1.
शिशु का जातकर्म
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १ के अनुसार एक आनन्द मार्गी शिशु का नामकरण, अन्नप्राशन, दीक्षा प्रणाली तथा आनन्द मार्ग में नवप्रवेशी व्यक्ति के नामकरण एवं दीक्षा प्रणाली की विधि प्रधान करता है।
(१) शिशु का नामकरण, अन्नप्राशन एवं दीक्षा प्रणाली
आनन्द मार्ग में नव शिशु में ब्रह्म का व्यापक विकास देखने की विधि का नाम जातकर्म है। इसलिए जातकर्म में सर्वप्रथम मधुवता मंत्रोच्चारण कर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की जिम्मेदारी लेते हैं। इसके बाद उसमें ब्रह्म का विकाश देखकर संस्कृत में शिशु के उपयुक्त नाम की घोषणा करते हैं। उसके बाद यह शिशु दुनिया में उस नाम से जाना जाता है। विधान के अनुसार ६ माह से १ वर्ष की आयु के भीतर कम से कम ५ गुरुभाई मिलकर नामकरण की विधि करते हैं। जिसमें नेतृत्व आचार्य करते हैं इनकी अनुपस्थिति में वयोवृद्ध को जिम्मेदारी दी गई है। मंत्रोच्चारण तथा मिलित प्रचेष्ठा से पवित्र किये गए जल से शिशु को स्नान कराकर प्रथम बार ठोस अन्न दिया जाता है। पांच वर्ष की आयु में माता, पिता, भ्राता, भगिनी अथवा कोई भी अभिभावक द्उ नाम-मंत्र की दीक्षा देने का विधान है। 12 वर्ष की अवस्था आचार्य द्वारा साधारण योग तथा 16 वर्ष की अवस्था में सहज योग की दीक्षा देने का विधान है।
(२) नये आनन्द मार्ग का नामकरण एवं दीक्षा
जिस व्यक्ति का जन्म आनन्द मार्ग परिवार में नहीं हुआ है। उसके आनन्द मार्ग में प्रवेश के समय दीक्षा एवं नामकरण का विधान है। यदि उसकी आयु 12 वर्ष अधिक उनको नाम-मंत्र की दीक्षा आचार्य, तात्विक और धर्ममित्रम् आदि बिना पारिश्रमिक के देंगे उसके बाद साधारण, सहज इत्यादि योग नियमानुसार प्राप्त करेगा। यदि नव दीक्षार्थी का नाम संस्कृत में नहीं है तो संस्कृत में नामकरण किया जाने का विधान है। इसके साथ वह देव की पदवी से विभूषित हो जाता है। यद्यपि पदवी के संदर्भ में स्वतंत्रता है लेकिन देव सर्वोत्तम पदवी बताई गई है।
(३) दीक्षा दान - आचार्य प्रतीक सामने रखकर दीक्षा देते हैं।
(i) विशेष योग - पुरोधा सिखाते हैं।
(ii) सहज योग - आचार्य सिखाते हैं।
(iii) साधारण योग - आचार्य सिखाते हैं।
(iv) प्रारंभिक योग -आचार्य सिखाते हैं।
2.
जन्मतिथि कृत्य
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १४ के अनुसार मिलित ईश्वर प्रणिधान कर गुरुजनों का आशीर्वाद और मंगल तिलक व कनिष्टों प्रणाम और माल्य चन्दन उपहार आहार्य ग्रहण करना। धूप-दीप, शंखध्वनि वैकल्पिक है।
3.
विवाह विधि
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १३ के अनुसार घर व विवाह स्थल की आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार सजावट कर उत्सव का रुप देते हुए कम से कम 10 व्यक्तियों की उपस्थिति में विवाह विधि संपन्न करने का विधान है। वर वधू एक दूसरे के सम्मुख बेठते है। दोनों पक्ष के आचार्य अथवा कोई भी वयोजेष्ठ व्यक्ति को पौरोहित्य कार्य सौपा गया है। इसमें प्रीतिभोज की व्यवस्था वैकल्पिक है। उधार लेकर प्रीतिभोज करना निषेध किया गया है।
(१) विधि
सर्व प्रथम ईश्वर प्रणिधान कर पहले वर पक्ष का आचार्य ओम मधुवता मंत्रोच्चारण के वर को तथा वधूपक्ष की आचार्या वधू को भौतिक उत्तरदायित्व ग्रहण करने की शपथ दिलाता है। तत्पश्चात मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की दोनों को बारी बारी से शपथ दिलाई जाती है। इसके बाद उपस्थित जन नव दंपति के सर्वात्मक उन्नति में सहायक होने की शपथ लेते हैं। इसके बाद तीन बार माला अथवा फूल का आदान प्रदान करेंगे। उसके बाद सिन्दूर इत्यादि रिवाज कर नव दंपति आचार्य एवं अभिभावकों का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।
(२) विवाह संबंधित कतिपय निर्देश
चर्याचर्य में विवाह से संबंधित १२ निर्देशों में जाति बंधन, दहेज इत्यादि कुरितियों मुक्त रखा गया है। वही वंश एवं सदगुण देखने तथा युवक- युवती की मंजूरी लेने जैसे सोच ने विवाह आदर्श एवं व्यवहार से जोड़ दिया है। वर वधू के चयन में पात्र-पात्री को स्वतंत्रता देना तथा विधवा व परित्यक्ता सम्मान से जीने के लिए पुनः विवाह में आगे आने वाले साहसी एवं जिम्मेदार पुरुष को सम्मानीय स्थान प्रदान किया है तथा उनके पौरुषेय का आदर करता है। पुरुष की विवाह संबंधित स्वेच्छारिता पर समाज की लगाम लगाई है तथा किसी भी संतान जारज मानने की संभावना ही निषेध की गई है। विवाह विच्छेद का एक विकल्प आदर्श युक्त बनाया गया है।
4.
शव(मृतदेह) सत्कार
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १९ के अनुसार मृतदेह के दाह का समर्थन किया गया है लेकिन इच्छा होने पर गाढ़ा भी सकता है। इसके लिए भी निर्देशावली दी गई है।
निर्देश
ईश्वर प्रणिधान कर नि:शब्द शव वहन, मृतदेह के सम्मान रक्षा करना तथा शवदाह का शारीरिक एवं आर्थिक दायित्व समाज को प्रदान किया गया है।
5.
श्रद्धानुष्ठान
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २० के अनुसार श्राद्ध से विदेही आत्मा एवं मन कोई फायदा नही होता है। यह श्राद्धकर्ताओं को मानसिक तृप्ति के लिए होता है।
विधि
ओम मधुवता मंत्रोच्चारण के साथ आचार्य एवं कम से कम पांच स्वस्थ और श्राद्धकर्ता मृतक आत्मीयज को परमपुरुष की गोद सौप कर अपने कर्तव्य बंधन से मुक्त होने के एक मानसिक प्रणाली को श्रद्धांजलि के रूप प्रदान किया गया। इसमें सभी को सचेत होने को कहा गया है कि एक सभी इस ओर जाना है। इसके मंत्रोच्चारित जल को ग्रहण करते हैं
निर्देश
मृतक भोज आयोजित करने का निर्देश नहीं है, वही श्राद्धान्न से पृथक रहने चर्याचर्य भाग द्वितीय में निर्देश है। १२ दिन भीत लोक दिखावा रहित श्राद्धकर्म आयोजित करने की व्यवस्था है। वैकल्पिक अथवा इच्छा होने पर उन्नत जाति का सांढ़, भैसा इत्यादि नर पशु जनकल्याण के लिए दान किया जा सकता है लेकिन यह प्रथा नहीं है। इस पशु हत्या घोरतम समाज विरोधी बताया गया है।
6.
निमंत्रण विधि
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय २४ के अनुसार निमंत्रण स्वयं, परिजन अथवा घर उचित प्रतिनिधि घर जाकर देना सर्वोत्तम माना गया है। उपहार निषेध है, यदि इच्छा हो तो फूल के अतिरिक्त कुछ नहीं दिया जा सकता है। अति इच्छा होने पर एकांत में अन्य दिन उपहार देना होगा अथवा वह कार्य समाज विरोधी माना जाता है।
7.
यात्रा प्रकरण
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १२ के अनुसार गुरु मंत्र के द्वारा ब्रह्मभाव लेकर यात्रा शुरू करना। किसी प्रकार की तिथि नक्षत्र पर विचार नहीं करना उचित बताया गया है।
8.
शिलान्यास
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ९ के अनुसार मिलित ईश्वर प्रणिधान करके प्रधान व्यक्ति के हाथ ईंट स्थापित कराते हुए सभी लोग शुभायु का मंत्र बोलकर मधुवता का संकल्प लेकर एक मधुमय कुटीर के शीध्र निर्माण की आश करते हैं।
9.
गृह प्रवेश
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १० के अनुसार सुसज्जित घर में उषाकाल में सर्वप्रथम गृहणी, तत्पश्चात घर की अन्य स्त्रियाँ गृह में गुरु मंत्र लेकर प्रवेश करती है। उनके द्वारा शंख ध्वनि करने पर घर के पुरुषगण अपने साथ आमंत्रित पुरुष एवं स्त्रियों को साथ लेकर प्रवेश करते हैं। फिर मिलकर ईश्वर प्रणिधान कर मधुवता मंत्रोच्चारण के साथ गृह, गृहवासी, पड़ोसी के मधुमय होने की शांति वाणी का प्रसारण करते हैं।
10.
वृक्ष रोपण
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय ११ के अनुसार गुरु मंत्र के जप के साथ वृक्ष रोपण कर जल सिंचते वक्त मधुवता मंत्रोच्चारण के साथ वृक्ष, वृक्ष का सामिप्य प्राप्त करने वालों के मधुमय रहने की वाणी प्रचारित की जाती है।
निर्देश - तुलसी, नीम, अशोक, युकेलिप्टस् आदि विशेष उपकारी वृक्षों को ओर फल, छाया, तरु आदि वृक्षों का यत्नपूर्वक श्रद्धा के साथ पालन करने का निर्देश है।
11.
सामाजिक उत्सवानुष्ठान
आनन्द मार्ग चर्याचर्य खंड प्रथम के अध्याय १५ के अनुसार वैशाखी पूर्णिमा आनन्द पूर्णिमा के रूप में, श्रावण पूर्णिमा, आश्विन शुक्ला षष्ठी से दशमी पर्यन्त शरदोत्सव के रूप में, कार्तिक अमावस्या दीपोत्सव (दीपावली) के रूप में, कार्तिक शुक्ला द्वितीया भ्राता द्वितीया के रूप में नव फसल के आने पूर्णिमा को नवान्न के रूप में, एक जनवरी तथा स्थानीय पंचाग की प्रतिपदा को नववर्ष के रूप में तथा फाल्गुन पूर्णिमा को बसन्तोत्सव के रूप में सामाजिक उत्सव के रूप में स्वीकृति मिली है। इन आठों उत्सव को आनन्दानुष्ठान के रूप आयोजित करने की व्यवस्था करने का विधान दिया गया है।
(१) वैशाखी पूर्णिमा ( आनन्द पूर्णिमा)
• मिलित स्नान एवं स्नान मंत्र।
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (दोनों वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• मिलित भोज (दोनों वेला)
• आनन्दानुष्ठान
• तत्व सभा
• कार्यकर्ताओं का वार्षिक सम्मेलन
• खेलकूद ( बच्चों के लिए)
(२) श्रावणी पूर्णिमा
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (दोनों वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• मिलित भोज (दोनों वेला)
• आनन्दानुष्ठान
• तत्व सभा
• साहित्य सभा
• मिलित शोभायात्रा
(३) शरदोत्सव
(i) शिशु दिवस (आश्विन षष्ठी)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (एक वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• मिलित भोज (बच्चों के)
• आनन्दानुष्ठान
• शिशु स्वास्थ्य प्रदर्शनी
• शिशु क्रीड़ा प्रदर्शनी
(ii) साधारण दिवस (आश्विन सप्तमी)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (एक वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• आनन्दानुष्ठान
• युवक स्वास्थ्य प्रदर्शनी
• युवक क्रीड़ा व शक्ति प्रदर्शनी
(iii) ललित कला दिवस (आश्विन अष्टमी)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (एक वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• आनन्दानुष्ठान
• साहित्य-सभा
• कविता-पाठ
• चित्रांकन प्रदर्शनी
• नृत्य प्रदर्शनी
• अन्य ललित कला प्रदर्शनी
(iv) संगीत दिवस (आश्विन नवमी)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (एक वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• आनन्दानुष्ठान
• कंठ एवं वाद्य संगीत प्रतियोगिता
• संगीत-नृत्य प्रतियोगिता
(v) विजयोत्सव (आश्विन दशमी)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• सहभोज
• आनन्दानुष्ठान
• प्रणाम
• आलिंगन
• अतिथि-सत्कार
(४) दीपावली ( कार्त्तिकी अमावस्या)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान (एक वेला)।
• मिलित वर्णार्ध्यदान।
• आनन्दानुष्ठान
• रोशनी (घर पर)
• अतिथि सत्कार
• अभ्यागत-सत्कार
(५) भ्रातृ द्वितीया ( कार्तिक शुक्ल द्वितीया)
• बड़ी बहिन से आशीर्वाद
• छोटी बहन से प्रणाम, चन्दन और माला ग्रहण
• सहभोज
• मंत्रोच्चारण
(६) नवान्न (पूर्णिमा प्रधान फसल के नव आगमन की)
• कम से कम एक अतिथि को आमंत्रित करके खिलाना।
• उसके साथ ईश्वर प्रणिधान करना।
• सम्मिलित आनन्दानुष्ठान
(७) नववर्ष दिवस (१ जनवरी अथवा स्थानीय पंचाग की प्रतिपदा)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान ( दोनों वेला)
• मिलित वर्णर्ध्यदान ( दो वेला)
• आनन्दानुष्ठान
• मिलित भोज ( दो वेला)
• खेलकूद ( सभी के साथ)
(८) वसन्तोत्सव (होलिकोत्सव फाल्गुन पूर्णिमा)
पूर्वाह्न का कार्यक्रम
(अपने अपने घर पर)
• रंग एवं फूल लेकर सम वयस्क के साथ खेलना।
• बड़ों एवं आचार्य को रंग व फूल पांव में देना।
• छोटों को बड़े रंग एवं फूल नहीं देंगे।
अपराह्न का कार्यक्रम
(मिलित रूप से)
• मिलित ईश्वर प्रणिधान
• मिलित वर्णर्ध्यदान (अबीर अथवा मन पसंद रंग के फूल से)
• छोटे-बड़े, आचार्य शिक्षा भाई का विचार किये बिना अबीर व फूलों से खेलना। पांव में अबीर एवं फूल देना मना है लेकिन खेलते वक्त पांव लग जाए दोष नहीं है।
• स्त्री एवं पुरुषों के लिए खेलने की व्यवस्था अलग हो।
विशेष द्रष्टव्य
(१) पारिवारिक अथवा सामाजिक उत्सवों में सुविधानुसार परिवर्तन किया जा सकता है।
(२) स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों ही वर्णर्ध्यदान का मूल्य समान है। देखाने के उद्देश्य कुछ भी नहीं करना है।
(३) सभी पारिवारिक उत्सव में धर्म चक्र तथा सामाजिक उत्सव में धर्म चक्र के साथ तत्व सभा अनुष्ठान आवश्यक है।
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