साधक के लिए सबसे मूल्यवान संपदा उसका अपना इष्ट मंत्र है। शायद इसलिए इष्ट मंत्र को गोपनीय रखा जाना आवश्यक है। इसलिए आज इष्ट मंत्र के लिए संदर्भ समझने की कोशिश करेंगे। इष्ट मंत्र के संदर्भ में कहा गया है कि जिस मंत्र का संबंध इष्ट से हो वही साधक का इष्ट मंत्र है। इसमें इष्ट एवं मंत्र नामक दो शब्द है। प्रथम इष्ट का अर्थ - अभिलक्षित, चाह हुआ, वांछित अथवा लक्ष्य होता है तथा मंत्र शब्द का अर्थ मन का त्राण करने वाला शब्द है। अपना इष्ट साधक द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसमें सद्गुरु अथवा सद्गुरु द्वारा नियुक्त आचार्य साधक की मदद करते हैं, लेकिन इष्ट का चयन अथवा निर्धारण साधक को ही करना होता है। चूंकि आरंभ में साधक में इतनी समझ नहीं होती है कि उसका इष्ट वास्तव में कौन है, इसलिए सद्गुरु को सहायता करनी पड़ती है। इष्ट मंत्र वह ताकत है, जिसके बल पर इष्ट को प्राप्त कर सकता है। चूंकि साधक में इष्ट मंत्र चयन की समझ नहीं होती है, अतः इसमें भी सद्गुरु अथवा सद्गुरु द्वारा नियुक्त आचार्य सहायता करते हैं। इस प्रकार साधक को इष्ट व इष्ट मंत्र के चयन में पूर्णतः सद्गुरु पर निर्भर रहना होता है। अब थोड़ा ज्ञान विज्ञान की ओर चलते हैं।
प्रश्न बनता है कि क्या सभी का इष्ट एक है अथवा अनेक? उत्तर संभवतया सबका एक होगा कि सबका इष्ट एक है। यहाँ एक परि प्रश्न जन्म लेता है कि क्या इष्ट मंत्र भी सबका एक है? उत्तर नहीं इष्ट मंत्र सबके लिए अलग-अलग है। फिर एक प्रश्न बनता है कि जब इष्ट एक है तो इष्ट मंत्र सबके लिए अलग-अलग क्यों? इष्ट का संबंध व्यक्ति के जीवन लक्ष्य से है। इसलिए सभी मनुष्य का एक ही जीवन लक्ष्य है। परमपद को प्राप्त करना, अतः सबका इष्ट एक ही होता है। जबकि इष्ट मंत्र का संबंध व्यक्ति संस्कार से है, अतः इष्ट मंत्र सबके लिए एक नहीं हो सकता है। अतः साधक के संस्कार के अनुसार सद्गुरु द्वारा पृथक इष्ट मंत्र दिया जाता है। यह साधक का इष्ट मंत्र है, इसलिए यह अपने में ही गोपनीय रखना चाहिए। यहाँ एक ओर प्रश्न बनता है कि क्या सभी इष्ट मंत्रों का भाव अलग-अलग है? उत्तर नहीं सभी इष्ट मंत्रों में शब्दाक्षर अलग-अलग है लेकिन सभी इष्ट मंत्रों का भाव एक ही है। अतः कहा जा सकता है कि इष्ट एवं इष्ट मंत्र का भाव सभी के लिए एक ही है। अब हम इष्ट मंत्र के भाव के संदर्भ में चर्चा करते हैं।
इष्ट मंत्र अथवा इष्ट मंत्रों के भाव का भाव होता है - अहम् ब्रह्मास्मि (मैं ही ब्रह्म हूँ) तथा मनुष्य का इष्ट ब्रह्म है। अतः साधक की साधना ब्रह्म प्राप्ति की साधना है। इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। ईश्वर का प्रणिधान करना ही ईश्वर प्रणिधान है। अब 'नाम' के संदर्भ में कुछ जानकारी हासिल करेंगे। नाम परमपुरुष को किया जाने वाला संबोधन होता है जबकि इष्ट मंत्र परमपुरुष बनने की विधा होती है। साधक जिस भाव में अथवा जिस रूप में परमपुरुष को देखता है। वही साधक के लिए परमपुरुष का नाम बन जाता है। उस नाम का संकीर्तन किया जाता है जबकि इष्ट मंत्र का मानसिक जप किया जाता है। मन से किया जाने वाला जप मानसिक जप कहलाता है। अतः यहाँ शब्द से अधिक भाव महत्वपूर्ण होता है। चूंकि वस्तु जगत में भाव सृजन में शब्द का महत्व है। इसलिए भाव की शाब्दिक अभिव्यक्ति इष्ट मंत्र कहलाता है। बताया जाता है कि महाकौल द्वारा उस शब्द में भाव की समाविष्ट की जाती है। जब भी इष्ट मंत्र में समष्टि रुप से भाव कमज़ोर होने लगता है तब परमपुरुष महासंभूति के रूप में आकर फिर उपयुक्त शब्द को भाव से भरकर इष्ट मंत्र के रूप में प्रदान करते हैं। यद्यपि नाम में भी महाकौल द्वारा सिद्ध होता है तथापि साधक के लिए सबसे मूल्यवान संपदा इष्ट मंत्र ही होता है। ऐसा मैं नहीं, सद्गुरु बताते हैं।
इष्ट, साधक का साध्य है, ध्यानी का ध्येय है तथा ज्ञानी ज्ञेय है। साध्य, ध्येय एवं ज्ञेय को पाने के लिए कुछ नैव्यष्टिक तथ्यों की आवश्यकता होती है, उन्हें आदर्श कहा जाता है। अतः का महत्व इष्ट से कम नहीं होता है। इसलिए इष्ट एवं आदर्श की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करना भी कम है। आदर्श की मदद से साधक को दुनिया पहचानती तथा इष्ट की बदौलत साधक से दुनिया जुड़ती है। साधक इष्ट से जुड़े रहने के लिए उनकी कृपा की आवश्यकता होती है। जो आध्यात्मिक अनुशासन का पालन करने से मिलती है। आध्यात्मिक अनुशासन के लिए साधक सदगुरु द्वारा यम-नियम, पंचदश-शील, षोडश-विधि, आचरण-संहिता, साधना, चरम-निर्देश, धर्म-चक्र, शपथ एवं गुरु-दक्षिणा की पद्धति की शिक्षा दी जाती है। इस कार्य में सेमिनार, कर्तव्य, आचरण-विधि एवं कीर्तन भी साधक की सहायता करते हैं।
इष्ट मंत्र की सहायता के लिए गुरुमंत्र, बीजमंत्र, नाम मंत्र एवं ध्यान मंत्र भी दिये जाते हैं। जिसमें ध्यान मंत्र एवं नाम मंत्र तो अशाब्दिक होते हैं जबकि गुरु मंत्र एवं बीजमंत्र शाब्दिक होते हैं। आज हम इसकी गहराई में नहीं जाकर इष्ट मंत्र की अभिव्यक्ति को ही समझें।
इष्ट मंत्र का संबंध साधक श्वास प्रश्वास से होता है। जब साधक श्वास अंदर की ओर लेता है तब तथा बाहर की ओर छोड़ते समय एक विशेष प्रकार की ध्वनियात्मक अभिव्यक्ति होती है। इसका संबंध साधक संस्कार होता है। इसका कुछ समूह होता है। उसी को मिला कर महाकौल कुछ इष्ट मंत्र का निर्माण करते हैं। आचार्य व्यक्ति के संस्कार देखकर इष्ट मंत्र को साधक के प्राणों में प्रवेश कराते हैं। साधक ईश्वर प्रणिधान के माध्यम से मंत्र को चैतन्य करते हैं। इष्ट मंत्र के निरंतर जप के माध्यम से साधक इष्ट की प्राप्ति करता है।
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®️ आनन्द किरण ©️
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