स्वदेशी आंदोलन की नींव कांग्रेस ने डाली थी। तब उसे स्वराज चाहिए था। कालांतर में यह मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थित संस्थान के पास आ गया। उन्हें स्वराज में 'स्वयंराज' दिखाई दिया। कोरोना ने देश को एहसास दिलाया था कि आत्मनिर्भर जन्मभूमि दुनिया की चकाचौंध से बहुत भली है। तभी मौके की नजाकत देखते हुए, हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपने राजनीतिक तुणीर से ब्रह्मास्त्र निकालते हुए, 'आत्मनिर्भर भारत' का फॉर्मूला भारतवासियों के मन-मस्तिष्क में बिठा दिया। लेकिन, खतरे के बादल हटते ही इस दिशा में ठोस काम करने के बदले, भारत को अयोध्या के श्रीराम, ज्ञानवापी मस्जिद इत्यादि की ओर ले गए। ट्रंप की टैरिफ नीति ने फिर से प्रधानमंत्री जी को खोया सपना याद दिलाया। आशा है कि इस बार प्रधानमंत्री जी इस पर ठोस कार्य करेंगे।
अब हम भूमिका से आगे बढ़कर मूल विषय की ओर चलते हैं।
स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत की आवश्यकता ही नहीं, बल्कि यह विश्व गुरु भारत बनाने की ओर बढ़ता हुआ ठोस कदम है। इसके लिए हमें त्याग, तपस्या एवं परिश्रम का रास्ता चुनना होगा। स्वदेशी का सीधा-साधा अर्थ अपने देश की वस्तु है, लेकिन इसका गूढ़ार्थ 'अपनी वस्तु' है, जो हमारे सामने, हमारे अपनों के द्वारा, हमारे पहुँच क्षेत्र के अंतर्गत बनी हो, वह वस्तु स्वदेशी है। स्वदेशी के इसी गूढ़ार्थ से आत्मनिर्भर भारत का रास्ता निकलता है। भारत एक राजनीतिक इकाई है, जिसमें एक से अधिक सामाजिक-आर्थिक इकाइयां हैं। यहाँ अवश्य ही अर्थशास्त्रियों की प्याली में तूफान उठा होगा। स्वदेशी एवं आत्मनिर्भर भारत दोनों आर्थिक विषय हैं। इसमें सामाजिक विषय कैसे आ सकता है? यदि कोई अर्थशास्त्री ऐसा सोचता है तो वह भारतीय अर्थव्यवस्था एवं भारतीय समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता है। कोई भी देश सर्वप्रथम अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोकर आगे बढ़ता है, तत्पश्चात् सामाजिक और उसके बाद आर्थिक सुदृढ़ीकरण आता है। अतः हमें समझना होगा कि भारतवर्ष एक साझा सांस्कृतिक विरासत लेकर खड़ा है। उसकी संपूर्ण संस्कृति को एक करना अथवा एक रूप में बिठाने का अर्थ है कि हम भारतवर्ष की हत्या करने जा रहे हैं। साझा संस्कृति का अर्थ है कि भारतवर्ष की सभी सांस्कृतिक विरासतों को फलने-फूलने एवं आगे बढ़ने का अवसर मिले। किसी भी लोक संस्कृति की मौत नहीं हो। अतः हमें एक सामाजिक-आर्थिक इकाई का निर्माण करते समय भावनात्मक बिंदु का समावेश करना होगा। वह भावनात्मक बिंदु कृत्रिम एवं बाहरी प्रेरक द्वारा बनाया गया नहीं हो, अपितु वह 'स्वभाव' से निकला हुआ हो। अतः स्वदेशी का मर्म यहाँ से शुरू होता है। स्वदेशी अर्थात एक सामाजिक-आर्थिक इकाई, जो समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना एवं भावनात्मक एकता के साथ नस्लीय समानता जैसे नैसर्गिक तत्व के साथ भी खड़ी होना आवश्यक है। यहाँ नस्लीय समानता का जिक्र आते ही समाजशास्त्री तलवारें लेकर खड़े हो जाएंगे कि भारतवर्ष को जाति एवं संप्रदाय के आधार पर बाँटने की साजिश हो रही है। जो समाजशास्त्री नस्ल एवं जाति को एक समझता है, वह समाज विज्ञान का 'अ, आ' भी नहीं जानता है। नस्ल का अर्थ जाति अथवा संप्रदाय नहीं, बल्कि भौगोलिक परिवेश है। भारतवर्ष भौगोलिक दृष्टि से भी विभिन्नता का सागर है। अतः भौगोलिक विभिन्नता का आदर करना ही होगा।
निष्कर्ष
विषय के सार की ओर चलते हैं। स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत को उस मूलाधार पर खड़ा करना होगा, जो विश्व गुरु भारतवर्ष, घी-दूध की बहती नदियों वाला भारतवर्ष, सोने की चिड़िया वाला भारतवर्ष, और महान भारतवर्ष बना सके। इसका एकमात्र आधार है—समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना, नस्लीय समानता एवं भावनात्मक एकता। इसी आधार पर खड़ी सामाजिक-आर्थिक इकाई को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं गौरवान्वित समाज बनाया जा सकता है।
प्रउत अर्थव्यवस्था
स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत की योजना तब तक अधूरी है, जब तक उसकी अर्थव्यवस्था उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाने की दिशा में कार्य नहीं करती है। एक स्वच्छ, स्वस्थ एवं पुष्ट उपयोग तत्व ही अर्थव्यवस्था को आधार देता है। इसलिए प्रगतिशील उपयोग तत्व की आवश्यकता है। इसलिए स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत को प्रगतिशील उपयोग तत्व वाली अर्थव्यवस्था को अंगीकार करना होगा। यही भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मा है। अर्थव्यवस्था में आध्यात्मिक, नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का समावेश करने वाली प्रउत (PROUT) अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा। उसके अभाव में भारतवर्ष आत्मनिर्भर नहीं बन सकता तथा नहीं स्वदेशी रह सकता है। जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को निगलती हैं, उसी प्रकार बड़ी-बड़ी स्वदेशी कंपनियाँ भी समाज के मूल तत्व को खा जाती हैं।
प्रस्तुति: आनंद किरण
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