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[श्री] "देव"
आनन्द किरण
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महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार के अनुसार भारत शब्द भर एवं तन धातु के सहयोग से बना है। जिसमें भर का अर्थ भरण पोषण एवं तन का विस्तार अर्थात समग्र विकास है। भारत शब्द के पीछे वर्ष जुड़ने से एक राष्ट्र का पूरा नाम बनता है। वर्ष के अनेक अर्थ में से एक अर्थ भूभाग भी है। अर्थात वह भूभाग जहाँ मनुष्य भरणपोषण एवं समग्र विकास(प्रगति) सुनिश्चित कर सकें, वह भारतवर्ष है। जिस देश के नाम में यह महान लक्षण विद्यमान हो निसंदेह उस देश का स्वर्णिम भविष्य भी निहित है। भारतवर्ष में आत्मनिर्भर बनने का सामर्थ्य है लेकिन वह सरकार की खोखली नीति से नहीं, वह समाज की मजबूत नीति से संभव है। यहाँ समाज शब्द का अर्थ वह सामाजिक आर्थिक इकाई जिसे एक विशेष आर्थिक जोन बनाकर भारतवर्ष को उस मूलाधार पर स्थापित किया जा सकता है, जहाँ भारतवर्ष होना चाहिए। आज शहर में तथा अल्प क्षेत्र में बढ़ता हुआ जनसंख्या का दबाव भारतवर्ष को दिशाहीन बना रहा है। महानगर मनुष्य के जीने योग्य नहीं रहे फिर भी हम महानगर की चाहत में ही बढ़ रहें। यह वर्तमान राजनीति की खोखली नीतियाँ है, जो देश को दीमक की भाँति खाएं जा रही है।
मेरे आज के विद्वानों से छंद प्रश्न है।
(१) क्या हमने हमारे देश के समस्त 150 करोड़ भाई-बहिनों को अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा रुपी पंच न्यूनतम आवश्यक की पूर्ति गारंटी दे पा रहे हैं?
उत्तर - नहीं, तो हम भारतवर्ष उचित मूलाधार पर खड़ा नहीं कर पा रहे हैं।
(२) क्या हम हमारे देश कि प्रतिभाओं (talents) को उपयुक्त आदर, सम्मान एवं प्रतिमान दे पाए हैं?
उत्तर - नहीं, यदि हम ऐसा कर पा रहे होते तो हमारे राष्ट्र की प्रतिभाएं राष्ट्र से पलायन को सुलभ नहीं समझते।
(३) क्या हम हमारे संसाधनों एवं धन का विवेकपूर्ण वितरण कर पाए?
उत्तर - नहीं, यदि ऐसा कर पाते तो हम भूख के सूचकांक (hunger index) तथा गरीबी के सूचकांक (poverty index) के उपर नहीं होते।
(४) क्या हमने हमारे विकास का मानक पैमाना (standard scale) सही निर्धारित किया है?
उत्तर - नहीं, यदि ऐसा होता तो हमारे विकास का आदर्श मॉडल खोखला नहीं होता। विकास इमारतों एवं सड़कों की चकाचौंध नहीं है, विकास मनुष्य के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक सुख में चरम वृद्धि है। यदि इनमें से किसी एक के अवहेलना अथवा अधूरापन विकास के खोखले दावे है।
(५) क्या हम गाँव से पलायन एवं शहरों में बढ़ती भीड़ को रोकने में कामीयाब हो पाए?
उत्तर - नहीं, ऐसा दृश्य बनाने में हमारी सरकारें असफल रही है। ओद्योगिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए भारत को स्वर्णिम भविष्य नहीं ले पा रहे हैं।
(६) क्या हम शिक्षा एवं चिकित्सा का व्यवसायिककरण होने से रोक पा रहे हैं?
उत्तर - नहीं, आज हम शिक्षा एवं चिकित्सा का बाजार सजते देख रहे हैं। इस स्थिति हम भारत महान का सपना कैसे देख सकते हैं?
(७) क्या हम किसान एवं मजदूर की मेहनत का सही आदर कर पा रहे हैं?
उत्तर - नहीं, जब तक भारत का अन्नदाता किसान एवं भाग्यनिर्माता मजदूर मजबूर है तब तक विश्व गुरु भारत की कल्पना ही दोषपूर्ण है।
(८) क्या हम बुद्धिजीवी एवं मध्यम वर्ग तथा समाज को जमाने की मार में पिचने से रोक पा रहे हैं?
उत्तर - नहीं, हम एक से बढ़कर एक उच्च प्रोफ़ाइल (high profile) का नागरिक चाहते हैं, लेकिन मंहगाई की मार तथा मानसिक तनाव से मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। अतः विकसित भारत का हमारा दावा खोखले आधार पर टिका हुआ।
प्रश्नों उपर्युक्त श्रंखला हमारी सरकारों की दिशाहीन गति का दर्शाती है। अतः हमें भारत के स्वर्णिम भविष्य की ओर ले चलने की अवधारणा सामाजिक आर्थिक इकाई का निर्माण कर विकास का आधार पैमाने को समझना होगा तथा हमारी अर्थव्यवस्था को प्रगतिशील उपयोग तत्व पर स्थापित करना होगा।
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करण सिंह
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