समाज के विकास की अवधारणा: क्रमिक विकास (Concept of development of samaj : gradual evolution)

 *शूद्र युग* 

यह समाज के विकास की प्रारंभिक अवस्था है। इस काल में मनुष्य का जीवन अन्यज्ञ प्राणियों के समान ही था और वह अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर निर्भर रहता था। इस युग में, मनुष्य में चिंतन शक्ति और संगठित समाज का अभाव था। उनके आपसी संबंध केवल भावनात्मक थे, जो किसी भी ठोस सामाजिक संगठन से रहित थे। यह अवस्था मानव सभ्यता के शुरुआती चरण को दर्शाती है, जहाँ ज्ञान और शक्ति का अभाव था।

 *क्षत्रिय युग* 

शूद्र युग के बाद शारीरिक शक्ति का महत्व बढ़ा और क्षत्रिय युग का उदय हुआ। इस अवस्था में एक शक्तिशाली व्यक्ति नायक बनकर सामने आया, जिसने एक मजबूत संगठन का निर्माण किया। लोग स्वेच्छा से उसके अनुशासन को स्वीकार करने लगे। यह युग शारीरिक बल पर आधारित था और इसी ने एक समाज के रूप में मनुष्य के संगठित होने की शुरुआत की।

 *विप्र युग* 

क्षत्रिय युग के बाद ज्ञान और बुद्धि का महत्व स्थापित हुआ और विप्र युग का आगमन हुआ। इस काल में, ज्ञानवान और योग्य व्यक्ति ही समाज के मुखिया बने। उन्हें 'पुरोहित राजा' के रूप में भी जाना जाता था। ये लोग धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों में समाज का नेतृत्व करते थे। यह युग ज्ञान और विवेक की श्रेष्ठता को दर्शाता है।

 *वैश्य युग* 
विप्र युग के बाद व्यावहारिक विषयों और धन-संपत्ति को प्राथमिकता मिली और वैश्य युग की शुरुआत हुई। इस काल में धनवान व्यक्ति नायक बन गए। हालांकि, इस युग में बुद्धि का उपयोग छल और कपट के लिए होने लगा, जिससे समाज में अराजकता और अव्यवस्था फैलने लगी। यह अवस्था समाज की नैतिक अवनति को दर्शाती है।

 *समाज का चक्रीय स्वरूप* 

आनंद मार्ग दर्शन के अनुसार, समाज का विकास एक सीधी रेखा में न होकर एक चक्रीय गति में होता है। वैश्य युग में उत्पन्न हुई अराजकता के बाद समाज फिर से शूद्र युग जैसी अवस्था में लौट आता है, जिसे नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ जैसे कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है। यह मार्शल लॉ ही क्षत्रिय युग की शुरुआत का संकेत देता है, जिसके बाद पुनः विप्र और वैश्य युग आते हैं। यह चक्र निरंतर चलता रहता है, जिससे समाज का विकास और परिवर्तन होता रहता है।
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