कृषि से आत्मनिर्भरता की ओर (Towards self-reliance through agriculture)



आत्मनिर्भरता अर्थव्यवस्था का लक्ष्य है। जो कृषि के बिना संभव नहीं है। अतः अर्थव्यवस्था का आधार कृषि होना चाहिए। जब से कृषि की बजाए उद्योग धंधे को अर्थव्यवस्था का आधार बनाया गया है, तब समाज का ताना बाना छिन्न विच्छिन्न हुआ है। जब समाज का ताना बाना विच्छिन्न हो जाता है तब अर्थव्यवस्था सुख मूलक नहीं दु:ख मूलक हो जाती है। जबकि अर्थव्यवस्था का लक्ष्य कल्याण मूलक अथवा अधिकतम सुख है। अर्थव्यवस्था कभी भी उद्योग विरोधी नही रही है लेकिन अर्थव्यवस्था के मूल में उद्योग धंधा बैठना एक दोषपूर्ण चिन्तन है। पूंजीवाद के जनक एडम स्मिथ की दोषपूर्ण धारणा ने अर्थव्यवस्था का स्वरुप बिगाड़ दिया है। जो मार्शल, पिगु, रोबिंसन, जे.एल. मेहता इत्यादि अर्थशास्त्रियों द्वारा भी नहीं सुधारा गया। अर्थव्यवस्था के इस कुरुप चेहरे को रूसो, कार्ल मार्क्स एवं पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे दार्शनिक ने भी रूपवान नहीं बना पाए। क्योंकि किसी ने भी किसान की भूमिका को नहीं समझ पाए। कार्ल मार्क्स मजदूरों के दु:ख समझा लेकिन जिया नहीं इसलिए मजदूरों सुदिशा में नहीं ले पाए। अर्थव्यवस्था के इस दु:ख को इस धरा पर प्रथम बार एक महान दार्शनिक एवं महान सामाजिक आर्थिक चिन्तक श्री प्रभात रंजन सरकार ने पहचान, जांचा एवं परखा। इसलिए उन्होंने अर्थव्यवस्था के उद्धार का जिम्मा उठाया तथा दुनिया को दिया, प्रगतिशील उपयोग तत्व। कृषि से आत्मनिर्भरता की ओर प्रगतिशील उपयोग तत्व से निकाला एक ब्रह्मास्त्र है। जो अर्थव्यवस्था को रुग्णता से आरोग्य की ओर ले चलता है। अतः आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे।

भारतीय शास्त्र के अनुसार मनुष्य को इस धरती पर चार पुरुषार्थों को सिद्ध करना होता है। भारतीय शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य का प्रथम का धर्म की संस्थापना करना है। यहाँ धर्म शब्द का अर्थ वह तत्व जो मनुष्य को मनुष्यत्व में प्रतिष्ठित करें। अतः मनुष्य एक नैतिक परिवेश तैयार करना होता है। यदि कोई अर्थ नैतिक परिवेश सेंधमारी करती है अथवा मिटाती है तो वह अर्थव्यवस्था मनुष्य को रसातल में ले जाती है। रसातल की ओर जाती अर्थव्यवस्था को जीवदान धर्म ही दे सकता है। धर्म की शुरुआत धरती के वैचित्र्य को समझकर प्रत्येक व्यष्टि को अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा उपलब्ध कराते हुए व्यक्ति के गुण का सम्मान करना तथा समाज के मानक स्तर को ऊपर उठाने से है। यदि धर्म के इस मर्म की पहचान अर्थशास्त्र को होती है तो वह कृषि को अर्थव्यवस्था के मूल में रखकर आर्थिक मूल्यों की शुरुआत करता है। 

भारतीय शास्त्र के अनुसार धरती पर मनुष्य अर्थ की समायोजन है। भौतिक संपदा का इस प्रकार समायोजन करना कि स्वयं भी सुखी हो तथा ओरों को भी सुखी बनाए। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को अर्थ के समायोजन की प्रथम मूल धारा समाज के आदेश के बिना धन संचय को अकर्तव्य मानकर चलते हुए चरमोत्कर्ष करना तथा उसका विवेकपूर्ण वितरण करना है। अर्थ की इस अवधारणा को कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था में बेखुबी से सिद्ध की जा सकती है। 

भारतीय शास्त्र के अनुसार मनुष्य के तृतीय पुरुषार्थ काम का निर्धारण है। इसके लिए मानवीय क्षमता का चरम उपयोग एवं उपयोग में सुसंतुलन बनाकर रखना है। कामेष्णा यदि असंतुलित रह जाती है अथवा उसका एक अंश भी उपयोग विहिन रह जाता है तो सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए अव्यवस्था बन जाता है। काम का निर्धारण के लिए सबसे उपयुक्त अर्थव्यवस्था की शुरुआत कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था से है। 

भारतीय शास्त्र के अनुसार धरती पर मनुष्य चतुर्थ कार्य मोक्ष‌ की प्राप्ति है। मोक्ष की प्राप्ति के सभी मनुष्य को एक सांचे में स्थापित करने से नहीं चलता है। इसलिए उपयोगिता को देश, काल एवं पात्र के अनुसार परिवर्तनशील सांचे में स्थापित कर मनुष्य को साधना के अधिक से अधिक समय उपलब्ध कराना होगा। उपयोग तत्व तभी प्रगतिशील कहलाएगा जब व्यक्ति का जगत हित में उपयोग करते हुए प्रगति के पथ पर ले चलता है। मोक्ष‌ प्राप्ति युक्त मनुष्य बनाने के लिए भी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था को मानकर चलना ही होगा। 

हमने धर्म की संस्थापना, अर्थ का समायोजन, काम का निर्धारण एवं मोक्ष‌ की प्राप्ति के मनुष्य के जीवन मूल्यों के आधार पर कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था की उपादेयता को समझा, परखा एवं जाना है। अब हम विषय की पूर्णाहुति की ओर चलते हैं। 

कृषि से आत्मनिर्भरता में मनुष्य के धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष‌ की सिद्ध का होना आवश्यक है। इसलिए हमने इन्हें प्रथम रखकर विषय की ओर चले है। कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन, शहद, खनिज इत्यादि अर्थशास्त्र की प्राथमिकत क्रियाएँ है। जैसा कि अर्थव्यवस्था समझाती है कि द्वितीय एवं तृतीय क्रियाओं के प्राथमिक क्रियाएँ आवश्यक है। लेकिन यदि द्वितीय एवं तृतीय क्रियाएँ प्राथमिक क्रियाओं का गला घोटना शुरू कर दे तो मनुष्य का अधिकतम कल्याण करने वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण नहीं होता है। पूंजीवादी व्यवस्था ने धरती पर बहुत बड़ी इमारतें एवं सड़कें तो खड़ी कर दी लेकिन सुव्यवस्था नहीं दे पाईं। इसलिए मनुष्य भौतिक जगत में विकास करने के साथ भी आत्मनिर्भरता को प्राप्त नहीं कर पाया है। प्राथमिक क्रियाओं की तालिका में कृषि ही एक मात्र ऐसी क्रिया है, जो सभी प्राथमिक क्रियाओं में प्रथम क्रिया बन सकती है। अतः कृषि को गुरुत्व में रखकर शेष प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्रियाओं का समायोजन कर आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को पाया जा सकता है।   कृषि एक उद्योग है, जहाँ से सभी क्रियाओं का जन्म होता है। पशुपालन, मधुमक्खी पालन, कीटपालन एवं मतस्य पालन में तो कृषि की भूमिका समझ में आ जाती है लेकिन खनिज निष्क्रमण में कृषि की उपादेयता समझना जरा मुश्किल है। यदि काम के बदले अनाज एवं वस्तु विनिमय की नीति को समझे होते तो कृषि का खनिज से सहसंबंध समझ में आने में देरी नहीं लगती है। कृषि से आत्मनिर्भरता की उक्ति कहती है कि किसान समाज एवं देश का प्रथम उद्योगपति एवं कॉर्पोरेटर है। जो अर्थव्यवस्था अपने प्रथम उद्योगपति एवं कॉर्पोरेटर का सम्मान नहीं कर सकती है, वह कभी भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकती है। अतः हम सिद्ध कर सकते हैं कि कृषि से आत्मनिर्भरता की ओर अर्थव्यवस्था की सही गति एवं दिशा है।

महान दार्शनिक सुकरात की उक्ति को स्मरण करते हुए विषय को समाप्त करेंगे। सुकरात कहते थे कि जब खेती फलती फूलती है तो उद्योग धंधे पनपते है, जब खेती को बंजर छोड़ दिया जाए तो सम्पूर्ण अर्थतंत्र सपाट हो जाता है। अतः कृषि की ओर लौटो का संदेश आज प्रासंगिक है। इसके लिए कृषि आधारित एवं कृषि सहायक उद्योग धंधों को गाँवों की ओर ले चलना होगा, छोटे उद्योग धंधों को कुटीर गृह में ले चलना होगा, मध्यम उद्योग धंधों को सहकारी की कार्यशाला में स्थापित करना होगा। वृहद उद्योग को राज्य अथवा राष्ट्र सरकार के हवाले करना ही होगा। यद्यपि निजी संपत्ति का जादू रेत को सोना बना सकता है तथा ठेके पर दी व्यवस्था उपवन को उजाड़ सकता है तथापि कृषि में सहकारिता को ही बैठाना होगा। क्योंकि कृषि एक बहुत बड़ा उद्योग एवं उद्योग का स्रोत है इसलिए मिलकर करने में ही प्रासंगिकता है। कृषि से आत्मनिर्भरता की ओर उक्ति समझ गए हैं।

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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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