आनन्द मार्ग मनुष्य को उसके ध्येय तक ले जाने वाली जीवन शैली है। इसलिए आनन्द मार्ग के द्वार सभी के लिए खुले है। कोई भी व्यक्ति उपयुक्त शिक्षा एवं दीक्षा पाकर आनन्द मार्ग पर चल सकता है तथा जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। मनुष्य के आनन्द मार्ग में प्रवेश करते ही उसे देव/देवी की पदवी मिलती है। जो उसकी इच्छा होने पर सरनेम के रूप में व्यवहार कर सकता है। इसके साथ ही आनन्द मार्ग में प्रवेश करते ही मनुष्य को संस्कृत में नाम भी मिलता है। यदि पहले से ही संस्कृत में अर्थ युक्त नाम है। तो नये नाम की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन अन्य भाषा में तथा अर्थ रहित नाम होने पर उसको संस्कृत नाम प्रदान किया जाता है। चूंकि नाम व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान होती है, इसलिए देश, काल एवं पात्र के अनुसार बदलते रहते हैं। लेकिन उपाधि व पदवी व्यक्ति की पदवी है, जो नई जिम्मेदारी नहीं मिलने तक स्थायी रहती है। अतः आनन्द मार्गी की पदवी "देव" विचार करने योग्य विषय है।
देव
आनन्द मार्ग में गृहस्थ पुरुष देव तथा स्त्री देवी की उपाधि ग्रहण करते है। "देव" शब्द का अर्थ है दिव्य गुणों से विभूषित मानव है। अतः प्रत्येक आनन्द मार्गी साधारण नहीं, जिम्मेदार तथा विशेष मनुष्य है। अधिक सकारात्मक शब्द में कहा जाए तो आनन्द मार्ग अति विशिष्ट मनुष्य है। अंग्रेजी में Every Anand margii is a V V I P. प्रत्येक आनन्द मार्ग एक सेलिब्रिटी है। उसकी अपनी निजी एवं सार्वजनिक विशेषता के कारण वह जगत में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाने के लिए आया है। अतः प्रमाणित होता है कि आनन्द मार्गी गृहस्थ, देव/ देवी है।
अवधूत
आनन्द मार्ग का सन्यासी अवधूत/ अवधूतिका के नाम से जाना जाता है। अवधूत बनने की यात्रा के बीच एकाधिक पड़ाव आ सकते हैं। लेकिन सन्यासी की अन्तिम स्थिति अवधूत ही है। अब तक ज्ञात पड़ाव के अनुसार अवधूत की यात्रा के बीच ब्रह्मचारी का एक पड़ाव है। भविष्य में युग की आवश्यकता एवं अवधूत पद की मर्यादा के अनुसार पड़ाव घट एवं बढ़ सकते है। जो अभी चर्चा का विषय नहीं है। आनन्द मार्ग का अवधूत एक सामाजिक व्यक्ति हैं। इसलिए चर्याचर्य में निर्देश दिया गया है कि अवधूत व अवधूत पर्षद को पुरोधा, पुरोधा पर्षद तथा पुरोधा प्रमुख को मानकर चलना होगा है। अतः आनन्द मार्ग कोई भी सन्यासी रमता योगी नहीं बन सकता है तथा आनन्द मार्ग कोई भी सन्यासी स्वामी अर्थात मालिक की भूमिका में भी नहीं जा सकता है। क्योंकि वह पुरोधा, पुरोधा पर्षद एवं पुरोधा प्रमुख के संरक्षण में चलता है। पूर्व ही वर्णित है कि तात्विक, आचार्य एवं पुरोधा आध्यात्मिक उपाधियों के लिए गृहस्थ एवं सन्यासी का भेद नहीं है। दोनो के लिए यह द्वार खुले हुए।
देव से उच्चतर उपाधि महादेव जो परमपुरुष के लिए आरक्षित है। दूसरी ओर अवधूत को भी द्वितीय महेश्वर कहा गया है। अतः देव तथा अवधूत दोनों ही सामाजिक दृष्टि से महादेव बनने की अनुमति नहीं है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो आनन्द मार्ग में देव व अवधूत दोनों को ही परमपुरुष की श्रेष्ठता मानकर चलता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि आध्यात्मिक दृष्टि देव/देवी व अवधूत/ अवधूतिका दोनों का लक्ष्य ब्रह्म प्राप्ति है। अर्थात आध्यात्मिक दृष्टि से महादेव बनने के राही है। लेकिन सामाजिक दृष्टि से कोई भी परम सत्ता होने का दावा नहीं कर सकते हैं। अर्थात परमपुरुष ही महादेव है। देव तथा अवधूत दोनों महादेव के बाद द्वितीय उपाधि है। इसलिए समाज दोनों की हैसियत समान है। कोई बड़ा अथवा छोटा अथवा श्रेष्ठ एंव निम्नतम नहीं है। गुरूदेव की ओर से आचार्य तथा वरिष्ठ को पांव छूने का निर्देश दिया गया है। किसी भी दृष्टि से गृहस्थ को सन्यासी के पांव छूने के अधिकार का दावा पत्र नहीं है। अतः गृहस्थ एवं सन्यासी दोनों सदैव तथा हर दृष्टि से समान है।
विषय के अन्त में एक बात रेखांकित करना आवश्यक है कि गृहस्थ को सन्यासी के अभिभावक की भूमिका में रखा गया है। अतः इस दृष्टि से गृहस्थ सन्यासी से श्रेष्ठ है। लेकिन यह श्रेष्ठता केवल नैतिक दृष्टि से है। सामाजिक दृष्टि से नहीं। अतः गृहस्थ भी सन्यासी से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकता है। समाज रुपी गाड़ी के सही तथा अच्छे संचालन के दोनों पहिये गृहस्थ एवं सन्यासी का समान रहना आवश्यक है।
आओ मिलकर एक सुन्दर समाज बनाते हैं।
आओ मिलकर एक सुन्दर, स्वस्थ एवं स्वच्छ संसार बनाते हैं।
जय आनन्द मार्ग
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[श्री] "देव"
आनन्द किरण
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