आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार (Self-knowledge and self-realization)


आध्यात्मिक जगत में सफल इंसान पहचान आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार से की जाती है। यद्यपि यह दोनों परमपद नहीं है तथापि माना जाता है कि जिसको आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार हो गया है, वह अपने स्वरुप को जान गया है। इसलिए आज हम आत्मज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार के संदर्भ में चर्चा करेंगे। 

शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य का जीवन मुक्ति एवं मोक्ष के लिए मिला है। जो व्यक्ति अपने इस दायित्व का निवहन नहीं करता है, वह मनुष्य जीवन का महत्व नहीं समझ पाया है। मनुष्य को अपने जीवन लक्ष्य को समझे इसके लिए स्वयं परमपुरुष ने भी महासंभूति की अभिकल्पना की है। वे अपने महासंभूति काल में सदगुरु की प्रत्यक्ष भूमिका निभा कर मनुष्य को सत्पथ की राह दिखाते हैं। इसके अतिरिक्त कई मुक्त पुरुष अथवा जीवन मूल्य को जान चुके महापुरुष व्यक्ति को जीवन दर्शन का ज्ञान कराने के लिए प्रयास करते हैं। मनुष्य के जीवन दर्शन पर अब तक हुए समस्त शोधपत्र बताते है कि मनुष्य का जीवन के तीन अंग शरीर, मन एवं आत्मा है। इसलिए भारतीय शास्त्र मनुष्य के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास का चिन्तन देता है। आज हम आत्मज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार के विषय को समझने के लिए इसी क्रम की सहायता लेंगे। 

*आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार की यात्रा पर* मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीव शरीर, मन एवं आत्मा नामक तीन तत्व का समुच्चय है। इसलिए आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार के राही को इसे समझकर ही आत्म ज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार होता है। इस विषय को समझने से पूर्व आत्म ज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार का अर्थ जान लेते हैं। आत्म ज्ञान का अर्थ है। आत्मा अथवा आत्मतत्व का ज्ञान एवं भान होना। आत्म साक्षात्कार का अर्थ आत्मा अथवा आत्म तत्व से मिलना। अब हम आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार की यात्रा पर निकल पड़ते हैं। शरीर के बारे में जान लेते हैं। 

(1) शरीर - प्रत्येक जैविक सत्ता के पास एक शरीर होता है। जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश नामक पांच तत्व से मिलकर बना होता है। अजैविक में यह अवस्था भौतिक अवस्था कहलाती है। समष्टि में भी इस अंग भौतिक ही कहा जाता है। पृथ्वी तत्व का अर्थ शरीर ठोस अंग जैसे कंकाल, विभिन्न तंत्र, अंग एवं मांस है। जल तत्व में जल, रक्त, होर्मोंस, एन्जाइम एवं अन्य तरल अंग है। अग्नि के अन्दर उर्जा आती है तथा वायु के प्राणवायु का स्थान है। इस प्रकार अन्य सूक्ष्म अथवा अति सूक्ष्म अंग अथवा रिक्तिकाएँ आकाश तत्व की परिधि में है। यह शरीर अपना काम ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों के माध्यम से करता है। यही से जीव का सलंग्न मन से होता है। इसका ज्ञान हम मन नामक अंग में करेंगे। लेकिन इस पूर्व बता दिया जाता है कि पांच तत्व के जीव जिन्हें सजीव कहा जाता है तथा तीन तत्व जीव नामक दो जीवों की श्रेणियाँ संसार में है। वास्तव में यह श्रेणियाँ मात्र मानव में है। तीन तत्व के जीवों में पृथ्वी एवं जल तत्व का अभाव होता है। अतः इन्हें एक विशेष तरंग पर देखा, स्पर्श, सुना अथवा महसूस किया जा सकता है। इन्हें पराभौतिक शरीर अथवा संस्कृत में देव योनी कहा जाता है। आज हमारा विषय यह नहीं है। इसलिए इस पर चर्चा नहीं करेंगे।

(ii) मन - चित्त, अहम एवं महत् का समुच्चय मन कहलाता है। चित्त स्थूल मन (काममय कोष) , सूक्ष्म मन ( मनोमय कोष) एवं कारण मन ( अतिमानसमय कोष, विज्ञान मय व हिरण्यमय कोष)का समुच्चय है। उसी प्रकार कारण मन भी अतिमानसमय कोष, विज्ञान मय व हिरण्यमय कोष नामक तीन कोषों का समुच्चय है। चित्त से अहम की परिधि का बढ़ना बुद्धि तथा अहम से महत् की परिधि बढ़ना बोधी कहलाती है। चित्त भौतिक शरीर से प्राण नामक तत्व से जुड़ा होता है। अतः मन को नियंत्रित करने के लिए प्राणायाम सिखा जाता है। 

(३) आत्मा - इसे सर्व प्रतिसंवेदी अथवा साक्षीभाव के रूप में चित्रित किया गया है। इसे चित्तिशक्ति, अथवा चैतन्य भी कहते हैं। व्यष्टिगत रूप अणु चैतन्य अथवा समष्टिगत रुप में भूमा चैतन्य कहते हैं। 

आत्मज्ञान अथवा आत्म साक्षात्कार - शरीर, मन एवं आत्मा के विस्तृत ज्ञान के बाद भी आत्मज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार से बहुत दूर है। यह सैद्धांतिक ज्ञान है जबकि आत्मज्ञान एवं आत्म साक्षात्कार तो व्यवहारिक होता है। जब साधक साधना के माध्यम से जान एवं पहचान लेता है तब आत्मज्ञान होता है तथा उसके रुबरु हो जाता है तब आत्म साक्षात्कार कहलाता है।
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                 आनन्द किरण
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