व्यवस्था परिवर्तन (System change)

    
   व्यवस्था परिवर्तन शब्द की सरलतम परिभाषा धर्म की संस्थापना है, जिसमें एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण, प्रउत अर्थव्यवस्था की स्थापना, नव्य मानवतावादी व्यक्ति का सृजन तथा आनन्द मार्ग दर्शन की स्थापना समाविष्ट है। एक वाक्य में परिभाषित करें तो आनन्द मार्ग की संस्थापना ही धर्म संस्थापना है तथा यही व्यवस्था परिवर्तन है। 

व्यवस्था जब कुव्यवस्था हो जाए तब एक मांग उठती है, व्यवस्था परिवर्तन। यह परिवर्तन कुव्यवस्था को सुव्यवस्था में बदलता है। आज हमें व्यवस्था परिवर्तन को परिभाषित करना आवश्यक है। हमने राजतंत्र को ढहाकर लोकतंत्र की स्थापना की फिर सुव्यवस्था की स्थापना नहीं हुई। अंग्रेजों के हाथ से लेकर व्यवस्था हमारे अपनों के हाथ में दी फिर भी कुव्यवस्था सुव्यवस्था में परिवर्तन नहीं हुई। अतः व्यवस्था परिवर्तन की अवधारणा को साफ करना आवश्यक है। 

व्यवस्था शब्द का निर्माण समाज के उदभव के साथ ही हुआ है। इसलिए समाज एक व्यवस्था है। जिसमें अर्थतंत्र व राजतंत्र भी अन्य विभाग की तरह है। इसलिए मात्र राजनैतिक तथा आर्थिक क्षेत्र में कुछ समीकरण इधर उधर कर देना व्यवस्था परिवर्तन नहीं है। व्यवस्था परिवर्तन का अर्थ समाज के सम्पूर्ण तंत्र को नूतन मूलाधार पर स्थापित करना है। जिसमें राजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति तथा समाजनीति स्वस्थ एवं स्वच्छ बनती है। इसलिए भारतीय शास्त्र में कुव्यवस्था को धर्म की ग्लानि कहा गया है। जहाँ समाज हर क्षेत्र में तथा हर दृष्टि से कुल्सित हो जाता है। उस पुनः उपयुक्त स्थान पर स्थापित करना ही धर्म की संस्थापना है। यही व्यवस्था परिवर्तन की सही परिभाषा है। अर्थात व्यवस्था परिवर्तन को एक शब्द में परिभाषित किया जाए तो धर्म की संस्थापना ही व्यवस्था परिवर्तन है। अब प्रश्न पैदा हो गया कि धर्म की संस्थापना क्या है? 

धर्म को अधर्म तथा अधर्म को धर्म समझने की भूल ही धर्म की ग्लानि है तथा धर्म को धर्म तथा अधर्म को अधर्म में परिवर्तन कर समाज की व्यवस्था धर्म के हाथ में देना ही धर्म की संस्थापना है। यही व्यवस्था परिवर्तन है। अब प्रश्न आ जाता है कि धर्म क्या तथा अधर्म क्या❓धर्म किसी सत्ता के अस्तित्व को निर्धारित करने वाले लक्षण का नाम है तथा अधर्म किसी सत्ता के अस्तित्व को खत्म करने वाले लक्षण का नाम है। जब समाज शब्द के संगठन, अर्थ एवं परिभाषा के अनुकूल समाज के नीति नियम है तो समाज में धर्म राज्य है, अन्यथा अधर्म का राज है। अतः धर्मराज्य की स्थापना करना भी व्यवस्था परिवर्तन के अर्थ में समा जाता है। धर्म राज्य का अर्थ है राष्ट्र अथवा समाज के संचालन का भार सद चरित्र के हाथ में हो तथा समाज व राष्ट्र का संचालन सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ विधि विधान द्वारा हो।  ऐसी व्यवस्था का नाम श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा सदविप्र समाज नाम दिया गया है। अतः सदविप्र समाज की स्थापना करना ही व्यवस्था परिवर्तन है तथा यही धर्म की संस्थापना का संकल्प है। 

          सदविप्र समाज क्या❓
आओ पहले सदविप्र को परिभाषित करते हैं तत्पश्चात सदविप्र समाज को। सदविप्र शब्द का विन्यास सद तथा विप्र शब्द के रूप में है। जिसमें सद का अर्थ अच्छा, बेहतर तथा सर्वोत्तम है(Good, better and best) तथा विप्र शब्द का अर्थ बुद्धि प्रधान मनुष्य। अतः सदविप्र शब्द का हुआ उत्तम बुद्धि का मनुष्य है, जिसके लिए धर्म ही सबकुछ है। वह धर्म के लिए जीता है तथा धर्म के लिए मरता है। धर्म ही सत्य है तथा सत्य ही धर्म है। धर्म ही न्याय है तथा न्याय ही धर्म है। अतः एक सदविप्र की सरलतम परिभाषा यम नियम में प्रतिष्ठित (आध्यात्मिक नैतिकता में प्रतिष्ठित) एवं भूमाभाव (सार्वभौमिक चैतन्य भाव) का साधक सदविप्र है। जहाँ यम नियम तथा भूमाभाव की साधना में छेद अथवा विकल्प हो वहाँ सदविप्र नहीं रहता है। अतः सदविप्र विशुद्ध रूप से एक स्वस्थ एवं स्वच्छ मानव है। उनके समाज में सभी ऐसे व्यक्तियों का होना सदविप्र समाज के लक्षण कहलाते हैं। सदविप्र समाज शब्द का अर्थ समाज की व्यवस्था सदविप्र बोर्ड द्वारा निर्देशित, नियमित एवं संचालित हो उस व्यवस्था का नाम सदविप्र राज है तथा उस व्यवस्था को मानकर चलने वाले समग्र जनसमूह का नाम सदविप्र समाज है। यदि इस व्यवस्था से एक भी व्यक्ति अथवा राष्ट्र पृथक रहता है तो सदविप्र समाज का निर्माण पूर्ण नहीं माना जा सकता है। 

व्यवस्था परिवर्तन शब्द की सरलतम परिभाषा धर्म की संस्थापना है, जिसमें एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण, प्रउत अर्थव्यवस्था की स्थापना, नव्य मानवतावादी व्यक्ति का सृजन तथा आनन्द मार्ग दर्शन की स्थापना समाविष्ट है। एक वाक्य में परिभाषित करें तो आनन्द मार्ग की संस्थापना ही धर्म संस्थापना है तथा यही व्यवस्था परिवर्तन है। 

           नमस्कार   
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[श्री]                                    ‌"देव"
            आनन्द किरण
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2 टिप्‍पणियां:

  1. समाज का धर्म है सबको साथ लेकर चलना और व्यक्ति का धर्म है अपने स्व की पहचान करना. समाज की इकाई है व्यक्ति इसलिए धर्म की स्थापना के लिए व्यक्ति को वास्तविक अर्थों में धार्मिक होना अनिवार्य शर्त है प्रश्न है कि व्यक्ति को धार्मिक कैसे बनाया जाए क्योंकि बिना व्यक्ति को धार्मिक बन धर्म की स्थापना नहीं हो सकती व्यक्ति की अपनी न्यूनतम आवश्यकता है क्या व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति किए बिना वह धार्मिक बन सकता है तो फिर व्यवस्था परिवर्तन के वह कौन से चरण है सोपान है जिसके द्वारा व्यष्टि और समष्टि के उद्देश्य को प्राप्त कर धर्म की स्थापना किया जा सके प्राप्त कर धर्म की स्थापना किया जा सके

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    1. नमस्कार
      आपकी अच्छी टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

      व्यवस्था परिवर्तन शब्द का अर्थ ही धर्म की संस्थापना, अधर्म युक्त व्यवस्था को परिवर्तन करना धर्म है। रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा एवं शिक्षा देना भी धर्म है। अतः इसके बिना समाज एवं व्यक्ति दोनों के धर्म की संस्थापना नहीं ह़ो सकती है।

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