प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive utilization theory)

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अर्थव्यवस्था का आधार स्तंभ उपयोग तत्व है। जब यह उपयोग तत्व प्रगतिशील होता है। तब अर्थव्यवस्था को आदर्श अर्थव्यवस्था कहा जाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि आदर्श अर्थव्यवस्था, आदर्श समाज एवं आदर्श विश्व राष्ट्र का आधार स्तंभ प्रगतिशील उपयोग तत्व है। इसलिए आज हम चर्चा प्रगतिशील उपयोग तत्व की करेंगे। 

आधुनिक युग के महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार ने उपयोग तत्व को प्रगतिशील उपयोग तत्व के रूप में स्थापित करके दिखाया। आज हम उसी पर चर्चा करेंगे। प्रगतिशील उपयोग तत्व होने के लिए निम्न तीन तत्व की आवश्यकता है। 

(१) एक जीवंत समाज चक्र - किसी भी समाज, विश्व राष्ट्र तथा अर्थव्यवस्था को प्रगतिशील उपयोग तत्व पर स्थापित करने के लिए प्रथम प्रयास एक जीवंत समाज चक्र की आवश्यकता है। अतः श्री प्रभात रंजन सरकार ने विश्व इतिहास एवं समाज संरचना का अध्ययन करके बताया कि समाज चक्र एक निश्चित क्रम में घूमता है। समाज चक्र की धारा के प्रमुख चार घटक शूद्र वर्ण, क्षत्रिय वर्ण, विप्र वर्ण एवं वैश्य वर्ण है तथा यह समाज चक्र सदैव इसी क्रम में क्रमशः शूद्र, क्षत्रिय, विप्र तथा वैश्य की धारा में आयाम(dimensio)   होता है। यह क्रम निश्चित है। आज तक यह क्रम भंग नहीं है। यदि कई इसका क्रम भंग दिखाई दे तो वह आपात स्थित है। जिसको श्री प्रभात रंजन सरकार अपने आगे सूत्रों में समझाते हैं। वर्ण प्रधान चक्र धारायाम आते ही विद्जन के मन में प्रश्न उठता है। वर्ण व्यवस्था भारतीय जातिप्रथा की जननी है तथा उसने भारत में सामाजिक भेदभाव तथा अस्पृश्यता को घिनोना अध्याय लिखा है। यह अर्थव्यवस्था की प्रगतिशीलता का सूचक कैसे हो सकता हैं? प्रश्न वाजिब है इसलिए जबाब भी आवश्यक है। वर्ण व्यवस्था मनुष्य के अंदर विद्यमान आर्थिक सामर्थ्य की भौतिक जगत में अभिव्यक्ति है। अतः इसका जातिभेद एवं अस्पृश्यता से कोई संबंध नहीं है। व्यक्ति के सेवा, शौर्य, बौद्धिकता एवं वणिक वृत्ति नामक चार मूलभूत कौशल होते हैं। प्राचीन भारतीय अर्थशास्त्रियों ने इसे चार वर्णों में व्यस्थित किया था। जिसका पूर्णतया आर्थिक जगत से संबंध था। इसलिए इसे कर्म प्रधान सिद्धांत पर स्थापित किया गया था। समाज में इन वर्णों के आधार पर किसी न किसी एक वर्ण की प्रधानता रहती है। वह युग उसी वर्ण के नाम पर जाना जाता है। यह समाज चक्र एक निश्चित नियम से गतिमान है, उसे स्वभाविक परिवर्तन कहते हैं। जब किसी युग में प्रभावशाली वर्ण समाज के अन्य घटकों का सामाजिक आर्थिक शोषण करने लग जाता है। तब समाज चक्र के केन्द्र में बैठा एक अतिविशिष्ट घटक जो सद्विप्र के नाम से जाना जाता है। वह समाज चक्र की गति अपने हिसाब परिवर्तित करता है। यह समाज चक्र की आपात स्थितियां कहलाती है। जब स्वाभाविक परिवर्तन से पूर्व शक्ति संपात के माध्यम से सद्विप्र गतिधारा की दिशा में द्रुतगति देता है, तो उसे क्रांति कहते हैं। यह गति तीव्र शक्ति संपात के माध्यम से अधिक द्रुतगति प्राप्त करता है, तब विप्लव नाम से जाना जाता है। किसी कारण एक युग के बाद परवर्ती युग जिम्मेदारी लेने की योग्यता नहीं रखता है, तो शोषणकारी वर्ण को हटाकर जिम्मेदारी पूर्ववर्ती युग को जिम्मेदारी दी जाती है। इसे विक्रान्ति कहते हैं तथा तीव्र शक्ति संपात के फलस्वरूप चक्रधारा के विपरीत गति को प्रतिविप्लव कहा जाता है। विक्रान्ति एवं प्रतिविप्लव चक्र धारा के विपरीत होने के कारण यह क्रमशः अस्थाई तथा क्षण अस्थायी है। अतः समाज चक्र में आपात स्थिति दिख सकती है। परन्तु फिर चक्र की गति स्वभाविक हो जाती है। इस प्रकार शूद्र के बाद क्षत्रिय युग, क्षत्रिय युग के बाद विप्र युग तथा विप्र युग के वैश्य युग आना चक्र का एक घूर्णन पुरा करता है लेकिन चक्र की गति रुकती नहीं है तथा एक घूर्णन के बाद पुनः द्वितीय घूर्णन की ओर चल पड़ता है। चक्र इस गति को परिक्रान्ति कहा जाता है। 

(२) समाज की मूल नीति - मनुष्य के समूह को समाज के रूप में संगठित होने के लिए एक चतुष्पाद मूल नीति होना आवश्यक है। वैचित्र्य प्राकृत धर्म, न्यूनतम आवश्यक की गारंटी, गुणीजन का सम्मान तथा वर्धमान आर्थिक मानक है। यह सृष्टि विचित्रता से भरी पड़ी है। यही इसका धर्म है। अतः मनुष्य का समाज कभी भी समानता की मनभावन उक्ति पर स्थापित नहीं हो सकता है। इसमें विभिन्नता एवं विचित्रता अवश्य रहती है। अतः समष्टि अर्थव्यवस्था की धुरी व्यष्टि अर्थव्यवस्था के वैशिष्ट्य पर टिकी हुई। इसको भूलने से नहीं चलेगा। अतः व्यक्ति की विशिष्टता को अस्वीकार कर कोई भी सामाजिक आर्थिक मूल्य प्रगतिशील उपयोग तत्व नहीं हो सकता है। समाज का द्वितीय पाद व्यक्ति की पंच न्यूनतम आवश्यकता है। अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सभी के लिए विधेय है। यदि इसकी गारंटी समाज की ओर से नहीं मिलती है। समाज तत्व का संगठन नहीं हो सकता है। अतः व्यष्टि को समष्टि की ओर से न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी मिलना आवश्यक है। समाज का तृतीय पाद गुणवत्ता का आदर है। प्रतिभा संपन्न व्यष्टि को समाज में विशेष सामाजिक आर्थिक सम्मान मिलना आवश्यक है। इसके अभाव में समाज तत्व का संगठन शुद्धता को प्राप्त नहीं कर सकता है। उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाने के लिए चतुष्पाद समाज के आर्थिक मान का वृद्धि मान होना आवश्यक है। निम्न आर्थिक मान में बढौतरी होने से अर्थव्यवस्था कभी भी रुग्ण नहीं हो सकती है। 

(३) समाज के मूल सिद्धांत - प्रगतिशील उपयोग तत्व के लिए समाज पांच मूल सिद्धांत मानकर चलना होगा। प्रथम - समाज के आदेश के बिना धन सञ्चय अकर्तव्य है, द्वितीय - स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत की संपदा का चरमोत्कर्ष करना व विवेकपूर्ण वितरण करना, तृतीय मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक चरमोपयोग करना, चतुर्थ - समष्टि एवंशारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना के उपयोग में सुसंतुलन बनाये रखना तथा पंचम - देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता का परिवर्तन रहने पर ही उपयोगिता प्रगतिशील बनी रहती है। समाज में झगड़ा एवं असंतुलन की जड़ , अनाधिकृत धन का सञ्चय है। अतः प्रगतिशील उपयोग तत्व प्रथम सिद्धांत ही देता है कि सञ्चय प्रवृत्ति पर समाज का आदेश स्थापित करना। मनुष्य के  अभाव एवं समाज में अव्यवस्था का द्वितीय मूल बिन्दु संसाधनों का पूर्ण दोहन नहीं होना तथा वितरण की दोषपूर्ण पद्धति है। अतः प्रगतिशील उपयोग तत्व द्वितीय सिद्धांत के रूप में स्थूल (भौतिक), सूक्ष्म (मानसिक) एवं कारण ( आध्यात्मिक जगत) में जो कुछ भी उपलब्ध है, उसका चरमोत्कर्ष करना एवं उत्कृष्ट संपदा का विवेकपूर्ण वितरण करना है। चरमोत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण में एक भी कड़ी अव्यवस्थित रही तो प्रगतिशील उपयोग तत्व नहीं बन सकता है। समाज में अव्यवस्था व अपराध का तीसरा कारण है मानवीय क्षमता का पुरा उपयोग नहीं होना है। अतः प्रगतिशील उपयोग तत्व मानव की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना का चरमोपयोग करता है। न तो मानवीय क्षमता अनुपयोगी रहेगी तथा न ही व्यर्थ उपयोग की ओर जाएगी। समाज की अवस्था का चौथा कारण समष्टि एवं व्यष्टि में असंतुलन है। अतः प्रगतिशील उपयोग तत्व इस समष्टि एवं व्यष्टि की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता में सुसंतुलन स्थापित करता है। समाज की प्रगतिशीलता को सुरक्षित करने वाला पांचवा सिद्धांत - देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता का परिवर्तनशील रहना है। यह सूत्र उपयोगिता को प्रगतिशील बनाता है। जब तक उपयोगिता प्रगतिशील बनी रहती है तब तक अर्थव्यवस्था शुद्ध एवं उच्च मानदंड पर स्थापित होती रहती है। अर्थव्यवस्था की शुद्धता एवं उच्चता बनी रहने पर समाज की छवि समानं इजति इति समाज: बनी रहती है। एक, अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज के लिए प्रगतिशील उपयोग तत्व की आवश्यकता है। 
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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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