आज हम मानव मन को प्रभावित करने वाली वृत्तियों एवं उसको नियंत्रित करने वाले मंत्र के विषय जानकारी प्राप्त करेंगे। उसके साथ वृत्तियों की अवस्थित, उसके चक्र एवं मंडल के बारे भी ज्ञान प्राप्त करेंगे। इस अध्ययन पत्र को श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृति योग मनोविज्ञान की मदद लेंगे। आओ बिना विलंब किये चलते वृत्ति विज्ञान की ओर।
बाबा बताते हैं कि आस्तित्विक जीव संरचना से जो मानसधारा उद्भूत होकर, आस्तित्विक सम्पर्कयुक्त परिवेश के मध्य से प्रवाहित होकर अपने उत्स में लौट आती है, उसे वृत्ति कहकर पुकारा जाता है। यह वृत्तियाँ की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्रियाओं के संचालन बहुत अधिक सहयोग करती है। इन्हें चक्र शोधन एवं आसन द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अतः बाबा चाहते हैं कि सभी को वृत्ति ज्ञान होना आवश्यक है। इसलिए आज हमने अपना अध्ययन पत्र वृत्तियों के संदर्भ तैयार किया है।
हमारे शरीर में विभिन्न मंडल एवं चक्र है। बाबा बताते हैं कि मंडल क्षेत्र चक्र की तुलना में बड़ा होता है। संस्कृत शब्द मंडल का अर्थ वृत्त होता है। इस मंडल में चक्र, ग्रंथियाँ, उप ग्रंथियाँ एवं वृत्तियाँ है। अपने वलय के ध्वनिक मूलक जीवमंत्र अर्थात बीजमंत्र है।
(I) प्रथम मेरूदंड के अन्तिम अस्थि के मध्य बिन्दु में मूलाधार चक्र विद्यमान है। उससे संबंधित मंडल भौम मंडल है। इसमें चार वृत्तियाँ है। जो मन की धारा को यहाँ से नियंत्रित करती है।
(१) धर्म - मूलाधार चक्र के दक्षिण बिन्दु में धर्म नामक वलय है। जिसका नियंत्रक मंत्र 'व' है। यह मानव प्रथम वृत्ति है तथा यही मनुष्य को अन्य जीवों से अलग करती है। यह मानसिक आध्यात्मिक अभिलाषा है। जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में परिचय कराती है। यह वृत्ति अनियंत्रित रहने पर मनुष्य जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र इत्यादि को स्वदेश मान लेता है तथा नियंत्रण होने पर सम्पूर्ण विश्व को स्वदेश मानता है। अतः धर्म का बीज मंत्र 'व' ध्वनि है।
(२) अर्थ - अर्थ मानसिक इच्छा है, जो मन सुखी करता है। यह जब भौतिक मानसिक होने पर अर्थ धन कहलाता है जबकि पूर्णतया मानसिक होने पर अर्थ मतलब कहलाता है। दोनों पाने मन संतुष्ट होता है। यह भौम मंडल के पश्चिम बिन्दु पर स्थित है। यह 'श' नामक ध्वनि से नियंत्रित होता है। अतः 'श' इसका बीज मंत्र कहलाता है।
(३) काम - यह मानव मन की भौतिक इच्छा है। जिसका वलय भौम मंडल के उत्तर बिन्दु में होता है। इसका बीजाक्षर 'ष' बताया गया है। शरीर एवं भूलोक से संबंधित इच्छाओं का समुच्चय काम कहलाता है। यह पशुओं में भी होती है। इसके अनियंत्रित होने से मनुष्य भौतिक लालसा के पीछे भागता है। भोग, सांसारिक वस्तुओं से लगाव इत्यादि है।
(४) मोक्ष - मूलाधार चक्र का पूर्वी बिन्दु 'स' बीजाक्षर युक्त मोक्ष वृत्ति है। यह आध्यात्मिक इच्छा है। जो मनुष्य के मन में मुक्ति का भाव जागरण करती है। इसलिए इसका बीज मंत्र 'स' है। स का अर्थ है मुक्त होना।
यह वृत्तियाँ मूलाधार चक्र द्वारा नियंत्रित होती है तथा मूलाधार चक्र का बीज मंत्र "लं" है। मनुष्य का मूलाधार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष है। इसलिए इस चक्र का नामकरण मूलाधार किया गया है। इसकी वृत्तियों को पृथ्वी पर मानव जीवन के पुरुषार्थ भी कहा गया है।
(II) मानस धारा को नियंत्रण करने वाला द्वितीय बिन्दु स्वाधिष्ठान चक्र है। इसमें 6 वृत्तियाँ है। यह तरल अथवा द्रव अथवा जल मंडल है।
(५) अवज्ञा - 'ब' नियंत्रक मंत्र युक्त अवज्ञा वृत्ति स्वाधिष्ठान के दक्षिण प्रांत में दर्शायी गई है। यह भाव मनुष्य में एक नाकारात्मक भावधारा है। जो मन को अवहेलना से भरता है। जो सब कुछ की अवज्ञा करते हुए चलता है।
(६) मूर्च्छा - सामान्य बौद्धिक क्षमता का अभाव की अवस्था है। सरल भाषा में कहे तो इस थोड़ी भी समझ नहीं होने को कहते हैं। यह स्वाधिष्ठान के दक्षिण पश्चिम प्रांत में दर्शायी गई है। इसका नियंत्रक मंत्र 'भ' है।
(७) प्रश्रय - इसका आग्रहशीलता अथवा स्थान देना है। किसी बात विशेष को पकड़ कर रह जाता है। किसी के अच्छे बुरे व्यवहार को मन में पकड़ रख लेता है। इसको स्वाधिष्ठान के उत्तर पश्चिम प्रांत में दर्शाया गया है। इसका बीज मंत्र 'म' है।
(८) अविश्वास - विश्वास रहित अथवा आत्मविश्वास रहित अवस्था है। यह विश्वास को छोड़ देता है। इसकी चरम अवस्था खुद पर ही विश्वास नहीं रख पाती है। इसका नियंत्रक मंत्र 'य' है तथा यह स्वाधिष्ठान के उत्तर प्रांत में है।
(९) सर्वनाश - ऐसा लगना कि विनाश आसन्न या निश्चित है। यह भाव सदैव मनुष्य को एक अज्ञात विनाश का भय से लिप्त रखना। यह सोच होना कि सब कुछ खत्म हो गया। यह स्वाधिष्ठान के उत्तर पूर्व प्रांत में 'र' नियंत्रक मंत्र लिए हुए है।
(१०) क्रूरता - स्वाधिष्ठान के दक्षिण पूर्व प्रांत में 'ल' बीजमंत्र द्वारा नियंत्रित वृत्ति क्रूरता को दर्शाया जाता है। यह मनुष्य को दया रहित बना देता है।
(III) मानसधारा तृतीय नियंत्रक स्थान मणिपुर चक्र है। इसको 10 वृत्तियों ने घेरकर रखा है। यह आग्नेय मंडल है।
(११) लज्जा - मणिपुर के दक्षिण प्रांत में 'ड' नियंत्रक मंत्र द्वारा नियंत्रण लाई जाती हुई दर्शायी गाई है। लज्जा एक प्रकार काल्पनिक भय है, जो घटना के पूर्व व्यक्ति के मानस घेरे हुए रखता है। इसका जन्म स्थान नाभी का शेष प्रांत है।
(१२) पिशुनता - परपीड़ा देने की प्रवृत्ति पिशुनता कहलाती है। यह मणिपुर चक्र दक्षिण के पश्चिमी वलय में दर्शाया गया है। यह 'ढ' बीज मंत्र द्वारा नियंत्रित होती है।
(१३) ईर्ष्या -जलन, विद्वेष इत्यादि भाव को ईर्ष्या वृत्ति कहते हैं। यह मणिपुर चक्र के पश्चिम के दक्षिण वलय में दर्शाया जाता है। इसका बीज मंत्र 'ण' है।
(१४) सुषुप्ति - स्थिरता या अघोर की स्थिति को सुषुप्ति कहते हैं। यह मणिपुर चक्र के पश्चिम के उत्तरी वलय में 'त' बीजाक्षर युक्त है।
(१५) - विषाद - निराशा एवं गहरी उदासी को विषाद कहते हैं। यह मणिपुर के उत्तर के पूर्वी वलय में 'थ' बीजाक्षर में दर्शाया गया है।
(१६) कषाय - चिड़चिड़ापन, हर चीज से परेशान रहने की मनोदशा। इसका नियंत्रक मणिपुर के उत्तरी वलय में 'द' बीजाक्षर के रूप दृश्य है।
(१७) तृष्णा - अधिग्रहण की लालसा, पाने की लालसा या किसी भौतिक वस्तु की तड़प का मनोभाव है। जो मणिपुर चक्र में उतर के पूर्व वलय में 'ध' बीजाक्षर के रूप में दर्शाया गया है।
(१८) मोह -दीवानगी, मूर्खता, आसक्ति, बेवकूफ़ी, दीवानापन, विमोह, मुग्धता, मूढ़ता, प्रेमासक्ति, सम्मोह, बुद्धिलोप, मोह इत्यादि समानार्थक का भाव मोह कहलाता है। यह मणिपुर चक्र के पूर्व का उत्तर वलय है। जो 'न' बीजाक्षर में दर्शाया गया है।
(१९) धृणा - नफरत या किसी के प्रति नकारात्मक संवेदन धृणा के नाम से जानी गई है। यह मणिपुर के पूर्व के दक्षिण वलय में 'प' बीजाक्षर में दर्शाया गया है।
(२०) भय - यह मणिपुर के दक्षिण के पूर्वी वलय में 'फ' बीजाक्षर में दिखाया गया है। भय का संबंध सीधा मणिपुर से है। भय युक्त व्यक्ति फ की ध्वनि निकालता है।
(IV) मानसधारा का चतुर्थ नियंत्रण स्थल अनाहत चक्र है। जो मनुष्य के शरीर के सौरमंडल में स्थित है। जहाँ वायु की प्रधानता है। यह 12 वृत्तियों से घिरा हुआ है।
(२१) आशा - 'क' बीजाक्षर अनाहत चक्र के दक्षिण वलय में आशा नामक वृत्ति है।
(२२) चिंता - 'ख' बीजाक्षर अनाहत चक्र के दक्षिण के पश्चिम वलय में चिंता नामक वृत्ति है।
(२३) चेष्टा - 'ग' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पश्चिम के दक्षिण वलय में चेष्टा नामक वृत्ति है।
(२४) ममता - 'घ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पश्चिम वलय में ममता नामक वृत्ति है।
(२५) दम्भ - 'ङ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पश्चिम के उत्तर वलय में दंभ नामक वृत्ति है।
(२६) विवेक - 'च' बीजाक्षर अनाहत चक्र के उत्तर के पश्चिम वलय में विवेक नामक वृत्ति है।
(२७) विकलता - 'छ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के उत्तर वलय में विकलता नामक वृत्ति है।
(२८) अहंकार - 'ज' बीजाक्षर अनाहत चक्र के उत्तर के पूर्व वलय में अहंकार नामक वृत्ति है।
(२९) लोलता - 'झ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पूर्व के उत्तर वलय में लोलता नामक वृत्ति है।
(३०) कपटता - 'ञ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पूर्व वलय में कपटता नामक वृत्ति है।
(३१) वितर्क - 'ट' बीजाक्षर अनाहत चक्र के पूर्व के दक्षिण वलय में वितर्क नामक वृत्ति है।
(३२) अनुताप - 'झ' बीजाक्षर अनाहत चक्र के दक्षिण के पूर्व वलय में अनुताप नामक वृत्ति है।
(V) मानसधारा का पंचम नियंत्रक बिन्दु विशुद्ध चक्र है। यह नक्षत्र मंडल में 16 वृत्तियों से घिरा है। यह सभी ध्वनियात्मक अभिव्यक्तियाँ है। जिसमें 7 वैदिक, 7 तांत्रिक एवं 2 परा आध्यात्मिक वृत्तियाँ है। यह नक्षत्र मंडल है।
(३३) षड़ज - 'अ' बीजाक्षर युक्त मोर सडजी वृतचित्र विशुद्ध चक्र के दक्षिण में दर्शायी गई है। इसमें मोर की आवाज सुनाई देती है
(३४) ऋषभ -'आ' बीजाक्षर युक्त ऋषभ विशुद्ध चक्र के दक्षिण ठीक पश्चिम वलय में दर्शायी गई है। इसमें बैल की आवाज सुनाई देती है।
(३५) गांधार - -'इ' बीजाक्षर युक्त् गंधार वृत्ति विशुद्ध चक्र के दक्षिण मध्य पश्चिम वलय में दर्शायी गई है। इसमें बकरे की आवाज सुनाई देती है।
(३६) मध्यम - -'ई' बीजाक्षर युक्त् मध्यम वृत्ति विशुद्ध चक्र के दक्षिण सबसे पश्चिम वलय में दर्शायी गई है। इसमें हरिण की आवाज सुनाई देती है।
(३७) पंचम - -'उ' बीजाक्षर युक्त् पंचम वृत्ति विशुद्ध चक्र के पश्चिम वलय में दर्शायी गई है। इसमें कोयल की आवाज सुनाई देती है।
(३८) धैवत - -'ऊ' बीजाक्षर युक्त् गंधार वृत्ति विशुद्ध चक्र के उत्तर के सबसे पश्चिम वलय में दर्शायी गई है। इसमें गधे की आवाज सुनाई देती है।
(३९) निषाद - 'ऋ' बीजाक्षर युक्त निषाद ध्वनि विशुद्ध के उत्तर के मध्य पश्चिम में दर्शायी जाती है।
(४०) ॐ - सृष्टि के उत्त्पत्ति, पालन एवं विनाश की मंत्र ध्वनि उत्तर ठीक पश्चिम वलय में 'ऋृ' बीजाक्षर से दर्शाया गया है।
(४१) हुँम - जागृत कुल कुंडलिनी की धनी 'लृ' बीजाक्षर युक्त विशुद्ध चक्र के उत्तर उत्तर वलय दर्शायी गई है।
(४२) फट - सिद्धांत से व्यवहार में बदलने की ध्वनि फट विशुद्ध चक्र के उत्तर के ठीक पूर्व वलय में 'लृृृृृृ.' बीजाक्षर में दर्शायी गई है।
(४३) वौषट - लौकिक ज्ञान का अनुभव कराने वाली वृत्ति विशुद्ध वलय के उत्तर के मध्य पूर्व में "ए" बीजाक्षर से दर्शायी गई है।
(४४) वषट - सूक्ष्म क्षेत्र में कल्याण की वृत्ति वषट उत्तर के सबसे पूर्व में "ऐ" बीजाक्षर से दर्शायी गई है।
(४५) स्वाहा - महान कार्य करने की वृत्ति स्वाह विशुद्ध चक्र के पूर्व वलय में "ओ" बीजाक्षर से दर्शायी गई है।
(४६) नम: - परमपुरुष में समर्पण करने की भावाभिव्यक्ति नम: को "औ" बीजाक्षर में विशुद्ध चक्र के दक्षिण के सबसे पूर्व वलय के रूप में दर्शायी गई है।
(४७) विष - यह वृत्ति "अं" बीजाक्षर में विशुद्ध चक्र के वलय के दक्षिण के मध्य पूर्व में दर्शायी गई है।
(४८) अमृत - "अ:" बीजाक्षर युक्त अमृत वृत्ति विशुद्ध चक्र के दक्षिण के ठीक पूर्व में दर्शायी गई है।
(VI) मानसधारा का मुख्य नियंत्रण बिन्दु आज्ञा चक्र दो वृत्तियाँ अपरा एवं परा है। यह शरीर का चन्द्र मंडल कहलाए है।
(४९) अपरा - लौकिक ज्ञान की वृत्ति आज्ञा चक्र के पश्चिम वलय में "क्ष" बीजाक्षर में दर्शायी गई है।
(५०) परा - आध्यात्मिक ज्ञान की वृत्ति परा आज्ञा चक्र के पूर्व वलय में "ह" बीजाक्षर में दर्शायी गई है।
यह योग मनोविज्ञान को समझकर चलने से व्यक्ति आसान एवं चक्र शोधन का ठीक ठीक अभ्यास करता है। गुरुदेव बताते हैं कि चक्र शोधन सबसे महत्वपूर्ण साधना है। अतः साधक को गंभीरता चक्र शोधन करना चाहिए।
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अध्ययन कर्ता है -[श्री] आनन्द किरण "देव"
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