स्वधर्म एवं परधर्म
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आनन्द किरण
संस्कृत व्याकरण के अनुसार धर्म शब्द धृ धातु के उत्तर में मन प्रत्यय लगने से बना है। जिसका अर्थ है धारण करना। वस्तुतः शाब्दिक अर्थ से स्पष्ट नहीं होता है कि क्या धारण करना धर्म है। इसलिए गूढ़ार्थ की ओर जाते है। उसके अनुसार वह गुण धारण करना, जिसके कारण उस सत्ता अस्तित्व निष्पन्न होता है तथा बना रहता है। वह तथ्य धारण करना ही धर्म कहा गया है। अब हम कुछ उदाहरण के माध्यम से धर्म शब्द का भावार्थ समझते हैं। आग अपनी दाहकता गुण के कारण अपना अस्तित्व बनाये रखती है। अतः आग का धर्म दाहकता हुआ। यदि वह स्वयं जलेगी नहीं तथा जलाएंगी नहीं तो उसे आग नहीं कहा जाएगा। ठीक उसी प्रकार जल का धर्म तरलता है, दूध का धर्म धवलता, सूर्य का धर्म प्रकाश तथा जीव का धर्म प्राण है। यदि सजीव में प्राण नहीं है तो वह सजीव से निर्जीव में बदल जाएगा। धर्म शब्द को अच्छी तरह समझने के कुछ कु प्रवृति के उदाहरण लेते हैं। चोरी करना चोर का स्वभाविक गुण है। इसके चोर अस्तित्व नहीं रहता है। अतः चोर का धर्म चोरी करना है। चूंकि धर्म सू अर्थ में है, इसलिए चोर का गुणधर्म बोला जाता है। इसीप्रकार डाकू डकैती, लूटेरा लूट एवं आततायी आतंक के कारण उस रुप में अपना अस्तित्व रखता है। कोई भी धर्मज्ञ धर्म को इस अर्थ में समझाना नहीं चाहेंगे क्योंकि धर्म अच्छाई का प्रतीक है। अतः हम मानव के धर्म समझने के लिए निकलते हैं।
मनुष्य के उत्पति जीव जगत से होती है। अतः मनुष्य पहले एक जीव है। अतः जीव होने के कारण जैन धर्म के अंग आहर, निंद्रा, भय, निंद्रा एवं मैथुन का निवहन करता है। लेकिन मनुष्य मात्र जीव ही नहीं है। उसकी अन्य चारित्रिक विशेषता भी है। अतः धर्म का सबसे अधिक मूल्य मनुष्य के जीवन में है। मनुष्य शब्द का अर्थ बताते हैं कि मन प्रधान प्राणी। अर्थात वह जीव जिसका मन प्रधान एवं शरीर गौण है। जबकि अन्य जीवों में शरीर प्रधान होता है। मनुष्य के अंदर मन की प्रधानता उसे भावनात्मक एवं ज्ञानात्मक बनाती है। भावनात्मक जीव के रूप में मनुष्य भावना से जुड़ा हुआ होता है। उसी कारण वह कभी अपने को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बोद्ध, पारसी एवं यहुदी इत्यादि कहता है। यह भावना जन्मगत, परिवेशगत एवं कर्मगत से सृजित होती है। सूर व असूर मनुष्य की दो श्रेणियाँ है। जो भावनाएँ मनुष्य को सत् पथ पर ले जाती है, वह सूर अथवा अच्छी श्रेणी कहलाती है। यहाँ सृजन एवं सकारात्मक गुण होते हैं। जो भावनाएँ मनुष्य को असत् पथ पर ले चलती है। वह असूर श्रेणी है। यहाँ विनाश एवं नकारात्मक गुण होते हैं। वस्तुतः सूर श्रेणी मनुष्य के लिए इसलिए इन्हें मानव कहते हैं।मानव उत्तरोत्तर देवता, ईश्वर, भगवान एवं परमतत्व ब्रह्म श्रेणी में परिवर्तित हो सकता है। ठीक उसी प्रकार असूर श्रेणी मनुष्य के लिए नहीं है। अतः इन्हें दानव कहते हैं। दानव अपने स्वभाव के राक्षस, दैत्य एवं पिशाच कहलाता है। मनुष्य को समझने की यात्रा में हम बहुत लंबे चले गए इसलिए पुनः विषय की ओर चलते हैं। मानव का धर्म क्या है?
चूंकि मनुष्य एक सू प्रवृत्ति का है इसलिए मनुष्य का धर्म वह है, जिसके कारण मनुष्य को मनुष्य कहा जा सकता है। इसे मानवता अथवा अधिक गहराई में नव्य मानवता के गुण धारण करने वाले के अर्थ में कहा जाता है। मानवता वस्तुतः क्या है? मानवता एक व्यापकता है। चूंकि मानवता मनुष्य तक जाकर रुक जाती है। इसलिए नव्य मानवता की अवधारणा आईं। नव्य मानवता विशालता है, जो सम्पूर्ण जीव जगत एवं सृष्टि को आत्मसात करती है। अतः मनुष्य का स्वाभाविक धर्म अथवा स्वधर्म वृहद प्रणिधान है। इसलिए आनन्द सूत्रम वृहदेषणा प्रणिधानं च धर्म: अर्थात वृहद को पाने की एषणा है, उसका प्रणिधान करना ही धर्म है। अतः मनुष्य का धर्म विराटत्व प्राप्त करना है। विराटत्व का अर्थ पूर्णत्व प्राप्त करना है। यही मनुष्य का स्वधर्म है। कुछ भूलवश जिस जाति अथवा सम्प्रदाय में जन्म हुआ है। उस जाति अथवा सम्प्रदाय को स्वधर्म समझ लेता है। यदि मनुष्य का यह सम्प्रदाय, मजहब अथवा रिलिजन उसे विराट नहीं बना सकता है तो वह मनुष्य का स्वधर्म नहीं हो सकता है। क्योंकि वह मनुष्य शब्द परिभाषा में खरा नहीं उतरता है। अतः अपनी जाति, सम्प्रदाय, मत, पथ, महजब व रिलिजन को स्वधर्म समझना एवं कहना तथा दूसरे की जाति, सम्प्रदाय, मत, पथ, मजहब एवं रिलिजन को परधर्म समझना एवं कहना एक गलत धारण है।
स्वधर्म एवं परधर्म की समझ को विकसित करने के लिए मनुष्य को मानव से देवता, देवता से ईश्वर, ईश्वर से भगवान एवं भगवान से परमतत्व ब्रह्म बनाता है। वह मनुष्य का स्वधर्म है। आधुनिक भाषा में पुरुष से सज्जन पुरुष साधु, सज्जन पुरुष से महापुरुष तथा महापुरुष से परमपुरुष बनाने की ओर ले जाने वाले लक्षण, गुण एवं तथ्य मानव के स्वधर्म है। इसके विपरीत मनुष्य को दानव, दैत्य, पिशाच, शैतान, पशु अथवा जड़ बानाने की यात्रा परधर्म है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायिकता अथवा मजहबवाद इत्यादि परधर्म है। इसके विपरीत एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की अभिकल्पना, विश्व बंधुत्व, नव्य मानवतावाद, वैश्विक दृष्टिकोण, यूनिवर्सल आउटलुक तथा आध्यात्मिक गति स्वधर्म है। सामाजिक आर्थिक जगत में सहभागिता, सहकारिता, सहानुभुति, सौहार्द, सामाजिकता एवं इंसानियत धर्म है। निजीकरण, पूंजीवाद, साम्यवाद एवं बनियनवाद अधर्म है। जो धर्म है वह मनुष्य के लिए स्वधर्म तथा जो अधर्म है, वह मनुष्य के लिए परधर्म है।
आओ मनुष्य को स्वधर्म मानव धर्म से परिचय कराते हैं तथा परधर्म जाति, सम्प्रदाय, मत मतान्तर, पंथवाद, मजहबी, रिलिजनी मानसिकता परधर्म से अलग करते हैं।
*आनन्द किरण "देव"*
उर्फ करण सिंह राजपुरोहित
शिवतलाव(पाली) हाल जयपुर राजस्थान, भारतवर्ष
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