प्रउत के 16 सूत्र के दृष्टि में (In view of Prout's 16 sutras)

*समाज चक्र एवं प्रउत*
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करण सिंह राजपुरोहित
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हमारा समाज एक सुव्यवस्थित चक्र से निर्मित है। यह युगधर्म के नियमानुसार घुमता है। जिसके बल समाज में नव परिवर्तन दिखाई देते हैं। आदिकाल में व्यक्ति के पास अपना कोई समाज एवं शासन नहीं था। उसका सारा चिन्तन अपनी देह रक्षा के निमित्त होता था। उस युग को प्रउत शूद्र युग नाम दिया। व्यक्ति की शक्ति, विवेक एवं विज्ञान सभी पशुवत बुद्धि में ढ़का था। इसलिए वहाँ दूसरे के अंकुरण की संभावना नही दिखाई दे रही थी। लेकिन प्रकृति के विधान के अनुसार वह शुभ घड़ी आई तथा सर्वप्रथम पृथ्वी पर शारीरिक शक्ति संपन्न लोगों ने सारी व्यवस्था पर अपना प्रभाव दिखाया। प्रउत ने इस युग को क्षत्रिय युग नाम दिया। इस युग में शारीरिक शक्ति ही न्याय, धर्म एवं शासन का आधार थी। इसलिए शारीरिक शक्ति संपन्न व्यष्टि समाज के नायक बनकर उभरे तथा समाज का प्रथम प्रेक्षपण हुआ। काल की गति रूकने वाली नहीं थी इसलिए न्याय, धर्म एवं शासन का आधार शारीरिक शक्ति के स्थान पर मानसिक शक्ति के बल पर होने लगा। समाज के यह बौद्धिक शक्ति संपन्न लोग ऋषि के नाम से जाने जाने लगे। ऋषियों ने शास्त्र के बल शस्त्र को नियंत्रित किया तथा सम्पूर्ण समाज तंत्र विधान अपने अनुसार लिख दिया। प्रउत ने इस युग को विप्र युग नाम दिया। इस युग शूद्र एवं क्षत्रिय दोनों लेकिन ऋषियों ने शूद्र को सेवा तथा क्षत्रिय को शासन में लगा दिया लेकिन समाज की बागडोर अपने हाथ में रखी। संपदा एवं समाज को नियंत्रित करने के कारण इस युग में विप्रों का मान सम्मान चरम था। काल का चक्र रुका नहीं, यह वस्तु व्यवहार करने वालों के हाथ में आ गया। यह कृषि, व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग की नई तकनीक के बल पर समाज में प्रतिष्ठित हुए तथा धीरे धीरे विप्र, क्षत्रिय एवं शूद्रों को अपनी धन शक्ति के नियंत्रण में ले लिए समाज ने इन्हें वैश्य कहकर संबोधित किया तथा प्रउत उस युग को वैश्य युग कहता है। वैश्य युग आर्थिक जगत में पूंजीवाद नाम है। वैश्य युग के बाद भी काल का चक्र रुकता नहीं है तथा समाज चक्र घूमता रहता है‌। वैश्य युग में वैश्य की जड़ जगत केन्द्रित बुद्धि मनुष्य को पुनः अव्यवस्था अथवा कुव्यवस्था के शूद्र युग की ओर धकेल देता है। पुनः व्यक्ति अपने शारीरिक ऐशोआराम में मनुष्य का धर्म भूल जाता है तथा समाज चक्र एक पुनः शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य युग के रूप में घूमने लगता है। 

प्रउत एवं समाज चक्र

(१) वर्ण प्रधानता चक्र धारायाम् - प्रउत कहता है कि समाज चक्र की धारा वर्ण की प्रधानता को लेकर है। इतिहास का कोई युग ऐसा नहीं हो सकता है, जिस युग में समाज के चारों वर्णों में से किसी एक वर्ण की प्रधानता नहीं रही हो। अतः प्रउत सहर्ष व सहृदयता स्वीकार करता है कि समाज चक्र की धारा वर्ण विशेष की प्रधानता को लेकर चलयमान है। जिसमें शूद्र, क्षत्रिय विप्र एवं वैश्य नामक चार आर्थिक वर्ग है। जिसमें शूद्र एवं क्षत्रिय का संबंध शारीरिक क्रिया एवं शक्ति है। वही विप्र एवं वैश्य का संबंध बौद्धिक शक्ति एवं क्रिया से है। 

(२) चक्र केन्द्र: सद्विप्र: चक्र नियंता: - समाज चक्र की परिधि शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य युग से मिलकर निर्मित हुई है। उसके केन्द्र में सद्विप्र बैठकर चक्र की शक्ति का नियंत्रण करता है। सत् चरित्र एवं सद् व्यक्तित्व को सद्विप्र का पर्याय माना जाए। सद्विप्र में शूद्र सी सेवा भाव, क्षत्रिय सा साहस, विप्र सा ज्ञान एवं वैश्य सा कौशल समाविष्ट है। 

 (३) समाज चक्र की घूर्णन गति - समाज चक्र शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य की प्रधानता के निश्चित क्रम में गतिमान है। समय के साथ एक वर्ण के बाद दूसरे वर्ण की प्रधानता रहती है। इस प्रकार के परिर्वतन को स्वभाविक परिवर्तन कहते हैं। जब कभी युग विशेष में प्रधानता वाला वर्ण समाज के अन्य घटकों का शोषण करने लग जाता है तब तब सद्विप्र अपना धर्म निभाने के लिए आगे आते है। सद्विप्र द्वारा शक्ति संगठित कर समाज चक्र की गति को प्रभावित करते हैं। यह घटना उनके स्वभाव के अनुसार क्रांति, विप्लव, विक्रान्ति एवं प्रति विप्लव कहते हैं। 

(४) शक्ति सम्पातेन चक्र गति वर्धनं क्रान्ति: - सद्विप्र लोग शक्ति के सम्प्रयोग के बल स्वभाव परिवर्तन से चक्र की स्वाभाविक गति में जो वृद्धि करते हैं, उसे प्रउत की भाषा में क्रांति (evolution) कहलाती है। इस प्रकार सद्विप्र अपने प्रयास से समय से पूर्व उत्तरवर्ती वर्ण को प्रतिष्ठित कर देते हैं। 

(५) तीव्र शक्ति सम्पातेन गति वर्धनं विप्लव: - जब सद्विप्र लोग देखते हैं शोषण अतिउग्र हो गया है तब शक्ति के तीव्र संप्रयोग के बल पर समाज चक्र की अत्यधिक द्रुतगति लाते है, उसे प्रउत की भाषा में विप्लव (revolution) कहा जाता है। स्वाभाविक परिवर्तन, क्रांति एवं विप्लव में मात्र शक्ति की मात्रा तथा समय का अन्तर होता है। चक्र गति की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं होता है। लेकिन ऐसा होना असंभव नहीं है इसलिए प्रउत आगे भी कहता है। 

(६) शक्ति सम्पातेन विपरीतधारायां विक्रान्ति: - जब सद्विप्र देखते हैं कि प्रभावशाली वर्ण द्वारा समाज के अन्य घटकों शोषण करता है तथा उत्तरवर्ती वर्ण जिम्मेदारी लेने के योग्य नहीं है तब परवर्ती वर्ण की प्रभुसत्ता स्थापित कर देते हैं, उसे प्रउत की भाषा में विक्रान्ति ( counter - evolution) नाम दिया गया है। चूंकि यह समाज चक्र की गति के विपरीत होने के कारण अस्थायी होता है। अतः इसके बाद पुनः परिवर्तन की संभावना उग्र रहती है। अतः समाज चक्र आपात परिस्थिति के बाद पुनः उसी की गति से चलयमान होता है। 

(७) तीव्र शक्ति सम्पातेन विपरीतधारायां प्रतिविप्लव: - जब सद्विप्र लोग अनुभव करें कि विक्रान्ति से काम नहीं चलने वाला है तब ओर अधिक अथवा तीव्र शक्ति के संप्रयोग के द्वारा अत्यंत अल्प समय में ही परवर्ती वर्ण की प्रतिष्ठा करना प्रउत की भाषा में प्रतिविप्लव (counter - revolution) कहते हैं। यह विक्रान्ति से भी अत्यंत क्षण स्थायी हैं। 

(८) पूर्णावर्त्तनेन परिक्रान्ति: - जब समाज चक्र शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य के क्रम में पूर्णतया घूमने के बाद पुनः चक्र की नई गति को प्रउत की भाषा में परिक्रान्ति नाम दिया गया है। परिक्रान्ति शब्द का अर्थ एक बार परिक्रमा पूर्ण होने के पुनः आवृत्ति होना है। इस प्रकार समाज में आर्थिक चक्र घूमता रहता है। 

कार्ल मार्क्स ने इतिहास की भौतिक अवस्था बताकर अपने साम्यवादी दर्शन का विस्तार किया था। उसके अनुसार आदिम अराजकता एक साम्यवाद युग, दासयुग, सामंतवाद, पूँजीवाद एवं सर्वहारा का अधिनायक एक साम्यवाद। इस प्रकार एक काल्पनिक साम्य की अभिकल्पना दी थी। प्रउत के वर्ण प्रधानत युक्त समाज चक्र के साथ साम्यवाद के विकास की अवस्था को समझे तो उनका आदिम अराजकता युग प्रउत के शूद्र युग सदृश्य था, दास युग को क्षत्रिय युग कहा जाए तो सामंतवाद युग को विप्र युग कहना पडेगा तथा पूंजीवाद को विप्र युग कहने में कोई आपत्ति नहीं है। इसके बाद वह पुनः नये साम्यवाद की अभिकल्पना करता है लेकिन प्रउत उसे शूद्र विप्लव बताकर क्षत्रिय युग की ओर ले चलता है। 

प्रउत की मूल नीति अर्थव्यवस्था की आत्मा बताई जाए तथा प्रउत के सिद्धांत को मन की संज्ञा दे तो समाज चक्र अर्थव्यवस्था की काया है। उसकी रचना के अनुसार अर्थशास्त्र का अध्ययन करना होगा।

*प्रउत की मूल नीति*
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करण सिंह राजपुरोहित
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उपयोग तत्व अर्थव्यवस्था का मूल है। उसे प्रगतिशील बनाकर ग्रहण करना ही प्रउत अर्थात प्रगतिशील उपयोग तत्व का मूल है। आज हम प्रउत सिखने की कोशिश करेंगे। इसके लिए सर्वप्रथम प्रउत की मूल नीति को चित्रित करें। 

प्रउत की मूल नीति
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प्रउत की मूल नीति चतुर्थ स्तंभ से स्थापित है। इन्हें एक एक कर समझने की कोशिश करेंगे। 

(१) वैचित्र्यं प्राकृत धर्म: समानं न भविष्यति - प्रउत, अर्थव्यवस्था को पहला पाठ पढ़ाता है कि प्रकृति विचित्रता लेकर सृष्ट है, इसलिए सबको समान करने की व्यवस्था लाने का अर्थ है प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना। प्रउत, हमारे समाज को कहता है कि भविष्य में प्रकृति में सबकुछ समान होने की संभावना नहीं है। इसलिए हमारे आर्थिक सूत्र सबके लिए एक जैसे नहीं हो सकते हैं। उनमें देश, काल, पात्र के अनुसार विभिन्नता का समावेश होना आवश्यक है। यहाँ प्रउत व्यक्ति व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करता है। इसलिए तो औसत आय, औसत उत्पादन, औसत वृद्धि को अर्थव्यवस्था के दोषपूर्ण मापक बताता है। उसके स्थान पर संतुलित आय, संतुलित उत्पादन एवं संतुलित वृद्धि प्रगतिशील मापक है। दो व्यक्ति की औसत आय की गणना का दोषपूर्ण मापक एक की आय 99 रुपये तथा दूसरे की आय रुपये है। दोनों का औसत हुआ 50 रुपये। हमने अर्थव्यवस्था को सही चलने का प्रमाण पत्र दे दिया लेकिन 1 रुपये आय वाले का दर्द 99 रुपये आय वाले के दर्द में जमीन आसमान अन्तर है। लेकिन औसत आय का फार्मूला नहीं बता पता है। जबकि संतुलित आय में अधिकतम 60 40 का अनुपात रहने दे सकता है। उससे अधिक होने पर अर्थव्यवस्था दोषपूर्ण होने प्रमाण पत्र देगा। व्यष्टि का अर्थशास्त्र व्यष्टि व्यष्टि की समस्या से बनता है। अतः अर्थशास्त्रियों को कीमत, मांग, उत्पादन, उपभोग आदि के ग्राफ व्यष्टि अर्थशास्त्र की आधारभूमि पर खिंचे जाएंगे। इस प्रकार मानव तथा उसके समाज की अर्थव्यवस्था का पहला स्तंभ व्यक्ति की गरिमा को महत्व देकर बनता है। यही विशेषता भारतवर्ष के प्राचीन समाज की संरचना में थी। 

(२) युगस्य सर्वनिम्न प्रयोजनं सर्वेषां विधेयम् - युग विशेष की न्यूनतम आवश्यकता सबके लिए आवश्यक है। अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा सबके लिए जरूरी है। इसलिये इसकी व्यक्ति को गारंटी मिलनी चाहिए। इसके अभाव में समाज का गठन नहीं हो सकता है। आज की हमारी अर्थव्यवस्था ने हमारे समाज को इसलिए बिगाड़ दिया कि समाज धर्म का पालन नहीं किया। अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा के लिए व्यक्ति को अकेला छोड़ दिया तथा व्यक्ति से आशा एक अनुशासित, जिम्मेदार एवं अच्छे नागरिक होने की। अतः अर्थव्यवस्था चाहकर भी एक मानव समाज की रचना नहीं कर पाई। इसके विपरीत प्राचीन समाज की संरचना को तोड़कर रख दिया। अतः प्रउत समाज को अर्थव्यवस्था का द्वितीय अध्याय सर्वनिम्न प्रयोजनं सर्वेषां विधेयम् का पढ़ाता है। यहाँ समष्टि अर्थव्यवस्था को व्यष्टि अर्थव्यवस्था के प्रति जिम्मेदार बनाता है। यहाँ दूसरे अर्थ कहा जाए तो व्यष्टि अर्थशास्त्र को समष्टि अर्थशास्त्र में समाहित करती है। यहाँ अर्थव्यवस्था में समाजवाद के गुण दिखाई देते हैं। अर्थात समाज एक मजबूत अंग बनकर उभरता है। प्रथम मे व्यक्ति की गरिमा की रक्षा की गई तो द्वितीय में समाज की प्रतिष्ठा बनाई गई। इसलिए तो प्रउत सर्वजन हितार्थं व सर्वजन सुखार्थं है। 

(३) अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन - अर्थव्यवस्था का तृतीय पाद अतिरिक्त द्रव्य के वितरण को लेकर स्थापित किया गया है। सबकी न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के समाज धर्म का पालन करने के बाद अतिरिक्त द्रव्य का निस्तारण करने के लिए समाज के गुणी के गुण का अनुपात दिया गया है। साम्यवाद गुणी की योग्यता की रक्षा नहीं कर पाया, इसलिए मुह के बल पर गिर गया लेकिन प्रउत योग्यता की कद्र करता है तथा समाज की आवश्यकता पूर्ति के बाद शेष बची सम्पदा को गुणीजन में गुण के अनुपात में बांट देने के विवेकपूर्ण वितरण को प्रोत्साहन देता है। यद्यपि समाज के प्रत्येक व्यष्टि गुणी होता है तथापि सभी के गुण के अनुपात में भिन्नता है। अतः समाज में शिक्षक एवं चिकित्सक का सम्मान होना आवश्यक है तथा उन्हें अतिरिक्त संपदा कुछ विशेष मिलना आवश्यक है। इस प्रकार अभियंता, वैज्ञानिक, कवि, लेखक, कलाकार तथा प्रबंधक को उनके गुण के अनुपात में विशेष मिलना आवश्यक है। भारतवर्ष के प्राचीन समाज में गुणीजन का आदर था लेकिन आधुनिक समाज ने गुणी को व्यापारी बना दिया है, जो अपने गुण का मौल भाव करके बेचता है। सज्जन गुणी वाकपटुता नहीं होने के कारण कम भाव में बिकता है जबकि वाकचातुर्य युक्त खोखला गुणी भी अधिक भाव में बिक जाता है। इसलिए समाज से अच्छाई लुप्त हो गई है। प्रउत इस दर्द को पहचान कर अतिरिक्त द्रव्य पर समाज के विवेकपूर्ण वितरण का पहरा बिठाया दिया है। यहाँ व्यक्ति के विशेष गुणों नवाज जा रहा है इसलिए आदर्श व्यवस्था का निर्माण हो रहा है। 

(४) सर्वनिम्न मान वर्धनं समाज जीव लक्षणम् - समाज के सबसे निचे के मानक में वृद्धि करते रहना समाज के जीवित रहने का लक्षण बताया गया है। यदि समाज के मानक स्तर में वृद्धि नहीं की गई तो सुव्यवस्था कुव्यवस्था में बदल जाएगी, सुराज कुराज में बदल जाएगा। इसके अभाव में अच्छी एवं सच्ची सभ्यता युग की धूल चाटती हुई पाई गई है। प्रउत कहता है कि कभी भी मानक को नीचे उपर की गतिमान होता हुआ बढ़ना चाहिए। चतुर्थ श्रेणी के मानक स्तर को उपर उठाते हुए प्रथम श्रेणी के मानक स्तर को सुव्यवस्थित करना होगा। इसमें प्रतिशत का नहीं सर्वनिम्न आवश्यकता पूर्ण करने का फार्मूला लगाना चाहिए। 1000 हजार आय वाले की आय 2000 करने पर एक लाख आय वाले की आय 2 लाख करने का सूत्र नहीं लगेगा। इससे निम्न एवं उच्च आय में 1 लाख 98 हजार का अन्तर आ जाएगा जबकि पहले 99 हजार का ही अन्तर था। यह अन्तर कम होना चाहिए बढ़ना एक आदर्श अर्थव्यवस्था का लक्षण नहीं है। अतः समाज के निम्न मान एवं उच्च मान को निर्धारित करने वाली एक सुव्यवस्था समाज में स्थापित करनी होगी। लेकिन यह बात याद रखनी होगी कि सर्वसाधारण एवं गुणी की आय कुछ अंतर अवश्य रहेगा। यह शून्य किसी भी अवस्था में नहीं हो। यही समाज की सुन्दरता का लक्षण हैं। 

इस प्रकार प्रउत अर्थव्यवस्था में यह चार स्तंभ उसकी मूल नीति बनकर दृश्य है। यही प्रउत की अनुपम विशेषता है। 

आओ‌ प्रउत के नव विश्व की रचना करते हैं।

*प्रउत के पंच मूल सिद्धांत*
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करण सिंह राजपुरोहित
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प्रउत की मूल नीति के बाद प्रउत के पंच मूल सिद्धांत पर आते है। नीति शब्द का अर्थ न्याय का शासन स्थापित करने वाले नियम होता है। वही सिद्धांत का अर्थ न्याय के शासन की स्थापना के लिए जरुरी नियम है। अतः नीति एवं सिद्धांत के सूक्ष्म पार्थक्य यह है एक न्याय के साथ की आत्मा तथा दूसरा उसकी मानस है। आत्मा एवं मन का घनिष्ठ संबंध है। अतः इनको पृथक नहीं किया जा सकता है। केवल सूक्ष्म दार्शनिक अर्थ के लिए पृथक कर अध्ययन करते हैं। 

प्रउत के पंच मूल सिद्धांत
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(१) समाज आदेशेन बिना धन सञ्चय: अकर्तव्य: - मनुष्य की सबसे बड़ी आधि धन एवं संपदा का सञ्चय करने की है। वह दूसरों से अपने पास संचित धन पृथक रखता है। इसलिए प्रउत कहता है कि धन का उपभोग करने का सभी को अधिकार है लेकिन अपव्यय करने का किसी को अधिकार नहीं है। यदि एक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संपदा का आहरण करके रखता है तो निश्चित रूप दूसरों को उनके अधिकार से वंचित करता है। जिसके चलते समाज में अव्यवस्था जन्म लेती है। इसलिए प्रउत समाज को अधिकार देता है कि उनकी अनुमति के बिना किसी को भी धन सञ्चय करने का अधिकार नहीं है। इसका अर्थ है नियंत्रित धन सञ्चय को स्वीकार किया है जबकि अंधाधुंध अथवा अनियंत्रित धन सञ्चय की प्रवृत्ति समाज के स्वरूप को बिगाड़ देता है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में धन संग्रहण की अनियंत्रित स्वतंत्रता ने समाज में आर्थिक विषमता को जन्म दिया है। जिसके कारण धरती की सुन्दर तस्वीर बिगड़ गई है। कतिपय सतवृति के भामाशाहों ने अपने समाज धर्म को समझते हुए वक्त आने पर समाज के लिए सबकुछ लूटा है लेकिन अधिकांश धनिकों ने गरीब के रक्त से रक्तदीप बनाया है। अतः प्रउत सञ्चय की प्रवृत्ति को स्वीकार तो करता है लेकिन नियंत्रित करने के लिए समाज को सशक्त बनाता है। कितना सञ्चय करना है तथा कितना नहीं करना है। इसकी सीमा रेखा समाज ही तय करेगा। 

(२) स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोग: प्रकर्तव्य: विचारसमर्थितं वण्टनञ्च - प्रउत का द्वितीय सिद्धांत स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत के चरमोत्कर्ष एवं विचारपूर्ण वितरण का है। वह व्यष्टि एवं समष्टि को आदेश देता है कि जागतिक जगत ( धरती, पानी, अग्नि, वायु एवं आकाश), मानसिक तथा आत्मिक जगत में जो कुछ भी है, मनुष्य अपने उपभोग के लिए चरम उत्कर्ष करेगा तथा इससे जो कुछ भी संपदा मिलेगी उसका विचारपूर्ण वितरण करेगा, जैसा कि प्रउत की मूल नीति में समझाया गया है कि प्रथम प्राथमिक न्यूनतम आवश्यकता पूर्ति तथा द्वितीय गुणीजन में अतिरिक्त संपदा गुण के अनुपात में वितरित करना है। अतः यह सिद्धांत मनुष्य को मेहनती एवं विवेकशील बनने को कहता है। उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।। अर्थात कार्य की सिद्धि उद्यमी बनने में है, केवल वातानुकूलित में बैठकर योजना बनाने में नहीं है। इसलिए प्रउत विकास की सभी योजना धरती की कठोर माटी में बैठक बनाने की आज्ञा देता है। विकास की योजना राजधानी में नहीं कार्यस्थल पर बननी चाहिए। चरम उत्कर्ष का अर्थ है कि अपने आवश्यकता कि सभी वस्तुएँ प्रकृति में मौजूद है। मनुष्य उस चरम उत्कर्ष कर स्वयं प्राप्त करेगा, इसके दूसरों के भरोसे अथवा निष्कर्मणीय बनने से नहीं चलेगा। अतः मनुष्य को स्थूल ( भौतिक जगत) , सूक्ष्म (मानसिक जगत) तथा कारण ( आत्मिक) रुपी त्रिलोक से अपने आवश्यकता की वस्तु ढूंढ निकालनी होगी तथा एक मनुष्य होने के नाते विचारपूर्ण वितरण करके उपभोग करना है। ज्ञान एवं कर्म का अदभुत संगम यहाँ दिखाई देता है। 

(३) व्यष्टिसमष्टिशारीरमानसाध्यात्मिक सम्भावनायां चरमोपयोगश्च - प्रउत व्यष्टि अर्थात व्यक्ति तथा समष्टि अर्थात समाज की शरीर, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना का चरम उपयोग करने का आदेश देता है। प्रत्येक व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक योग्यता होती है, उसका उपयोग नहीं होने से समाज का सामाजिक आर्थिक तंत्र अस्तव्यस्त हो जाता है, अतः समाज का दायित्व है कि समष्टि कल्याण की भावना से व्यष्टि में विद्यमान इन सभी संभावना अर्थात योग्यता का चरम उपयोग अथवा अधिकतम उपयोग करें। ठीक उसी प्रकार समष्टि अर्थात समाज भी अपनी भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना अर्थात जिम्मेदारी का चरम अर्थात अधिकतम उपयोग करें। इसके बिना समष्टि का मेरुदंड टूट जाता है। प्रउत समझाता है व्यष्टि का कल्याण समष्टि की प्रगति में तथा समष्टि का कल्याण व्यष्टि की प्रगति में है। अर्थात व्यक्ति समाज के प्रति तथा समाज व्यक्ति के प्रति समर्पित रहे हैं। अतः व्यष्टि के लिए खाद्य, प्रकाश, हवा, वासगृह एवं चिकित्सा की व्यवस्था करवाना, व्यष्टि के मन में उपयुक्त समाज बोध, सेवा बोध तथा ज्ञान बोध जगाने की चेष्टा करना तथा व्यष्टि व्यष्टि में आध्यात्मिक ज्योति जगाना समाज का दायित्व है। गिनती चार पांच विद्वान अथवा आध्यात्मिक साधक होने से समाज की प्रगति नहीं होता है। अतः समाज के प्रत्येक व्यक्ति का बौद्धिक एवं आत्मिक विकास आवश्यक है। 

(४) स्थूलसूक्ष्मकारणोपयोगा: सुसन्तुलिता: विधेया: - समष्टि एवं व्यष्टि कल्याण के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमताओं के उपयोग में एक सामंजस्य ही नहीं सुसांमजस्य होना आवश्यक है। यदि किसी व्यष्टि में शारीरिक अथवा मानसिक अथवा आध्यात्मिक योग्यता में से किसी एक विकास है तो सुसंतुलित का अर्थ संबंधित योग्यता का उपयोग लेना लेकिन एकाधिक योग्यता रहने पर क्रमशः अधिक परिणाम में आध्यात्मिक तथा कम परिणाम में मानसिक तथा अत्यंत अल्प परिणाम में शारीरिक उपयोग लेना सुसंतुलन है। क्योंकि शारीरिक शक्ति से मानसिक शक्ति अधिक कारगर सिद्ध होती है। एक मानसिक क्षमता संपन्न व्यष्टि सहस्त्र शारीरिक क्षमता संपद व्यष्टियों अधिक ठोस काम कर सकता है। इसी प्रकार एक आध्यात्मिक योग्यता संपद व्यष्टि सहस्त्र मानसिक एवं शारीरिक योग्यता वाले व्यष्टियों का कल्याण कर देता है। अतः एक अच्छे समाज के लिए इसकी परम एवं चरम आवश्यकता है। 

(५) देशकालपात्रै: उपयोगा: परिवर्त्तन्ते ते उपयोगा: प्रगतिशीला: भवेयु: -प्रउत का पांचवा सिद्धांत कहता है कि देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोग नीति में परिवर्तन होता रहता है तो वह उपयोग सदैव प्रगतिशील रहता है। उपयोग तत्व जब प्रगतिशील नहीं होता है तब वह रुग्ण बनकर अर्थव्यवस्था पर भार बन जाता है तथा सभी आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाती है। इसलिए प्रउत उपयोग तत्व को सदैव प्रगतिशील बनाने के लिए देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोग तत्व को परिवर्तनशील रखता है। उदाहरण भारतवर्ष एवं अफ्रीका महादेश की भूमि एवं वातावरण एक समान नहीं अतः स्थान के हिसाब से उपयोग तत्व परिवर्तनशील रहेगा, इसीप्रकार प्राचीन काल एवं आधुनिक काल में जमीन आसमान का अन्तर है अतः प्राचीन सामाजिक आर्थिक मूल्यों तथा उपयोग में परिवर्तन आवश्यकता है। ठीक इसीप्रकार एक चिकित्सक एवं मजदूर के जगत एवं संपदा के उपयोग में अन्तर होता है इसलिए पात्र के अनुसार में उपयोग परिवर्तनशील होना आवश्यक है। अतः इस प्रकार उपयोग तत्व सदैव प्रगतिशील बना रहता है। यही अर्थव्यवस्था को आदर्श प्रतिमान तक पहुँचाता है। 

चरम उत्कर्ष, विवेकपूर्ण वितरण, संभावना का चरम एवं सुसंतुलित उपयोग तथा परिवर्तनशील उपयोग नामक पांच सिद्धांत एक अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक आर्थिक जीवन को उन्नत एवं प्रभावशाली बनाता है। 

आओ मिलकर एक आदर्श समाज की रचना करते हैं जो सारे जहाँ से अच्छा हमारा एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज हो।
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