बाबा ने एक अखंड और अविभाज्य मानव समाज की रचना के क्रम में इस बात का ध्यान रखा कि हमारी संस्था भौम और सामाजिक भाव प्रवणता से ऊपर रहे। हमारी संस्था को दूर-दूर तक मानव-मानव में विभाजन का दैत्य छू न पाए। उनके इस आदेश का पालन करते हुए, सभी गृहियों ने ध्यान रखा कि उनका ऑब्जेक्टिव भाव, उनके महान सब्जेक्टिव भाव को छू न पाए। यदि किसी में यह कमजोरी दिख जाए तो सभी गृहस्थ उन्हें ठीक करने के लिए साम, दाम, दंड एवं भेद, कोई भी उपाय अपनाने से पीछे नहीं हटे हैं। इस कमजोरी के कारण किसी गृही को आध्यात्मिक प्रगति के अलावा कोई सामाजिक प्रगति नहीं मिलती है। इस बात को सभी ने हृदय की अंतरतम गहराइयों से स्वीकार किया। इतने कठोर उपायों के बावजूद भी यदि संस्था पर जातिवाद और क्षेत्रवाद की छाया दिख जाए तो यह महा-शोक का विषय है, लेकिन जब यह कहर बनकर टूट पड़े तो और भी दुख का विषय है।
*एक गृही का दोष*
"बंगाली, हिंदी में संस्था टूट गई, बिहारी, उड़िया में संस्था फूट गई।" क्या यह महान आदर्शों पर प्रश्नचिह्न नहीं था? इस पर गृहियों ने संस्था के शीर्ष पर आसीन सत्ताधारियों की कुत्सित सोच के विरुद्ध हुंकार नहीं भरी। आज अपना परिचय गुटवाद से देना एक परिपाटी बन गई है। हम सबने इस परिपाटी को स्वीकार कर लिया है, जबकि इसमें हमारा कोई दोष ही नहीं। फिर भी कभी नहीं बोला, ऐसा क्यों?
*पर्दे के पीछे का एक सच*
भारी मन से यह लिखना पड़ रहा है कि हमारे संन्यासियों में आजकल जातिवाद चलता है। यदि पर्दे के पीछे का एक सच सामने लाना पड़ जाए तो क्या कहेंगे! कुछ संन्यासी व्यक्तिगत रूप से मुझे बता चुके हैं कि एक गुट की गुप्त प्रशासन समिति ने एक संगठन विरोधी संन्यासी को संस्था में लाकर बड़े पद से इसलिए नवाजा क्योंकि उसका शरीर तथाकथित ब्राह्मण घर से आया था। यह सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक जानी चाहिए थी, लेकिन हमारे मन ने इस हकीकत को स्वीकार कर लिया है, इसलिए यह कोई अनहोनी नहीं लगी। मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?" तो उत्तर आया, "सत्ता को पर्दे के पीछे से चलाने वाले का शरीर भी ब्राह्मण का है।"
मेरे मन ने और भी खोज करनी चाही तो पता चला कि पर्दे के पीछे वाला नेता जब बीमार पड़ा तो रक्त भी उसी का लिया गया, जो ब्राह्मण परिवार से आया एक नवयुवक संन्यासी था। रक्त ने भी यह परिभाषा सीख ली, यह सुनकर मानवता भी शर्मिंदा हो जाती है। वहाँ, "विश्व बंधुत्व कायम हो" और "मानव-मानव एक है" का नारा लगाने वाले की आत्मा क्यों नहीं काँप उठी? इसका कारण यही है कि हमने अपनी इस कमजोरी को भांप लिया है। मैं नहीं जानता कि यह तथ्य सत्य है अथवा स्वार्थ, जलन और ईर्ष्या से भरी गंदी राजनीति का पत्थर है।
मैं इस महान परंपरा पर लगने वाले इस अपवाद को प्रकाशित करना नहीं चाहता था। लेकिन एक डर ने यह सब लिखवा दिया कि हमारी संस्था का नाश करने का कोई अदृश्य संकल्प तो शैतान के मन में नहीं है। यदि ऐसा है तो उनके विरुद्ध लड़ेगा कौन? क्या बाबा मुझे क्षमा करेंगे?
*आदर्शों से विमुखता के कारण*
संन्यासी जातिवाद एवं क्षेत्रवाद की भावधारा में क्यों बह गए हैं, यह विचार करने का विषय है। यदि समय रहते विचार नहीं किया गया तो हम बाबा के स्नेह के अधिकारी नहीं कहला पाएंगे। इसका एक बड़ा कारण यह है कि संरक्षक अपने आप को संरक्षित मान बैठा है, और संरक्षित अपने संरक्षक। अभिभावक वार्ड बन गया है, और वार्ड अभिभावक। यही कारण है कि संन्यासी आदर्शों से विमुख हो गया है।
दूसरा कारण यह है कि एक आचार्य के कारण प्रत्येक संन्यासी को मिलने वाला सम्मान, वह संन्यासी होने का हक समझ बैठा। तीसरा कारण है- धन, शक्ति एवं सत्ता का विकेंद्रीकरण के स्थान पर केंद्रीकरण हो गया है। चौथा कारण यह कि जिसने फकीरी की झोली उठाई थी, उसकी तिजोरी भर गई है।
*समाधान*
क्या इसका कोई हल नहीं है? हाँ, हल है। जो कार्य संस्था को करने थे, समाज उन कार्यों को अपने हाथ में ले ले। सभी रचनात्मक कार्य जो संस्था नहीं कर पाई है या नहीं कर पा रही है, उन्हें समाज अपने हाथों से करे।
धन्यवाद
लेखक : अज्ञात
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