चर्याचर्य के अनुसार आनन्द मार्ग की आदर्श व्यवस्था (Ideal system of Anand Marg according to C.C.)


 
              1.
आदर्श दायाधिकार व्यवस्था 

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २१ के अनुसार ८ बिन्दुओं में एक आदर्श दायाधिकार व्यवस्था का चित्रण किया गया है। जिसमें पिता-माता की सम्पत्ति वितरण, विधवा को सम्पत्ति में हक, पुनर्विवाह करने वाली विधवा के पूर्व पति के पुत्र का हक, स्त्रीधन का वितरण, विवाह विच्छेद स्त्री के लिए दायाधिकार, उत्तराधिकारी नहीं होने दशा में संपत्ति का निस्तारण, अविवाहित एवं नि:संतान दंपति की सम्पत्ति का निस्तारण एवं दायाधिकार व्यवस्था में बदलाव की संभावना का वर्णन मिलता है। 

(१) पिता- माता की सम्पत्ति का वितरण 

स्थावर एवं अस्थावर सम्पत्ति पुत्र पुत्री में समान वितरण करेंगे। लेकिन स्थावर सम्पत्ति पुत्री के पास उसके जीवन काल तक ही रहेगी। वह अपने पुत्रों को हस्तांतरण नहीं कर सकती है। यह पितृकुल में पुनः आ जाएगी। अर्थात बुआ को मिलने वाली दादा की स्थावर सम्पत्ति पर भतीज का अधिकार है। 

(२) विधवा का हक

स्वामी की सम्पूर्ण तथा श्वसुर, सास की सम्पत्ति में देवर, भसुर व ननद के समान हकदार हैं। निसंतान विधवा होने पर उसकी मृत्यु अथवा पुनर्विवाह करने पर देवर भसुर अथवा उनके उत्तराधिकारी हकदार होंगे। उनके अभाव में इच्छानुसार व्यवहार कर सकती है। लेकिन पुनर्विवाह करने पर निकटतम आत्मीय को मिलेगा। 

(३) पुनर्विवाह विवाह करने वाली विधवा की सम्पत्ति का वितरण - पहले पति के कुल से मिलने वाली संपत्ति पर सम्पूर्ण अधिकार पहले पति से उत्पन्न हो सन्तान का हक है। इसमें दूसरे पति से उत्पन्न संतान का कोई हक नहीं है। यदि वह अपने पहले पति की संतान को अपने पास नहीं रखती है तो पितृकुल का निकटतम आत्मीय को संतान एवं सम्पत्ति का देखभाल का अधिकार है। 

(४) स्त्री द्वारा उपार्जित सम्पत्ति का वितरण

स्वयं उपार्जित की गई संपत्ति, विवाह के समय प्राप्त उपहार, अलंकार या आनुषंगिक द्रव्य पर उसके सभी पुत्र पुत्रियों का समान हक है। 

(५) विवाह विच्छेद करने वाली स्त्री की सम्पत्ति का वितरण 

पति की सम्पत्ति के अधिकार से स्त्री तो वंचित रहेंगी, पर उस संतान के प्रतिपालन का आर्थिक भार उक्त सन्तान पिता का रहेगा। लेकिन पुनर्विवाह करने के बाद पहले पति की संतान को उसके पास रखने की अनुमति पूर्व पति से लेनी होगी। यदि पूर्व पति संतान को माता के पास रखने देता तो आर्थिक भार उसे ही उठाना होगा। 

(६) कुल की सम्पत्ति का हस्तांतरण

विल या दान पत्र छोड़कर साधारणतः एक कुल की सम्पत्ति दूसरे कुल में नहीं जाएगी। लेकिन स्त्री के भाई तथा उसके उत्तराधिकारी नहीं होने पर स्त्री के पुत्र हकदार होते हैं। 

(७) अविवाहित एवं नि:संतान दंपति की सम्पत्ति का निस्तारण

उनके कुल के निकटतम आत्मीय के अधिकार में जाएगी। 

(८) दायाधिकार की अंतिम धारा

काल के अनुसार, प्रयोजन देखकर संशोधन कर सकते हैं। 


              2.
    सामाजिक शास्ति‌ 

 आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २९ के अनुसार एक मार्गी के आचरण में त्रुटि आने पर समाज किसी सुधार करेगा। समाज की न्याय की संहिता दण्ड संहिता नहीं एक सुधार मूलक व्यवस्था है। इसलिए दण्ड सुधार के लिए होता है, न कि दंड के लिए। 

 न्याय व्यवस्था

(१) साधारण मार्गी के लिए न्यायिक प्रक्रिया

एक साधारण मार्गी के आचरण में समाज विरोधी तथ्य होने पर आचार्य अथवा उपभुक्ति प्रमुख अथवा भुक्ति प्रधान ट्रिब्यूनल के निर्णय करने का विधान है। इससे असंतुष्ट होने पर महासचिव(G.S.) के अन्तिम क्षेत्राधिकार में जाएगी। 

(२) आचार्य के लिए न्यायिक प्रक्रिया

अभियुक्त आचार्य होने पर आचार्य पर्षद के सचिव द्वारा बुलाई गई ट्रिब्यूनल दण्ड विधान करेगा। 

(३) जीवनदानी (WT) कार्यकर्ता के लिए न्यायिक प्रक्रिया

अभियुक्त जीवनदानी (WT) कार्यकर्ता होने पर संबंधित विभाग एवं अभियुक्त जीवनदानी (WT) आचार्य कार्यकर्ता होने पर संबंधित विभाग ट्रिब्यूनल बैठाएगा लेकिन निर्णय आचार्य पर्षद द्वारा ही किया जाएगा। 

(४) शाखा प्रमुख के लिए न्यायिक प्रक्रिया

यदि अभियोग किसी शाखा प्रमुख के विरुद्ध हो तो महासचिव (GS) अथवा उसके देखरेख में निर्वाचित ट्रिब्यूनल करेगा। 

       दंड विधान
 उपवास अथवा अन्य कोई पाप का प्रायश्चित करने वाला दंड केवल अपराधी को दिया जाएगा। उसके परिवार को नहीं। त्रुटि दूर होने पर दंड व्यवस्था हटा दी जाएगी। 


            3.
      अर्थ-नीति 

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २८ के अनुसार अर्थ-नीति के आदर्श का वर्णन किया गया है। 

(१) जिसमें जगत समस्त सम्पत्ति का व्यवहार मिलकर करने की व्यवस्था दी गई है। बताया गया कि जगत सम्पत्ति का व्यवहार करने का सबका अधिकार है लेकिन अव्यवहार तथा अपव्यवहार करने का अर्थ है। विश्वपिता की अवज्ञा करना है। 

(२) समाज शोषकों को मानसिक व्याधिग्रस्त बताया गया है। इन्हें सत्पथ पर लाकर अथवा परिस्थिति का दबाव डाल कर स्थायी रूप मानसिक व्याधि से दूर करने का सुझाव है। अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक पथप्रदर्शन कर समाज में सच अर्थ-नीति व्यवस्था स्थापित करने का निर्देश है। इसमें बताया गया कि मनुष्य में सुधार के लिए उसके प्रति वास्तविक प्रेम आवश्यक है। 


            4.
    जीविका निर्वाह

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २६ के अनुसार सभी को जीविका ग्रहण करनी है।

(१) पराया अन्न खाने से मलाकर्षी का जीवन श्रेय बताया गया है।

(२) इसके अपने आमदनी का पचासवाँ भाग जनसेवा में लगाने चेष्टा करने की बात कही गई है। अन्यथा परिवार में तामसिकता आ जाती है। 

(३) ललित कला अर्थापार्जन के लिए नहीं है। परन्तु किसी कारण वैकल्पिक व्यवस्था आचार्य ले सकते हैं। 


           5.
  नारी की जीविका 

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २७ के अनुसार नारी को अर्थोपार्जन के लिए निम्न निर्देश है। 

(१) बुनाई, सिलाई, पशुपालन तथा खेती छोटे काम बताये अर्थात घर में रहकर अर्थोपार्जन नारियों के लिए वाँछनीय है। 

(२) इस तरह से समस्या का समाधान न होने पर घर से बाहर नौकरी या व्यवसाय इत्यादि कर सकती है। इस संबंध कोई कुसंस्कार एवं रूढ़िवादिता का भाव उचित नहीं बताया गया है। 


             6.
    पोशाक परिच्छेद

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २५ के अनुसार पोशाक परिच्छेद के संदर्भ में निम्न निर्देशन दिये गये हैं। 

(१) अपनी सुविधानुसार अपने पसंद का पहनावा ओढ़ावा व्यवहार करने की व्यवस्था है। वस्त्र को परिष्कृत रखने का निर्देश है। 

(२) स्त्रियाँ घर से बाहर निकलते समय खूब साधारण और सदा वस्त्र से शरीर को अच्छी तरह ढँककर बाहर निकलेंगी। 

(३) अभिभावक एवं सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था होने पर पोशाक की कठोरता कम की जा सकती है।

(४) अलंकार के संबंध में भी यही निर्देश है। 


             7.
          विधवा

 आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३० के अनुसार विधवा नारी के खाद्य, अलंकार, पोशाक तथा मंगल अनुष्ठान संक्रांत, व्यापार में किसी भी प्रकार का निषेध नहीं है। साधना कारण कोई खाद्याखाद्य का विधि निषेध मानकर चलने में कोई एतराज नहीं है। 


                8.
स्त्री पुरुष का सामाजिक संपर्क

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २२ के अनुसार स्त्री पुरुष का सामाजिक संपर्क के संदर्भ निम्न निर्देशन जारी किये गए हैं। 

(१) पुरुष और स्त्री समान सम्मान के भागी मनुष्यमात्र हैं। 

(२) चूंकि नारी की शारीरिक शक्ति पुरुषों से कम होती है इसीलिए यह पुरुषों का दायित्व है कि नारी के सम्मान की रक्षा करें। 

(३) पुरुष की जन्मदात्री होने के नाते नारी यह दावा का सकती है। उत्सवों, आध्यात्मिक सभाओं और अन्यत्र महिलाओं की सुविधा का ध्यान रखना पड़ेगा।
 
(४) पुरुष और नारी आवश्यकता होने पर मिल सकते हैं, सभाओं और अधिवेशनों में एक साथ भाग ले सकते हैं और एक दूसरे के निकट बैठ सकते हैं। किन्तु वे वृथा वार्तालाप नहीं करेंगे क्योंकि इसका परिणाम अच्छा नहीं है। 

(५) स्त्री का मित्र स्त्री और पुरुष का मित्र पुरुष होंगे। जितनी ही ज्यादा स्त्री और पुरुष की दूरी होगी उतना ही ज्यादा उनके आपसी बातचीत और व्यवहार में सम्मान का भाव होगा। 

(६) अपरिचित तथा समान्यतः स्त्री को बातचीत करते समय माँ दीदी या बेटी कह संबोधित करोगे। सबसे अच्छा संबोधन माँ है। लेकिन किसी कारण यह उपयुक्त नहीं होने दीदी अथवा बेटी कहना उचित है। 



            9.
विज्ञान तथा समाज

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३१ के अनुसार विज्ञान समाज का मित्र हैं। लेकिन विज्ञान के लिए निम्न निर्देशन है। 

(१) विज्ञान को सर्वदा जनकल्याण में लगना। 

(२) विज्ञान की ध्वंसकारी शक्ति को लेकर काम करते हैं, वे मानव जाति के शत्रु हैं।

(३) सात्विक भाव लेकर विज्ञान को प्रोत्साहन देना। 

(४) विज्ञान तथा जगत की शक्ति जब तक सत्त्वगुणियों के हाथ में नहीं जाएगी तब तक जीव की सामग्रिक उन्नति दूर ही रहेगी। 


            10.
       आदर्श गृहस्थ

आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ३२ के अनुसार आदर्श गृहस्थ को दायित्व दिया गया है कि मनुष्य और पशु का अन्न द्वारा प्रतिपालन करना है। 

(१) आर्त और अतिथि के संदर्भ में दायित्व

(i) आर्त और अतिथि की सेवा से पराड्.मुख नहीं होना। 

(ii) आर्त और अतिथि की कुल, शील, धर्मगत विचार नहीं करना। 

(२) पशु-सेवा के संदर्भ में दायित्व

(i) दूध देने वाली पशु को मातृतुल्य देखकर सेवा करना। 

(ii) दूध देने की शक्ति नष्ट होने पर भी उसका अनादर एवं हत्या नहीं करना। 

(३) भिखारी की सेवा के संदर्भ में निर्देश

(i) भिखारी सेवा की सर्वश्रेष्ठ पद्धति तैयार खाद्य खिलाना। 

(ii) घर में तैयार खाद्य नहीं होने पर खाद्य वस्तु (चावल, दाल, आटा, कोई भी कच्चा शाक- सब्जी) देना। 

(iii) आवश्यकता बोध होने से उसको चिकित्सा, वस्त्र और आवास की व्यवस्था करना। 

(iv) जब तक राष्ट्र भिखारी की समस्या का दायित्व नहीं लेता तब तक यह दायित्व गृहस्थ को ही लेना होगा। 

(v) भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देना लेकिन वास्तव में दुखी है उनकी सेवा करना गृहस्थ का दायित्व है। 

(vi) भिखारी को पैसा नहीं देना है, क्योंकि इससे भिक्षा व्यवसाय का प्रलोभन हो सकता है।
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