प्रउत का राजनैतिक दर्शन


      प्रउत का राजनैतिक दर्शन
       श्री प्रभात रंजन सरकार का प्रउत दर्शन को सामाजिक आर्थिक विचारधारा के रूप में पढ़ाया जाता है। प्रउत विचारधारा सामाजिक आर्थिक होने के कारण व्यष्टि एवं समष्टि जगत की सभी विघधाओं पर अपना दृष्टिकोण रखता है। इसलिए प्रउत सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक मूल्यों को भी परिभाषित करता है। इसी को देखते हुए प्रउत की राजनैतिक विचारधारा को विषय चुना गया है। यहाँ एक बात सत्य है कि राजनीति के माध्यम से प्रउत की स्थापना करने की सोच एक दिवास्वप्न है। जो वास्तविक जीवन से कोशों दूर है। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं है कि राजनीति प्रउत की विषय वस्तु नहीं है अथवा राजनीति में प्रउत को प्रवेश ही नहीं करना चाहिए। प्रउत प्रणेता ने प्राउटिस्ट ब्लॉक, इंडिया नामक राजनैतिक दल के माध्यम से प्रउत को राजनीति तक भेजा था। अत: कहा जा सकता है कि प्रउत राजनीति करता है तथा राजनैतिक जगत में अपनी उपस्थित देता है। प्रउत राजनैतिक पर अपने विचार भी रखता है। 

प्रउत के राजनैतिक विचार - राज्य की व्यवस्था जिस नीति चलते हैं, उसे राजनीति कहा गया है। जैसी राजनीति होगी राज्य की व्यवस्था भी वैसी ही होगी। 
(1) मत देने का अधिकार यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास रहना होगा - लोकतंत्र सभी व्यस्क नागरिक को मताधिकार देता हैै। यही से राजनीति में बुराई जन्म लेेेती है। अशिक्षित, अविवेकी, अयोग्य, अपराधी एवं गैरजिम्मेदार व्यक्ति के पास मताधिकार रहने से उनके मत प्राप्त प्रतिनिधि से अच्छा कार्य करने की आश रखना निर्थक है। अत: प्रउत के यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति के पास मताधिकार रखना सुविचार है। 

(2) चयनित प्रतिनिधित्व -  लोकतंत्र में ईच्छाधारी प्रत्येक व्यक्ति को चुनाव में खड़ा होने का अधिकार है।  उन्हें कुछ निर्धारित प्रस्ताव एवं समर्थक को जुटाना होता है। जिसकी व्यवस्था करना सरल है। प्रउत सलेक्टो इलेक्टो प्रतिनिधित्व की बात कहकर प्रतिनिधित्व को सलेक्शन समिति से गुजरने की बाध्यता रखता है। यहाँ ईच्छाधारियों की माया के चमत्कार की चकाचौंध में लोकतंत्र गुलाटी नहीं मारता है। वह 
स्थानीय समस्या से भिज्ञ तथा प्रशिक्षित व्यष्टि प्रतिनिधित्व के गुणों से संपन्न होता है। 

(3) दल विहिन आर्थिक लोकतंत्र - प्रउत दल विहिन एवं आर्थिक लोकतंत्र की बात करता है। राजनैतिक लोकतंत्र, लोकतंत्र की परिभाषा पर खरा नहीं उतरा है। दलगत राजनीति एक रुग्ण जनमत का  निर्माण  करती है। दलगत राजनीति को लेकर खड़े राजनैतिक लोकतंत्र का अनुभव दिशाहीन सामाजिक मूल्यों की ओट में 
खोने का रहा है। अत: आर्थिक लोकतंत्र दलविहीन प्रतिनिधित्व आवश्यक है। 

(4) अध्यक्षीय लोकतंत्र संसदीय लोकतंत्र से बेहतर - लोकतंत्र में ससंद में बहुमत दल के शाासन की व्यवस्था से अध्यक्षीय शासन व्यवस्था को प्रउत दर्शन में अच्छा माना गया है। 

(5) विश्व सरकार की हिमायत -  प्रउत दर्शन में विश्व सरकार का प्रावधान है वर्तमान युग में मानव सभ्यता को देेेश की सीमा में परिभाषित किया जा सकता है। 

(6) द्विसदनीय संसद को स्वीकृति - प्रउत दर्शन में द्विसदनीय संसद को 
स्वीकार किया है। एक जनता का प्रतिनिधित्व करता है, द्वितीय विभिन्न देश व राज्य की सरकारों का प्रतिनिधित्व करती है। 

(7) कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका के साथ महालेखाविद् के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रावधान - प्रउत दर्शन में सरकार के चारों अंग कार्यपालिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका तथा वित व्यवस्था के स्वतंत्र कार्य करने की सिफारिश करता है। 

(8).  राजनीति एवं अर्थनीति का पृथक्करण -  राजनीति का कार्य नागरिकों को सभी ओर से सुरक्षा प्रदान करना है जबकि अर्थनीति का नागरिकों की  आवश्यकता को पूर्ण करना है। अतः राजनीति का संचालन सेवा वृत्ति होना आवश्यक है जबकि अर्थनीति में आर्थिक क्रियाओं का संचालन अधिकतम उपयोग एवं विवेकपूर्ण वितरण से होता है। इससे प्रमाणित होता है कि दोनों का कार्य क्षेत्र अलग-अलग है। प्रउत में केन्द्रीकृत राजनीति एवं विकेन्द्रीकृत अर्थनीति का सूत्र है

(9). संघ व्यवस्था को सहमति - प्रउत व्यवस्था में संघीय शासन व्यवस्था के दर्शन होते हैं। यद्यपि प्रउत में राज शक्ति के केन्द्रीकरण की व्यवस्था है तथापि संघ व्यवस्था दिखाई देती है। 

(10).  केन्द्रित राजनीति का समर्थक - प्रउत एक मजबूत एवं शक्तिशाली केन्द्र सरकार की आवश्यकता महसूस करता है। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी के शब्दकोश में
बड़े जीवों एवं छोटे राज्यों का युग इतिहास बन गया है इसलिए बड़े प्रांतों को लेकर संगठित एवं मजबूत राज शक्ति की आवश्यकता है। 

(11). सदविप्रों का अधिनायक तंत्र - प्रउत लोकतंत्र के स्थान पर सदविप्रों के अधिनायक तंत्र पर विश्वास करता है, सदविप्र पदवी वंशानुगत नहीं होकर योग्यता पद है। केन्द्र से लेकर गाँव स्तर तक सदविप्र बोर्ड क्रियाशील रहता है। प्रउत सभी में सदविप्रत्व का अभिप्रकाश देखना चाहता है लेकिन अयोग्य का राज्याभिषेक कभी भी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं है। 

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