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[श्री] आनन्द किरण "देव''
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जो धर्मकी रक्षा करता है, उसकी रक्षा स्वयं धर्म करता है। (Who protects Dharma, Dharma itself protects it.) भारतीय शास्त्र यह वाक्य व्यक्ति को धर्म की रक्षा करने की प्रेरणा देता है। इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न होता है कि धर्म क्या है?(What is Dharma?) धर्म एक संस्कृत शब्द है। जो धृ धातु के मन प्रत्यय लगने से बना है। धृ धातु का शाब्दिक अर्थ धारण करना। यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि क्या धारण करना। इसलिए भावार्थ की ओर जाते हैं। वह गुणधर्म या निजी विशेषता अथवा लक्षण जिसके कारण उस तत्व का अस्तित्व है, वह धारण करना ही धर्म है। इस प्रकार धर्म शब्द के अर्थ से स्पष्ट होता है कि अंग्रेजी शब्द Religion उर्दू शब्द मजहब तथा सम्प्रदाय से धर्म का कोई संबंध नहीं है। धर्म के लिए उर्दू शब्द ईमान तथा अंग्रेजी शब्द Specific characteris निकटवर्ती शब्द है। मनुष्य के संदर्भ में धर्म शब्द का अध्ययन करें तो पाएंगे कि मनुष्य की वह निजी विशेषता अथवा गुण जिसके कारण उसे मनुष्य पद वाच्य किया जाता है। अन्य शब्दों में कहा जाए तो वह लक्षण जिनके अभाव वह मनुष्य पद वाच्य नहीं होता है। अतः हम मनुष्य शब्द के बारे में विचार करते हैं। मनुष्य शब्द मनु शब्द से आया जिसका अर्थ है मन प्रधान जीव अर्थात मननशील जीव। जो मनन व चिन्तन कर आचरण करता है। अन्य शब्द में कहा जाए तो जिसके पास विचारशील मानसिकता है। जो भाव प्रवणता, भावावेश के आवेग में नहीं, विवेकपूर्ण विचार विमर्श कर निर्णय लेने की क्षमता रखता है, वह मनुष्य है। अब मनुष्य के संदर्भ में धर्म का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि जो मानवीय गुणधर्म है, वही मानव का धर्म है। जिसे मानवता विशुद्ध अर्थ नव्य मानवता कहते हैं। मानवता जहाँ इंसानों तक ही सीमित है वही नव्य मानवता चराचर जगत से भी उपर ले जाती है। इसका शाब्दिक रूप बड़प्पन, वृहद तथा विराट है। इसलिए आनन्द सूत्रम में आया है कि वृहदेषणा प्रणिधानं च धर्म: वृहत् को पाने के लिए चेष्टा करता है ओर तज्जन्य ईश्वर प्रणिधान करता है तब उस भाव का नाम धर्म है। सरल शब्द में ब्रह्म बनने के अभिलाषा और उसका प्रणिधान करना, यह भाव ही धर्म है। अर्थात मनुष्य के वे गुणधर्म जो उसे ब्रह्मत्व प्रदान कर सके, वे गुणधर्म मनुष्य का धर्म है। वे तत्व जिन पर चलकर मनुष्य भगवान बन सके वही मनुष्य का धर्म है। शास्त्र में इसके चार स्तर बताये गए है- क्रमशः विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति। अतः मानव धर्म का संस्कृत में भावगत शब्द भागवत धर्म हुआ। अर्थात मनुष्य का धर्म है विकास अथवा प्रगति करना, आनन्द में रहना, सेवा भाव रखना तथा मोक्ष प्राप्त करना। यह मानव धर्म के चतुष्पाद है। इसके बल अणु भूमा पद प्राप्त करता। बिन्दु सिन्धु में रुपांतरित हो जाता है। जीव शिव बन जाता है तथा क्षुद्र महत् बन जाता है। अर्थात मनुष्य का धर्म है। वह सभी मानवीय गुण जिसके कारण उसका आचरण देवतुल्य हो। मनुष्य की पूर्णत्व की यात्रा को आनन्द मार्ग कहते हैं तथा पूर्णत्व प्राप्ति के लिए विस्तार, रस, सेवा तथा तद स्थिति का जो व्रत लिया गया है, वह उसका धर्म है। मनुष्य को भगवान बनाने वाले गुण भागवत है तथा यही भागवत धर्म है।
अब मूल विषय पर आते है - धर्म रक्षति रक्षितः। जो धर्म की रक्षा करता अर्थात जो धर्म का पालन करता है अथवा धर्म को मानता है। धर्म उसकी हर पल रक्षा करता है। यहाँ धर्म शब्द का अर्थ न्याय, नीति, सत्य एवं शुभ लक्षण हैं। जो न्याय, सत्य, नीति तथा शुभ लक्षणों को मानकर चलता है। वही धर्मराज है। जहाँ इसकी चर्चा एवं रक्षा होती है, वह धर्म सभा है। जिस परिवेश में इसका पालन, संवर्धन एवं संरक्षण होता है, वह धर्म राज्य, रामराज्य अथवा सदविप्र राज है। अतः धर्म पर चलने वालों की रक्षा धर्म करता है, ऐसा ईश्वर का विधान है। यही शास्वत सत्य विज्ञान है। इसलिए मनु स्मृति में न्यायकर्ता को धर्म रक्षति रक्षितः का पाठ पढ़ाया गया है। महाभारत में कर्तव्यपरायणता, कर्तव्यनिष्ठा को धर्म रक्षति रक्षितः का पाठ पढ़ाया गया है। आज के युग में सभी मनुष्य को धर्म रक्षति रक्षितः का पाठ पढ़ना आवश्यक है।
धर्म का यह पाठ बताता है कि जातिवाद, सम्प्रदायवाद, धर्मांधता, मजहबी उन्माद एवं रिलिजन की जकड़ता का धर्म से कोई संबंध नहीं है। अपने सम्प्रदाय, जाति, नस्ल एवं रंगभेद के संकीर्ण उद्देश्य की पूर्ति धर्म नहीं है। इसके लिए मरना अथवा लड़ना धर्मयुद्ध नहीं है। धर्मयुद्ध सत्य, नीति, न्याय एवं अच्छाई के लिए संघर्ष करना है। सत् पथ पर चलने में यदि मृत्यु भी आती है तो धर्मयुद्ध के योद्धा का पुरुस्कार मोक्ष बताया गया है। अर्थात मोक्ष प्राप्ति होगी। मोक्ष अर्थात ब्रह्म प्राप्ति करना। अतः धर्म रक्षति रक्षितः का पथ सर्वश्रेष्ठ पथ बताया गया है।
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