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1.
साधना
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३३ के अनुसार व्यक्ति साधना का नाम धर्म साधना है। जिसका उद्देश्य सर्वात्मक उन्नति होता है। इसके लिए जगत को त्यागना नहीं होता है अपितु समस्त स्थूल, सूक्ष्म सम्पत्ति को यथोचित रुप से काम में लाना ही साधना है।
साधना के अंग - शरीर एवं मन को स्वस्थ रखकर आगे बढ़ने के लिए विज्ञान सम्मत भाव से इन क्षेत्रों में यथोचित नियमों का पालन करते चलना होता है। इसलिए साधना के निम्न अंग है।
(१) यम साधना - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पालन करते चलना यम साधना है। योग मनोविज्ञान में मनो भौतिक निर्गमन बताया गया है। मन से निकली नैतिकता जो भौतिक जगत की शुचिता के लिए आवश्यक है। उदाहरणार्थ अहिंसा मन अपनाता है, जिससे भौतिक परिवेश में शुचिता बनी रहे। आनन्द मार्ग चर्याचर्य भाग दो में यमों को परिभाषित किया गया है।
(आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड २ के अध्याय १ से)
(i) अहिंसा - मन, वाक्य और कार्य के द्वारा जगत के किसी प्राणी को पीड़ित नहीं करने का नाम अहिंसा है।
(ii) सत्य - दूसरों के हित के उद्देश्य से मन और वाक्य का जो यथार्थ भाव है, वही सत्य है।
(iii) अस्तेय - बिना पूछे दूसरों का द्रव्य ग्रहण करने की इच्छा का त्याग करने का नाम अस्तेय है। अस्तेय का अर्थ है। अचौर्य - चोरी न करना।
(iv) ब्रह्मचर्य - मन को सर्वदा ब्रह्म में रत रखने का नाम ब्रह्मचर्य है।
(v) अपरिग्रह - देह रक्षा के निमित्त जो प्रयोजनीय है। उसके अतिरिक्त सभी कुछ का त्याग करने का नाम अपरिग्रह है।
(२) नियम साधना - शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान का पालन करते चलना यम साधना है। योग मनोविज्ञान में भौतिक मानसिक आगमन बताया गया है। जिसका अर्थ भौतिक जगत की तंरगों को इस प्रकार समायोजित करना कि मन की शुचिता सदैव बनी रहे।
(आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड २ के अध्याय १ से)
(i) शौच - दो प्रकार शौच - शारीरिक स्वच्छता और मानसिक स्वच्छता बताये गये हैं।
(क) मानसिक स्वच्छता के उपाय है - जीवों पर दया, दान, परोपकार और कर्तव्य-रत रहना।
(ख) भौतिक स्वच्छता - शरीर एवं परिवेश की स्वच्छता है।
(ii) संतोष -अयाचित रुप (बिना मांगे) से जो मिले उसीमें तृप्त रहने का नाम संतोष है। हमेशा मन को प्रफुल्लित रखने की चेष्टा करना आवश्यक है।
(iii) तप -उद्देश्य साधन के लिए शारीरिक कृच्छसाधन का नाम है तप। उपवास, गुरुसेवा, माता-पिता की सेवा, चार प्रकार के यज्ञ, जैसे - पितृयज्ञ, नृयज्ञ, भूतयज्ञ, और आध्यात्म यज्ञ, तप के अभिन्न अंग है। छात्रों के अध्ययन ही तप का प्रधान अंग है।
(iv) स्वाध्याय - अर्थ समझकर, धर्मशास्त्र और दर्शन शास्त्र का पाठ का नाम स्वाध्याय है।
(v) ईश्वर प्रणिधान - सुख में, दु:ख में, सम्पद और विपद में ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखना एवं जागतिक समस्त कार्यो में अपने को यन्त्र और ईश्वर को यंत्री मानकर चलना ईश्वर प्रणिधान है।
(३) आसन - जिस अवस्था में स्थिरता से सुखी रहा जाय उसी का नाम आसन है।
आसन का प्रयोजन
(i) शरीर के ग्रंन्थिसमूह को रोग मुक्त करता है।
(ii) मन को साधना के लिए उपयुक्त बनाने में सहायता करता है।
(४) प्राणायाम - प्राणवायु के साथ मन का अभेद सम्पर्क है। वायु की चंचलता से मन चंचल और मन के चंचल होने से वायु चंचल होता है। प्राणायाम में वैज्ञानिक पद्धति द्वारा वायु नियन्त्रित होने से मन नियंत्रित होता है। इसके फलस्वरूप साधना में विशेष सुविधा होती है। यह ध्यानाभ्यास में मदद करता है।
(५) प्रत्याहार - मन को वापस ले लेना (withdrawal) प्रत्याहार है। चंचल मन जब उच्छृंखल हो किसी विशेष विषय की ओर जाता है तो उसको वापस ले आना प्रत्याहार है।
प्रत्याहार का सहज रास्ता - मार्गगुरु के उद्देश्य में वर्णार्ध्य दान प्रत्याहार का सबसे सहज रास्ता है।
(६) धारणा - चित्त को किसी विशेष देश में बाँधकर रखना धारणा (conception) कहलाता है।
(७) ध्यान - चित्त का एकधारा का नाम ध्यान है। मन की सभी वृत्तियों को ध्येय में निबद्ध रखना।
(८) समाधि - यह दो प्रकार है।
(i) सविकल्प समाधि - चित्तवृत्ति का भूमा में स्थिति होना। यह ईश्वर प्रणिधान से मिलती है।
(ii) निर्विकल्प समाधि - चित्तवृत्ति निरुद्ध होना। यह ध्यान से मिलती है।
2.
गुरु वंदना
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ४१ में गुरु वंदना के मंत्र दिया गया है। उसके सस्वर एवं निश्चित राग लय में तीन उच्चारित कर एक विशेष मुद्रा में वर्णार्ध्य दान करना गुरु वंदना है।
3.
धर्मचक्र (D.C.)
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १६ के अनुसार एकत्रित भाव से ईश्वर प्रणिधान और धर्मीय आलोचना करने का नाम धर्मचक्र है।
धर्मचक्र का विधान
(१) मिलित ईश्वर प्रणिधान करना।
(२) धर्मीय विषय पर आलोचना करना।
(३) सभा में शामिल होना।
धर्मचक्र की विधि - स्त्री पुरुष अलग-अलग उपयुक्त समान आसन में पंक्तिबद्ध बैठक एक निश्चित मंत्र की तीन बार आवृत्ति कर ईश्वर प्रणिधान एवं गुरु वंदना कर, धर्म विषय पर चर्चा करने के बाद एक सामूहिक मिटिंग करना। धर्मचक्र की शुरुआत से पूर्व प्रभात संगीत एवं कीर्तन भी किया जाता है।
धर्मचक्र की व्यवस्था
(१) प्रति रविवार निर्दिष्ट समय पर स्थानीय जागृति अथवा निश्चित स्थान पर एवं उत्सव के दिन।
(२) समाज सम्मत वस्त्र में एवं समान आसन में बैठना।
(३) अपरिहार्य परिस्थिति सप्ताह में एक वेला अवश्य जागृत में जाकर ईश्वर प्रणिधान करना अथवा उपवास कर सजा लेना।
(४) धर्मपिपासु अमार्गी भी धर्मचक्र दर्शक एवं श्रोता के रूप में जागृति परिचालक की अनुमति लेकर भाग ले सकता है।
4.
आत्म विश्लेषण
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३५ के अनुसार स्वयं द्वारा स्वयं का आचार्य के समक्ष किया गया विश्लेषण है। यदि यम-नियम के विरुद्ध आचरण हो तो उसी दिन अथवा आगामी धर्मचक्र में आचार्य के समक्ष दोष स्वीकार करना तथा दण्ड लेना आत्मविश्लेषण का अंग है।
दंड की व्यवस्था
(१) शारीरिक एवं मानसिक दंड। आर्थिक अथवा अन्य नहीं।
(२) समाज सेवा हेतु दंड, स्वयं की सेवा न लेना।
(३) दोष निवारण की व्यवस्था होने पर सावधान रहने का अनुदेश अथवा निवारण करना।
(४) गंभीर अपराध सभी सम्मुख दंड देना लेकिन दोष अभिप्रकाशन नहीं है।
(५) यम-नियम का विवरण आचार्य के समक्ष प्रस्तुत करना। दोष रहे अथवा नहीं।
5.
जागृति
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १८ के अनुसार आनन्द मार्गियों की मिलित प्रचेष्ठा से मिलित भाव से धर्मानुष्ठान करने के लिए जागृति भवन ( साधारण पूजा स्थान का निर्माण करेंगे। यह आनन्द मार्गियों की साधारण सम्पत्ति है, इसलिए उसकी पवित्रता की रक्षा करनी होगी।
6
मार्गीय सम्पद
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३४ के अनुसार उन्नत दर्शन, विश्व प्रेम, अत्युग्र एकता, पताका, प्रतीक एवं मार्गगुरु की प्रतिकृति को मार्गीय सम्पद् प्रदान किया गया है। इनकी मर्यादा की रक्षा करने का निर्देश है।
(१) आनन्द मार्ग का पताका -त्रिकोण गेरुवा रंग पताके में श्वेत स्वस्तिक चिह्न।
(२) आनन्द मार्ग का प्रतीक - उर्द्ध त्रिकोण अध: त्रिकाण के भीतर उदीयमान सूर्य और उसके भीतर स्वस्तिका। क्रमशः तेज, ज्ञान, अग्रगति एवं जय के प्रतीक।
7.
तत्व सभा
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १७ के अनुसार आनन्द मार्ग की केन्द्रीय, ग्राम एवं जिला समिति को निर्देश दिया है कि अपने सुविधा अनुसार कभी कभी प्रकट रूप से तत्व सभा का आयोजन करना है। जिसमें बाहरी लोगों को भाग लेने की अनुमति है लेकिन साधना विषयक पर आलोचना करने अधिकार उन्हें नहीं है। अतः तत्व सभा मूलतः आनन्द मार्गियों का तत्व पर खुली चर्चा है।
8.
आचार्य से सम्पर्क
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ८ के अनुसार आचार्य को मर्यादा युक्त शब्दों से सम्बोधित करना तथा आयु के अनुसार यथोचित अभिवादन करेंगे। चरण धूलि करने की व्यवस्था भी है लेकिन साष्टांग कदापि नहीं।
9.
प्रणाम विधि
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २३ केअनुसार तीन प्रकार के प्रणाम का उल्लेख है।
(१) साष्टांग प्रणाम - मात्र एवं मात्र मार्ग गुरु को किया जाने वाले प्रणाम है। जो सरलता का प्रतीक है। इसमें सीने के बल पर लेटकर प्रणाम किया जाता है। यह दंडवत नहीं है। स्व:ईच्छा से अपनी सरलता प्रकट करने के लिए किया जाता है। गुलामी प्रदर्शित करने अथवा दंड के भय से नहीं। माहिलाओं को दीर्घ प्रणाम करने की अनुमति है।
(२) चरणस्पर्श प्रणाम - लौकिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से प्रणम्य व्यक्तियों को किया जाने वाला प्रणाम, जिसमें प्रणम्य व्यक्ति के चरणस्पर्श कर, उनके चरणधूलि को अपने मस्तक के स्पर्श किया जाता है। यह प्रणाम आन्तरिक श्रद्धा प्रकट करने के लिए है। इसलिए दिखावे तथा जिससे श्रद्धा नहीं करते उन्हें यह प्रणाम नहीं किया जाता है।
(३) नमस्कार - यह सबको किया जाने वाला अभिवादन है। इसमें दोनों हाथ जोड़कर अंगुष्ठों से त्रिकुटी (आज्ञा चक्र) एवं अनहात चक्र को बिना मस्तक झुकाये परमात्मा ज्ञान का अभिवादन करने का नाम नमस्कार हैं।
विधि निषेध
(१) हाथ नहीं मिलाना - स्वास्थ्य नियम के लिए
(२) कोर्निश नहीं करना - गुलामी एवं दास्य वृत्ति का प्रतीक है।
आनन्द मार्गी किसी का गुलाम नहीं है।
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