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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मंत्र मूलं गुरु वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा।।
गुर गीता का यह श्लोक कहता है कि ध्यान का मूल गुरुमूर्ति है। अर्थात गुरु का ध्यान करना ही ध्यान का मूल है। आनन्द मार्ग की साधना में छठां लेशन का नाम 'ध्यान' दिया गया है। जिसमें साधक गुरु का एक विशेष मुद्रा में ध्यान करता है। इसकी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जो आनन्द मार्ग के आचार्य मुमुक्षु को नि:शुल्क सिखाते हैं। लेकिन इससे पूर्व आनन्द मार्ग साधना के पांच लेशन सिखने होते हैं तथा श्री श्री आनन्दमूर्ति जी को गुरु रूप में स्वीकार करना होता है। यह तो प्रक्रिया के बात हुई, अब ध्यान के विषय में चलते हैं।
'ध्यान' शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है कि ध्येय में चित्त को एकीभूत कर देना है। साधक का ध्येय परमपुरुष होता है। अतः परमपुरुष के साथ एकीभूत होने का नाम 'ध्यान' है। चूंकि साधक ने साध्य को देखा नहीं है इसलिए साध्य को गुरु के रूप में देखना सबसे उत्तम, सुगम एवं सरल प्रक्रिया है। इसलिए ध्यान का मूल गुरुमूर्ति को बताया गया है।
गुरुमूर्ति का शाब्दिक विन्यास गुरु की मूर्ति नहीं गुरु+मूर्ति होता है। जिसका अर्थ होता ज्ञान, प्रकाश एवं पूर्णता दाता। इन तीनों में से एक तत्व का भी अभाव होने पर गुरुमूर्ति नहीं कहला सकता है। अतः गुरु सदैव एक पूर्ण पुरुष होते हैं। हम सभी जानते है कि पूर्ण पुरुष मात्र परमपुरुष ही होते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि सद्गुरु अथवा गुरुमूर्ति तारकब्रह्म के अतिरिक्त कोई नहीं होता है। अर्थात गुरुमूर्ति का ध्यान करने का मतलब परमपिता का ध्यान करना है। अतः साधक का साध्य, ध्यानी का ध्येय मात्र एवं मात्र तारकब्रह्म है। जो एक गुरुमूर्ति एवं सद्गुरु है।
अब हम गुरुमूर्ति के ध्यान की ओर चलते हैं। गुरुमूर्ति का ध्यान गुरुचक्र में किया जाता है। गुरुचक्र आध्यात्मिक मानसिक (spiritual psychic) स्थान है। जहाँ मानस तत्व एवंआत्मिक तत्व का संगम होता है। वह गुरुचक्र कहलाता है। अतः निश्चित रूप से गुरुचक्र मन का शिखर एवं आत्मा का पाद बिन्दु होगा। योगतंत्र विज्ञान बताता है कि आज्ञा चक्र में मन तथा सहस्त्रारचक्र में आत्मा का निवास है। अतः गुरूचक्र इन दोनों के बीच की आध्यात्म मानस स्थिति है। जहाँ आध्यात्म प्रधान होता है।
गुरुचक्र का स्वरूप निश्चित रूप से सहस्त्रारचक्र के जैसा होना आध्यात्म विज्ञान सहमत हैं। अतः गुरुचक्र का आकार सहस्त्रारचक्र के जैसा ही होता है। वस्तुतः देखा जाए तो यह सहस्त्रारचक्र का आन्तरिक भाग है। इसलिए योग इससे स्वतंत्र चक्र स्वीकार नहीं करता है। लेकिन तंत्र इस स्वतंत्र चक्र के रूप में स्वीकृति देता है।
गुरुचक्र में साधक गुरु के दिव्यरूप अथवा गुरुमूर्ति का साक्षात्कार करता है। अतः साधक को यहाँ अपनी सभी कपटता, कटुता, एवं चालाकियों छोड़ कर सरल, सहज एवं स्वच्छ रुप में उपस्थित होना होता है। इसलिए ध्यान से पूर्व अपना पूर्ण रूप से शोधन कर लेना होता है। पूर्ण शोधन का अर्थ है एड़ी से चोटी तक का पूर्ण शोधन आवश्यक है। इसके विषय अगले आलेख में चर्चा करेंगे। ध्यान में भक्त एवं भगवान का पिता एवं पुत्र, प्रिया व प्रियतम, सखी, सखा सखी का संबंध होता है। इसलिए ध्यान में किसी भी शब्द अलंकार की जरूरत नहीं होती है। यहाँ भावनाओं का आदान प्रदान होता है। भक्त अपने भावना अपने गुरु के समक्ष रखता है तथा भगवान अपनी कृपा छाया प्रदान करते हैं। यहाँ भक्त एवं भगवान की क्या बात होती है। इससे निश्चित शब्दों में प्रकट नहीं की जा सकती है। यह तो प्रिया एवं प्रियतम का महामिलन है। अतः प्रेमी एवं प्रेमिका ही जानते हैं कि बात शुरुआत कहा से होती तथा क्या बातचीत होती है तथा बात का अन्त कहा होता है। यह प्रेम लोक है, प्रेम लोक की बातें एक प्रेमी ही जान सकता है। अतः साधक को एक मात्र काम करना होता है। अपने प्रभु से प्रेम करना है। प्रेम कैसे किया जाता है कोई नहीं सिखा सकता है। प्रेम तो भाव लोक से जुड़ा होता है इसलिए प्रेम करना होता है अथवा प्रेम हो जाता है। एक दोस्त से दोस्ती कैसे होती है? ठीक उसी प्रकार प्रभु से भक्त को प्रेम हो जाता है। प्रभु से प्रेम सदैव आनन्ददायक होता है। अतः आनन्द लोक है। यहाँ आनन्द ही आनन्द है। इसलिए शास्त्र के ब्रह्म भक्त के आनन्दमूर्ति है। अतः आनन्द सूत्रम कहता है कि आनन्दब्रह्म इत्याहु। जिसका अर्थ है आनन्द ब्रह्म तथा ब्रह्म आनन्द है।
प्रेम एक तरफा होता है अथवा दोनों ओर से होता है। इसके संदर्भ में निश्चित नियम तो नहीं है लेकिन भक्त का प्रेम निस्वार्थ होता है। परमपिता भी कहते की जब तुम मेरी ओर एक कदम चलते हो तब मैं तुम्हारे ओर दस कदम चलता हूँ। ध्यान के बारे कहा गया है कि परमपिता सदैव अपनी संतति का ध्यान रखते हैं।
मधुर भाव साधना
चूंकि हम ध्यान की चर्चा कर रहे हैं इसलिए मधुर भाव साधना की ओर चलना अपना कर्तव्य है। परमपुरुष का सामिप्य पाने के लिए भक्त का मन जब तड़पने लगता है तब मधुर भाव साधना का जन्म होता है। प्रथम वह परमपुरुष के पदचिह्न पर चलना उचित समझता है। इसलिए वह परमपुरुष की कथा कीर्तन अधिक सुनना पसंद करता है। अतः वह उन भक्तों के पास पहुंच जाता है, वो उसके भगवान के बारे में बात करते हैं। यह भाव लोक की साधना का प्रथम चरण है। तत्पश्चात उसका प्रेम परमपुरुष द्वारा उपयोग में लाई वस्तुओं एवं स्थान से होता है। वह बारबार उनके संपर्क में जाता है अथवा संपर्क में रहता है। वह हर रुप अपने प्रियतम की छत्रछाया में रहना पसंद करता है। इस प्रकार भाव लोक में आगे बढ़ते बढ़ते मधुर भाव की ओर चलता है। परमपुरुष द्वारा रिलिज़ की गई सुगंध एवं रस से मदहोश हो जाता है। कईबार तो वह अपनी सुधबुध ही खो बैठता है। वह एक पल भी इस अवस्था से दूर रहना नहीं चाहता है। यह एक मधुर आनंद की अवस्था होती है। जो परमपुरुष की कृपा से ही प्राप्त होती है। धीरे धीरे मनमोहक रुप, स्पर्श एवं ध्वनि उसकी मदहोशी को बढ़ा देती है। अन्ततोगत्वा मधुर भाव साधक प्रभु के प्रेम का दीवाना हो जाता है। उसकी यह दीवानगी हद से पार हो जाती है ओर एकाकार हो जाता है।
ध्यान की प्रक्रिया - यह आचार्य सिखाते हैं।
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आनन्द किरण
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