आनन्दमयी सृष्टि का निर्माण करना, द्वितीय नव्य मानवतावाद सोच लिए खड़ा एक समाज हो तथा तृतीय अर्थव्यवस्था प्रगतिशील उपयोगी तत्व को लेकर सृजित हो। यही परिदृश्य भारतीय राजनीति को होना चाहिए तथा विश्व इसी राजनैतिक परिदृश्य का बेसब्री से इतंजार कर रहा है। विश्व शांति के अग्रदूतों एवं राष्ट्र भक्तों को मूल कर्तव्य है कि कल्याणमयी राजनैतिक परिदृश्य का निर्माण करें।
हस्ताक्षर
करण सिंह शिवतलाव
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