व्यवस्था परिवर्तन - एक लोक स्वराज (Change in the system - A people's self-rule)


              आनन्द किरण 
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लोक स्वराज के लिए व्यवस्था परिवर्तन जरुरी है। इसलिए आज हम इसी संदर्भ में चर्चा करें। लोक स्वराज को दार्शनिक भाषा में आर्थिक लोकतंत्र कहते हैं। आर्थिक लोकतंत्र का अर्थ सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करना। आज हम राजनैतिक क्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन विश्व में लोकतंत्र की बदहाली देखकर कह सकते हैं कि आज विश्व में कोई राष्ट्र सम्पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं है। क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्य राजनैतिक क्षेत्र की नहीं सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र की विषय वस्तु है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं माना जाए कि आर्थिक लोकतंत्र राजनैतिक क्षेत्र में राजतंत्र की बात कहता है। यद्यपि यह सत्य है कि राजनैतिक क्षेत्र में सत्पुरुषों का आधिपत्य होना चाहिए लेकिन यह सत्पुरुष लोकतंत्र के आधार पर ही काम करेंगे। सत्पुरुषों को दार्शनिक भाषा में सद्विप्र कहते हैं। जिसका अर्थ सत्यनिष्ठ बुद्धिजीवी। इस समाज को केवल बुद्धिजीवियों की आवश्यकता नहीं है सत्यनिष्ठ बुद्धिजीवियों की जरूरत है। कभी लोकतंत्र अपने उद्देश्य को प्राप्त करेगा। 

     लोक स्वराज पर चर्चा कर रहे थे इसलिए लोक स्वराज पर ही पुनः चलते हैं। लोक स्वराज के लिए वर्तमान व्यवस्था कारगर नहीं है। इसलिए व्यवस्था परिवर्तन ही एक लोक स्वराज अर्थात आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकती है। व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई को दार्शनिक भाषा में आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं। आसान भाषा में हम आर्थिक आजादी कह सकते हैं। आर्थिक आजादी की लड़ाई अर्थात सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के आंदोलन में मूलभूत बिन्दु की चर्चा अनिवार्य है। 

(१) रोजगार मूल अधिकार के रूप में मिले - व्यवस्था परिवर्तन अथवा आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम की पहली मांग है कि रोजगार पाना हर नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। अतः रोजगार मूल अधिकार में समाविष्ट होना ही चाहिए। रोजगार राज्य का नीति निर्देशक तत्व नहीं नागरिक का मूल अधिकार है। 

(२) क्रयशक्ति का मूल अधिकार मिले - व्यवस्था परिवर्तन अथवा आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम की दूसरी मांग है कि प्रत्येक नागरिक को क्रयशक्ति का मूल अधिकार दिया जाए। केवल शतप्रतिशत रोजगार ही नहीं व्यक्ति की न्यूनतम आय इतनी हो कि वह अपनी न्यूनतम आवश्यकता  - अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की पूर्ति स्वय से कर सके। जो समाज अथवा राष्ट्र व्यक्ति उसकी न्यूनतम आवश्यकता- अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की गारंटी नहीं दे सकता है, समाज अथवा राष्ट्र कहलाने का अधिकार नहीं रखता है। अतः क्रयशक्ति नागरिक को मूल अधिकार के रूप में मिले। 

(३) गुणीजनों को सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान मिले - समाज को गुणीजनों की आवश्यकता है। अतः समाज के सामाजिक आर्थिक उन्नयन में महत्वपूर्ण सेवा देने वाले शिक्षक, चिकित्सक, वैज्ञानिक, लेखक, कवि, समाज सुधारकों सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान मिलते रहने से उनकी गुणवत्ता सदैव बनी रहती है तथा गुणवत्ता उत्तरोत्तर वृद्धि करती रहेगी। यदि इन गुणीजनों को सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान से वंचित रखा गया तो यह एक व्यवसाय जीवी बन जाएंगे जो  समाज अथवा राष्ट्र के लिए हितकारी नहीं है। आज शिक्षा, चिकित्सा, पत्रकारिता, साहित्यक क्षेत्र में व्यवसायीकरण हो रहा है, जो एक स्वस्थ समाज के लिए खतरनाक है। अतः व्यवस्था परिवर्तन अथवा आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम तीसरी मांग के रूप में गुणीजनों को सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान की रखता है। 

(४) आर्थिक मान अर्थात जीवन स्तर में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहे - व्यवस्था परिवर्तन अथवा आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम अपनी चौथी मांग के रूप में नागरिक जीवन स्तर में उत्तरोत्तर वृद्धि की रखता है। जिसमें समाज का न्यूनतम आर्थिक मान किसी स्तर रूढ़ मूल्यों पर आधारित नहीं रहे, उसमें युग के अनुरूप अपडेट होता रहे। इसके अभाव में युग से समाज एवं नागरिक पिछड़ जाता है। अतः हम मोटरगाड़ी वाले युग में नागरिकों को बैलगाड़ी का पाठ न पढ़ाकर वायुयान प्राप्ति का पाठ पढ़ाएंगे। 

(५) अधिकतम सम्पत्ति का निर्धारण किया जाए - व्यवस्था परिवर्तन अथवा आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम यहाँ पर आकर एक क्रांतिकारी आंदोलन के रूप में परिणत हो रहा है। जहाँ यह पांचवी मांग रखता है कि नागरिक अधिकतम सम्पत्ति का निर्धारण किया जाए। धन कमाना एवं भौतिक सम्पदा जुटाना सभी को मूल अधिकार है लेकिन भौतिक संपदा के समिति होने के कारण अधिकतम सम्पत्ति की एक सीमा रेखा बनाना अति आवश्यक है ताकि कोई भी भौतिक संपदा से वंचित न रहे। किसी भी नागरिक भौतिक संपदा अथवा इतना अधिक धन रखने का अधिकार नहीं है कि वह समाज अथवा राष्ट्र को अपने व्यष्टिगत स्वार्थ की बलिवेदी पर चढ़ा ले अथवा सम्पूर्ण राष्ट्र की संपदा पर अपने  महत्वाकांक्षा बिठा दे। अतः समाज के आदेश के बिना किसी का भी अंधाधुंध धन संचय अकर्तव्य है। 

(६) सहकारी के आदर्श को स्थापित किया जाए -  समाज का गुण है - सहभागिता। अतः लघु आर्थिक क्रियाएँ निजी तौर पर तथा मध्यम एवं वृहद आर्थिक क्रियाएँ सहकारिता के बल पर चलाई जाए। जिसमें आदर्श मूल्यों का होना आवश्यक है। राष्ट्रीय हित के तथा अधिक वृहद उद्योग को राष्ट्र अथवा राज्य के द्वारा न लाभ न हानि के सिद्धांत पर चलाया जाना चाहिए। अतः समाज में आदर्श सहकारिता स्थापित करने की छठी मांग करता है। सहकारिता का तंत्र जितना अधिक विकसित होगा उतना ही अधिक सामाजिक गुण प्रतिष्ठित होगे। 

(७) अधिकतम उत्पादन एवं विवेकपूर्ण वितरण की आवश्यकता है - आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम अथवा व्यवस्था परिवर्तन का यह आंदोलन यहाँ आकर विप्लवी स्वरूप धारण कर रहा है। वह कहता है प्रत्येक वस्तु एवं तथ्य का अधिक से अधिक उपयोग हो। इसके व्यक्ति को स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत का चरमोत्कर्ष करना होगा तथा उससे उत्पन्न वाली संपदा का विवेकपूर्ण वितरण करना ही होगा। विवेकपूर्ण वितरण में न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी तथा गुणीजनों का सम्मान की मूल नीति को लेकर चलना ही होगा। 

(८) अधिकतम उपयोग एवं उपयोग में सुसंतुलन हो - समष्टि एवं व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का चरम उपयोग हो तथा इसमें एक सुसंतुलन की नीति होना आवश्यक है।  यह आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम अथवा व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन आठवीं मांग के रूप में रखता है। 

(९) परिवर्तनशील उपयोगिता, उपयोगिता को प्रगतिशील बनाती है - देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता को परिवर्तनशील रखा जाए तथा जो उपयोगिता है वह प्रगतिशील बन जाती है। अतः सम्पूर्ण धरा को सामाजिक आर्थिक इकाई में बाटकर सम्पूर्ण एवं चहुंमुखी विकास किया जाए, जिसमें शिशु, बालक, किशोर, युवा, प्रोढ़ व वृद्ध तथा पुरुष एवं स्त्री के शारीरिक क्षमता को ध्यान रखते हुए उपयोगिता सूत्र बनाना चाहिए तथा युग का भी ध्यान रखना आवश्यक है। 

(१०) किसान, मजदूर एवं अभावग्रस्त का विशेष ध्यान रखा जाए - आर्थिक स्वतंत्रता संग्राम अथवा व्यवस्था परिवर्तन का आंदोलन कहता है कि किसानों के हित के कृषि को उद्योग दर्जा दे ताकि अपने उत्पाद मूल्य स्वयं निर्धारित करें तथा श्रमिक की व्यवस्था क्षेत्र में भागीदारी तथा उसकी आय व भौतिक व्यवस्था का आदर्श मान रखा जाए। यद्यपि आदर्श व्यवस्था में कोई अभावग्रस्त नहीं होता है लेकिन आदर्श व्यवस्था आने तक उसका ध्यान रखा जाए। 

(११) शिक्षा एवं चिकित्सा राजनैतिक हस्तक्षेप दूर एवं व्यवसायीकरण से मुक्त हो।

(१२) प्रशासनिक, बैकिंग एवं अन्य सभी व्यवस्था में आदर्श प्रतिमान स्थापित किया जाए - यम नियम में प्रतिष्ठित व्यक्ति को ही सार्वजनिक सेवा में लेना आवश्यक है। 

इन बाहर मांग के आधार पर स्थापित व्यवस्था लोक स्वराज कहलाएगा। 

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            करण सिंह

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Anand Kiran

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Change in the system is necessary for people's self-rule. Therefore, let us discuss in this context today. People's self-rule is called economic democracy in philosophical language. Economic democracy means establishing democratic values ​​in the socio-economic field. Today we are trying to establish democratic values ​​in the political field, but seeing the plight of democracy in the world, we can say that today no nation in the world is completely democratic. Because democratic values ​​are the subject matter of the socio-economic field and not the political field. It should never be assumed that economic democracy talks about monarchy in the political field. Although it is true that there should be supremacy of good men in the political field, but these good men will work only on the basis of democracy. Good men are called Sadvipra in philosophical language. Which means truthful intellectuals. This society does not need only intellectuals, it needs truthful intellectuals. Someday democracy will achieve its objective.

We were discussing Lok Swaraj, so let us go back to Lok Swaraj. The present system is not effective for Lok Swaraj. Therefore, only system change can establish Lok Swaraj i.e. economic democracy. This fight for system change is called economic freedom struggle in philosophical language. In simple language we can call it economic freedom. In the fight for economic freedom i.e. the movement for complete system change, it is essential to discuss the fundamental point.

(1) Employment should be given as a fundamental right - The first demand of system change or economic freedom struggle is that getting employment is the birthright of every citizen. Therefore, employment must be included in the fundamental rights. Employment is not a directive principle of state policy but a fundamental right of the citizen.

(2) Basic right of purchasing power should be given - The second demand of system change or economic freedom struggle is that every citizen should be given the basic right of purchasing power. Not only 100% employment, the minimum income of a person should be such that he can fulfill his minimum needs - food, clothing, housing, medical care and education on his own. A society or nation which cannot guarantee a person his minimum needs- food, clothing, shelter, medical care and education, does not have the right to be called a society or a nation. Therefore, purchasing power should be given to the citizen as a fundamental right.

(3) Meritorious people should get social and economic respect - Society needs talented people. Therefore, teachers, doctors, scientists, writers, poets, social reformers who give important services in the socio-economic development of the society, if they get social and economic respect, their quality remains intact and will keep on increasing gradually. If these talented people are deprived of social and economic respect, then they will become business people, which is not beneficial for the society or the nation. Today, commercialization is taking place in the field of education, medicine, journalism, literature, which is dangerous for a healthy society. Therefore, the third demand of system change or economic freedom struggle is social and economic respect for talented people.

(4) Economic standard i.e. standard of living should keep on increasing - Vyavastha Parivartan or Economic Freedom Struggle places a progressive increase in the standard of living of citizens as its fourth demand. In which the minimum economic standard of the society should not be based on any traditional values, it should keep on updating according to the times. In the absence of this, society and citizens lag behind the times. Therefore, in the era of motor vehicles, we will not teach the citizens the lesson of bullock cart but the lesson of getting an aeroplane.

(5) Maximum wealth should be determined - Vyavastha Parivartan or Economic Freedom Struggle is turning into a revolutionary movement at this point. Where it places the fifth demand that the maximum wealth of the citizens should be determined. Earning money and accumulating material wealth is the fundamental right of everyone but due to the limitation of material wealth, it is very important to make a limit of maximum wealth so that no one is deprived of material wealth. No citizen has the right to possess material wealth or so much money that he sacrifices the society or the nation on the altar of his personal interest or sets his ambitions on the wealth of the entire nation. Therefore, indiscriminate accumulation of wealth by anyone without the order of the society is not obligatory.

(6) The ideal of cooperation should be established - The quality of society is - participation. Therefore, small economic activities should be run privately and medium and large economic activities should be run on the basis of cooperation. In which it is necessary to have ideal values. Large industries of national interest should be run by the nation or the state on the principle of no profit no loss. Therefore, the sixth demand is to establish ideal cooperation in the society. The more the system of cooperation develops, the more social qualities will be established.

(7) Maximum production and judicious distribution is required - This movement of economic freedom struggle or system change is taking a revolutionary form here. It says that every object and fact should be used to the maximum. For this, a person will have to reach the pinnacle of the gross, subtle and causal world and use the wealth produced from it judiciously. We will have to save money. In judicious distribution, we will have to follow the basic policy of guaranteeing minimum needs and respecting talented people.

(8) Maximum use and balance in use - The physical, mental and spiritual capacity of the society and the individual should be used to the maximum and it is necessary to have a policy of balance in this. This is the eighth demand of the economic freedom struggle or the movement for system change.

(9) Variable utility makes utility progressive - Utility should be kept variable according to the country, time and person and the utility that is there becomes progressive. Therefore, the entire earth should be divided into socio-economic units and complete and all-round development should be done, in which a utility formula should be made keeping in mind the physical capacity of infants, children, teenagers, youth, adults and old people and men and women and it is also necessary to keep the era in mind.

(10) Special care should be taken of farmers, labourers and the poor - The economic freedom struggle or the movement for system change says that agriculture should be given the status of industry for the benefit of farmers so that they can decide the price of their produce themselves and the ideal standard should be maintained for the participation of labourers in the system and their income and material arrangements. Although in the ideal system no one is poor, but till the ideal system is established, care should be taken of them.

(11) Political interference should be removed from education and medical care and it should be free from commercialization.

(12) Ideal standards should be established in administrative, banking and all other systems - It is necessary to take only those persons who are reputed in Yama Niyama in public service.

The system established on the basis of these demands will be called Lok Swaraj.

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Karan Singh



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