इष्ट मंत्र स्वयं में ईश्वर को देखना सिखाता है जबकि गुरुमंत्र सब में ईश्वर देखना सिखाता है। सबमें ईश्वर देखना हमारा ध्येय नहीं है। हमारा ध्येय स्वयं में ईश्वर देखना है। लेकिन स्वयं ईश्वर देखना तभी प्रकाष्ठा पर पहुँचता है, जब सबमें ईश्वर देखना आ जाता है। इसलिए गुरुमंत्र की साधना में बहुत आवश्यकता है। इसलिए आज हम मंत्र का दीदार करने की कोशिश करते हैं।
गुरुमंत्र शब्द में गुरुमंत्र एवं मंत्र दो शब्दों का मेल है। जो मंत्र गुरु की पहचान कराता है, वही गुरुमंत्र है। गुरु की पहचान करना बड़ा ही दुर्लभ कार्य है, इसलिए संतगण गुरु गोविंद में से गुरु के चयन की प्राथमिकता देने की सलाह देते हैं। गुरु ही इष्ट की पहचान दिलाते तथा इष्ट मंत्र का निर्माण करते हैं। अतः बिन गुरु सबकुछ असंभव है। अब गुरुमंत्र को थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं।
गुरुमंत्र को साधना की भाषा में मधुविद्या कहते हैं। मधुविद्या वह भाव है, जो साधक के जीवन को आनन्द से भर देती है। अर्थात सभी सुख दुःख से छूटकारा दिलाती है। मनुष्य के लिए दु:ख से छूटकारा पाना जितना सरल है, उतना सरल सुख के हाथ से छूटकारा पाना संभव नहीं है। सुख की स्थिति को साधारण बोलचाल की भाषा में शुभ तथा दु:ख की स्थिति को अशुभ कहते हैं। शुभ अथवा अशुभ जो भी स्थिति में मन रहना चाहता है, वह बंधन का कारण है, जबकि आनन्द बंधन मुक्ति की अवस्था का नाम है। अतः गुरुमंत्र एक ऐसी शक्ति है, जो मनुष्य को बंधन में जाने ही नहीं देती है। सरल भाषा में कहा जाए तो गुरुमंत्र संस्कार बनने नहीं देता है। पुराने संस्कार काटने काम यद्यपि इष्ट मंत्र का तथापि पुराने कर्मों पर भी निष्ठापूर्वक गुरुमंत्र लेने पर संस्कार शून्य होने में मदद मिलती है। संस्कार शून्य कैसे अवस्था होती यह फिलहाल हमारी चर्चा का विषय नहीं है। इसलिए इस ओर नहीं जाएंगे। फिलहाल गुरुमंत्र की महत्ता अथवा महात्म्य को समझने के लिए चलते हैं।
गुरुमंत्र की साधक का ऐसा साथी है, जो साधक को कभी भी गुरु से अलग होने नहीं देता है। अर्थात साधक भयभीत होने की आवश्यकता नहीं क्योंकि गुरुदेव आरंभ से अन्त तक साधक के साथ है। इसलिए तो बाबा हमें सदैव विश्वास दिलाते थे कि परमपुरुष तुम्हारे साथ है। तुम किसी भी परिस्थिति में अकेले नहीं हो। इस ताकत का नाम गुरुमंत्र है। जब भी मनुष्य भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक गति करता है तब धनात्मक एवं ऋणात्मक दोनों ही प्रकार अणुजीवत जागृत होते है। ऐसी स्थिति में गुरुमंत्र साधक के यात्रा मार्ग में जागृत हुए ऋणात्मक अणुजीवत को निस्तेज करता है तथा धनात्मक अणुजीवत की प्राणी चेतना को साधक के अधीन बनाये रखता है। इसलिए हर कर्म की शुरुआत गुरुमंत्र की जाती है ताकि साधक हमेशा एक दिव्य सुरक्षा घेरे में रहे। इस घेरे का गुरु की कृपा अथवा आशीर्वाद है। अतः साधक निश्चित रह सकता है कि गुरु कभी भी उसको नि:सहाय नहीं छोडेंगे।
गुरु का अर्थ बड़ा होता है। ऐसा बड़ा की जो अपने शिष्य को भी बड़ा बना सकता है। अतः गुरु शब्द का अर्थ ही वृहद अथवा ब्रह्म होता है। अतः गुरुमंत्र को ब्रह्म भाव अथवा ब्रह्म सद्भावना भी कहते हैं। यदि गुरुमंत्र को दार्शनिक लोक में जाक परिभाषित करना पड़े तो ब्रह्म मंत्र के रुप में ही परिभाषित करना पड़ता है। इष्ट मंत्र ब्रह्म का न्यूक्लिस है तथा गुरुमंत्र ब्रह्म का शेष प्रांत है। अर्थात इष्ट मंत्र एवं गुरुमंत्र मिलकर साधना पूर्ण होती है। अब थोड़ा गुरुमंत्र के विज्ञान के बारे में समझते हैं।
गुरुमंत्र को सिद्ध सद्गुरु करते हैं तथा वे ही साधक को प्रदान करते हैं। इसलिए गुरुमंत्र के निर्माण तथा वहन की एक प्रक्रिया है। गुरुमंत्र के निर्माण में अनन्त ऊर्जा का समाविष्ट किया जाता है तथा उसके धारक को भी उतने ऊर्जावान बनकर धारण करना पड़ता है। इसलिए इष्ट मंत्र को गुरुमंत्र से पहले सिखाया जाता है। गुरुमंत्र का संबंध भी संस्कार विज्ञान से होता है इसलिए एकाधिक गुरुमंत्र होना स्वाभाविक है। लेकिन सभी भाव एक ही सबकुछ ब्रह्म है। इसलिए साधक के जीवन में सबकुछ कल्याणकारी ही होता है।
गुरु के संदर्भ में भारतीय समाज दो बातें बहुत अधिक प्रचलित है। उसका उल्लेख कर हम सद्गुरु का चरणामृत लेने जाएंगे। कहा जाता है कि 'गुरु करो जानकर' इस उक्ति पर एक पूरक प्रश्न है कि गुरु किया जाता है अथवा गुरु अपने शिष्य का चयन करता है? प्राचीन गुरुकुल पद्धति में गुरुकुल के प्रधान आचार्य अपने अन्य आचार्य के साथ शिष्य चयन के गुरुकुल के क्षेत्राधिकार में आषाढ़ पूर्णिमा से श्रावण पूर्णिमा पड़ाव डालने का उल्लेख मिलता है। उसमें समाज में रहकर आचार्य योग्य शिष्यों का चयन करते थे। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक जगत में एक कथन प्रचलित है कि गुरु शिष्य का चयन करता है, शिष्य गुरु का नहीं। अतः यह दो प्रमाण भारतवर्ष में चल रही 'गुरु करो जानकर' उक्ति की पुष्टि नहीं करती है। जो लोग भी गुरुमुखी है क्या आप में उस दिन इतनी योग्यता थी कि गुरु जानकर कर सकते थे। आजकल शिक्षण जगत में अपने ग्राहक बढ़ाने के लिए डेमो व्यवस्था का प्रचलन हुआ है। जो आध्यात्मिक विषय नहीं है। अब हम दूसरी उक्ति की ओर चलते हैं जिसमें कहा गया है कि 'गुरु मिलन को चलिए, तज्ये मोह, अभिमान' गुरु को मिलने के लिए दो बात का त्याग करना पड़ता है, मोह एवं अभिमान। क्या यह छोड़ना साधरण इंसान के लिए इतना आसान है कि गुरु की प्रथम भेंट के वक्त ही मोह व अभिमान शून्य होकर जाना पड़ता है। लेकिन आध्यात्मिक विज्ञान तो कहता है कि गुरु के सानिध्य से षड़ रिपु व अष्टपाश नियंत्रित होते एवं षड़ दोष दूर होते हैं। गुरु की शिक्षा के पूर्व ही यदि शिष्य इन विकारों दूर हो जाता है तो गुरु की आवश्यकता ही क्या है। इसलिए गुरुमंत्र के निर्माता गुरु की परिचय देना आवश्यक हो गया था। अतः गुरुमंत्र विषय को रोककर गुरु का परिचय लेने चलना पड़ रहा है।
गुरुमंत्र का निर्माण करना एक उत्तम गुरु कार्य है। इस उत्तम गुरु का आध्यात्मिक भाषा में सद्गुरु कहते हैं। सद्गुरु शब्द का शाब्दिक विन्यास बताता है कि सत्य ही गुरु हैं। सत्य ब्रह्म को कहा गया है। अतः उत्तम गुरु ब्रह्म ही है। अतः गुरुमंत्र के निर्माता मात्र तारक ब्रह्म है। वे ही एक मात्र जगत गुरु हैं। अतः सप्रमाण कहा जा सकता है कि गुरुमंत्र के निर्माता तारक ब्रह्म है।
पुनः गुरुमंत्र की ओर चलते हैं कि तारक ब्रह्म साधक के लिए शब्दों का एक समूह तैयार करते हैं, जिसमें प्रचंड शक्ति भरते तथा आचार्य के माध्यम साधक में प्रवेश कराते हैं। अतः आचार्य का पद बहुत ही गहन पद है। गुरुमंत्र का संदर्भ संस्कार रोकने से है इसलिए साधक संस्कार की गति को देखकर एकाधिक शब्द समूह को गुरुमंत्र के रूप पेश करते हैं। आचार्य के माध्यम गुरु उपयुक्त शब्द समूह गुरुमंत्र के रूप साधक में प्रवेश कराते हैं।
®️ आनन्द किरण ©️
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