आदर्श राज्य का संविधान

       
                                                
          भारत वर्ष में पांच वर्ष के तथाकथित जनादेश को ताक पर रखकर एक दल की सरकारें गिराकर अपने दल की सरकारें बनाने का जो अभिनय हो रहा है तथा इसमें संवैधानिक मूल्यों की रक्षा की जिम्मेदारी के पद पर आसीन राज्यपाल एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की भूमिका पर लगने वाला सवालिया निशान भारतवर्ष के प्रत्येक नागरिक को संविधान की मजबूरी को समझने का अवसर देता है। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की बाड़ेबंदी, लोकतंत्र में आदर्श राज्य की उपादेयता को समझने की मांग करता है तथा उस आदर्श राज्य का संविधान का स्वरूप स्पष्ट करने की आवश्यकता महसूस करता है। 
            आदर्श राज्य समाज की उस व्यवस्था का नाम है, जहाँ प्रत्येक नागरिक यह महसूस करें कि उनके हित एवं सुख जबरन कोई हरण नहीं करें तथा समाज की उस व्यवस्था के प्रति नागरिकों के मन आत्मियता, सम्मान एवं स्वाभिमान का भाव रहे। इसके अभाव में नागरिक के मन अविश्वास, भय, लूट तथा स्वार्थ का माहौल बना रहता है। शासक एवं जनता के बीच के संबंध में पारिवारिक सौहार्द बना रहे। इसलिए कार्य करने की नीति सर्वजन हितार्थ सर्वजन सुखार्थ रहेगी। 

आदर्श राज्य के चित्रण के बिन्दु
1. आदर्श राज्य की जनक –  राज्य के समुख एक आदर्श होना चाहिए, जिसके सांचे में नागरिकों ड़ाला जा सकता है तथा शासन उस आदर्श का प्रतिफलित करने को कार्य करता है। इसलिए आदर्श राज्य पहचान में सर्वजन कल्याण के तत्व (सिद्धांत व मूल्य) होते है साथ में वह व्यक्तित्व भी राज्य की पहचान का आधार होता है, जो सर्व भवंतु सुखिनः का संस्थापित करने में जीवन लगा देते है। वही आदर्श राज्य के जनक की भूमिका का निवहन करते हैं। 
2. आदर्श राज्य की जननी – आदर्श राज्य के संचालन के नियम एवं विधान की पंजिका तैयार की जाती है। जिसे संविधान कहा गया है। इसलिए एक संविधान सभा की परियोजना है। धरातल पर देखा गया है कि संविधान सभा संविधान तैयार कर शासन संचालकों के हवाले संविधान को कर देते है। वहाँ शासक वर्ग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं मान्यताओं के आधार पर संविधान का चिरहरण होता है। जिससे संविधान बदलती परिस्थितियों के साथ सामजस्य स्थापित नहीं कर पाता है। इसलिए एक जीवित एवं गतिशील संविधान सभा की आवश्यकता है। जिसमें विशेषज्ञ संविधान की समीक्षा, समालोचना एवं टिप्पणी करते हैं। यहाँ एक मांग की जा सकती है कि संसद एक स्थायी संविधान सभा ही फिर अलग से संविधान सभा को गतिशील रखने की उपादेयता नहीं है। संसद सरकार का अंग अर्थात संविधान की पुत्री संस्थान है जबकि संविधान सभा संविधान की जननी संस्था है। जो संविधान से उपर रहकर कार्य करती है। युग के अनुरूप संविधान को परिभाषित एवं नियोजित करती है। संसद सरकार का अंग होने के कारण अपना हित साधने में अधिक ध्यान केंद्रित करती है। संविधान सभा का संगठन गुणीजनों से होता है। वे आयु के मापक नहीं उनमें उपस्थित गुण जो समाज हित में सलंग्न हो अर्थात एक सृजनशील व्यक्ति होना न्यूनतम योग्यता है। 
3. आदर्श राज्य का ताज – आदर्श राज्य का सर्वोच्च अधिकारी एक व्यक्ति नहीं एक संस्था जिसमे एक अध्यक्ष एवं अधिकतम एवं न्यूनतम तीन सदस्य होते हैं। सर्वानुमति के सूत्र पर कार्य करती है। किसी कारण यह सूत्र अक्रियाशील होने  बहुमत तथा दोनों ही सिद्ध होने पर अध्यक्ष की राय सर्वानुमति मानकर निर्णय लिया विधेय है। इनका चुनाव एक विशेषज्ञ के मतों से होता है। जिनकी संख्या अधिक होना राज्य के लिए हितकर है। 
4. आदर्श राज्य की सरकार – आदर्श राज्य में जिस प्रकार अध्यक्ष एक बोर्ड है उसी प्रकार सरकार भी शक्तिपृथककरण के सूत्र कार्य करेंगी इसके पांच अंग है। कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका एवं लेखा परिषद सभी स्वतंत्र कार्य करेंगी। लेकिन इनके संयोजन, नियमन एवं संचालन का दायित्व महासचिव (General Secretary) का होगा जो सरकार के किसी एक अंग सदस्य नहीं एक अलग से ही पद होगा, जो सरकार  एवं ताज के बीच योजक कड़ी का काम करेंगा। 
1. महासचिव – यह सरकार का मुखिया है, जिसका चुनाव तीन वर्ष के लिए मतदाताओं द्वारा किया जाना है। जिसकी न्यूनतम योग्यता शिक्षित, दीक्षित, नैतिकवान एवं परिपक्व होना है। 
2. कार्यपालिका – राज्य में व्यवस्था को लागू करवाने का दायित्व कार्यपालिका है, जो विशेषज्ञों के द्वारा संगठित है। इसमें सभी महत्वपूर्ण विभाग के विशेषज्ञ चुनाव लडेंगे जिस मतदाताओं द्वारा पांच वर्ष का जनादेश दिया जाता है। 
3. व्यवस्थापिका -  राज्य की व्यवस्था बनाए रखने के लिए संविधान के अतिरिक्त कुछ नियम एवं कायदे होते तथा योजनाएँ बनाने तथा उसको अंतिम रुप देकर अनुमोदित करने के लिए व्यवस्थापिका की आवश्यकता है। इसके मुख्य तीन सदन होते है। प्रथम जनसभा जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है। जिसका चुनाव एक निश्चित भूभाग की निश्चित जनता के प्रतिनिधि के आधार पर निर्धारित क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा चुने जाते है। द्वितीय प्रतिनिधि सभा जो प्रांतों की सरकार का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इसका गठन प्रांत सरकारों द्वारा भेजे गए प्रतिनिधि से होता है। तृतीय सदन विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों का होता है जो एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा चुने जाते हैं। प्रत्येक सदस्य समयावधि अधिकतम सात वर्ष तथा सदन स्थायी रहेंगे
4. न्यायपालिका – न्यायपालिका का संगठन विधि न्याय एवं समग्र मनोविज्ञान के ज्ञाताओं में से एक निश्चित प्रक्रिया के माध्यम से किया जाना है, जिस पर कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, लेखा परिषद एवं महासचिव का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। दीवानी, राजस्व एवं फौजदारी मुकदमों पर फैसला देने की एक न्यूनतम एवं अधिकतम सीमा अवधि का रहना आवश्यक है।  न्याय अपराध की मात्रा के अनुसार नहीं अपराध किये गए कारण, परिस्थिति, तथा अपराधी की मंशा के आधार पर करना अधिक संगत है। 
5. लेखा परिषद – वित्तीय शक्ति एवं कार्यकारी शक्ति में भी पृथक्करण आवश्यक है, इसलिए इसे सरकार के अंग रुप में स्वतंत्र कार्य करने का अवसर देना न्याय संगत है। इस संगठन उच्च योग्यताधारी एवं उच्च नैतिकवान के पर कठोर परीक्षा के माध्यम से करना चाहिए।
5. आदर्श राज्य की संस्थाएँ -  ताज व सरकार के अलावा कुछ संस्थान का स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। जो किसी भी प्रकार के दबाव से परे समाज व राज्य के स्वतंत्र कार्य करें, यह राज्य की संस्थाएँ कहलाती है। 
1. शिक्षा संस्थान - शिक्षा राजनैतिक हस्तक्षेप से दूर शिक्षाविदों द्वारा संचालित होनी चाहिए। समाज को भावी नागरिक देने की जिम्मेदारी शिक्षा की है। इसलिए इसे किसी महत्वाकांक्षा के हाथ में रखना उचित नहीं है। 
2. चिकित्सा एवं स्वास्थ्य संस्थान – चिकित्सा सबकी आवश्यकता एवं अधिकार है। इसलिए इसका भी स्वतंत्र कार्य करना आवश्यक है। यह एक छत के निचे सारी चिकित्सा के सूत्र को अपना कर कार्य करेंगा। 
3. चुनाव एवं चयन आयोग – ताज, सरकार, संस्थाएँ तथा संपूर्ण राज्य की व्यवस्था के संचालन हेतु सभी का चुनाव एवं चयन एक स्वतंत्र निकाय द्वारा संपन्न करवाए जाना आवश्यक है। इसलिए चुनाव एवं चयन आयोग का स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। 
4. पुलिस एवं जाँच समितियां – राज्य में शांति एवं नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी पुलिस एवं जाँच व अनुसंधान संस्थान की है। इसके लिए इनका स्वतंत्र अस्तित्व आवश्यक है। गुप्तचर व्यवस्था ताज, सरकार एवं संस्थाओं की अपनी अपनी निजी रहेगी, लेकिन शांति व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था एवं अपराध अनुसंधान व्यवस्था पूर्णतया स्वतंत्र ही कार्य करेंगी। सेना ताज के अधीन रहेगी। 
5. कला एवं विज्ञान संस्थान – मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति में कला एवं विज्ञान की भूमिका महत्वपूर्ण है। इसलिए इसको भी स्वतंत्र के अवसर देने चाहिए। 
6. धर्म एवं आध्यात्म परिषद – समाज (व्यष्टि व समष्टि) में अनुशासन, नैतिकता का चिंतन व परिपूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करवाने की जिम्मेदारी इनकी है। अत: इनका स्वतंत्र एवं वैधानिक अस्तित्व आवश्यक है। 
7. साहित्यकार एवं पत्रकार संगठन – यद्यपि यह कभी भी पराधीन नहीं रह सकते हैं तथापि उनके सम्मान, निष्पक्षता के लिए स्वाधीनता, अनुशासन एवं वैधानिकता की आवश्यकता है। 
6. आदर्श राज्य का स्वरूप – आदर्श राज्य का स्वरूप संघीय होना हितकारी है। यह विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था तथा केन्द्रितकृत राजनैतिक व्यवस्था पर कार्य करे तब ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का लक्ष्य साधा जा सकता है। छोटी आर्थिक इकाइयां तथा बड़े प्रांत के आधार पर राज्य का संघीय स्वरूप चलेगा। 
7. मूल अधिकार, मौलिक कर्तव्य एवं नीति निर्देशक तत्व – संविधान सभा द्वारा निर्धारित, परिभाषित, निर्देशित एवं संरक्षित किये जाएंगे। चूंकि संविधान सभा एवं जीवित एवं गतिशील संगठन है। अतः इन विषयों की प्रासंगिकता सभी प्रश्न से परे है। 
उपसंहार – आदर्श राज्य सम्पूर्ण विश्व तथा उसका संविधान सब जगह एक समान है। फिर प्रगतिशील गुण के लिए देश, काल, पात्रानुसार परिवर्तनशील रहना आवश्यक है। 
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 श्री आनन्द किरण@9982322405

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